________________
वस्तुके किसी एक अंशके विषय करनेवाले को नय कहते हैं । प्रमाण और नय दोनो ही अर्थरूप शब्दरूप और ज्ञानरूप इस तरह तीन तीन प्रकारके होते हैं। इनमें भी स्यादस्ति आदि सप्तभंगीकी प्रवृत्ति हुआ करती है। जिसका कि विशेष स्वरूप ग्रंथान्तरों में बताया गया है।
धर्म
१४३
पदार्थोके व्यवहार करनेके उपायको निक्षेप कहते हैं । इसके चार भेद हैं-नाम स्थापना द्रव्य भाव । गुणकी अपेक्षा न करके केवल व्यवहार प्रयोजनकी सिद्धिकेलिये जो किसीकी. कुछ भी संज्ञा रखदी जाती है उसको नाम कहते हैं। जैसे कि हीरालाल । साकार या निराकार किसी भी वस्तुमें किसी अन्य वस्तुकी, यह वही है ऐसी, कल्पनाको स्थापना कहते हैं जिससे कि उस वस्तुका-जिसमें कल्पना की गई है उस -वस्तुके समान, जिसकी कि कल्पना की गई है, व्यवहार हो या किया जा सके। जैसे कि देव-ऋषभादिकी मूर्ति या सतरंजके मुहरे। जो वस्तु वर्तमानमें जिसरूप नहीं है, किंतु भूत कालमें वह उस प्रकारकी थी अथवा भविष्यत्में उस प्रकारकी होगी उसका वर्तमान में भी उसी रूपसे व्यवहार करना उसको द्रव्यनिक्षेप कहते हैं। जैसे कि भूत राजा या भविष्यत राजा-युवराजको वर्तमानमें राजा कहना । जो पदार्थ वर्तमानमें जिसरूप है उसका उसी रूपसे व्यवहार करना इसको भावनिक्षेप कहते हैं। जैसे कि पूजा करते हुए मनुष्यको पुजारी कहना । इस प्रकार ये चार निक्षेप हैं जिनके द्वारा जीवादिक द्रव्यों व आस्रवादिक तत्वों व पदार्थों तथा सम्यग्दर्शनादिक मोक्षके मार्गका यथार्थ व्यवहार किया जाता है । इनका विशेष स्वरूप श्लोकवार्तिक प्रभृति ग्रंथों में देखना चाहिये । यहाँपर केवल मूल अर्थमात्र कहदिया गया है।
इन निक्षपोंके सिवाय जो पदाथाका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेकेलिये उपाय बताये गये हैं उनको अनुयोग कहते हैं। अनुयोगके छह भेद हैं-निर्देश स्वामित्व साधन आधिकरण स्थिति और विधान ! अथवा , आठ भेद हैं - सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव और अल्पबहुत्व । इसका भी विशेष स्वरूप ग्रंथान्तरोंमें ही देखना चाहिये । आस्रवादिक तत्वोंका स्वरूप आगे चलकर लिखेंगे । अत एव यहां उसके दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है। जो विशेषज्ञानी हैं उनको इन प्रमाणादिके द्वारा जीवादिकके द्रव्यों व
ध्याय
२