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अनगार
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अध्याय
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नित्य है - सदा और सर्वत्र एक रूपमें ही रहता है उसमें किसी भी प्रकारका परिणमन नहीं होता, तो देशक्रमसे या कालक्रमसे अथवा अक्रमसे- युगपत् अर्थात् किसी भी प्रकारसे कार्यकी निष्पत्ति नहीं हो सकती ।
इसी प्रकार यदि जीवको आकाशके समान सर्वथा अमूर्त माना जाय तो उसके साथ कर्मका बंध नहीं हो सकता। क्योंकि मूर्तका ही मूर्तके साथ बंध हो सकता है । अतएव यदि संसारी आत्माको मूर्ति रूप रत गंध स्पर्श तथा स्निग्धरूक्षत्वसे रहित आकाशके समान माना जाय, जैसा कि नैयायिकोंने माना है तो, उ· सके साथ पुण्यपापरूप कर्मोंका, जो कि मूर्त पौगलिक हैं, बंध नहीं हो सकता । इसी तरह आत्माका व्यापक स्वरूप भी उसी तरह प्रत्यक्षविरुद्ध है; जिस तरहसे कि उसका अणुरूप । कोई कोई आत्माको अणुके समान और कोई कोई सर्वत्र व्यापक मानते हैं । किंतु ये दोनो कल्पनाएं प्रत्यक्षविरुद्ध हैं; जैसा कि आगे चलकर बताया जायगा । यदि आत्माको एक अद्वैत और विभ्रु माना जाय, जैसा कि ब्रह्माद्वैतवादियोंने माना है तो, जन्म मरण जरा प्रभृति कार्योंके विशिष्ट नियमकी, जैसा कि देखनेमें आता है, सिद्धि नहीं हो सकती । यदि ऐसा माना जाय कि आत्मा पृथिवी आदि भूतोंसे ही उत्पन्न होता है- उन्हीका कार्य है जैसा कि चार्वाकादिकोंने माना है तो उसमें चैतन्य - ज्ञानदर्शनका प्रत्यय नहीं हो सकता। क्योंकि जड पदार्थ अपनी जडताका परित्याग नहीं कर सकते । अत एव आत्माका स्वरूप जैसा कि श्री अरहंतदेवने कहा है कि, वह कथंचित् नित्य है कथंचित् अनित्य, कथंचित् मूर्त है कथंचित् अमूर्त, कथंचित् एक है कथंचित् अनेक, इत्यादि अधर्मात्मक है; उसी प्रकार उसका स्वसंवेदनप्रत्यय अनुमान प्रमाण या आगम प्रमाणके द्वारा निश्चय करना चाहिये और श्रद्धान करना चाहिये ।
यह बात पहले बताई जा चुकी है कि जीवादिक वस्तुओंको सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक माना जायगा तो अर्थक्रियाकारिताकी सिद्धि नहीं होसकती। किंतु इसपर प्रश्न हो सकता है कि यदि अर्थक्रियाकारिता न मानी जाय तो क्या हानि है ? इसका उत्तर देते हैं ओर बताते हैं कि विना अर्थक्रियाकारिताके वस्तुका वस्तुत्व ही नहीं रह सकता । :
अ. ध. १९
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