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बनगार
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बध्याय
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आरुवादिक तत्वोंका स्वरूप भले प्रकार समझकर श्रद्धान करना चाहिये। जो मंदज्ञानी हैं उनको आज्ञानुसार-तत्वोंके स्वरूपके विषय में जो भगवान्ने कहा है वह सब सत्य है; क्योंकि वह श्री जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ है; जो कि सर्वज्ञ वीतराग होनेके कारण अन्यथाभाषी नहीं हैं-समस्त द्रव्यों व तत्वोंका श्रद्धान करना चाहिये । किंतु आत्मरुचिको बढाने और दृढ करनेका प्रयत्न दोनोंको ही विशेष रूपसे करना चाहिये; क्योंकि इसके विना आत्मकल्याणके सभी कार्य व्यर्थ हैं ।
जीव पदार्थ स्वरूपका विशेष रूपसे ज्ञान कराते हैं:जीवे नित्यर्थसिद्धिः क्षणिक इव भवेन्न क्रमादक्रमाद्वा, नामूर्ते कर्मबन्ध गगनवदणुद् व्यापकेऽध्यक्षबाधा । नैकस्मिन्नुद्भवादिप्रतिनियमगतिः क्ष्मादिकार्ये न चित्वं, यत्तन्नित्येतरादिप्रचुरगुणमयः स प्रमेयः प्रमाभिः ॥ २६ ॥
जिस प्रकार जीवके सर्वथा क्षणिक माननेसे, जैसी कि बौद्धादिकोंकी कल्पना है, अर्थसिद्धि-कार्य की निपत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार सर्वथा नित्य माननेसे भी, जैसी कि यौगादिकोंकी कल्पना है, अर्थ-क्रियाकी सिद्धि नहीं हो सकती । जिसमें कि पूर्वाकारका विनाश, उत्तराकारका उत्पाद और सामान्य आकारका अवस्थान पाया जाता है ऐसे परिणमनके द्वारा ही कार्यकी सिद्धि हो सकती है । अत एव यदि यह माना जाय कि जी सर्वथा क्षणिक है एक क्षणके बाद ही निरन्वय नष्ट हो जाता है तो, अथवा यह माना जाय कि वह सर्वथा
जी i
१ - यद्यपि यहां पर प्रसंगवश जीवका ही नाम लिया है, किंतु सभी द्रव्योंके विषय में ऐसा ही समझना चाहिये ।
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