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अनगार
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करते हैं । नष्ट होगई है आशा व प्रत्याशा जिसकी ऐसा यह मध्यम वयवाला सधन मनुष्य, धिक्कार है कि, दुर्दैव के उस ऋणको लिये फिरता है कि जो उसे नियमित कालमें ही अदा करना है।
मध्यम वयवाले पुरुषको विपत्तियोंसे जो अति और जीवनसे उपराम मिलता है उसका निरूपण करते हैं। -
पिपीलिकाभिः कृष्णाहिस्विापार्दुराशयः।।
. दंदश्यमानः क रति यातु जीवतु वा कियत् ॥ ८१ ॥ जिस प्रकार कृष्णसर्पको चीटियां खा डालती हैं उसी तरह जब दुराशय-जिसका चित्त विविध प्रकारके क्लेशोंसे पीडित हो रहा है ऐसे इस मध्यम वयवाले मनुष्यको विपत्तियां बुरी तरहसे खाने लगती हैं तब स्थान आसन आदिमेंसे किसमें तो यह रति-प्रेम करे और कबतक जीता रहे । अर्थात विपत्तियोंसे घिर कर यह जीव हर विषयमें अरति करने लगता है और शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त हो जाता है।
बुढापेसे उत्पन्न हुए दुःखोंको प्रकट करते हैं: - जराभुजङ्गीनिर्मो पलितं वीक्ष्य वल्लभाः।।
यान्तीरुद्वेगमुत्पश्यन्नप्यपैत्योजसोन्वहम् ॥ ८२ ॥ जरा-वृद्धावस्था भुजङ्गी-सर्पिणीके समान है। क्योंकि मनुष्य उससे सदा भय खाते रहते हैं । इसके निर्मोककेचरीके समान पलित-श्वेत केशोंको देखकर उद्वेग-विरक्तिको प्राप्त हुई वल्लभाओं-प्रियतमा स्त्रियोंका शोकके साथ स्मरण करनेवाला यह वृद्ध-वृद्धावस्थाके संमुख हुआ पुरुष दिनपर दिन ओज-बलसे भी रिक्त होजाया करता है । क्योंकि प्रियाके विरागकी संभाव नासे बल क्षीण होजाया करता है । जैसा कि कहा भी है-"ओजःक्षीये
अध्याय