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श्रमणार
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ध्याय
भावार्थ - जो गुणपर्यायस्वभाव है - जिसके गुण ओर पर्याय दोनो ही स्वभाव हैं उसको द्रव्य कहते हैं । सहभावी स्वभावको गुण और क्रमभावी स्वमात्रको पर्याय कहते हैं। परिणमन सदा स्थिर नहीं रहता; क्योंकि वह उत्पत्तिविनाशात्मक है । पदार्थ स्वभावसे ही सदा एक रूपमें नहीं रहता- वह प्रतिपक्ष एक रूपसे दूसरे रूपमें बदला करता है। इस बदलते रहनेवाले क्रमभावी स्वभावको ही पर्याय कहते हैं । इस प्रकार पर्यायात्मक रहते हुए भी पदार्थ में प्रतिसमय नित्यताका भी प्रत्यय हुआ करता है । जैसे कि यह वही वस्तु है जिसको पहले देखा था । अथवा " जलसे पृथ्वी और पृथ्वीसे पुनः जलके होजानेपर भी, एवं वायुसे जल और जलसे पुनः वायु आदिके होजानेपर भी उसमें सदा पुद्गलपनेका अनुभव होता है " जिस जिस स्वभावके कारण ऐसा प्रत्यय होता है वह वह पदार्थमें सदा रहा करता है । अत एव इस सदा रहनेवाले - सहभावी स्वभावो गुण कहते हैं। जैसे कि पुनलद्रव्य रूपगुणरूप स्वभाव है । उसी प्रकार रूपगुणका बदलते रहना - हरेसे पाली, पीसे काला इत्यादि आकारांतरोंका होते रहना भी इस पुगलद्रव्यका ही स्वभाव है । जिस प्रकार पुद्गलमें यह एक रूप गुण है उसी प्रकार और भी अनन्त गुण हैं । पुलके समान जीवादिकमें भी अनंत गुण हैं। किन्तु जो गुण पुगलमें हैं वे ही जीवादिकमें नहीं हैं । द्रव्यों में गुण सामान्य विशेषरूपसे रहते हैं - कुछ सामन्य गुण रहा करते हैं कुछ विशेष । इस प्रकार पदार्थ के दो स्वभाव हैं; एक गुण दूसरा परिणमन । पदार्थका कोई भी स्वभाव किसी भी क्षण में उससे पृथक नहीं हुआ करता । अत एव प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण में गुणस्वभाव की अपेक्षा ध्रुव और परिणमनस्वभावकी अपेक्षा उत्पत्तिविनाशात्मक है । इसीलिये उसको कथंचित् अनित्य माना है। तथा इसीसे उसमें भेदाभेदादिकी भी सिद्धि होती है ।
ऊपर जो धर्म अधर्म आदि द्रव्योंको सिद्ध करनेकेलिये गति स्थिति आदि सबकी युगपत् सहायता करनेका उल्लेख किया गया है उस विषय में यह स्पष्ट कर देने की आवश्यकता है कि गति और स्थिति सत्र द्रव्योंमें नहीं पाये जाते । ये जीव और पुद्गलमें ही होते हैं। किंतु परिणमन और अवगाहन सभी द्रव्यों में रहा करता है । क्योंकि पर्याय दो प्रकारकी होती हैं- १ अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । सूक्ष्म परिणमनको अर्थपथीय और स्थू
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