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नगार
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भवसे मुक्त होती या नहीं," इस तरहकी चलायमान प्रतीति शल्य-कांटेकी तरहसे घुसी हुई है, और इसीलिये जो अपना ही वध करनेवाला है। क्योंकि संशय मिथ्यादर्शन भी आत्मस्वरूपसे विपरीत ही है और इसीलिये वह भी आत्माका घातक ही है। मालुम पडता है कि ऐसे पुरुषोंके भाग्यसे ही यह कलिकाल नियमसे लोकोंके -व्यवहर्ता पुरुषोंके विवेक-युक्तायुक्तकी विचारशक्तिका संहार करता हुआ अच्छी तरहसे अपने प्रतापको प्रकट कर रहा है। यहांपर कलिके विषयमें ऐसा कहकर, श्वेताम्बर मत कलिकालमें ही प्रकट हुआ है, इसका स्मरण दिलाया है। क्योंकि पांच प्रकारके मिथ्यात्वमेंसे संशय मिथ्यात्वको पुष्ट करनेवाला श्वेताम्बर मत कलिकालमें ही उद्भूत हुआ है। शेष चार प्रकारके द्रव्य मिथ्यात्वके प्रणेता कलिके पहले ही उत्पन्न हो चुके थे।
अज्ञान मिथ्यादृष्टियोंके दुर्विलासोंपर खेद प्रकट करते हैं:
युक्तावनाश्वस्य निरस्य चाप्तं भूतार्थमज्ञानतमोनिममाः ।
जनानुपायैरतिसंदधानाः पुष्णन्ति ही खव्यसनानि धूर्ताः॥९॥ जिस प्रकार सुख पदार्थ अवश्य है क्योंकि उसका कोई बाधक प्रमाण संभव नहीं है । इसी प्रकार कोई न कोई सर्वज्ञ अवश्य ही है। क्योंकि उसका भी बाधक-उसके विरुद्ध-" सर्वज्ञ कोई नहीं है" इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण सम्भव नहीं है। यह बात निश्चित है । इत्यादि सर्वज्ञकी साधक युक्तियोंपर विश्वास न करके वल्कि परमार्थतः सत्-प्रमाणसे सिद्ध होनेपर भी उस आप्त परमेष्ठीका निरसन करके, बडे दुःखकी बात है कि, अज्ञानके अंधकारमें बिलकुल डूबे हुए कुछ धूर्त लोक संसारके लोगोंको अनेक प्रकारके उपायोंसे ठगते फिरते
अध्याय
१-यहांपर मिथ्यात्वसे द्रव्य मिथ्यात्व ही समझना चाहिये । क्योंकि भावरूप मिथ्यात्व सदा ही रहा करता है। किंतु द्रव्य मिथ्यात्वकी-जिससे कि भाव मिथ्यात्वकी पुष्टि होती है और तदनुरूप देवगुरुशास्त्रकी तथा उनकी मूर्ति आदिकी कल्पना और रचना हुंडावसर्पिणी कालमें ही हुआ करती है।