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अनगार
यह उपर्युक्त सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्ररूप आत्माकी अवस्था ही परमार्थभूत है। जिस समय यह पूर्णताको प्राप्त करलेती है उस समय यह मोक्षका ही कारण होती है। न कि संवर निर्जरा अथवा किसी सांसारिक अभ्युदयका। यद्वा रत्नत्रयात्मक आत्माको ही मोक्षमार्ग कहते हैं । उक्त संवर आदि कार्योंका सिद्ध करनेवाला वही अपूर्ण अथवा दूसरा व्यावहारिक सम्यग्दर्शन है । यह आनेवाले कर्मोंको रोकता और पहले संचित अशुभ अथवा शुभ और अशुभ दोनो ही प्रकारके कर्मोंके एक देशको निर्जीर्ण करता है। इस प्रकार मोक्ष संवर और निर्जरा रत्नत्रयसे सिद्ध होते हैं। किंतु इसके विरुद्ध बंध, मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिवाचारित्रसे हुआ करता है ।
अध्याय
१ णिच्छवणएण भणिओ तिहिं तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा ।
__ण गहदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति । " निश्चय नयसे रत्नत्रयसे युक्त आत्मा ही मोक्षका मार्ग है। वह न किसीसे बद्ध होता और न किसीसे मुक्त होता है।
२-जैसा कि कहा भी है कि -
"स्युमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि समासतः ।
बन्धस्य हेतवोन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ॥” इति । संक्षेपमें बंधके कारण मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं। उसके और और जो कारण बताये गये हैं वे सब इन्हीके विस्तार हैं-विशेष भेद हैं जो कि इन्हीमें अंतर्भूत होते हैं। तथा और भी कहा है कि
रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्ववति यत्तु पुण्यं चुभोपयोगस्य सोवमपराधः ॥