________________
अनगार
१०६
अध्याय,
१
भावार्थ - सम्यग्दर्शनादिक और उनके विशिष्ट स्वरूप धारण करनेको ही उनकी भक्ति कहते हैं; तथा उस भक्तिका ही नाम आराधना है ।
केवल व्यवहार नय असद्विषयक है । अतएव जो मनुष्य निश्चय नयको छोडकर केवल व्यवहार नयका स्वार्थसिद्धिकेलिये उपयोग करते हैं उनका वह स्वार्थ भी भृष्ट होजाता है - सिद्ध नहीं होता । इसी बात को दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:
—
व्यवहारमभूतार्थं प्रायो भृतार्थविमुखजनमाहात् । केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद्रश्यति स्वार्थात् ॥ ९९ ॥
निश्चय नयसे विमुख बहिर्दृष्टि लोगों के अज्ञानके कारण निश्चय नयकी अपेक्षा न करनेवाला और जिसमें इष्ट विषय नहीं पाया जाता ऐसे प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप व्यवहारका ही प्रायः करके उपयोग करनेवाला मनुष्य स्वार्थ – मोक्षसुखसे इस तरहसे बंचित-भृष्ट होजाता है जैसे कि - केवल-स्वररहित और इसीलिये विषयके प्रतिपादन करनेमें असमर्थ ककारादि व्यंजन - अक्षरोंका ही उपयोग करनेवाला अज्ञानी मनुष्य स्वार्थ- वाच्य अभिषेयसे भृष्ट होजाया करता है । अथवा केवल-घी चावल आदिसे रहित अतएव इष्ट रसादि विषयसे शून्य दाल आदि व्यंजन पदार्थका ही उपयोग करनेवाला मनुष्य स्वार्थ स्वास्थ्य आदि से भृष्ट होजाया करता है ।
भावार्थ -- आगममें ऐसा कहा है कि -
१ वेज्ज/वचणिमित्तं गिलाणगुरु बालबुडु समणाणं । लोगिगजणसं भासा ण णिंदिदा वा सुहोबजुया ||
Ramnath
धर्म
१०६