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अनसार
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अध्याय
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परम आप्तका लक्षण बताते हैं::
मुक्तोष्टादशभिर्दोषैर्युक्तः सार्वज्ञसंपदा 1
शास्ति मुक्तिपथं भव्यान् योसावाप्तो जगत्पतिः ॥ १४ ॥
बीज
क्षुधा तृषा भय द्वेष राग मोह चिंता जरा रोग मृत्यु स्वेद खेद मद रति विस्मय जन्म निद्रा और विषाद ये अठारह दोष हैं। ये सर्वसाधारण रूपसे तीनों लोकोंके जीवों में पाये जाते हैं। अत एवं जिनमें ये पाये. जय उनको संसारी और जिनमें न पाये जांय उनको आप्त समझना चाहिये। जो इन अठारह दोषोंसे रहित है, अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख और अनन्त वीर्य इस अनन्त चतुष्टयरूप जीवन्मुक्ति पर्यायके उत्पन्न हो जाने से समवसरण और अष्ट महाप्रतिहार्यादि विभूतिसे युक्त है, भव्य जीवोंको भोक्षमार्गका स्वरूप बताने वाला है, उस तीन लोकके स्वामीको आप्त कहते हैं ।
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भावार्थ- इस श्लोक देवके अपायापगम ज्ञान पूजा और वचन इन अतिशयोको तथा तीन लोकके स्वामित्व - ईश्वरपने को बताया है। जिसमें ये बातें पाई जांय उसको ही आप्त कहते हैं। अठारह दोष रहित होनेको अपायापगम, अनन्त चतुष्टयके धारण को ज्ञानातिशय, समसरणादि विभूतिको पूजातिशय और दिव्यध्वनीको वचनातिशय कहते हैं ।
१ क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च स्वेदः खेदो मदो रतिः ॥ १ ॥ विस्मयो जजनं निद्रा विषादोऽष्टादश धवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥ २ ॥ एतदोष विनिर्मुक्तः सोयमाप्तो निरंजनः । विद्यते येषु ते नित्यं तेत्र संसारिणः स्मृताः ॥ ३ ॥
धर्म
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