________________
अनुगार
१४०
• अध्याय
२
WHE
परिणमनको व्यंजनपर्याय कत हैं । धर्म अधर्म आकाश और काल इनमें अर्थपर्याय भी होती है', तथा 'जीव और पुद्गल में दोनों तरहेकी पर्याय होती हैं। ।
AA1
पर्यायोंकी तरह गुणोंके भी दो भेद हैं-मूर्त और अमूर्त। मूर्त द्रव्य में रहनेवाले गुणाको मूर्त और अमूर्त द्रव्योंमें रहनेवाले गुणोंको अमूर्त कहते हैं । पुद्गल द्रव्य मूर्त और शेष द्रव्य अमूर्त हैं; जैसा कि ऊपरके कथनसे स्पष्ट होता है । संसारी आत्माको भी उपचारसे मूर्त कहते हैं; जैसा कि अंगे चलकर बतावेंगे ।
इस प्रकारके गुण और पर्याय जिसके स्वभाव हैं उसको द्रव्य कहते हैं । इस कहने का यह अभिप्राय "नहीं समझना चाहिये कि ये स्वभाव भिन्न हैं। किंतु इन दो स्वभावाके समूहका ही नाम द्रव्य है । अत एव जैसा कि स्वभाव और स्वभाववान् में अन्तर होना चाहिये वैसा ही इनमें भेद भी है। इस प्रकार अपने स्वभावसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न द्रव्य उक्त प्रकारका है - जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल । इन द्रव्योंकी सत्ता ऊपर हेतुपूर्वक सिद्ध की जा चुकी है ! अत एव उसके यहां दुहराने की आवश्यकता नहीं है। किंतु यह अवश्य समझना चाहिये कि द्रव्य छह ही हैं और ये ही छह द्रव्य हैं; न कम न ज्यादे, और न अन्य । जैसा कि नैयायिकोंने पृथिवी जल अग्नि वायु आकाश काल दिशा आत्मा और मन, ये नव द्रव्य हैं, ऐसा कहा है । यह इसलिये ठीक नहीं है कि इनमेंसे आदिके चार द्रव्य-पृथिवी जल अग्नि और वायु, एक पुद्गल द्रव्यमें ही अन्तर्भूत होजाते हैं । क्योंकि इन सभी मैं पुगलका लक्षण मूर्त्तिमत्ता पाया जाता है । यह जो कहा जाता है कि पृथिवीमें रूप रस गंध स्पर्श चारो ही गुण पाये जाते हैं; किंतु जलमें गंधके सिवाय तीनः और अग्निमें गंध रसको छोडकर
नमः काला अथपयायगोचराः । व्यनाथन संबद्ध द्वावन्यो जीवपुद्गला ॥ १ ॥ स्थूलो व्यवगम्यों नश्वरः स्थिरः' 1 सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्वार्थ संज्ञकः ॥ २ ॥ इति ॥
SSY KE BA
१४