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अनगार
अभिसरति यतोगी सर्वथैकान्तसंवित्,परयुवतिमनेकान्तात्मसंवित्प्रियोपि । मुहुरुपहितनांनाबन्धदुःखानुबन्धं, तमनुषजति विद्वान् को नु मिथ्यात्वशत्रुम् ॥ ५॥
जिसके निमित्तसे यह प्राणी अपनी अनेकांतसंवित्तिरूप प्रिया -वल्लभाके रहते हुए भी परकान्ताके समान सर्वथैकान्ता संवित्तिसे अभिसरण करने लगता है, और इसलिये जो विविध प्रकारसे बन्धों -प्रकृति आदि कर्मवन्धों अथवा रस्सी आदिके द्वारा होनेवाले बन्धोंसे उत्पन्न हुए दुःखोंकी परम्पराओंको उन प्राणियोंकेलिये पुनः पुनः उपस्थित करता है, ऐसे मिथ्यात्वशत्रुसे, भला ऐसा कौन विद्वान् होगा जो कि सम्बन्ध रखना चाहे ? कोई भी नहीं । भावार्थ-जिस प्रकार लोकमें विचारशील पुरुष व्यसनोंमें फंसाकर दुःख भुगानेवालेको अपना शत्रु समझकर झोडदेते हैं या उससे सम्बध नहीं करते। उसी प्रकार मुमुक्षु ज्ञानी भव्योंको आत्मस्वरूपसे हटाकर पर स्वरूपमें मोहित करदेनेवाले और विविध प्रकारके दुःखोंको देनेवाले तथा उनके कारणोंको संचित करनेवाले मिथ्यात्वको शत्रु समझकर छोडदेना चाहिये और उससे सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये।
विनयमिथ्यात्वकी निन्दा करते हैं - शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम् ।
निःशङ्क भूतघातोयं नियोगः कोपि दुर्विघेः ॥ ६ ॥ शिवपूजा या गुरुपूजा आदिके करनेमात्रसे ही मुक्ति प्राप्त होजाती है, जो ऐसा माननेवाले हैं उनका दुर्दैव निःशंक होकर प्राणिवधर्म प्रवृत्त हो सकता है । अथवा उनका दुरागम-दृषित सिद्धांत प्राणिवध करनेकेलिये मनु
अध्याय
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