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अनगार
ग्लान गुरु बाल या वृद्ध मुनियोंकी वयावृत्यकोलये यदि लौकिक जनोंके साथ संभाषण करना पडे अथवा लौकिक जनोंकी भाषाका व्यवहार करना पडे तो वह शुभ परिणामोंसे उपयुक्त होनेके कारण निन्दित नहीं है। किंतु इन वचनोंका ऐसा अभिप्राय भी समझना चाहिये कि यदि उनकी वैयावृत्यके अधीन होकर लौकिक संभाषणमें नितान्त आसक्त होजाय-केवल व्यवहारका ही उपयोग करने लगे तो वह साधु प्रमत्त होकर ध्यानादिकसे च्युत होजाता और स्वार्थ-उक्त माक्षसुखसे भी भृष्ट होजाता है । अत एव निश्चयको न छोडकर ही व्यवहारका उपयोग करना श्रेयस्कर है।
जिस प्रकार निश्चयके विना व्यवहार नय व्यर्थ है उसी प्रकार व्यवहारके विना निश्चयनय भी कार्यकारी नहीं है। इस बातको व्यतिरेक मुखसे बताते हैं:
व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति । बीजादिना विना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति ॥१०॥
वह मूढ बीजादिक--बीज खेत खात जल ऋतु आदिके विना ही सस्य-धान्यको उत्पन्न करना चाहता है जो कि व्यवहारपराङ्मुख-व्यवहार नयसे रहित केवल निश्चय नयसे ही कार्य सिद्ध करना चाहता है।
भावार्थ-बिना व्यवहारके केवल निश्चयसे भी सफलता प्राप्त नहीं हो सकती । __ व्यवहार नयका कब अवलम्बन लेना चाहिये और कब उसको छोडना चाहिये; सो बताते हैं:
भूतार्थ रज्जुवत्स्वैरं विहाँ वैशवन्मुहुः ।
अध्याय
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१-रोगादिकसे संक्लिष्टको ग्लान कहते हैं।