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FI बल दरिद्र और असहाय हुआ करता है तथा इस लोक और परलोक दोनों ही भवोंमें दुःख भोगता है।
जो पुरुष धर्मका संचय नहीं करता उसके शेष गुणोंकी भी निरर्थकता प्रकट करते हैं:-- बनगार
धर्म श्रुतिस्मृतिस्तुतिसमर्थनाचरणचारणानुमतैः ।
यो नार्जयति कथंचन किं तस्य गुणेन केनापि ॥ ८८ ॥ जो पुरुष श्रुति स्मृति स्तुति और समर्थना इनमेंसे किसी भी उपायके द्वारा किसी भी तरहसे स्वयं आचरण करके या दूसरोंसे कराके अथवा आचरण करनेवालाकी अनुमोदना करके धर्मका संचय नहीं करता उस पुरुषके पुरुषत्व कुलीनता आदि एक या अनेक गुणोंसे भी क्या फायदा!
'. आचार्य उपाध्याय गुरु बहुश्रुत या विशेषज्ञोंके मुखसे धर्मके स्वरूपका जो सुनना उसको श्रवण कहते हैं । सुने हुए या जाने हुए धमके स्वरूपका बारवार विचार करना उसको स्मरण कहते हैं । धर्मके फलका गुणका या माहात्म्यका जो अच्छी तरह यशोगान करना उसको स्तुति कहते हैं। युक्ति अनुभव और आगम इनकी सामर्थ्यसे धमके स्वरूपका सिद्ध करना अथवा उसपर होनेवाले आक्षेपोंका निरसन करना उसको समर्थना कहते हैं। इन उपायों से एक या अनेक अथवा समस्तके द्वारा धर्मके स्वयं सेवन करनेको चरण, दूसरोसे सेवन करानेको चारण तथा सेवन करनेवालोंकी प्रशंसा करनेको अनुमत-अनुमोदना कहते हैं। , इनमेंसे किसी भी तरहसे धर्मका संचय करनेवालोंके ही दूसरे गुण प्रशस्त कहे जासकते हैं। अन्यथा नहीं।
धर्म-शब्दका जो कुछ अर्थ है वह लोकप्रसिद्धिके अनुसार ही समझकर धारण किया न कराया जा सकता है। अत एव उसका प्रतिपादन करनेकोलिये शास्त्ररचनाका प्रयत्न क्यों करना--इससे क्या फायदा ? इस प्रश्नका उत्तर देते है।
बध्याय