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अनगार
किया करती है। परसमयके अनुसार मानी हुई कुदेवादिककी मूर्तिप्रभृतिको मिथ्यात्वका द्रव्य, उसको बढानेवाले तीर्थ आदि अनायतनोंको उसका क्षेत्र, संक्रांति ग्रहण प्रभृति मिथ्यादर्शनके बढानेवाले समयको उसका काल, और शंका कांक्षा आदि परिणामोंको मिथ्यात्वका भाव कहते हैं। यह द्रव्यादिकी चौकडी मिथ्यात्वको तयार करती और मनुष्योंकेलिये कुज्ञान तथा नरकादि दुर्गतियोंको उत्पन्न करती है। अत एव सत्पुरुषोंको उचित है कि वे सदा उसको दूर करनेका ही प्रयत्न करें।
मिथ्यात्वका कारण और लक्षण बताते हैं:मिथ्यात्वकर्मपाकेन जीवो मिथ्यात्वमृच्छति । स्वादं पित्तज्वरेणेव येन धर्म न रोचते ॥३॥
अध्याय
मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जीवोंके जो भाव होते हैं उनको मिथ्यात्व कहते हैं; जि. नसे कि उस जीवको धर्मकी तरफ रुचि नहीं होती। क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्म मद्यके समान माना है । अत एव इसके उदयसे जीव वस्तुतत्त्वमें अनेक प्रकारसे मोहित-मृञ्छित हुआ करता और विपरीत अभिनिवेशसे आक्रांत-ग्रस्त होजाया करता है। इसीलिये वह वस्तुके वास्तविक स्वरूपका श्रद्धान नहीं कर सकता । और धर्मके विषयमें उसकी रुचि भी नहीं होती। जिस तरहसे कि पित्तज्वरवाले मनुष्यको स्वादु-मधुर रस भी रुचिकर नहीं होता उसी प्रकार मिथ्यादृष्टिको भी वास्तविक धर्म रुचिकर नहीं होता ।
मिथ्यात्वके भेदोंको उसके प्रणेताओंकी अपेक्षासे बताते हैं:--
बौद्धशैवद्विजश्वेतपटमस्कारपूर्वका । एकान्तविनयभ्रान्तिसंशयज्ञानदुर्दशः ॥४॥