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बनगार
होगया। क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य कालादि लब्धिके निमित्तसे अन्तर्मुहर्तोलिये औपशामक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है। परन्तु शीघ्र ही उससे च्युत होकर फिर मिथ्यात्वपरिणामोंसे ही नियमसे आक्रांत होजाता है। जैसा कि कहा भी है- .
" निशीथं वासरस्येव निर्मलस्य मलीमसम ।
पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्स्वस्यास्य निश्चितम्" ॥ इति । जिस प्रकार निर्मल दिनके बाद मलीमस रात्रिका आगमन अवश्य ही होता है। उसी प्रकार इस-अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथम ही उत्पन्न हुए सम्यग्दर्शनके बाद मिथ्यात्वपरिणाम भी नियमसे होते हैं।
ऐसा होनेपर भी उस अंधतम-द्रव्यमिथ्यात्वका प्रध्वंस होजानेसे अविद्या-अज्ञान-कुमति कुश्रुत और विभङ्ग अथवा संशय विपर्यय और अनध्यवसाय इन तनि अज्ञानोंका छेदन करनेवाला वह सम्यग्दर्शनरूप आत्मीय अथवा निज तेज फिरसे उद्भूत होता है । किन्तु वह सिद्ध शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्तिकेलिये अथवा अपना उत्कर्ष और परका अपकर्ष सिद्ध करनेकेलिये किसी किसीके ही-निकटभव्यके ही.. अथवा विजिगीषुके ही मित्रके समान बढते हुए चारित्रके साहाय्यकी अपेक्षा करता है । क्योंकि जिस प्रकार मित्रकी सहायताके विना विजय प्राप्त नहीं हो सकती उसी प्रकार चारित्रकी सहायताक विना सम्यग्दर्शन भी सिद्धिलाभ-मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। मुमुक्षुओंको मिथ्यात्वके बढानेवाली या उपस्कृत करनेवाली सामग्रीको दूर करनेका उपदेश देते हैं:
दवयन्तु सदा सन्तस्ता द्रव्यादिचतुष्टयीम् ।
पुंसां दुर्गतिसर्गे या मोहारेः कुलदेवता ॥ २ ॥ जिस प्रकार विजिगीषुओंको प्रतिपक्षियोंकी दुर्गति करने में कुलदेवी माहाय्य किया करती है उसी प्रकार मनुष्योंको मिथ्याज्ञान या नरकादि दुर्गतियोंको प्राप्त करानेमें द्रव्यादिककी चौकडी मिथ्यात्वकी सहायता
बध्याय
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