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अनगार
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उसके अभावमें संबर हो जाया करता है। सामान्यसे संज्वलन कषायके तीन भाग हैं-तीव्र मध्यम जघन्य । ये तीन प्रकारके कषाय क्रमसे आठवें नौवें और दशवें गुणस्थानमें होते हैं । तीव्र संज्वलनसे बंधनेवाली ३६ प्रकृतियोंका बंध आठवें तक होता है। उसके आगे उस कषायके न रहनेपर उनका संवर होजाता है । किंतु आठवें गुणस्थानमें भी इन ३६ प्रकृतियोंमेंसे पहले भागतक निद्रा और प्रचला इन दोका, तथा दूसरे भागतक दवगोत । पश्चेन्द्रिय जाति २ वैक्रियिक ३ आहारक ४ तैजस ५ कार्माण शरीर ६ समचतुरस्र संस्थान ७ कैक्रियिक अङ्गोपाङ्ग, ८ आहारक अङ्गोपाङ्ग ९ वर्ण १० गंध ११ रस १५ स्पर्श १३ देवगतिप्रायोग्यानुपुर्य १४ अगुरुलघु १५ उपघात, १६ परघात १७ उच्छास १८ प्रशस्त विहायोगति १९ त्रस २० बादर २१ पर्याप्त २२ प्रत्येक शरीर २३ स्थिर २४ शुभ २५ सुभग २६ सुस्वर २७ निर्माण २९ तीर्थकर ३० इन तीस प्रकृतियोका; और तीसरे भागतक हास्य १ रति २ भय ३ जुगुप्सा ४ इन चार प्रकृतियोंका बंध हुआ करता है । आगे आगेके स्थानोंमें उनका संवर होजाया करता है। मध्यम कषाय नवम गुणस्थानमें होता है। उसके निमित्तसे अनिवृत्तिवादरके आदिके संख्यात भागोंतक पुरुषवेद और संज्वलन क्रोधका मध्यके संख्यात भागोतक संज्वलन मान और मायाका, तथा अंतके भागतक लोभका बंध हुआ करता है। उसके आगे इस कषायके न रहनेसे इन पांचो प्रकृतियोंका संवर होजाता है । मन्द संज्वलन कषायके उदयसे पांच ज्ञानावरण चार अन्तराय यशस्कीर्ति उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियोंका बंध दशवें गुणस्थान-सूक्ष्मसांपरायतक हुआ करता है। इसके आगे इनका संवर होजाता है । ग्यारहवें उपशांतकषाय गुणस्थान और बारहवें क्षीणकषाय तथा तेरहवें सयोगकेवलमें योगके निमित्चसे एक सातावेदनीय कर्मका ही बंध होता है । उसके आगे चौदहवें अयोगकेवलमें उसका भी संवर हो जाता है।
' यहांपर शुद्ध निश्चय नयकी प्रवृत्ति है अत एव शुद्ध बुद्ध और एक स्वभाव निजात्मा ही यहांपर ध्येय है। यहांपर शुद्धोपयोग घटित होता है; क्योंकि यहां ध्येय शुद्ध, अवलम्बन शुद्ध और आत्मस्वरूप साधक भी शुद्ध ही है। इसीको भावसंवर कहते हैं। यह न तो संसारके कारणभूत मिथ्यात्व या रागादिकरूप अशुद्ध
अध्याय