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बनगार
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धर्मादिक द्रव्योंकी तहरसे आस्रवादिक तत्वोंको भी भले प्रकार जानकर उनका श्रद्धान करनेका उपदेश देते हैं।
धर्मादीनधिगम्य सच्छुतनयन्यासानुयोगैः सुधीः, श्रद्दध्याविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धतरान् । स्यान्मनन्दात्मरुचेः शिवाप्तिभवहान्यर्थो ह्यपार्थः श्रमो,
मन्येताप्तगिरास्रवाद्यपि तथैवाराधयिष्यन् दृशम् ॥ २५ ॥ जो मुमुक्षु विशिष्ट ज्ञानके धारक हैं उनको समीचीन प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा धर्मादिक द्रव्योंको जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिये । किंतु जो मन्दज्ञानी हैं-जो इन उपायोंके द्वारा द्रव्यस्वरूपका विमर्ष करने और ज्ञान प्राप्त करनेकी शक्ति नहीं रखते उनको केवल आज्ञाके अनुसार ही उनका ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिये । तथा विशेषज्ञानी और मंदज्ञानी दोनो ही प्रकारके जीवोंको ससारी और मुक्त दो प्रकारके जीवतंचका ज्ञान व श्रद्धान विशेष रूपसे प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि जिनकी आत्मतत्त्वके विषयमें रुचि-श्रद्धा मंद है उनका, मोक्षकी प्राप्ति और संसारका निरास ही जिसका प्रयोजन है ऐसा, कोई भी किया गया परिश्रम सफल नहीं होता-व्यर्थ जाता है । अत एव सम्यग्दर्शनका आराधन करनेवाले उक्त उद्योतादिकके द्वारा उसको उद्दीप्त व दृढ करनेकी इच्छा रखनेवालोंको धर्मादिक द्रव्यों व विशेष कर आत्माके स्वरूप और भेदों तथा आस्रवादिक तत्वों-आस्रव बंध पुण्य पाप संवर निर्जरा मोक्षका आप्त भगवानेक उपदेशानुसार ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिये।
भावार्थ-द्रव्यादिकोंके जानने के उपाय चार तरहके हैं-प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोग । प्रमाण और नयका स्वरूप बताया जा चुका है कि समस्त वस्तुको विषय करनेवाले समीचीन ज्ञानको प्रमाण और
बध्याय