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श्री विजयकुमार नटवरलाल छोटालाल सीरीझ नं०
* वन्दे श्रीवीरमानन्दम्
जैनतत्त्वादर्श
भाग २
Raftar
तपोगणगगन दिनमणि - न्यायांभोनिधि - जैनाचार्य
१००८ श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वर प्रसिद्धनाम श्री आत्मारामजी महाराज
पञ्चमसंस्करण
प्रकाशक
श्री आत्मानन्द जैन सभा ४१ धनजी स्ट्रीट, बम्बई नं० ३
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मूल्य ३-०-०
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पुस्तक मिलने का पचा:१. श्री आत्मानन्द जैन सभा
४१ धनजी स्ट्रीट, झुंबई नं० ३ २. श्री जैन आत्मानन्द सभा
भावनगर ( सौराष्ट्र) ३. श्री आत्मानंद जैन महासभा
"हेड आफिस" अम्बाला शहर (पञ्जाब)
शा. गुलाबचंद लल्लुभाई श्री महोदय प्रेस, दाणापीठ-भावनगर.
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तपोगणगगन दिनमणि - न्यायांभोनिधि- जैनाचार्य १००८ श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वर प्रसिद्धनाम श्री आत्मारामजी महाराज
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किञ्चिद् वक्तव्य
'जैनतरवादर्श' नामा हिंदी ग्रन्थना आ उत्तरार्ध याने भाग वीजाने लांबी प्रस्तावनानी अगत्य न ज होई शके कारण के पूर्वार्ध याने भाग पहेलामा 'प्रासंगिक वक्तव्य 'मां विनीत हंसयुगलनी कलमथी ए विस्तृतरूपे आलेखायेल छे. विशेषमा श्रीयुत् बनारसीदास जैने 'महाराज साहिब की भाषा 'ना मथाळा हेठल केटलीक चोखवट पण करेली छे. मुंबईमा स्थापन थयेल श्री आत्मानंद जैन समाए आ ग्रन्थ श्रीविजयकुमार नटवरलाल छोटालाल सीरीझमा छापवानो निर्णय कों ए संबंधी वात, तेम न सभा द्वारा थयेली कार्यवाहीनो आछो ख्याल, पण 'प्रकाशक का निवेदन' मथाळा हेठळ आपी दीघेल छे.
न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमद् विजयानंदसूरि(आत्मा. रामजी)महाराजना नामधी जैन-जनेतर जनता अजाण नथी. आपणा युगनी नजिकमां थयेल ए महापुरुष भारे प्रतिभाशाली, दीर्घदर्गी अने क्रान्तिकारी हता. तेओश्रीना गुणोथी आकर्पाईने ज, तेमना गुरु, तेम ज वडिल गुरुभाईओ होवा छता, ए महात्माओनी मलामणथी भारतवर्षना सकळ संधे पवित्र एवा श्री सिद्धक्षेत्र महातीर्थनी शीतळ छायामां तेमने आचार्य पदवी अर्पण करेली. हाल जेने राष्ट्रभापानुं गौरव प्राप्त थयेल छ एवी आमजनसमूहने भोग्यं हिंदी भाषामां ग्रंथो लखवानी तेओश्रीए ज पहेल करेली. वळी अमेरिकाना चिकागो शहरमा
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सर्व धर्म परिषदना समये तेओश्रीए ज छांवी नजर दोढावी जैनधर्म जेवा शाश्वत दर्शननो ख्याल आपना, पोताना प्रतिनिधि तरीके श्रीयुत वीरचंद राघवजी गांधी बेरीस्टरने मोकलेला. आबा एक प्रखर ज्योतिर्धरना हाथे भावी प्रजाने मार्गदर्शकनी गरज सारे तेवा ग्रंथनी रचना थाय ए कोई जेवो तेवो प्रसंग न गणाय. भाग पहेलाना छ परिच्छेद, अने भाग बीजाना सातथी बार सुधीना परिच्छेद मळी कुल चार प्रकरणमां एटली aat face प्रकारनी वानी पीरसी छे के एनो साद्यंत अभ्यास करनार व्यक्ति सुतरां जैनधर्मनुं हाई अवधारी शके तेम छे. आचार्यश्रीना 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' अने 'अज्ञानतिमिरभास्कर' जेवा ग्रन्थो पण ओछा महत्त्वना नथी. आम छतां जिज्ञासु वर्गने माटे 'जैनतवादर्श 'ना बन्ने भागो खरेखर जैन दर्शनरूपी महामूली मन्जूषाने लगावेला ताळाने उघाडवानी कूंची समान छे. मुंबईनी सभा द्वारा प्रगट थतुं आ पांचमुं संस्करण छे. वडोदरा मुकामे आचार्यश्रीनी जन्म शताब्दि उजवायेली ए वेळा पञ्जाबनी आत्मानंद जैन महासभाए आ ग्रन्थनुं अतिशय सस्तुं संस्करण तैयार करावी लगभग अगीयार सो पानाना बे भाग मात्र आठ आना जेवी नजीवी किंमते प्रचारनो हेतु ध्यानमा राखी छूटथी वेचेला. आ आवृत्ति तैयार करवामां ए सस्ता संस्करणनो न उपयोग करवामां आव्यो छे. आजना युगनी खास अगत्य ज्ञानप्रचारनी छे केमके जैन-जैनेतर जनसमूहमां भगवन्त श्रीमहावीरदेवना तस्वो समजवानी खास
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अज्ञानतिमिरतरणी १००८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज
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जन्मस्थळ-वडोदरा
सूरिपद-लाहोर कार्तिक शुद २ सं. १९२७ मागशर शुद ५ सं. १९८७ भागवती दीक्षास्थळ-राधनपुर
स्वर्गगमन-मुंबई वैशाख शुद १३ स. १९४३ भाद्रपद वद १० सं. २०१० EenrnrnemomcomrmernamamananGNED
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जिज्ञासा जन्मी छे, विद्वानोने खातरी थई छे के विश्वमां शांति पाथरवामां जैन धर्मना सिद्धान्तो ज मोटो फाळो आपी शके तेम छे. ए बातथी प्रेराई, स्वर्गस्थ गुरुदेव श्रीमद् विजयवल्लमसूरिजीनी सूचना थतां ज श्री आत्मानंद जैन सभाए पोतानी पासे फंडनी संगीनता नहोती छतां पांचमी आवृत्ति बे भागमां तैयार करवानुं कार्य हाथ घयुं छे. काम जल्दी पूरुं करावी आचार्यश्रीनी हाजरीमां ज ए बहार पडे एवी हार्दिक इच्छाथी जयपुर अने भावनगरना प्रेसोमां ए सोंपायेल. भाविने ए वात मंजूर न होवाथी आचार्यश्री प्रकाशन जोवा आजे हैयात नथी, छतां तेओनीना अंतरमां आ प्रन्थना प्रचार माटे केवी तमन्ना प्रवर्तती हती ए पोताना स्वर्गगमन पूर्वेना रविवारे एनुं अंग्रेजी करावी, आत्मानंद शताब्दि फंड द्वारा प्रगट करवानो ने ठराव ट्रस्ट बोर्डमा कराव्यो दतो, ए उपरथी जणाई आवे छे.
अंतमां जणाववानुं एटलुं ज के युगना एंधाण पारखी जैन समाज साहित्य प्रचार अंगे खास लक्ष्य आपे, आ ग्रन्थने प्रत्येक घर एक अणमूला अलङ्काररूपे होंशथी संघरे अने वारसा - रूपे भावि प्रजाने एवं दान करे; अर्थात् वांचे अने पंचावे. एथी आत्मकल्याण सधाशे अने धर्मप्रभावना थशे. सुज्ञेषु कि ? बहुना
वैशाख कृष्ण तृतीया चीर संवत् २४८ १ प्रेमकुटिर - खंभात
मोहनलाल दीपचंद चोकसी
ओ. मंत्री श्रीवल्लभसूरि स्मारकनिधि
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विषयानुक्रमणिका
सप्तम परिच्छेद
विपय सम्यक्त्व के भेद चार निक्षेप तथा मूर्तिपूजन व्यवहार धर्म और दया के आठ भेद निश्चयधर्म सम्यक्त्वधारी के कर्तव्य शहा अतिचार एंचम काल की मनुष्यायु आधुनिक भूगोल तथा जैनमान्यता प्रेतविद्या शास्त्र और उनके कल्पित अर्थ आकाहा अतिचार विचिकित्सा अतिचार मिथ्यादृष्टि प्रशंसा अतिचार मिथ्यादृष्टि परिचय अतिचार आगार और उसके भेद
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अष्टम परिच्छेद
विषय
चरित्र धर्म के भेद और १२ व्रत १. प्राणातिपातविरमण व्रत
हिंसा के भेद मर्यादित अहिंसा यतना (जयणा) का स्वरूप
उक्त ब्रत के पांच अतिचार २. मृषावादविरमण व्रत
मृषावाद के पांच भेद
उत व्रत के पांच अतिचार ३. अदत्तादानविरमण व्रत
अदत्त के चार भेद
उक्त व्रत के पांच अतिचार ४. मैथुनविरमण व्रत
उक्त व्रत के पांच अतिचार ५. परिप्रहपरिमाण व्रत
चौदह प्रकार का अभ्यंतर परिग्रह नव प्रकार का इच्छापरिमाण व्रत उक्त व्रत के पांच अतिचार गुणव्रत का स्वरूप
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विषय ६. दिल परिमाण प्रत
उक नत के पांच अतिचार ७. भोगोपभोग व्रत
बाईस अभक्ष्य मदिरापान के दोष मांसभक्षण का निषेध देवता, पितरादि सम्बन्धी मांसपूजा का अनौचित्य भक्खन खाने का निषेध मधुमक्षण का निषेध रात्रिभोजन का निषेध वहुबीज फलादि का वर्णन अनन्तकाय का स्वरूप चौदह नियम पंदरह कर्मादान
उक्त व्रत के पांच अतिचार ८. अनर्थदण्डविरमण व्रत
आर्तध्यान के चार भेद रौद्रध्यान के भेद उक्त व्रत के पांच अतिचार
११३ ११५ १२१ १२६ १२८ १२९
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१३९
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विषय ९. सामायिक व्रत
काया के १२ दोष वचन के १० दोष मन के १० दोष
उक्त व्रत के पांच अतिचार १०. दिशावकाशिक व्रत
उक्त व्रत के पांच अतिचार ११. पौषध व्रत
उक्त व्रत के पांच अतिचार
पौषध के १८ दोष १२. अतिथिसंविभाग व्रत उक्त व्रत के पांच अतिचार
नवम परिच्छेद आवकदिनकृत्य
जागने की विधि शुभाशुम तत्त्व और स्वर का विचार नमस्कार मन्त्र और जप विधि धर्मजागरणा स्वप्नविचार व्रतमा का विचार
१४७ १५० १५१ १५३ १५७
१५९ १५९ १६०
१६४
१६९
१६९
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'१७४ १७६ १७८
१८२
१८३
१८५
१८७
१८८ १८९
विषय नियम-प्रव अहण की योग्यता सचित्त और अचिच वस्तु सचित्ताचित्त की कालमर्यादा प्रत्याख्यान की विधि चार प्रकार का आहार मलोत्सर्गविधि सम्मूच्छिम जीव के १४ उत्पत्तिस्थान दंतधावनविधि स्नानविधि स्नानप्रयोजन पूजा के बल पूजासामग्री जिनमन्दिरप्रवेश और पूजा विधि अहापूजा अग्रपूजा भावपूजा विविध पूजा पूजा सम्बन्धी नियम २१ प्रकार की पूजा स्नानविधि
१९१
१९३
१९३
१९५
०
२०६
०
२०७
२१. २१२ २१४ २१५
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विषय
२१८
२२१
२२३ २२५ २२९
२३३ २३३ २३७ २३९
भारति और मालदीवे की विधि कैसी प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए ? द्रव्यपूजा की विशेषता पूजा का फल चार प्रकार का अनुष्ठान जिनमंदिर की सारसंभाल ज्ञान की आशातना जिनमंदिर की ८४ आशातना गुरु की ३३ आशातना अन्य आशातना देवादि सम्बन्धी द्रव्य का विचार गुरुवन्दन और प्रत्याख्यान गुरुविनय अर्थचिन्ता आजीविका के साधन व्यापार और व्यवहार नीति चार प्रकार का कर्मफल देशान्तर में व्यापार धन का सदुपयोग देशादि विरुद्ध का साग
२४१
२४९ २५२ २५४ २५५ २६१ २६६ २६८
२७२
२७४
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विषय पिता से उचित व्यवहार माता से उचित व्यवहार आई से उचित व्यवहार स्त्री से उचित व्यवहार पुत्र से उचित व्यवहार स्वजन से उचित व्यवहार गुरु से उचित व्यवहार नगरवासी से उचित व्यवहार परमतवाले से उचित व्यवहार सामान्य शिष्टाचार सुपात्रदान भोजन सम्बन्धी नियम मोजन के अनन्तर वन्दन, स्वाध्याय आदि कृत्य
२८० २८२ २८५ २८७ २८८
२८९
२९० २९१ २९३ २९७ ३०२
दशम परिच्छेद
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शावक का रात्रिकृत्य
निद्राविधि दिन में सोना कि नहीं विषयवासना की लागभावना भवस्थिति का विचार
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३०९
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३१०
२११
३१९
३२०
३२२
३२४
विषय
धर्ममनोरथ भावना पर्वकृत्य
तिथि सम्बन्धी विचार चातुर्मासिक कृत्य वर्षकृत्य-संघपूजा
साधर्मिवात्सल्य यात्राविधि स्नात्रमहोत्सव श्रुतपूजा उद्यापन प्रभावना आलोचनाविधि आलोचना देने का अधिकारी आलोचना के दस दोष
आलोचना से लाभ जन्मकृत्य और अठारह द्वार १. निवासस्थान तथा गृहनिर्माण २. विद्या ३. विवाह १. मित्र
FFEREATRE
३२५ ३२६ ३२६
३२७
३२७ ૩૨૬
३३१ ३३० ३३८ ३४१
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३४१ ३४५ ३४८
३४९
३४९
३५०
विषय ५. जिनमंदिर का निर्माण ६. जिनप्रतिमा का निर्माण ७. प्रतिमा की प्रतिष्ठा ८. परदीक्षा ९. तत्पदस्थापना १०. पुस्तकलेखन ११. पौषधशाला का निर्माण १२. जीवन पर्यन्त सन्यास्पदर्शन का पालन १३. जीवन पर्यन्त ब्रतादि का पालन १४. आत्मदीक्षा-मार आवक १५. आररम का त्याग १६. जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य १७. ग्यारह प्रतिमा
संलेखना १८. आराधना के इस भेद
३५१
३५१
३५४
३५४
३५४ ३५६
३५७
एकादश परिच्छेद जैनमत सम्बन्धी भ्रांतियां कालचक्र अलंकर और उनकी नीति
३५८ ३५९
३६२
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३७०
विषय
पृष्ठ श्री ऋषभदेव का जन्म बाल्यावस्था और इक्ष्वाकु कुल
३६५ विवाह
३६६ सौ पुत्रों के नाम
३६७ राज्याभिषेक
३६८ चार वंश भोजन पकाने आदि कर्म की शिक्षा पुरुप की ७२ कलाएं खी की ६४ कलाएं
३७३ १८ प्रकार की लिपि
३७४ श्री ऋषभदेव ही जगत् के कर्ता-ज्यवहार प्रवर्तक है। दीक्षा और छद्मस्थ काल केवलज्ञान की प्राप्ति और समवसरण
३७९ मरीचि और सांख्यमत की उत्पत्ति (श्रावक ) ब्राह्मणों की उत्पत्ति (आय) वेदों की उत्पत्ति और उच्छेद
३८८ हिंसात्मक यज्ञ और पिप्पलाद वेदमंत्र का अर्थ और वसुराजा
३९५ महाकालसुर और पर्वत श्री ऋपमदेव का निर्वाण
४०८
७५
३७७
३८४
४०४
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४१५
विषय
पृष्ठ श्री अजितनाथ और सगर चक्रवर्ती
१११ श्री संभवनाथ श्री अभिनंदननाथ, श्री सुमतिनाथ, श्री पनप्रभ, श्री सुपार्श्वनाथ, श्री चन्द्रप्रभु, श्री सुविधिनाथ ४१४ मिथ्यादृष्टि ब्राह्मण
४१५ श्री शीतलनाथ और हरिवंश की उत्पत्ति श्री श्रेयांसनाथ और निपृष्ट वासुदेव
४१७ श्री वासुपूज्यनाथ, श्री विमलनाथ, श्री अनंतनाथ ४१९ श्री धर्मनाथ, श्री शांतिनाथ, श्री कुन्थुनाथ, श्री अरनाथ ४२० सुभूम चक्रवर्ती और परशुराम
४२१ श्री मल्लिनाथ, श्री मुनिसुव्रतनाथ
४३२ विष्णु मुनि तथा नमुचिबल रावण और उसके दश मुख श्री नमिनाथ, श्री नेमिनाथ श्री कृष्ण और बलभद्र श्री पार्श्वनाथ और श्री महावीर
४३८
४३९
४३९
४१२
द्वादश परिच्छेद श्री महावीर के गणधरादि
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विषय
पृष्ठ
४४५ ४५१ ४५३
४५४
सत्यकी और महेश्वरपूजा कोणिक और श्राद्ध प्रयाग तीर्थ श्री महावीर का निर्वाण गौतम और सशयनिवृत्ति अमिभूति और संशयनिवृत्ति वायुभूति और संशयनिवृत्ति अव्यक्त और संशयनिवृत्ति सुधर्म और सशयनिवृत्ति मंडिकपुत्र और संशयनिवृत्ति मौर्यपुत्र और संशयनिवृत्ति अकंपित और संशयनिवृत्ति अचलभ्राता और संशयनिवृत्ति मैतार्य और संशयनिवृत्ति प्रभास और संशयनिवृत्ति श्री सुधर्माम्वामी श्री जम्बूस्वामी और दश विच्छेद श्री प्रभवस्वामी श्री शय्यंभवस्वामी श्री यशोभद
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४७१
४७३
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विषय
श्री संभूतविजय और श्री भद्रबाहु
श्री स्थूलभद्र
श्री आर्य महागिरि और श्री सुहस्तिसूरि
सम्प्रति राजा
श्री वृद्धवादी और श्री सिद्धसेन
श्री सिद्धसेन और विक्रमराजा
विक्रमादित्य का समय
श्री वज्रस्वामी
श्री बज्रसेन सूरि
श्री मानदेव सूरि
श्री मानतुन सूरि
श्री उद्योतन सूरि
श्री सर्वदेव सूरि
श्री मुनिचन्द्र सूरि
श्री अजितदेव सूरि
१८
श्री हेमचन्द्र सूरि
श्री जगन्चन्द्र सूरि और तपागच्छ
श्री देवेन्द्र सूरि तथा श्री विजयचन्द्र सूरि
श्री धर्मघोष सूरि
श्री सोमप्रभ सूरि
श्री सोमतिलक सूरि
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५१४
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নি श्री देवसुन्दर सूरि श्री सोमसुन्दर सूरि श्री मुनिसुन्दर सूरि श्री रत्नशेखर सूरि लुका मत की उत्पत्ति श्री हेमविमल सरि श्री आनन्दविमल सूरि और क्रियोद्धार श्री विजयदान सूरि श्री हीरविजय सूरि अकबर महाराजा से भेंट अकबर महागजा के जीवहिमा निषधक फरमान श्री गांनिचन्द्र उपाध्याय और अकबर बादशाह श्री विजयसेन मूरि ढूंढक मत की उत्पत्ति अनुयायी शिष्य परिवार श्री यशोविजयजी उपाध्याय श्री सत्यविजय गणि श्री श्रमाविजय गणि की शिष्य परंपरा लेबिककालीन मत
५१६ ५१७ ५१७ ५२० ५२० ५२२ ५२३ ५२५ ५२७
५३१
५३२ ५३६ ५३७ ५४१ ५४१ ५४२ ५४२
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श्री आत्मानंद जैन सभा अपूर्व प्रन्थो जनताना लाभार्थे पडतर कीमते अपाय छे.
किंमत (१) युगवीर आचार्य भाग १
२-८-० (२) " " , २ . २-८-० (३) , , , ३
२-८-० साथे लेनारने त्रणे
भाग रु. ६मां मळ शे (४) पू. आचार्य विजयवल्लभसूरिजीविरचित
स्तवनमाळा १-८-० (५) पू. आचार्यश्रीनो हिरकमहोत्सव अन्य (६) जैनतत्त्वादर्श हिन्दीमां भाग १ ३-०-० (७) शत्रुञ्जय माहात्म्य हिन्दीमां (छपाय छे ) १०-०-०
___आजे ज लाम ल्यो.
श्री आत्मानंद जैन सभा गोडीजी देरासर, १२ पायधुनी, मुंबई नं० ३
-८-०
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* ॐ नमः स्याद्वादवादिने *
जैनाचार्य न्यायाम्भोनिधि
श्री विजयानन्दसूरीश्वर (प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी ) विरचित -
जैनतत्त्वादर्श
उत्तरार्द्ध
50
सप्तम परिच्छेद
इस परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का स्वरूप लिखते हैं:सम्यग्दर्शन का स्वरूप ऊपर लिख भी आये सम्यक्त्व के भेद हैं, तो भी भव्य जीवों के विशेष जानने के वास्ते कुछ और भी लिखते हैं । सम्यक्त्व के दो भेद हैं- एक व्यवहारसम्यक्त्व, दूसरा निश्चयसम्यक्त्व । जिनोक्त तत्त्वों में ज्ञान पूर्वक जो रुचि है, तिसको सम्यक्त्व कहते हैं । सो सम्यक्त्व, जिन तत्त्वों में यथार्थ रुचि उत्पन्न होने से होता है, सो तत्त्व तीन हैं । एक देवतत्त्व, दूसरा गुरुतत्त्व, तीसरा धर्मतत्त्व । जो पुरुष इन के विषे श्रद्धाप्रतीति करे, सो सम्यक्त्ववान् होता है । तिस श्रद्धा के दो
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२
जैनतस्वादर्श
मेद हैं- एक व्यवहार श्रद्धा, दूसरी निश्चय श्रद्धा । इन दोनों में
प्रथम व्यवहार श्रद्धा का स्वरूप लिखते हैं ।
व्यवहार श्रद्धा में देव तो श्री अरिहंत है, जिस का स्वरूप प्रथम परिच्छेद में लिख आये हैं, सो चार निक्षेप तथा सर्व तहां से जान लेना । तथा तिस अरिहंत मूर्तिपूजन के चार निक्षेप अर्थात् स्वरूप हैं, सो यहां पर कहते हैं - १. नामनिक्षेप, २. स्थापनानिक्षेप, ३. द्रव्यनिक्षेप, ४. भावनिक्षेप हैं । इन चारों का स्वरूप विस्तार पूर्वक देखना होवे, तदा विशेषावश्यक देख लेना । तिन में प्रथम नाम अर्हत, सो " नमो अरिहंताणं " ऐसा कहना । इस पद का जाप करके अनेक जीव संसार समुद्र को तर गये हैं । तथा दूसरा स्थापनानिक्षेप, सो अरिहंत की प्रतिमा अर्थात् समस्त दोषयुक्त चिन्हों से रहित, सहजसुभग, समचतुरस्रसंस्थान, पद्मासन, तथा कायोत्सर्गमुद्रारूप जिनबिंच जानना | तिस को देख कर, तिस की सेवा पूजन करके अनंत जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ।
प्रश्नः - अरिहंत की प्रतिमा को पूजना, उसको नमस्कार करना, और स्थापना निक्षेप मान कर उसको मुक्ति दाता समझना, यह केवल मूर्खता के चिन्ह हैं । जडरूप प्रतिमा क्या दे सकती है ?
* यह नमस्कार मन्त्र का प्रथम पद है, और श्री कल्पसूत्र तथा भगवती सूत्र के आरम्भ में आया है ।
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सप्तम परिच्छेद उत्तर:-हे भव्य ! तू किसी शास्त्र को परमेश्वर का रचा हुआ मानता है, या कि नहीं ! जेकर शास्त्र को परमेश्वर की वचन मानता है, तथा उस को सच्चा और संसार समुद्र से पार उतारने वाला मानता है। तो फिर जिनप्रतिमा के मानने में क्यों लज्जा करता है ! क्योंकि जैसा शास्त्र नडरूप है, अर्थात् उस में स्याही अरु कागज़ को वर्ज कर और कुछ भी नहीं है, तैसी जिनप्रतिमा भी है । जेकर कहोगे कि काग्रजों पर तो स्याही के अक्षर संस्थान संयुक्त लिखे जाते हैं। अतः उनके वाचने से परमेश्वर का कहना मालूम हो जाता है, तो इसी तरे परमेश्वर की मूर्ति को देखने से भी परमेश्वर का स्वरूप मालूम होता है।
प्रश्नः-प्रतिमा के देखने से अर्हत के स्वरूप का तो स्मरण हो आता है, परन्तु प्रतिमा की भक्ति करने से क्या लाम है।
उत्तर:-शास्त्र के श्रवण करने से परमेश्वर के वचन तो मालम हो गये, तो भी भक्त जन जैसे शास्त्र को उच्च स्थान में रखते हैं, तथा कोई शिर पर ले कर फिरते हैं, कितनेक गले में लटकाये रखते हैं, और कितनेक मंजी पर, कितनेक चौकी आदि पर सुन्दर सुन्दर: रुमालों में लपेट कर रखते है, और नमस्कारादि करते हैं, ऐसे ही जिनप्रतिमा की भक्ति, पूजा मी जान लेनी।
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जैन तत्त्वादर्श
प्रश्नः -- जैसे पत्थर की गाय से दूध की गरज़ पूरी नहीं होती है, ऐसे ही प्रतिमा से भी कोई गरज़ पूरी नहीं होती, तो फिर प्रतिमा को क्यों मानना चाहिये !
उत्तर:- जैसे कोई पुरुष सुख से गौ, गौ, कहता है । तो क्त्या उसके इस प्रकार कहने से उसका बरतन दूध से भर जाता है ! अर्थात् नहीं भरता है। ऐसे ही परमेश्वर के नाम लेने और जाप करने से भी कुछ नहीं मिलता, तब तो परमेश्वर का नाम भी न लेना चाहिये ।
प्रश्नः - परमेश्वर का नाम लेने से तो हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है।
उत्तर:- ऐसे ही श्री जिनप्रतिमा के देखने से भी परमेश्वर के स्वरूप का बोध होता है, तातें अंतःकरण की शुद्धि यहां भी तुल्य ही है ।
प्रश्नः --- जब कि परमेश्वर के नाम लेने से पुण्य होता है, तो फिर प्रतिमा काहे को पूजनी !
उत्तरः--- नाम से ऐसे शुद्ध परिणाम नही होते जैसे कि स्थापना के देखने से होते हैं। क्योंकि जैसे किसी सुन्दर यौवनवती स्त्री का नाम लेने से राग तो जागता है, परन्तु जब उस सुन्दर यौवनवती स्त्री की मूर्ति प्रगट सर्वाकार वाली सन्मुख देखें, तब अधिकतर विषयराग उत्पन्न होता है इसी वास्ते श्री दशवैकालिक सूत्र में लिखा है- " *चितमिति
* चित्रगतां स्त्रियं न निरीक्षेत्, न पश्येत् नारी वा सचेतनामिव स्वलंकृर्ता
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सप्तम परिच्छेद न निज्झाए नारी वा सुमलंकियं " अर्थात् स्त्री के चित्राम वाली भीत के देखने से भी विकार उत्पन्न होता है। यह बात तो प्रगट प्रसिद्ध है, कि रागी की मूर्ति देखने से राग उत्पन्न होता है, तथा कोक शास्त्रोक्त स्त्री पुरुष के विषय सेवन के चौरासी चिन्हों को देखने से तत्काल विकार उत्पन्न होता है। ऐसे ही श्री वीतराग की निर्विकार स्थापना रूप शांत मुद्रा को देखने से मन में निर्विकारता और शांत भाव उत्पन्न होता है । परन्तु ऐसा नाम लेने से नहीं होता है।
प्रश्नः-जैसे किसी स्त्री के भर्ता का नाम देवदत्त है, सो जब देवदत्त मर गया, तब उसकी स्त्रीने अपने भरतार देवदत्त की मूर्ति बना कर रख ली, परन्तु उस मूर्ति से उस स्त्री का सुहाग तथा संतानोत्पत्ति और कामेच्छा की पूर्ति नहीं होती है। इसी तरे भगवान् की मूर्ति से मी कुछ लाम नहीं है।
उत्तरः-देवदत्त की स्त्री देवदत्त के मरे पीछे आसन विछाय कर देवदत्त के नाम की माला फेरे, तब उस स्त्री का सुहाग नहीं रहता, तथा भरतार का नाम लेने से संतानोत्पत्ति भी नहीं होती, तथा कामेच्छा भी पूरी नहीं होती । इसी तरे यदि कहेंगे तब तो भगवान् के नाम लेने से उपलक्षणमेतदनलकृता च न निरीक्षेत् । कश्चिद्दर्शनयोगेऽपि भास्करमिव आदित्यमिव दृष्ट्वा दृष्टि समाहरेत्, दागेव निवर्तयेदिति सूत्रार्थः ।
[दशव० टी०, भ. ८, उ० २, गा० ५४]
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जैनतत्वादर्श भी कुछ सिद्धि नहीं होगी। तब तो इस दृष्टान्त से भगवान् का नाम भी न लेना चाहिये ।
प्रश्नः-प्रतिमा को कारीगर बनाता है, तव तो उस कारीगर को भी पूजना चाहिये !
उत्तरः-वेदादि शास्त्रों को भी लिखारी लिखते हैं, तब तो उन को भी पूजना चाहिये ? तथा साधु के माता पिता को भी साधु से अधिक पूजना चाहिये।
प्रश्नः-स्थापना को कोई भी बुद्धिमान् इस काल में नहीं मानता है।
उत्तर:-बुद्धिमान् तो सर्व मानते हैं, परन्तु मूर्ख नहीं मानते।
प्रश्नः-कौन से बुद्धिमान स्थापना मानते हैं ! तिनों का नाम लेना चाहिये।
उत्तरः-प्रथम तो सांसारिक विद्या वाले सर्व बुद्धिमान् , सूगोल, खगोल, द्वीप अर्थात् युरोप खंड, विलायत प्रमुख का सर्व चित्र स्थापना रूप मानते हैं, और बनाते हैं। तथा जो ककार आदि अक्षर हैं, वे सर्व पुरुष-ईश्वर के शब्द की स्थापना करते हैं। तथा जैनियों के मत में जो एक सौ आठ मणके माला में रखते हैं, अधिक न्यून नहीं रखते । इस का - हेतु यह है, कि जैन बारह गुण तो अरिहंत पद के मानते हैं,
अरु आठ गुण सिद्ध पद के, छत्तीस गुण आचार्य पद के, पच्चीस गुण उपाध्याय पद के, तथा सचाईस गुण मुनि-साधु
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सप्तम परिच्छेद
पद के मानते हैं । यह सब मिल कर एक सौ आठ होते हैं। इस वास्ते जैनियों के मत में माला में जो मणके हैं, सो एक एक मणका एक एक गुण की स्थापना है । यह माला भी स्थापना है । इसी तरे दूसरे मतों में भी जो माला तसवी है, सो सर्व किसी न किसी वस्तु की स्थापना है । नहीं तो एक सौ आठ तथा एक सौ एक का नियम न होना चाहिये । तथा पादरी लोगों की पुस्तकों पर भी ईसामसीह की मूर्चि उस वखत की छापी हुई है, जिस अवसर में मसीह को शूली पर देने को ले जाते थे । उस मूर्ति के देखने से ईसा - मसीह की सर्व अवस्था मालूम हो जाती है। बस, स्थापना का यही तो प्रयोजन है, कि जो उसके देखने से असली वस्तु का स्वरूप याद - स्मरण हो जाता है। आश्चर्य तो यह है, कि अब इस काल में कितनेक तुच्छ बुद्धि वाले अपनी बनाई पुस्तक में यज्ञशाला तथा यज्ञोपकरण की स्थापना अपने हाथों से करके अपने शिष्यों को जनाते हैं, कि यज्ञोपकरण इस आकृति के चाहिये । फिर कहते हैं कि हम स्थापना को नहीं मानते है । अत्र विचार करना चाहिये कि क्या इन से मी कोई अधिक मूर्ख जगत् में है ! आप तो स्थापना करते हैं, अरु फिर कहते है कि हम स्थापना को मानते नहीं हैं । इस वास्ते जो पुरुष अपने शास्त्र के उपदेशक को देहधारी मानेगा, वो अवश्य उसकी मूर्ति को भी मानेगा । तथा जो अपने शास्त्र के उपदेष्टा को देहरहित मानते हैं,
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जैनतत्वादर्श वे भी थोड़ी बुद्धि वाले हैं। क्योंकि जिस के देह नहीं, वो शास्त्र का उपदेष्टा कदापि नहीं कर सकता है। कारण कि देह रहित होना अरु शास्त्र का उपदेश देने वाला भी होना, इस बात में कोई भी प्रमाण नहीं है । अरु मूर्ति स्थापना के बिना निराकार सर्वव्यापी परमेश्वर का ध्यान भी कोई नहीं कर सकता है, जैसे कि आकाश का ध्यान नहीं हो सकता है। इस वास्ते अठारह दूषण से रहित जो परमेश्वर है, तिस की मूर्ति अवश्य माननी और पूजनी चाहिये । सो ऐसा देव तो अहंत ही है, इस वास्ते अहंत की प्रतिमा अवश्य माननी चाहिये । परन्तु किसी दुर्बुद्धि के कुहेतुओं से भ्रम में फंस कर छोड़नी कदापि न चाहिये।
तीसरा द्रव्यनिक्षेपः-सो जिस जीव ने तीर्थकर नाम कर्म का निकाचित बंध कीना है, तिस जीव में भावी गुणों का आरोप अर्थात् आगे को तीर्थंकर भगवान् होवेगा, ऐसा वर्तमान में आरोप करके वंदन नमस्कार और पूजन करना द्रव्यनिक्षेप है। इस से अनेक जीव मोक्ष को प्राप्त
चौथा भावनिक्षेपः-सो जो वर्तमान काल में सीमंघर प्रमुख तीर्थकर केवल ज्ञानसंयुक्त, समवसरण में विराजमान, भव्यजीवों के प्रतिबोधक, चतुर्विध संघ के स्थापक, सो भाव अर्हत, इन के चरणकमल की सेवा करके अनेक जीव मुक्त होते हैं । यह भावनिक्षेप है। यह चार
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सप्तम परिच्छेद निक्षेप करके संयुक्त, ऐसा जो अरिहंत देवाधिदेव, महा गोप, महा माहण, महा निर्यामक, महा सार्थवाह, महा वैद्य, महा परोपकारी, करुणासमुद्र, इत्यादि अनेक उपमा लायक, सो भव्य जीवों के अज्ञानांधकार को दूर करने में सूर्य के समान है, प्रमाण करके अविरोधि जिस के वचन हैं । और ऐसे मुनिमनमोहन, योगीश्वर, चिदानंद घनस्वरूप, अरिहंत को मैं देव अर्यात् परमेश्वर मानता हूं, तिस की सेवा करूं, तिस की आज्ञा सिर धरूं, ऐसा जो माने, सो प्रथम व्यवहारशुद्ध देवतत्त्व है।
दूसरा निश्चय शुद्ध देवतत्व कहते हैं। जो शुद्धात्म स्वरूप को अनुभव करना, सो शुद्धात्म स्वरूप ही निश्चय देवतत्त्व है। कैसा है वो आत्मस्वरूप ! कि पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श. शब्द, क्रिया इन से रहित तथा योग से रहित, अतींद्रिय, अविनाशी, अनुपाधि, अबंधी, अक्लेगी, अमूर्त, शुद्ध चैतन्य, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनन्त गुणों का भाजन, सच्चिदानन्द स्वरूपी ऐसी मेरी आत्मा है, सोई निश्चय देव है। ___ अथ दूसरा गुरुतत्त्व कहते हैं । तिस के भी दो मेद हैं, एक शुद्ध व्यवहारगुरु, दूसरा शुद्ध निश्चयगुरु । उस में शुद्ध व्यवहारगुरु का स्वरूप तो गुरुतत्त्व निरूपण परिच्छेद में लिख आये हैं, तहां से जान लेना। ऐसे साधु को गुरु करके माने, ऐसे गुरु की आज्ञा से प्रवर्ते, ऐसे मुनि
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जैनतरवादर्श को पात्र बुद्धि करके शुद्ध अन्नादिक देवे | यह शुद्ध व्यवहार गुरुतत्त्व है। तथा शुद्ध निश्चय गुरुतत्व तो शुद्धात्मविज्ञानपूर्वक है जो हेयोपादेय में उपयोगयुक्त परिहार प्रवृत्तिज्ञान, सो निश्चयगुरुतत्व है। अथ तीसरा धर्मतत्त्व कहते हैं। धर्मतत्त्व के भी दो भेद
हैं, एक व्यवहार धर्मतत्त्व, दूसरा निश्चयधर्मव्यवहार धर्म तत्त्व । तिन में जो व्यवहाररूप धर्म है, सो और दया दयाप्रधान है। क्योंकि जो सत्यादि व्रत हैं,
सो सर्व दया की रक्षा वास्ते हैं। इस वास्ते दया का स्वरूप लिखते हैं। दया के आठ भेद हैं, सो कहते हैं-१. द्रव्यदया, २. भावदया, ३. स्वदया, ४. परदया, ५. स्वरूपदया, ६. अनुबंधदया, ७. व्यवहारदया, ८. निश्चयदया।
१. द्रव्यदया-यत्नपूर्वक सर्व काम करना । यह तो जैन-मत वाले के कुल का धर्म है। सब जैन लोग पानी छान के पीते हैं, और अन्न शोध के खाते है । जेकर कोई जैनी छलकपट करता है, झूठ बोलता है और विश्वासघात करता है, वो पापी जीव है। सो जैन-मत को कलंकित करता है, वो सर्व उस जीव का ही दोष है, परंतु उस में जैनधर्म का कुछ दोष नहीं है। जैनधर्म तो ऐसा पवित्र है कि जिस में कोई भी अनुचित उपदेश नहीं है । यह बात सर्व सुज्ञ जनों को विदित है। इस वास्ते जो काम करना, सो यलपूर्वक जीवरक्षा करके करना।
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सप्तम परिच्छेद २. भावदया-दूसरे जीवों की गुणप्राप्ति के वास्ते तथा दुर्गति में पड़ते हुए जीव के रक्षण वास्ते, अन्तःकरण में अनुकंपा बुद्धि संयुक्त जो परजीव को हितोपदेश करना, सो भावदया है।
३. स्वदया-अनादि काल से मिथ्यात्व, अशुद्ध उपयोग, अशुद्ध श्रद्धापूर्वक अशुद्ध प्रवृत्ति, कषायादि मावशस्त्रों करी समय समय में आत्मा के ज्ञानादि गुणरूप भावप्राणों की हिंसा होती है। ऐसे जिनवचन सुनने से पूर्वोक भावशस्त्रों का त्याग करके स्वसत्ता में प्रवृत्ति करके, शुद्धोपयोग धार के विषय कषायों से दूर रहना, अरु शुभ, अशुभ कर्मफल के उदय में अव्यापक रहना, अर्थात् सुख दुःख में हर्ष विपाद न करना, प्रतिक्षण अशुभ कर्म के निदान को दूर करने की जो चिंता, तिस का नाम स्वदया है। इस स्वदया की रुचि वाला जीव अपनी परिणति शुद्ध करने वास्ते जिन पूजा, तीर्थयात्रा, रथयात्रा प्रमुख शुम प्रवृत्ति करे बहुमान करके जिन गुण गावे, असत् प्रवृत्ति से चित्त को हटा करके तत्त्वालंबी करे, पुद्गलावलंबीपना हटावे। इस शुभाश्रव में यद्यपि देखने में कितनेक जीवों की हिंसा दीख पड़ती है, तो भी आत्मा की अशुद्ध परिणति मिटने से आत्मा को गुणग्राही हो जाती है, जब गुणग्राही भई, तब ज्ञानवान् हो गई। इस वास्ते सर्व साधक जीवों को यह स्वदया परम साधन है। इस स्वदया के वास्ते साधु मी नवकल्पी
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जैन तत्त्वादर्श
विहार करते हैं, और उपदेश देते हैं, चर्चा करते हैं, तथा पूजन, प्रतिलेखन करते हैं । यद्यपि नदी नाले उतरने पड़ते हैं, तहां योगों की चलनता से आश्रव होता है, तो भी चेतन स्वरूपानुयायी रहता है, जिनाज्ञा पालता है, और कषायस्थान मंद करता है, स्वच्छन्दता दूर करता है, तथा धर्म प्रवृत्ति की वृद्धि करता है । यह स्वदया के वास्ते शुभाश्रव साधु भी अपने कल्प प्रमाणे आचरण करता है । परंतु यह आश्रव साधक दशा में बाधक नहीं है । ४. परदया -- छ काय के जीवों की रक्षा करनी । जहां स्वदया है, तहां परदया तो नियम करके है, अरु जहां पर दया है, तहां स्वदया की भजना है, अर्थात् होवे भी, नहीं भी होवे ।
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५. स्वरूपदया - जो इहलोक परलोक के विषयसुख वास्ते तथा लोकों की देखादेखी करके जीव रक्षा करे, विषय सुख तो मिल जाते वृद्धि होती है । यह देखने
सो खरूपदया है । इस दया से हैं, परन्तु मैंडकचूर्णवत् संसार की में तो दया है परन्तु भाव से हिंसा ही है ।
६. अनुबंधदया -- श्रावक बड़े आडम्बर से मुनि को वंदना करने को जावे, तथा उपकार बुद्धि से दूसरे जीवों को सन्मार्ग में छाने वास्ते आक्रोश -- ताडनादि करे, किसी को शिक्षा देवे। यहां देखने में तो हिंसा है, परन्तु अंत में स्वपर को लाभ का कारण है, इस वास्ते यह दया है । जैसे
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सप्तम परिच्छेद साधु, आचार्य, अपने शिष्य शिष्याओं को शिक्षा देता है, किसी को भूल याद कराता है, तथा किसी को अनुचित काम से मना करता है, किसी को एक बार कहता है, अरु किसी को वारम्गर शिक्षा देता है, किसी ऊपर क्रोध मी करता है, शासन के प्रत्यनीक को अपनी लब्धि से दंड देता है, इत्यादि कामों में यद्यपि हिंसा दीखती है, तो भी फल दया का हैं।
७. व्यवहारदया-विधिमार्गानुयायी जीव दया पाले, सर्व क्रियाकलाप उपयोगपूर्वक करे, सो व्यवहारदया है।
८. निश्चयदया-शुद्ध साध्य उपयोग में एकल भाव, अमेदोपयोग साध्य भाव में एकताज्ञान, सो भावदया । इस दया सेती ऊपर के गुणस्थानों में जीव चढ़ता है, तिस वास्ते उत्कृष्ट है। इत्यादि अनेक प्रकार से दया के स्वरूप, विज्ञानपूर्वक सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, वृत्ति, इस पंचांगीसम्मत, प्रत्यक्षादि प्रमाणपूर्वक नैगमादिनय, नामादि निक्षेप, सप्तभंगी, ज्ञाननय, क्रियानय, तथा निश्चयव्यवहारनय, तथा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक, इत्यादि उभय भाव में यथावसरे अर्पित, अनर्पित नयनिपुणता से मुख्य गौण भावे उभयनयसम्मत, शुद्धस्याद्वादशैली विज्ञानपूर्वक, श्रीसिद्धांतोक्त दान, शील, तप, भावनारूप शुभ प्रवृति, तिस का नाम शुद्ध व्यवहारधर्म कहिये हैं।
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जैनतस्वादर्थ तथा दूसरा निश्चयधर्म-सो अपनी आत्माकी आत्मता
को जाने और वस्तु के स्वभाव को जाने । जो निश्चय धर्म मेरी आत्मा है, सो शुद्ध चैतन्यरूम, अ.
संख्यातप्रदेशी, अमूर्न, स्वदेहमात्रव्यापी, सर्व पुद्गलों से भिन्न, अखंड, अलिस, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, चीर्य, अव्यानाध, सच्चिदानंदादि अनंत गुणमयी, अविनाशी, अनुपाघि, अविकारी है, सोई उपादेय है। इस से विलक्षण जो परपुद्गलादिक, सो मेरे नही । तिस पुद्गल के पांच विकार है--१. शब्द, २. रूप, ३. रस, ४. गंध, ५. स्पर्श, इन पांचों के उत्तर भेद अनेक हैं । इस लोकाकाश में उद्योत तथा अंधकार, तथा जो शब्द है, तथा सर्व रूपी वस्तु की जो छाया, रल की कांति, शीत, धूप, नाना प्रकार के रूप, रंग, संस्थान, और नाना प्रकार की सुगंध, दुर्गन्ध, नानाप्रकार के रस, तथा सर्व संसारी जीवों की देह, भाषा, और मन के विकल्प, दस प्राण, छ पर्याप्ति, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और खुशी, उदासी, कदाइ, हठ, लड़ाई, क्रोधादि चार कषाय, तथा साता असाता, ऊंच, नीच, निद्रा, विकथा, तथा सर्व पुण्यप्रकृति, सर्व पापप्रकृति, तथा रीझना, मौज, खिजना, खेद तथा छे लेश्या, लामालाभ, यश, अपयश, मूर्ख, चतुरता, स्त्री, पुरुष, नपुंसकवेद, कामचेष्टा, गति, जाति, कुल, इत्यादि आठ कर्म का विपाक-फल है। यह सर्व बातें जीव के अनुभव
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सप्तम परिच्छेद
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से सिद्ध हैं । अरु सूक्ष्मपुद्गल इंद्रिय अगोचर है, सो परमाणु आदि लेके अनेक तरे का है। इस पूर्वोक्त पुद्गल के संयोग से जीव चारों गति में भटकता है । यह पुद्गल मेरी जाति नही, इस पुद्गल का मेरे साथ कोई वास्तव संबंध नही, और यह पुद्गल सर्व त्यागने योग्य है, जो इस पुद्गल का संसर्ग है, सोई संसार है, तथा इस पुद्गल की संगति से ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुण बिगड़ जाते हैं, जो यह पुद्गल द्रव्य की रचना है, सो मेरी आत्मा का स्वभाव नहीं । तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, यह चारों द्रव्य ज्ञेयरूप हैं, इन से भी मेरा स्वरूप अन्य है और जो संसारी जीव हैं, सो सर्व अपनी अपनी स्वभाव सत्ता के स्वामी हैं, सो मेरे ज्ञान में ज्ञेय रूप हैं, परन्तु मै इन सर्व से अन्य हूँ, ये मेरे नहीं हैं, मैं इनका नहीं, में इनका साथी भी नहीं, और मैं अपने स्वरूप का स्वामी हूँ, मेरा स्वभाव सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप है, वर्ण रहित, तथा गंध रहित, रस रहित, चैतन्य गुण, अनंत, अव्याबाध, अनंत दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यादिक अनंत गुण स्वरूप है तिनकी श्रद्धा भासन पूर्वक गुणस्वभावादिक रूप चिदानंद घन मेरा स्वभाव है । ऐसा जो मेरा पूर्णानंद स्वभाव, तिस के प्रगट करने वास्ते सर्वशुद्ध व्यवहारनय निमित्तमात्र है । परन्तु मुख्य तो मेरा स्वभाव जो है, तिस ही में जो रमणता
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जैनतस्वादर्श
करनी, सोई शुद्ध साधन है, सोई धर्म है । यह निश्चय धर्म
स्वरूप जानना ।
इन तीनों तत्त्वों की जो श्रद्धा-निश्चल परिणति रूप, तिस को सम्यक्त्व कहते हैं । अरु जिस जीव को इतना बोध न होवे, वो जीव जेकर ऐसे मन में धारे, पक्षपात न करे, " तमेव सचं निस्संकं, जं जिणेहिं पवेइयं " इत्यादि जो जिनेश्वर देवोंने कहा है सो सर्व निःशंकित सत्य है, ऐसी तत्वार्थ श्रद्धा को भी सम्यग्दर्शन- सम्यक्त्व कहते हैं । इससे जो विपरीत होवे, तिसको मिध्यात्व कहते हैं इस मिथ्यात्व का स्वरूप नव तत्त्व में लिख आये हैं, तहां से जान लेना । इस मिथ्याer को त्यागे, तिस को सम्यक्त्व कहते हैं ।
जो पूर्व में सोई निश्चय
अथ निश्चय सम्यक्त्व का स्वरूप लिखते हैं । निश्चय देव, गुरु और धर्म का स्वरूप कहा है, सम्यक्त्व है । अनंतानुबंधी चार कषाय, सम्यक्त्व मोह, मिश्र - मोह, अरु मिथ्यात्व मोह, इन सातों प्रकृति का उपशम करे, तथा क्षयोपशम करे, तथा क्षय करे, तिस जीव को निश्चय सम्यक्त्व होता है । निश्चय सम्यक्त्व प्रत्यक्ष (व्यवहार) ज्ञान का विषय नहीं है । केवली ही जान सकता है, कि इसके निश्चय सम्यक्त्व है । इस सम्यक्त्व के प्रगट भये जीव नरक अरु तिर्यंच, इन दोनों गति का आयु नहीं बांधता है ।
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* आचारात सूत्र श्रुत० १, अ० ५ उ०५ ।
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सप्तम परिच्छेद अथ सम्यक्त्व की करनी लिखते हैं। नित्य श्योगवाई
के मिलने पर, और शरीर में कोई सम्यक्त्वधारी विन न होवे, तब जिनप्रतिमा का दर्शन के कर्तव्य करके पीछे से भोजन करे । जेकर जिन
प्रतिमा का योग न मिले, तो पूर्वदिशा की तरफ मुख करके वर्तमान तीर्थंकरों का चैत्यवंदन करे, अरु जेकर रोगादि किसी विन से दर्शन न होवे, तो जिसके आगार है, उसका नियम नहीं टूटता है । और भगवान् के मंदिर में मोटी दश आशातना न करे । दश आशातना के नाम कहते हैं:-१. तंबोल, पान, फल प्रमुख सर्व खाने की वस्तु भगवान् के मंदिर में न खावे । २. पानी, दूध, छाछ, अर्क प्रमुख पीचे नहीं। ३. जिनमंदिर में बैठ के भोजन न करे । ४. जूती प्रमुख मंदिर के अंदर न लावे । ५. स्त्री आदि से मैथुन सेवे नहीं। ६. जिनमंदिर में शयन न करे। ७. जिनमंदिर में थूके नही । ८. जिनमंदिर में लघुशंका न करे । ९. जिनमंदिर में दिशा न जावे । १०. जिनमंदिर में जूआ, चौपट, शतरंज प्रमुख न खेले। ये दश आशातना टाले, तथा उत्कृष्टी चौरासी आशातना वर्जे। तथा एक मास में इतना फूल केसर आदि चढ़ाऊँ। एक मास में इतना घृत चढाऊँ । एक वर्ष में इतना अंगलहना चढाऊ । वर्ष में इतना केसर, इतना चंदन, इतना भीमसेनी बरास, कर्पूर प्रमुख
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* समागम, अवसर ।
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जैनतस्वादर्श
भगवान् की पूजा वास्ते खर्च करूं । अपने धन के अनुसार प्रतिवर्षं धूप, अगरबती, कर्पूर चढ़ाऊं । वर्ष में इतनी अष्ट प्रकारी, सतरा प्रकारी पूजा कराऊं तथा करूं। वर्ष में इतना रुपया साधारण द्रव्य में खरचूं | प्रतिवर्ष पूजा वास्ते इतना द्रव्य खरचूं | प्रतिदिन एक नवकारवाली अर्थात् माला, पंच परमेष्ठि-मंत्र का मोक्ष निमित्त जाप करूं । जेकर कोई दिन जाप न होवे, तो अगले दिन दूना जाप करूं, परंतु रोगादि के कारण आगार है । प्रतिदिन समर्थ होने पर नमस्कार सहित अर्थात् दो घड़ी दिन चढ़े तक चार आहार का प्रत्याख्यान करूं । रात्रि में दुविहार प्रत्याख्यान करूं । परन्तु रास्ते चलते ( सफर में ) रोगादि के कारण से न होवे, तो आगार । वर्ष प्रति इतना साधर्मिवात्सल्य करूं --- साधर्मी जिमावुं । इस रीति से सम्यक्त्व पालू अरु सम्यक्त्व के पांच अतिचार टालू। सो पांच अतिचार कहते हैं ।
प्रथम शंका अतिचार - सो जिनवचन में शंका करनी । क्योंकि जिनवचन बहुत गंभीर हैं, और शङ्का अतिचार तिनका यथार्थ अर्थ कहनेवाला इस काल में कोई गुरु नहीं । और शास्त्र जो है, सो अनंतनयात्मक है । तिसकी गिनती तथा संज्ञा विचित्र तरह की है। कई एक जगे तो कोड़ी शब्द क्रोड़ का वाचक है, और किसी जगे रूढ़ वस्तु (२० संख्या) का वाचक है । क्योंकि श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण सर्व संघ के
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सप्तम परिच्छेद
१९ सम्मत आचार्य, संघयण नामा पुस्तक में तथा विशेषणवती ग्रंथ में लिखते हैं, कि कोई एक आचार्य कोड़ी शब्द को एक क्रोड़ का वाचक नही मानते हैं, किंतु संज्ञान्तर मानते हैं। क्योंकि अब वर्तमान काल में भी वीस को कोड़ी कहते हैं। तथा सौराष्ट्र देश अर्थात् सोरठ देश में अब वर्तमान काल में भी पांच आने को एक कोड़ी कहते है । यह जैसे कोड़ी शब्द मैं मतांतर है, ऐसे ही शत, सहस्र शब्द भी किसी संज्ञा के वाचक होंवें, तो कुछ दोष नहीं। तथा शत्रुजय तीर्थ में जहां मुनि मोक्ष गये हैं, तहां भी पांच कोड़ी आदि शब्दों की कोई संज्ञाविशेष है । ऐसे ही छप्पन कुल कोड़ी यादव कहते हैं तहां भी यादवों के छप्पन कुलों की कोड़ी कोई संज्ञा विशेष है । इसी तरह सर्व जगे शास्त्रों में चक्रवर्ती की सेना तथा कोणिक, चेटक राजाओं की सेना में जो कोड़ी, शत अरु सहस्र शब्द हैं, सो संज्ञा विशेष के बाचक मालूम होते हैं । इस वास्ते सर्व शब्दों को सर्व जगे एक सरीखा अर्थ मानना युक्त नहीं । इस कथन में पूज्य श्री जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण पूरे साक्षी देनेवाले है ।
तथा कितनेक भव्य जीवों ने सामान्य प्रकार से ऐसा सुन रक्खा है, कि पांच में आरे में पंचम काल की उत्कृष्ट एक सौ बीस वर्ष की आयु है । जब वो जीव किसी अंग्रेज़ तथा और किसी के मुख से सुनते हैं, कि डेढ़ सौ तथा दो सौ,
मनुष्यायु
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जैनतरवादर्श
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तथा अढ़ाई सौ वर्ष की आयु वाले भी मोट्टानादि किसी देश में मनुष्य होते हैं, तब दृढ़ श्रद्धावाले भोले जीव तो कदापि किसी का कहना नहीं मानते हैं, चाहे बड़ी आयुवाला मनुष्य उनके सन्मुख भी खड़ा कर दिया जावे, तो भी वे झूठ ही मानेंगे। क्योंकि वे जानते हैं, कि जो हमारे जिनेन्द्र देव का कथन है, सो कदापि झूठा नहीं है । परन्तु जिन को जैन मत की दृढ़ श्रद्धा नहीं है, वे कुछ सांसारिक विद्या में निपुण हैं, चाहे जैन मत वाले ही हैं, उनके मन में अवश्य शंका पड़ जायगी । क्योंकि उन्हों ने भी सर्व जैन मत के शास्त्र सुने नहीं हैं। शास्त्र में जो कथन है, सो सापेक्षक है, बाहुल्य करके कहा हुआ है । सो कथंचित् जो अन्यथा होवे, तो आश्चर्य नहीं । क्योंकि बहुत से शास्त्रों में लिखा है, कि ज्योतिष - चक्र अर्थात् तारा - मंडल है, सो सर्व तारे मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते हैं । यह बात सर्व जैन मानते हैं । परन्तु ध्रुव का तारा कहीं भी नहीं जाता है, अरु तारे -- सप्त ऋषि रूढ़ि (लोक) में प्रसिद्ध हैं, जिन को बालक मंजी, पहरेदार, कुत्ता और चोर कहते हैं। तथा और भी कितन नेक तारे ध्रुव के पार्श्ववर्ती हैं। वे सर्व घ्रुत्र की प्रदक्षिणा देते हैं । परन्तु मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा नहीं देते हैं । यह बात हमने आंखों से देखी है, अरु औरों को दिखा सकते हैं। तो फिर प्रथम जो शास्त्रकार ने कहा था, कि सर्व तारे मेरु की प्रदक्षिणा देते हैं, यह कहना जैनी क्योंकर सत्य मानते हैं ?
ध्रुव के पास जो
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सप्तम परिच्छेद इसका समाधान ऐसा है, कि प्रथम जो कथन है, सो बाहुल्य की अपेक्षा से है । क्योंकि बहुत तारा-मंडल ऐसा है, जो मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता है, अरु कितनेक ऐसे हैं, जो ध्रुव के ही आसपास चक्र देते हैं। यह समावान, पूज्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजीने संघयण तथा विशेषणवती ग्रन्थ में लिखा है कि मेरु पर्वत के चारों ओर चार ध्रुव हैं, अरु उन चारों ध्रुवों के पास ऐसे ऐसे तारे हैं, जो सदा उन चारों ध्रुवों के ही आसपास चक्र देते हैं । इस से यह सिद्ध हुआ कि जो शास्त्र का कहना है, सो बाहुल्य से अरु किसी अपेक्षा करके संयुक्त है। अरु किसी जगे स्थूल व्यवहार नय के मत से कथन है, परन्तु सूक्ष्म अधिक न्यूनता की विवक्षा नहीं करी है। इसी तरें सौ वर्ष से अधिक आयु जो पंचम काल में कही है, सो बाहुल्य की अपेक्षा तथा आर्य खंड अर्थात् मध्य खंड की अपेक्षा से है। जे कर किसी पुरुष की १५०, २००, २५० इत्यादि वर्षों की आयु हो जावे, तो मन में जिनवचन की शंका न करनी–कि क्या जाने जिनवचन सत्य हैं कि जूठ हैं ? अर्थात् ऐसा विकल्प मन में नहीं करना, क्योंकि शास्त्र का आशय अति गम्भीर है, अरु ऐसा गीतार्थ कोई गुरु नहीं है, जो यथार्थ बतला देवे। ___ इस आयु के कहने का यह समाधान है, कि भगवान् श्री महावीर के निर्वाण पीछे ५८५ वर्ष के लगभग जैन मत
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जैनतस्वादर्श . के आचार्य श्री आर्यरक्षितसूरि साढ़े नव पूर्व के पाठक, जिन के पास शकेन्द्र, निगोद जीवों का स्वरूप सुनने आया था। तब शकेन्द्र ने प्रथम वृद्ध ब्राह्मण का रूप करके श्री आर्यरक्षितसूरि को पछा, कि हे भगवन् ! मैं वृद्ध हो गया हूं, जेकर मेरी आयु थोड़ी होवे, तो मुझे बता दीजिये, ताकि मैं अनशन करूं। तब श्री आर्यरक्षितसूरिजीने दशमे पूर्व के यवका अध्ययन में उपयोग दे कर देखा, तो तिस की आयु सौ वर्ष से अधिक जानी, फिर उपयोग दे कर देखा, तो दो सौ वर्ष से अधिक आयु जानी, फिर उपयोग दिया, तो तीन सौ वर्ष से अधिक आयु जानी। तब आचार्य श्री आर्यरक्षितसूरिजीने विचार किया, कि यह भारतवर्ष का मनुष्य नहीं है। यह कथानक आवश्यक सून की सामायिक अध्ययन की उपोद्धात नियुक्ति में है। इस कथानक से ऐसा भाव निकलता है, कि यदि भारतवर्ष के मनुष्य की आयु तीन सौ वर्ष की भी होवे, तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि श्री आर्यरक्षितसूरिजी ने जो तीन सौ वर्ष से जब अधिक आयु देखी, तब कहा, कि यह भारत वर्ष का मनुष्य नहीं। इसे कहने से तीन सौ वर्ष की आयु भी भारतवर्ष में मनुष्य की किसी प्रकार से होवे, तो क्या आश्चर्य हैं।
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सप्तम परिच्छेद
૨૨ तथा कितनेक जीवों के मन में ऐसी भी शंका होवे,
तो उसका क्या समाधान है ! जैसे कि आधुनिक भूगोल जैनमत वाले भारतखंड कहां तक मानते हैं ! तथा जैन क्योंकि अमेरिका, रूस, चीन आदि जो देश मान्यता इस काल में लोगों के देखने वा सुनने में
आते हैं, जैनलोक उन सब को भारतवर्ष में ही मानते हैं । तथा अमेरिका, विलायतादि सर्व मुलकों के वीच में जो समुद्र पड़ा है, सो ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती के समय में नहीं था, किंतु जगत के बाहिर जो महासमुद्र है, सोई था। इस कारण से अर्थात् समुद्र के अंदर आजाने से असली भरतक्षेत्र का स्वरूप बिगड़ गया-कहीं समुद्र हो गया, और कहीं द्वीप बन गये । ___ इस विषय जैनमत का शत्रुजयमाहात्म्य नामा ग्रंथ है, तिसमें लिखा है, कि दूसरा सगरनामा चक्रवर्ती हुआ है, वह इस समुद्र को भारतवर्ष में जंबूद्वीप के दक्षिण दिशा के विजयंत नामक दरवाजे के रास्ते से लाया है। तिसके लाने से वर्वरादि अनेक हजारों देश तो जल में डूब कर समुद्र की भूमिका वन गये, और जो उच्चस्थल थे, वे द्वीप
और विलायतादि देश बन गये। पीछे से असली देशों का नाम नष्ट होने से बहुत देशों के नाम कल्पित रक्खे गये। भरतखंड कुछ और का और बन गया । कितनेक देशों के उत्तर खंडों में बर्फ के पड़ जाने से, और समय के बदलते
और कहीं बाप का स्वरूप विगार के अंदर
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जैनतत्वादर्श से सर्वथा पानी जम गया । तब तो चारों और समुद्र ही दीखने लगा। तिस लिये आना जाना बंद हो गया । और हमारे शास्त्रकार तो प्रथम आरे में तथा ऋषभदेव और भरतचक्रवर्ती के समय में जो जो इस भारतवर्ष का हाल था, सोई सदा से लिखते चले आये हैं। परंतु भरतक्षेत्र के बिगड़ तिगड़ के और का और बन जाने से किसी ने विस्तारपूर्वक वृत्तात ठीक ठीक नहीं लिखा । जे कर लिखा भी होवेगा, तो भी जैनमत के ऊपर बड़ी बड़ी विपत्तियें आई हैं, उनसे लाखों ग्रंथ नष्ट हो गये हैं। इस वास्ते हम ठीक ठीक सर्व वृत्तांत वता नहीं सकते हैं। परंतु जितनेक जैन मत के अंथ हमारे वांचने में आये हैं, उनमें से जो ठीक है, सो इस ग्रंथ में लिखते हैं।
इस समय सर्वक्षेत्र अदल बदल हो गये हैं। गंगा, सिंधु असलस्थान में नहीं बहतीं। क्योंकि उनका अगला प्रवाह तो समुद्र ने रोक लिया, और पीछे से पानी आना वंद हो गया। फिर जिस पर्वत से अधिक नदी की प्रवृत्ति मई, वो नदी उसी पर्वत से निकलती लोकों ने मान लीनी । इस वास्ते गंगा और सिंधु में क्षुल्लक हेमवंत पर्वत से जल आना बंद हो गया, नाम मात्र से गंगा सिंधु रह गईं। और नगरियों में वनिता नगरी की कल्पना पर अयोध्या बनाई गई। काबूल के परे तक्षिला अर्थात् बाहुबल की नगरी की कश्पना करी गई। इस समय में वो तक्षिला भी नहीं रही।
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सप्तम परिच्छेद
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उसका नाम ग़ज़नी प्रसिद्ध हुआ । जैनियों की श्रद्धा के अनुसार प्रथम आरे को अरु ऋषभदेव तथा भरत राजा के समय के व्यतीत होने में असंख्य वर्ष व्यतीत हो गये हैं । तो फिर नदी, पर्वत, देश, नगरों के उलट हो जाने में क्या आश्चर्य है ! और समुद्रका देशों पर फिर जाना तो तौरेत ग्रन्थ से भी ठीक ठीक सिद्ध होता है । तथा पुराणादि ग्रन्थों में भी लिखा है, कि कोई ऐसा समय भी था कि समुद्र में पानी नहीं था, पीछे से आया है। इस वास्ते शत्रुंजयमाहात्मय में जो लिखा है कि भरत क्षेत्र में समुद्र का पानी सगर चक्रवतीं लाया है, सो कहना ठीक है ।
तथा तपगच्छ के आचार्य श्री विजयसेनसूरि अपने प्रश्नोवरदाम अरु प्रभासक नामक बाहिर के समुद्र में हैं। इस जब षट् खण्ड
यह समुद्र का
तर में लिखते हैं, कि मागध, तीन जो तीर्थ हैं, सो जगत के से भी यही सिद्ध होता है, कि भरत चक्रवर्ती अरु मागधादि तीर्थों के साधने को गये थे, तब पानी रस्ते में नहीं था । तथा शास्त्रकारो ने तो सर्व शास्त्रों की शैली श्री ऋषभदेव के कथनानुसार रक्खी है । इस वास्ते चक्रवर्ती आदि का कथन भरत चक्रवर्त्ती के सरीखा कह दिया है ।
तथा इस काल कितनेक विद्वानों ने भूगोल के हिसाब से जो कुतव बनाये हैं, और उनके अनुसार सरद तथा
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जैनतस्वादर्श
गरम देशों का विभाग किया है । यद्यपि उन के देखने सुनने मूजब तथा उनके अनुमान के अनुसार वर्तमान समय में ऐसा ही होवेगा; परंतु सदा ऐसा ही था, यह कहना ठीक नही । क्यों कि भूगोलहस्तामलक पुस्तक में लिखा हैं, कि रूस देश के उत्तर के पासे ( तरफ ) जहां बर्फ के सिवाय और कुछ भी नहीं है, तहां गरमी के दिनों में बर्फ के गलने से तथा किसी जगे बर्फ़ के करार गिर पड़ने से उसके हेठ (नीचे) से एक किसम के हाथी निकलते हैं, सो भी सैंकड़ो हज़ारों निकलते हैं, जिन का नाम उस देश वाले मेमाथ कहते हैं । अब बड़ा आश्चर्य तो इन मेमाथों के देखने से यह होता है, कि ये जानवर गरम मुलकों के रहने वाले हैं, अरु यह सरद मुलक में कहां से आये ! अरु इन के खाने वास्ते भी कुछ नहीं । इस काल में जो एक भी हाथी उस मुलक में जा कर बांधें, तो थोड़े से काल में मर जायगा । तो ये लाखों मेमाथ इस मुलक में क्योंकर जाते होंगें ! और क्या खाते होंगे ! इस में यही कहना पड़ेगा कि किसी समय में यह मुलक गरम होवेगा पीछे पवन की तासीर सरद मुलक हो गया । इस वृतांत से यह सिद्ध कि जो सरद मुलक हैं, वे गरम हो सकते हैं, अरु जो गरमं मुलक हैं, वे किसी काल में सरद हो जाते हैं । इस वास्ते मूगोल के अनुसार जो सरदी गरमीं की व्यवस्था की कल्पना
बदलने से
होता हैं,
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सप्तम परिच्छेद करनी है, वह हमेशा के वास्ते दुरुस्त नहीं। क्या जाने देशों की क्या क्या व्यवस्था बदल चुकी है ! और क्या क्या बदलेगी ! इस का पूरा स्वरूप तो सर्वज्ञ जान सकता है।
तथा इस पृथ्वी को भूगोल कहते हैं । अरु यह भी कहते है कि सूर्य नहीं फिरता, किंतु पृथ्वी सूर्य के इर्द गिर्द घूमती है। यह वात कुछ अंग्रेज़ों ही ने नहीं निकाली है, किंतु अंग्रेजों से पहिले भी इस बात के मानने वाले भारत वर्ष में थे। क्योंकि जैनमत का शीलांगाचार्य जो विक्रम के ७०० वर्ष में हुआ है, वे आचार्य आचारांग सूत्र की वृत्ति में लिखते हैं,* कि कितनेक ऐसा भी मानते हैं, कि भूगोल फिरता है, अरु सूर्य स्थिर रहता है। परन्तु यह मत जैनियों का नहीं है। उनके शास्त्रों में तो प्रगट लिखा है, कि सूर्य चलता है, अरु पृथ्वी स्थिर रहती है । और सूर्य के प्रमण करने के एक सौ चौरासी मंडल आकाश में हैं। उन मंडलों में प्रवेश करना, अरु दिनमान, रात्रिमान का घटना बढ़ना, अरु मौसमों का बदलना, ग्रहण का लगना, सूर्य के अस्त उदय होने में मतों का विवाद, इत्यादि सर्व वाते सूर्यप्रज्ञप्ति वा चंद्रप्रज्ञप्ति शास्त्रों के पढ़ने से अच्छी तरह मालूम पड़ जाती हैं।
*भूगोलः केपांचिन्मतेन नित्यं चलन्नेवास्ते, आदित्यस्तु व्यवस्थित
[२०६ मा ८.सू. १९९]
एव।
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जैनतत्त्वादर्श तथा जो पृथ्वी के गोल होने में समुद्र के जहाज की ध्वजा प्रथम दीखती है, इत्यादि कहते हैं । सो यह बात कहने वालों की समझ में ऐसे आती होवेगी, परन्तु हमारी समझ में तो नहीं आती है। हम तो ऐसे समझते हैं, कि हमारे नेत्रों में ऐसी ही योग्यता है, कि जिस से वस्तु गोलादि दीख पड़ती है। क्योंकि जब हम सीधी सड़क पर खड़े होते हैं, तब हमारे पगों की जगें सड़क चौड़ी मालूम पड़ती है, अरु जब दूर नज़र से देखते हैं, तव बो ही सड़क संकुचित मालूम पड़ती है । अरु आकाश में पक्षी को जब शिर के ऊपर उड़ता देखते हैं, तब हम को ऊंचा दूर दीख पड़ता है, अरु जब उसी जानवर को थोड़ी सी दूर जाते को देखते हैं, तब धरती से बहुत निकट देखते हैं । इतनी दूर में पृथ्वी की इतनी गोलाई नहीं हो सकती है । तथा आकाश को जब देखते हैं, तब तंबू सा दिखलाई देता है। इस में जो कोई यह बात कहे कि धरती की गोलाई के सबब से आकाश भी गोल दीखता है, यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि पृथ्वी की इतनी गोलाई नहीं हो सकती है। इस वास्ते नेत्रों में जिस वस्तु के जानने की जैसी योग्यता है, वैसी वस्तु दीखती है, यही कहना ठीक मालूम होता है।
तथा यह भरतखंडादिक की पृथ्वी बहुत जगे ऊंची लीची मालम होती है, क्योंकि श्रीहेमचन्द्रसरि प्रमुख आचार्य
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सप्तम परिच्छेद पद्मप्रभचरित्रादि ग्रंथों में लिखते हैं, कि लंका से इतने योजन पश्चिम दिशा को जावे, तब आठ योजन नीचे पाताल लंका है। जेकर इस प्रमाण योजन होवें, तब तो क्या जाने अमेरिका ही पाताल लंका होवे । अरु नीची जगा होने से बुद्धिमानों को पृथ्वी गोल मालूम पड़ती होवेगी। इसी पाताल लंका की तरे और जगे भी धरती ऊंची नीची होवे, तो क्या आश्चर्य है ! क्योंकि पश्चिम महाविदेह की घरती एक हज़ार योजन ऊंडी (गहरी) लिखी है। इसी तरे
और जगे मी ऊंची नीची धरती के सबब से कुछ और का और दीख पड़े, तो जैनमती को श्री अहंत भगवंत के कहने में शंका न करनी चाहिये। तथा कितनीक पुस्तकों में लिखा देखा और सुना भी
है कि अमेरिकादि मुलकों में ऐसी विद्या प्रेतविद्या निकाली है, कि जिस करके वो दो हजारादि
वर्ष पहिले जो मनुष्य मर गये थे, उनको बुलाते है । अरु उन से उस वक्त का सर्व हाल पूछते हैं, अरु वे सर्व अपनी व्यवस्था बतलाते हैं। परन्तु परोक्ष में उनका शब्द सुनाई देता है, वे प्रत्यक्ष नहीं दीखते हैं । तथा अनेक तरे के तमाशे दिखाते हैं, कि जिन के देखने से अल्पबुद्धियों की बुद्धि अस्तव्यस्त हो जाती है । तब उनके मन में अनेक शंका कंखा उत्पन्न हो जाती हैं। जिस के सबब से अहंतकथित धर्म में अनादर हो जाता है, क्योंकि उन
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जैन तत्वादर्श
हुए, विलाप करते हुए, अरु ऐसे
जीवों ने न तो पूरे जैनमत के शास्त्र पढ़े हैं, और सुने हैं । इस वास्ते उनके मन को जल्द अधीरज हो जाती है । परन्तु अपने घर की सर्व पुस्तकें बिना बाचे, विना सुने, तुच्छ वात के वास्ते एकबार भी जिन धर्म में शंका न लानी चाहिये । क्योंकि यह पूर्वोक्त सर्व वृतांत इन्द्रजाल की पूर्ण विद्या जिस को आती होवे, वो दिखा सकता है । हमने किसी ग्रंथ में ऐसा लिखा देखा है, कि कुमारपाल राजा के समय में एक बोधिदेव नामक ब्राह्मण था । उसने राजा कुमारपाल की श्रद्धा जैन मत से हटाने के वास्ते कुमारपाल से जो प्रथम उनके वंश के मूलराज आदि सात राजा हो गये थे, उन को नरक कुण्ड में पड़े कहते हुए दीख पड़े कि हे पुत्र ! जिस धर्म अंगीकार किया है, उस दिन से हम तेरे सात पुरुष नरक कुण्ड में जा पड़े हैं। जेकर तू हमारा भला चाहे, तो जैन धर्म छोड़ दे । ऐसी बात देख कर राजा कुमारपाल चित्त में घबराया, तब जाकर अपने गुरु श्रीहेमचंद्राचार्य को पूछा, कि महाराज ! यह क्या वृतांत है ! तब श्रीहेमचंद्र आचार्यजीने कहा कि हे राजेंद्र ! ये सर्व इन्द्रजाल की विद्या है, आओ ! मैं भी तुम को कुछ तमाशा दिखाऊं । तब राजा कुमारपाल को मकान के अन्दर के मकान में ले जा कर दिखायाचौबीस तीर्थकर समवसरण में जुदे जुदे बैठे हैं, अरु कुमारपाल क्रे वे ही सात पुरुष तीर्थकरों की सेवा करते हैं । तथा
दिन से तूने जैन
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सप्तम परिच्छेद
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राजा कुमारपाल को कहेते हैं, कि हे पुत्र ! तू बड़ा पुण्यात्मा अंगीकार किया है। जिस दिन से
है, कि जिस ने जैन धर्म तूने जैन धर्म अंगीकार किया है, उस दिन से हम नरक कुण्ड से निकल कर स्वर्गवासी हुए हैं। इस वास्ते तू धर्म में दृढ़ रह । उसके पीछे श्रीहेमचन्द्रसूरि राजा कुमारपाल को बाहिर लाये, तब राजा ने पूछा कि महाराज ! यह क्या आश्चर्यकारी तमाशा है ? तब श्रीहेमचन्द्रसूरि कहते भये कि हे राजा ! यह इन्द्रजाल विद्या जिस को आती होवे, वो कर सकता है । क्योंकि इन्द्र जाल विद्या के सत्ताईस पीठ हैं, जिन में से सतरां पीठ संसार में प्रचलित हैं। परन्तु सचाईस पीठ हम जानते हैं, और कोई भी भारतवर्ष में नही जानता है । अरु जिन गुरुओं ने हम को यह विद्या दीनी थी, उनों ने ऐसी आज्ञा भी करी है, कि आगे को तुम ने किसी को यह विद्या न देनी । क्योंकि इस विद्या से बड़े अनर्थ उत्पन्न हो जायेंगे। क्योंकि इस काल में जीव तुच्छ बुद्धि वाले हैं, इसलिये उन को यह विद्या जरेगी ( पचेगी ) नहीं। इसी वास्ते हमारे आचार्यों ने योनिप्राभृत शास्त्र विच्छेद कर दिया है। उसी योनिमाभृत के अनुसार यह इन्द्रजाल रचा हुआ है। इस योनिमाभृत का कथन व्यवहारभाष्यचूर्णि में लिखा है, कि उस योनिप्राभृत तंत्रविद्या है । जिस से सर्प, घोड़े, हाथी वगैरे ज़िंदा जानवर, वस्तुओं के मिलाने से बन जाते हैं, तथा सुवर्ण, मणि, रत्न प्रमुख बन जाते हैं ।
में
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जैनतत्त्वादर्श उन मसालों में ऐसी मिलन शक्ति है, कि चाहे सो बनालो। इस वास्ते कोई आज नवी वस्तु देख कर जैन धर्म से चलायमान न होना चाहिये। तत्वार्थ के महाभाष्य में समंतभद्र आचार्य भी लिखते हैं, कि इन्द्रजालिया तीर्थकर के समान बाद सिद्धि सर्व बना सकता है, इस वास्ते किसी वात का चमत्कार देख के जिनवचनों में शंका कदापि न करनी। तथा कितनेक जैनमत वालों को यह भी आश्चर्य है,
कि यदा आर्यावर्त में दो प्रहर दिन होता शास्त्र और है, तदा अमेरिका में अर्द्धरानि होती है अरु उन के अर्थ यदा अमेरिका में दो प्रहर दिन होता है,
तदा आर्यावर्त में अर्द्धरात्रि होती है। कितने लोकों ने घड़ियों के हिसाब से तथा तार की खबरों से इस बात का निश्चय अच्छी तरे से करा हुआ बतलाते हैं। इस बात का उत्तर मैं यथार्थ नहीं दे सकता हूं। मेरी श्रद्धा ऐसी नहीं है कि पूर्व आचार्यों के अनुसरण बिना समाधान कर सकू । क्यों कि मेरी कल्पना से कुछ जैन मत सत्य नहीं हो सकता है, जैनमत तो अपने स्वरूप से ही सत्य बनेगा। जेकर मेरी कल्पना ही सत्य का कारण होवे, तब तो किसी पूर्वाचार्यों की अपेक्षा न रहेगी। तब तो जिस के मन में जो अर्थ अच्छा लगेगा, सो अर्थ कर लेवेगा। जैसे वर्तमान
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सप्तम परिच्छेद
मैं किसी पाखंडी मस्करी ने ऋग्वेदादि वेदों के स्वकपोलकल्पित अर्थ लिखे हैं, सो हमने वाच भी लिये हैं । उनने वेदमंत्रादिकों के ऊपर जो भाष्य बनाया है, उस में मन्त्रों के अर्थों में ऐसा लिखा है कि " अग्निबोट " अर्थात् धुएं की कल से चलने वाले जहाज़ तथा रेलगाड़ी के चलने की विधि, तथा पृथ्वी गोल है, अरु सूर्य के चारों ओर घूमती है, और
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स्थिर है, इत्यादि जो अंग्रेज़ो ने अपनी बुद्धि के बल से विद्याएं उत्पन्न करी हैं, उन सर्व विद्याओं का वेदों में भी कथन है । अपने शिष्यों को वेद का महत्त्व बताने के वास्ते स्वकपोलकल्पित अर्थ लिख लिये हैं । अरु पूर्व में जो महीधरादि पंडितों ने वेदों के ऊपर दीपिका तथा भाष्य रचे हैं, उन की निंदा अर्थात् मूर्खता प्रगट करी है । वे मूर्ख थे, उन को वेद का अर्थ नहीं आता था ।
प्रश्नः - पिछले अर्थ छोड़ कर जो नवीन अर्थ करे गये, इस का क्या कारण है !
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उत्तरः --- प्रथम तो वेदों के प्राचीन भाष्य और दीपिका मानने से वेदों की सत्यता अरु ईश्वरोक्तता तथा प्राची
* यहां ' पाखण्डी मस्करी' शब्दों से वर्तमान आर्यसमाज के जन्मदाता स्वामी दयानन्दजी सरस्वती अभिप्रेत है। क्योंकि उन्होंने ही दुनिया भर के विद्वानों से अनोखे, वेदों के नाना मनःकल्पित अर्थ किये हैं । जो कि वेद सिद्धात के सर्वथा विरुद्ध हैं । इस के विशेष विवरण के लिये देखो । परि० नं० २ घ ।
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जैनतत्त्वादर्श नता सिद्ध नहीं होती। इसी वास्ते ईशावास्य उपनिषद् को वर्ज के सर्व उपनिषद, और सर्व ब्राह्मण भाग, तथा सर्व स्मृति, पुराणादि शास्त्र, भाष्य, दीपिकादि मानने छोड़ दिये । उनों ने यह विचार किया है, कि इन सर्व पूर्वोक्त ग्रंथों के मानने से हमारा मत दूसरे मतवाले खंडित कर देवेंगे। क्योंकि ये पूर्वोक्त सर्व ग्रन्थ युक्तिप्रमाण से विकल हैं । अरु प्राचीनों ने जो अर्थ करे हैं, उन में बहुत अर्थ ऐसे है, कि जिन के सुनने से श्रौता जनों को भी लज्जा उत्पन्न होती है। क्योंकि महीधरकृत दीपिका जो वेद की टीका है, उस में मंत्रादिकों के जो अर्थ लिखे हैं, जैसे कि यज्ञपत्नी घोड़े का लिंग पकड़ के अपनी योनि में प्रक्षेप करे, इत्यादि, सो हम आगे लिखेंगे । इत्यादि अर्थों के छोड़ने वास्ते अरु वेदों का खण्डन न हो, इस वास्ते स्वकपोलकल्पित भाष्य बना कर मानो अंग्रेजों के चालचलन और इंजील के मतानुसार अर्थ किये गये है। परन्तु उन को बुद्धिमान तो कोई भी मानता नहीं है। तथा जो मानते हैं, वो कुछ जानते नहीं
है। क्योंकि जब पूर्व के ऋषि, मुनि, पंडित झूठे हैं, अरु - उन के किये हुये अर्थ असत्य हैं, तो अब के बनाये हुये कदापि
सत्य नहीं हो सकेंगे? जो जड में ही झूठे हैं वे नवीन रचना से कदापि सत्य न होवेंगे । इस वास्ते अपनी बुद्धि का विचार सत्य मानना, अरु प्राचीन उन वेदों के मानने वालों का संप्रदाय झूठा मानना, इस से अधिक निविवेक और
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सप्तम परिच्छेद
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अन्याय क्या है ? क्योंकि जब प्राचीनों के किये हुए अर्थ झूठे ठहरेंगे, तब तिन के बनाये हुए वेद भी झुठे ही ठहरेंगे। इस वास्ते जो मतधारी हैं, या तो उनको अपने प्राचीनों के कथन करे हुए अर्थ मानने चाहिये, नहीं तो उस मत को अरु उस शास्त्रों को छोड़ देना चाहिये ।
मत के
इस वास्ते मेरी ऐसी श्रद्धा है, कि जो जैन मत में प्रमाणिक अरु पंचांगीकारक आचार्य लिख गये हैं, उस के अनुसार ही हम को कथन करना चाहिये, परन्तु स्वकपोलकल्पित नहीं । नेकर कोई स्वकपोलकल्पित मानेगा, वो जैनमती कदापि नहीं हो सकेगा, अरु उस की कल्पना भी सर्वथा सत्य नहीं होवेगी। क्योंकि जब सर्व मतों के पूर्वाचार्य झूठे ठहरेंगे, तब नवी कल्पना करने वाले क्योंकर सच्चे बन बैठेंगे ? इस वास्ते पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर पंचांगी के प्रमाण से नहीं दे सकता हूं, क्योंकि - १. शास्त्र बहुत विच्छेद हो गये है । २. आर्यरक्षित सूरि के समय में चारों अनुयोग तोड़ के पृथक्त्वानुयोग रचा गया है । ३. स्कंदिल आचार्य के समय में बारह वर्ष का काल पड़ा था, उसमें शास्त्र कंठ से मूल गये थे। फिर सर्व साधुओं का दक्षिण मथुरा में समाज करके जिस जिस साधु, आचार्य के जिस जिस ' शास्त्र का जो जो स्थल कंठ रह गया, सो सो स्थल एकत्र करके लिखा गया । ४. पीछे देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण
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जैनतवादर्श प्रभृति आचार्यों ने पत्रों के ऊपर एक क्रोड ग्रंथ लिखे, शेष छोड़ दिये । ५. प्रभावकचरित्र में लिखा है, कि सर्व शास्त्रों की जो टीका लिखी थी, वो सर्व विच्छेद हो गई। ६. पीछे से ब्राह्मणों ने तथा बौद्धों ने ग्रन्थों का नाश किया । तथा ७. मुसलमानोंने तो सर्वमतों के शास्त्र मट्टी में मिला दिये । तिन में से जो रह गये, वे भण्डारों में गुप्त रहने से गल गये, तथा जो अब भण्डारों में हैं, वे सव हमने वाचे नहीं हैं । तो फिर इतने उपद्रव जैन शास्त्रों पर वीतने से हम क्योंकर सर्व शंकाओं का समाधान कर सकें। इस वास्ते जैनमत में शंका न करनी चाहिये । हम ने सर्व मतों के शास्त्र देखे हैं, परन्तु जैनमत समान अति उत्तम मत कोई नहीं देखा है । इस वास्ते इस मत में दृढ रहना चाहिये । दूसरा आकांक्षा अतिचार-सो अन्यमत वालों का अज्ञान
कष्ट देख कर तथा किसी पाखण्डी के पास आकांक्षा अतिचार किसी विद्या मंत्र का चमत्कार देख कर,
तथा पूर्व जन्म के अज्ञान कष्ट के फल करके अन्यमत वालों को सुखी अरु धनवान् देख कर मन में विचारे, कि अन्यमत वालों का धर्म अरु ज्ञान अच्छा है, जिस के प्रभाव से वे धनी अरु पुत्र आदि परिवार वाले होते हैं। इस वास्ते मैं भी इन ही का धर्म करूं, कि जिस करके मैं भी धनी अरु पुत्रादि परिवार वाला हो जाऊं । यह आकांक्षा अतिचार उन जीवों को होता है, कि जिन को
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सप्तम परिच्छेद जिन धर्म का अच्छी तरे से बोध नहीं है। क्योंकि जैन धर्म वाले भी सर्व दरिद्री अरु पुत्रादि परिवार से रहित नहीं हैं। वैसे ही अन्यमत वाले भी सर्व धनी अरु परिवार वाले नहीं हैं। इस वास्ते सर्व अपने अपने पूर्व जन्म जन्मांतर के करे हुए पुण्य पाप के फल हैं। क्योंकि जो जीव मनुष्य जन्म में सात कुन्यसनी हैं। अरु कसाई, वागुरी-बूचड़ प्रमुख, कितनेक धनी अरु पुत्रादि परिवारवाले हैं अरु कितनेक इस अवस्था से विपरीत हैं। इस वास्ते यही सत्य है कि पूर्व जन्म में करे हुए सुकृत दुष्कृत का फल है, प्रायः इस जन्म के कृत्यों का फल नहीं है । सर्व मतोवाले राजा हो चुके हैं, अरु रंक भी बहुत हैं । इस वास्ते अन्य मत की आकांक्षा न करे। तीसरा वितिगिच्छा अतिचार-सो कोई जीव अपने
पूर्व जन्म के करे हुए पापों के उदय से विचिकित्सा दुःख पाता है, तब ऐसा विचार करे, कि अतिचार मै धर्म करता हूं, तिस का फल मुझे कब
मिलेगा ! अर्थात् मिलेगा कि नहीं ! अरु जो धर्म नहीं करते हैं, वे सुखी हैं, अरु हम तो धर्म करते हैं, तो भी दुःखी हैं। इस वास्ते कौन जाने धर्म का फल होवेगा कि नहीं होवेगा ? तथा साधु के मलिन वस्त्र तथा मलिन शरीर को देख कर मन में जुगुप्सा करे, कि यह साधु अच्छे नहीं हैं, क्योंकि मलिन वस्त्र तथा मलिन शरीर रखते हैं। इस
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जैनतत्वादर्श वास्ते यह संसार से क्योंकर तरेंगे ! जेकर उष्ण जल से स्नान कर लेवें, तो कौनसा महानत मंग हो जाता है !
जेकर धर्म का फल न होवे, तो संसार की विचित्रता कदापि न होवे, इस वास्ते धर्म का फल अवश्यमेव है । तथा जो साधु मलिन वस्त्र रखते हैं, उसका तो फल यह कारण है कि सुंदर वस्त्र रखने से मन शृङ्गार रस को चाहता है, अरु स्त्रिये भी सुन्दर वस्त्र वालों को देख कर उनसे भोग करने की इच्छा करती हैं। इस वास्ते शील पालने वाले साधुओं को शृंगार करना अच्छा नहीं। अरु स्नान जो है, सो काम का प्रथमांग है, इस वास्ते साधुओं को उचित नहीं। अरु कोई कारण पड़ने से साधु हाथ पगादिकों को धो लेवे, तो कुछ दूषण नहीं । अरु साधुओं को अपने शरीर पर ममत्व मी नहीं है । अरु शुचिमात्र स्नान तो साधु करते हैं, परन्तु शरीर के सुख वास्ते तथा शरीर के चमकाने दमकाने के वास्ते नहीं करते हैं। क्योंकि जैनियों की यह श्रद्धा नहीं है, कि जल में स्नान करने से पाप दूर हो जाते हैं। परन्तु जल स्नान से शरीर की मैल दूर हो जाती है, शरीर की तप्त मिट जाती है, आलस्य दूर हो जाता है, परन्तु पाप दूर नहीं होते हैं। जेकर जलस्नान से पाप मिट जावे तो अनायास सर्व की मोक्ष हो जावेगी। ऐसा कौन है, जो जल से स्नान नहीं करता है ! अरु जो साधु को मैला समझना, यही बड़ी मूर्खता है, क्योंकि शरीर के मैले होने से आत्मा मैला नहीं
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होता है, मैला तो पाप करने से होता है । अरु जगत् व्यवहार में स्त्री से संभोग करने से और किसी मलिन वस्तु का स्पर्श करने से मैलापना भानते हैं। परन्तु साधु तो इन सर्व वस्तुओं का त्यागी है, इस वास्ते मैला नहीं। बल्कि साधुओं को धन्यवाद देना चाहिये, क्योंकि यदि ताप पडता है, लू चलती है, पसीना बहता है, तो भी साधु नंगे पांव अरु नंगा शिर करके चलते हैं, और रात को छते हुए मकान में सोते हैं, पंखा करते नहीं तथा कोमल शय्या पर सोते नहीं, और रात्रि को जल पीते नहीं, दिन में भी उष्ण जल पीते हैं; यह तो बड़ा भारी तप है । परन्तु जो कोई साधु तो बन रहे हैं, अरु जब गरमी लगती है, तब महिष की तरे जल में ना पड़ते है, ऐसे सुखशील तो तर जायेंगे, कि जिनों के किसी बात का नियम नहीं। हाथी, घोड़े, रेल प्रमुख की सवारी करनी; तथा जो सर्व भक्षण करने; घन रखना; मकान बांधने; खेती करनी; गौ, भैस, हाथी, घोड़े, रथ, शस्त्र रखने; छल बल से लोगों के पास से धन लेना; स्त्रियों से विषय सेवन करना अच्छा खाना मांस भक्षण करना, मदिरा पीना; भांग के रगड़े, चरस की चिलमें उडाना; पगों को तथा शरीर को वेश्या की तरे मांजना; चित्त में बड़ा अभिमान रखना; दंड पेलना; गश्त करने जाना; इत्यादि अनेक साधुओं के जो उचित नहीं सो काम करने; फिर श्री श्री स्वामीजी महाराज बन
फल हैं, सो
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जैनतत्वादर्श बैठना । हम महंत हैं, हम गद्दीधर हैं, हम भट्टारक हैं, हम श्रीपूज्य हैं, हम जगत् का उद्धार करते हैं, हम बड़े अद्वैत ब्रह्म के वेता हैं, हम शुद्ध ईश्वर की उपासना बताते हैं, मूर्तिपूजन के पाखण्ड का नाश करते हैं। ___ अथ भव्य जीवों को विचार करना चाहिये कि यह पूर्वोक्त कुगुरु क्या जल के स्नान करने से संसार समुद्र से तर जायंगे ! अरु जो जीवहिंसा, झूठ, चोरी, स्त्री, अरु परिग्रह, इन पांचों के त्यागी, शरीर में ममत्व रहित, प्रतिबंध रहित, काम क्रोध के त्यागी, महातपस्वी, मधुकर वृत्ति से मिक्षा लेनेवाले, इत्यादि अनेक गुण से सुशोभित हैं, वे क्या जल में स्नान न करने से पातकी हो जायेंगे ! कदापि न होवेंगे। इस वास्ते साधु को देख के जुगुप्सा न करनी, जेकर करे, तो तीसरा अतिचार लगे। चौथा मिथ्यादृष्टि की प्रशंसारूप अतिचार है। मिथ्या
दृष्टि उस को कहते हैं, जो जिनप्रणीत आज्ञा प्रशंसा अतिचार से बाहिर है । क्यों कि सर्वज्ञ के कहे हुए वचन
को तो वो मानता नहीं, अरु असर्वज्ञों के कहे हुए शास्त्रों को सच्चा मानता है। उन शास्त्रों में जो अयोग्य बातें कही हैं, उनके छिपाने के वास्ते स्वकपोलकल्पित भाष्य, टीका, अर्थ वना कर के मूर्ख लोगों को बहकाते और गाल बजाते फिरते हैं । और जिन के नियम धर्म कोई नहीं, कृपण पशुओं को मारना जानते हैं, धूर्तपने से
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सप्तम परिच्छेद सच्चा वन कर मूखों को मिध्यात्व के जाल में फंसाते हैं । ऐसे मिथ्यादृष्टि होते हैं । उन की प्रशंसा करनी । तथा जो अज्ञानी जिनाज्ञा से बाहिर हैं, उन को कहना कि ये बड़े तपस्वी है ! महापुरुष है ! बड़े पण्डित हैं ! इन के बराबर कौन है ? इनों ने धर्म की वृद्धि के वास्ते अवतार लिया है । तथा मिथ्यादृष्टि कोई व्रत यज्ञादि करे, तब तिस की प्रशंसा करे, कि तुम बड़ा अच्छा काम करते हो, तुमारा जन्म सफल है, इत्यादि प्रशंसा करे, सो चौथा अतिचार है ।
पांचमा मिध्यादृष्टि का परिचय करना अतिचार है । मिथ्यादृष्टि के साथ बहुत मेलमिलाप रक्खे, एक जगे भोजन और वास करे, इत्यादि है । क्योंकि मिथ्यादृष्टि के साथ बहुत मेल रखने से मिथ्यादृष्टि की वासना लग जाने से धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इस वास्ते मिथ्यादृष्टि का बहुत परिचय करना ठीक नहीं । यह पांचमा अतिचार है ।
अब जब गृहस्थ को सम्यक्त्व देते हैं, तब उस को गुरु छ आगार बतलाते हैं। जेकर इन छ कारणों से तुम को कोई अनुचित काम भी करना पड़े, तो तुम को ये छ आगार रखाये जाते हैं, जिन से तुमारा सम्यक्त्व कलंकित न होवेगा । सो छ आगार कहते हैं
आगार
प्रथम " रायाभिओगेणं " - राजा — नगर का स्वामी, जेकर वो राजा कोई अनुचित काम जोरावरी से करावे, तो सम्यक्त्व में दूषण नहीं ।
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जैनतत्वादर्श दूसरा "गणामिओगेणं"-गण नाम ज्ञाति तथा पंचायत, वे कहे, कि यह काम तुम ज़रूर करो, नहीं तो ज्ञाति, तथा पंचायत तुम को बड़ा दंड देवेगी, उस वक्त जेकर वो काम करना पड़े, तो सम्यक्त्व में अतिचार नहीं ।
तीसरा "वलाभिओगेणं "-बलवंत चोर म्लेच्छादि, तिन. के वश पड़ने से वो कोई अपनी जोरावरी से अनुचित काम करवावें, तो भी दूषण नहीं ।
चौथा "देवामिओगेणं "-कोई दुष्ट देवता क्षेत्रपालादि व्यंतर शरीर में प्रवेश करके अनुचित काम करावे, तो मंग नहीं। तथा कोई देव तो मरणांत दुःख देवे, तब मन में धैर्य न रहे, मरणांत कष्ट जान कर कोई विरुद्ध काम करना पड़े तो सम्यक्त्व में अतिचार नहीं । ____पांचमा "गुरुनिग्गहेणं"---गुरु सो माता, पितादि उनके
आग्रह से कुछ अनुचित करना पड़े । तथा गुरु कहिये धर्माचार्यादि तथा जिनमंदिर, सो कोई अनार्य गुरुको संकट देता होवे, तथा जिनमंदिर को तोड़ता होवे जिनप्रतिमा को खण्डन करता होवे; सो गुरु निग्रह है । तिनों की रक्षा के वास्ते कोई अनुचित काम करना पड़े, तो सम्यक्त्व में दूषण नहीं।
छठा “ वित्तिकतारेणं "-जब दुष्कालादि आपदा आ पड़े तव आजीविका के वास्ते किसी मिथ्यादृष्टि के अनु-- सार चलना पड़े तथा आजीविका के वास्ते कोई विरुद्ध
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सप्तम परिच्छेद आचरण करना पड़े तो दूषण नहीं । एक तो यह छः वस्तु के आगारों को छ छंडी कहते हैं। तथा चार आगार और भी हैं, सो कहते हैं:
१. "अन्नथ्यणाभोगेणं".-कोई कार्य अजान पने-उपयोग दिये विना और का और हो जावे, अरु जब याद आ जावे, तब वो कार्य फिर न करे।
२. “ सहस्सागारेणं "-अकस्मात् कोई काम करे, अपने मन में जानता है, यह काम मैंने नही करना, परन्तु योगों की चपलता से तथा नित्य के बहुत अभ्यास से जानता हुआ भी यदि विरुद्ध कार्य हो जावे, तो सम्यक्त्व में भंग नहीं।
३. " महतरागारेणं "कोई मोटा लाभ होता है, परन्तु सम्यक्त्व में दूषण लगता है, तथा किसी मोटे ज्ञानी की आना से कमो वेशी करना पड़े, तो यह भी आगार हैं।
४. "सबसमाहिवत्तिआगारेणं".-सर्व समाधिव्यत्यय से किसी बड़े सन्निपातादि रोगों के विकार से बावरा हो जावे, तथा अतिवृद्ध हो जाने से स्मृतिमंग हो जावे, तथा रोगादि के आने पर मन में आध्यान हो जाने से, तथा सर्षादि के डंक मारने से, इत्यादि असमाधि में यह आगार है । इस में सम्यक्त्व तथा व्रत भंग नहीं होता है । परन्तु किसी मूर्ख के कहे सुने से आध्यान में प्राण त्यागने योग्य नहीं ।
कितनेक जिनमत के अनभिज्ञों का यह भी कहना है, कि.
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जैनतस्वादर्श
चाहे कुछ हो जावे, तो भी जो नियम लिया है, उस को कमी तोड़ना न चाहिये । परन्तु यह कहना सर्वथा ठीक नहीं; क्योंकि जब पहिले ही आगार रक्खे गये, तो फिर व्रतभंग क्योंकर हुआ ? अरु जो आर्त्तध्यान में मर जाते हैं, अरु आगार नहीं रखते हैं, वे जिन मार्ग की शैली से अज्ञान हैं । इस वास्ते छः छंडी अरु चार आगार, सर्व बारों ही व्रतों में जानने । अरु साधु के सर्व प्रत्याख्यानों में अनशन पर्यंत यही चार आगार जानने ।
इति श्री तपागच्छीय मुनि श्रीबुद्धिविजय - शिष्य सुनि आनंदविजय - आत्मारामविरचिते जैनतत्त्वादरों सप्तमः परिच्छेदः संपूर्णः ॥
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अष्टम परिच्छेद
अष्टम परिच्छेद
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इस परिच्छेद में चारित्र का स्वरूप लिखते हैं:चारित्र धर्म के दो भेद हैं। एक सर्वचारित्र, दूसरा देशचारित्र, उस में सर्वचारित्र धर्म तो साधु में होता है, तिस का स्वरूप गुरुतत्त्व परिच्छेद में लिख आये हैं । तहां से जान लेना । अरु देश चारित्र के बारह भेद हैं, सो गृहस्थ का धर्म है । अब बारह व्रतों का किंचित् स्वरूप लिखते हैं; तिन में प्रथम स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत का स्वरूप लिखते हैं ।
प्रथम प्राणातिपातविरमण व्रत के दो भेद हैं । एक द्रव्यप्राणातिपातविरमण व्रत, दूसरा भावप्राणातिपात प्राणतिपातविरमण व्रत । तिन में द्रव्यप्राणाविरमणत्रत तिपातविरमण व्रत ऐसा है, कि पर जीवों को अपनी आत्मा समान जान कर तिन के दश द्रव्यप्राणों की रक्षा करे। यह व्यवहार दयारूप है । तथा दूसरा भावप्राणातिपातविरमण व्रत — सो अपना जीव कर्म के वश पड़ा हुआ दुःख पाता है, अपने जो भाव प्राण-ज्ञान, दर्शन, चारित्रादिक, तिन का मिथ्यात्व कषायादिक अशुद्ध प्रवर्तन से प्रतिक्षण घात हो रहा है, सो अपने जीव को कर्म शत्रु से छुड़ाने के वास्ते उपाय करना । सो उपाय यह है - कि आत्मरमणता करे, परभावरमणता को त्यागे, शुद्धोपयोग में प्रवर्ते, कर्म के उदय में अव्यापक रहे, एक
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जैनतत्त्वादर्श स्वभावममता, यही समस्त कर्मशत्रु के उच्छेद करने को अमोघ शस्त्र हैं । एतावता सकल परभाव की इष्टता दूर करी, स्वरूप सन्मुख उपयोग रक्खे, तिस का नाम भावप्राणतिपात विरमणव्रत कहिये। इसी का नाम भाव दया है । इहां स्थूल नाम मोटा-दृष्टिगोचर, हाले चाले, ऐसा जो त्रस जीव तिस को संकल्प करके न हनूंगा। हिंसा चार प्रकार की हैं। एक आकुट्टि-सो निषिद्ध वस्तु
को उत्साह से करना, जैसे संपूर्ण फल का हिंसा के भेद भड़था करना श्रावक के वास्ते निषिद्ध हैं । अरु
जिस ने जितने फल खाने में रक्खे हैं, उन फलों में से भी किसी फल का भडथा नहीं करना । अरु जो मन में उत्साह धरके भडथा करे, तो आकुट्टि हिंसा होवे । दूसरी दहिंसा-सो चित्त के उन्मत्तपने से मन में गर्व धरके दौडे, जैसे गाडी घोडा प्रमुख दौडते हैं। तो दर्पहिंसा होवे । तीसरी संकल्प हिंसा-जान कर काम भोग में तीव्र अमिलाषा से काम का जोश चढ़ाने के वास्ते त्रस जीव की हिंसा करे, किसी जीव को मार कर गीली, माजून प्रमुख बना कर खावे। चौथी प्रमाद हिंसा-सो अपने घर का काम काज-रांधना पीसना आदि करते समय त्रस जीव की "हिंसा हो जावे । इन चारों हिंसाओं में प्रथम हिंसा तो विलकुल नहीं करनी । तिस वास्ते यहां संकल्प करे आकुट्टि तथा दर्प करके त्रस जीव के हनने का त्याग करे । जैसे
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अष्टम परिच्छेद कि यह कि यह कीड़ी जाती है, इस को मैं मारूं ऐसा संकल्प करके हने हनावे, तिस को आकुटि संकल्प कहते हैं। इस वास्ते निरपराध जीवों को विना कारण के न हनूं न हनाऊं, ऐसा संकल्प करे। तथा सांसारिक आरंभ समारम्भ करते समय तथा पुत्रादि के शरीर में कीड़े आदि जीव उत्पन्न होवें, तदा औषधादि करते समय यल से उपचार करे। तथा घोड़ा, बलद प्रमुख को चाबुकादि मारना पड़े तो उसका आगार रक्खे । तथा पेट में कृमि, गंडोला, तथा पग में नहरवा अर्थात् वाला, हरस, चम— प्रमुख अपने शरीर में उपजे, तथा मित्रादि के स्वजनादि के शरीर में उपजे, तिस के उपचार करने की यतना रक्खे। क्योंकि साधु को तो बस अरु स्थावर, सूक्ष्म अरु बादर, सर्व जीवों की हिंसा का नवकोटी विशुद्ध प्रमाद के योगों से स्याग है। इस वास्ते साधु को तो वीस विसवा दया है, परन्तु गृहस्थ से तो केवल सवा विसवा दया पल सकती है । सो शास्त्रकार लिखते हैं:
जीवा सुहमा थूला, संकप्पारंमओ भवे दुविहा । सबराह निरवराहा, साविक्खा चेव निरविक्खा ॥ अर्थ:-जगत् में जीव दो प्रकार के हैं, एक थावर, दूसरे
स। तिन में थावर के दो भेद हैं, एक मर्यादित अहिंसा सूक्ष्म, दूसरा बादर । तिनों में सूक्ष्म जीवों
की तो हिंसा होती ही नहीं, क्योंकि अति
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जैनतत्त्वादर्श सूक्ष्म जीवों के शरीर को बाह्य शस्त्र का घाव नहीं लगता है। परन्तु इहां तो सूक्ष्म शब्द, स्थावर जीव-पृथ्वी, पानी, अग्नि, पवन और वनस्पतिरूप जो बादर पांच थावर हैं, तिन का वाचक है । अरु स्थूल जीव द्वींद्रिय, तींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय जानना। इन दोनों. मेदों में सर्व जीव आ गये। तिन सर्व की शुद्ध त्रिकरण से साधु रक्षा करता है। इस वास्ते साधु के बीसवा दया है । अरु श्रावक से तो पांच थावर की दया पलती नहीं है। क्योंकि सचित आहारादि के करने से अवश्य हिंसा होती है। इस से दश विसवा दया तो दूर हो गई, और शेष दश विसवा रह गई, एतावता एक त्रस जीव की दया रह गई। उस त्रसजीव की हिंसा के भी दो भेद हैं, एक संकल्प से हनना, दूसरा आरंभ से हनना। तिस में आरम्भ हिंसा का तो श्रावक को त्याग नहीं है, कितु संकल्प हिंसा का त्याग है। अरु आरम्भ हिंसा में ती केवल यल है, त्याग नहीं है, क्योंकि आरम्भ हिंसा तो श्रावक से होती है। इस बास्ते दश विसवा में से पांच विसबा फिर जाता रहा, एतावता संकल्प करके त्रस जीव हिंसा का त्याग है। फिर इस के भी दो भेद है, एक सापराध है, दूसरा निरपराध है। तिन में जो निरपराध जीव हैं, उसको नहीं हनना, अरु सापराध जीव को हनने की जयणा-यतना है। इस वास्ते साफ राध जीव की दया सदा सर्वथा श्रावक से नहीं पलती।
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अष्टम परिच्छेद क्योंकि घर में से चोर चोरी करके वस्तु लिये जाता है, सो विना मारे कूटे छोड़ता नहीं। तथा श्रावक की स्त्री से कोई अन्य पुरुष अनाचार सेवता हुआ देखने में आवे, तो तिस को मारना पड़े। तथा कोई श्रावक राजा का नौकर है, तथा राजा के आदेश से युद्ध करने को जावे, तब प्रथम तो श्रावक शस्त्र चलावे नहीं, परन्तु जब शत्रु शस्त्र चलावे, मारने को आवे, तव तिस को मारना पड़े। तथा सिंहादि जानवर खाने को आवं, तब उनको मारना पड़े। तब तो संकल्प से भी हिंसा का त्याग नहीं हो सकता। इस वास्ते पांच विसवा में से भी अर्द्ध जाता रहा, पीछे अढाई विसवा दया रह गई। अर्थात् मात्र निरपराध त्रस जीव दृष्टिगोचर आवे, तिस को न मारूं, यह नियम रहा। इस के मी दो मेद हैं। एक सापेक्ष, दूसरा निरपेक्ष । इन में भी सापेक्ष निरपराध जीव की श्रावक से दया नहीं पलती है, क्योंकि श्रावक जब आप घोड़ा, घोड़ी, बैल, रथ, गाड़ी प्रमुख की सवारी करके घोड़ादिक को हाकता है, और घोड़े आदिक को चावुकादि मारता है। यहां घोड़े, तथा बैलादिकोंने इस का कुछ अपराध नहीं करा है। उनकी पीठ पर तो वह चढ रहा है, अरु यह मानता नहीं कि इन विचारे जीवों की चलने की शक्ति है, कि नहीं है ! जब वे जीव हलुवे चलते हैं तथा नहीं चलते हैं, तब अज्ञान के उदय से उनको गालियां देता है, और मारता भी है, यह
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जैनतत्त्वादर्श, निरपराध को भी. दुःख देता है। तथा अपने शरीर में, तथा अपने पुत्र, पुत्री, न्याती, गोती के मस्तक में तथा कर्णादि अवयव में तथा अपने मुखके दांत में कीड़ा आदि पड़े, तो तिन के दूर करने के वास्ते कीड़ों की जगा में औषधि लगानी पड़ती है। इन जीवों ने श्रावक का कुछ अपराध भी नही करा है, क्योंकि वो विचारे अपने कर्मों के वश से ऐसी योनि में उत्पन्न हुए हैं, कुछ श्रावक का बुरा करने की भावना से उत्पन्न नहीं हुए हैं। परन्तु उनकी हिसा भी श्रावक से त्यागी नहीं जाती है। इस वास्ते फिर अर्द्ध जाता रहा, शेष सवा विसवा की दया रह गई। यह सवा विसवा दया भी जो शुद्ध श्रावक होवे, सो पाल सकता है। एतावता संकल्प से निरपराध त्रस जीवों को कारण के विना हनूं-मारूं नहीं, यह प्रतिज्ञा जहां लगी अपनी शक्ति रहे, तहां लगी पाले । निर्वसपना न करे, सदा मन में यह भावना रक्खे, कि मेरे से कोई जीव मत मर जाय। • तथा घर में आरम्भ करते भी यल करे । तथा जो लकड़ी ' जलाने वास्ते लेवे, सो सड़ी हुई न लेवे। 'यतना का किन्तु आगे को जिस में जीव न पड़े, ऐसी स्वरूप पक्की, सूखी लकड़ी लेवे, और रसोई के
वक्त लकड़ी को झटका कर जीव रहित करके जलावे । तथा घी, तेल, मीठा प्रमुख रसभरी वस्तु के वासन का मुख बांध करयल से रक्खे, उघाड़ा न रक्खे ।
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अष्टम परिच्छेद
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तथा चूल्हे के ऊपर अरु पानी के स्थान पर चन्द्रवा अर्थात् छत पर कपड़ा ताने । तथा खाने को जो अन्न लावे, सो भींजा हुआ न लावे, शुद्ध नवा अन्न खाने को लावे | कदापि एक वर्ष के उपरांत का अन्न लावे, तो जिस में जीव न पड़े होवें, सो अन्न लावे । तथा पानी के छानने के वास्ते बहुत गाढा दृढ वस्त्र रक्खे । एक प्रहर पीछे पानी को फिर छान लेवे, जो जीव निकले, उसको, जिस कुंवे का उसी में डाल देवे । तथा वर्षा ऋतु में बहुत से उत्पत्ति हो जाती है, तिस वास्ते गाड़ी रथ की करे। क्योंकि जहां चक्र फिरता है, तहां असंख्य विध्वंस होता है । हरिकाय, बहुवीज फल, त्रस संयुक्त फल न खावे । तथा खार में माकड़ प्रमुख जीव पड़ जाते हैं, इस वास्ते धूप में न रक्खे किन्तु दूसरी खाट बदल लेवे । तथा सड़ा हुवा अन्न धूप में न रक्खे, जूठा पानी - अन्न के संसर्ग वाला मोरी में न गेरे, क्योंकि मोरी में बहुत से जीव उत्पन्न हो जाते हैं, अरु मोरी के सड़ जाने से घर में वीमारी हो जाती है । तथा चैत्रत्रदि एकम से लेकर, पचों वाला शाक आठ मास तक न खावे । क्योंकि पत्रशाक में बहुत त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । उसमें एक तो त्रस जीवों को हिंसा होती है, अरु दूसरे उन त्रस जीवों के खाने से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । अरु शीत काल में एक भास तथा उष्णकाल में बीस दिन, तथा वर्षा ऋतु में पंदरह
पानी होवे,
जीवों की
सवारी न जीवों का
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जैनतस्वादर्श
आदि की रक्खे,
बहुत जल से
दिन के उपरांत की बनी हुई मिठाई - पक्वान न खावे; क्योंकि उसमें त्रस स्थावर जीव उत्पन्न होते हैं, अरु खाने वाले को रोगोत्पत्ति भी हो जाती है । तथा वासी अन्न-रोटी आदि न खावे, क्योंकि इन में जीवोत्पत्ति हो जाती है, रोग भी हो जाता है । और बुद्धि मंद हो जाती है । तथा घर मैं सावरनी अर्थात् बुहारी कोमल सण जिस से कि जीव न मरे । तथा स्नान भी अरु रेतली भूमिका में करे, तथा मोटी स्नान करे, और स्नान का पानी मैदान में गेर देवे | मोरी पर बैठ के स्नान न करे । तथा जहां तक थोडे पाप वाला व्यापार मिले, तहां लग महापापकारी व्यापार या नौकरी आदिक न करे । तथा किसी का हक़ तोड़े नहीं। घर में जूठे अन्न का पानी दो घड़ी के उपरांत न रक्खे, क्योंकि उसमें जीव उत्पन्न हो जाते हैं । तथा जो वस्तु उठावे, तथा रक्खे तब पहिले उस जगाको नेत्रों से देख लेवे, पूंछ लेवे, पीछे से वस्तु रक्खे । मोटी मोरी में जल नहीं गेरे । तथा दीवा बत्ती जलावे, तो फानसादि के यत्न से जीव की रक्षा करे । तथा जिस पात्र से पानी पीवे तो, फिर वो जूठा पात्र जल में न डबोवे, क्योंकि उससे मुख की लाल लगने से जीव उत्पन्न हो जाते हैं । अरु बहुतों की जूठ खाने पीने से बुद्धि संक्रमण हो जाती है । अरु कई एक रोग ऐसे हैं कि, जिस रोगी का जूठा खावे पीवे,
न करे,
परात में
बैठ कर
थोड़ा थोड़ा करके
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अष्टम परिच्छेद उस रोगी का खाने पीनेवाले को लग जाता है; जैसे कि कुष्ट, क्षय, रेज़श, शीतला वगैरह । इस वास्ते सारी वस्तु झूठी नहीं करनी । तथा बहुतों के साथ एकठा न खावे । और मटके में से पानी काढ़ने के वास्ते दंडीदार काठ का चट्ट रक्खे । इत्यादि शुद्ध व्यवहार में प्रवतें, तो श्रावक के दया सवा विसवा होवे । इसी रीति से श्रावक का प्रथम व्रत शुद्ध है। इस व्रत के पांच अतिचार अर्थात् पांच कलंक हैं, तिन को वजे । सो लिखते हैं।
प्रथम वध अतिचार-क्रोध के उदय से अरु बल के अभिमान से निर्दय होकर गाय, घोड़ा प्रमुख को कूटे, मार के चलावे।
दूसरा बंध अतिचार-गाय, बलद, बछड़ा प्रमुख जीवों को कठिन-जबरदस्त बंधन से बांधे, वो जीव कठिन बंधन से अति दुःख पाते हैं, कदाचित् अग्नि का भय होवे तो जल्दी छूट नहीं सकते, और मर भी जाते हैं। इस वास्ते कठिन बंधन भी अतिचार हैं। अतः जानवर को ढीले बंधन से बांधना चाहिये । तथा कोई गुनेगार मनुष्य होवे, उस को भी निर्दय हो कर गाढ़े बंधन से न बांधना चाहिये ।
तीसरा छविच्छेद अतिचार-बैल प्रमुख का कान, नाक, . छिदावे, नत्थ गेरे, खस्सी करे। - चौथा अतिभारारोपण अतिचार-बैल प्रमुख के ऊपर
जितना मार लादने की रीति है, तिस से अधिक भार लादे,
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जैनववादर्श तब अतिमारारोपण अतिचार होता है। श्रावक को तो सदा जिस बैल, रासभ, गाड़ी प्रमुख में जितना भार लादते होवें, उस से भी पांच सेर, दस सेर, कम लादना चाहिये, तभी व्रत शुद्ध रहेगा । उसमें भी जेकर किसी जानवर की चलने की शक्ति कम होवे, तब विवेकी पुरुष तो तिस भार को भी थोड़ा कर देवे। अरु जानवर दुर्वल होवे तो तिस के घास दाने की पूरी खबर लेवे । परन्तु मन में, ऐसा विचार न करे, कि सर्व लोक जितना मार लादते हैं, तिन के बराबर मैं भी लादता हूं, यह तो व्यवहार शुद्ध है। किन्तु अधिक बोझ होवे, तो और भाड़ा कर लेवे । श्रावकों का यह व्यवहार है।
पांचमा अतिचार मात-पानी का व्यवच्छेद करना-जो बलद घोड़े के खाने योग्य होवे, सो बन्द कर देवे, अथवा उसमें से कछुक काई लेवे, अरु खाने का समय लंघा कर पीछे खाने को देवे, तो अतिचार लगे। तथा किसी की आजीविका-नौकरी बन्द करे, वो भी इसी अतिचार में है। श्रावक तो दासी, दास, कुटुम्ब, चौपाये, बैलादि, इन सर्व के खाने पीने की खबर ले के पीछे आप भोजन करे। उपलक्षण से हिंसाकारी मन्त्र, तन्त्रादि किसी को करे, वे भी अतिचार जानने । यह पांच अतिचार, श्रावक जान तो लेवे, परन्तु करे नहीं।
इन बारह व्रतों के सर्व अतिचार भंग होने के संभवा
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अष्टम परिच्छेद
५५ संभव की विशेष चर्चा देखनी होवे, तो धर्मरल प्रकरण की श्रीदेवेंद्रसूरिकृत टीका है, सो देख लेनी, इहां तो मैं: केवल अतिचार ही लिखूगा। __ अथ दूसरे स्थूलमृपादविरमण व्रत का स्वरूप लिखते
हैं। स्थूल नाम है मोटे का, उस मोटे झूठ मृपावादविरमण का विरमण-त्याग करना । क्योंकि झूठ व्रत बोलने से जगत् में उसकी अप्रतीति हो
जाती है, अपयश होता है, धर्म की निंदा होती है। तथा अपने मतलव के वास्ते कमो वेश करने का जो त्याग, उसको मृषावादविरमणव्रत कहते हैं । तिस मृषावाद के दो भेद है, एक द्रव्यमृषावाद, दूसरा भावमृषावाद । तिन में जो जान कर तथा अजानपने से झूठ बोले, सो द्रव्यमृषावाद है। तथा सर्व परभाव वस्तु को अर्थात् पुद्गलादि जड़ वस्तु को आत्मत्व बुद्धि करके अपना कहे; तथा राग, द्वेष और कृष्णादि लेश्या से आगमविरुद्ध बोले; शास्त्र का सच्चा अर्थ कुयुक्ति से नष्ट करे; उत्सूत्र बोले, उसको भावमृषावाद कहते हैं।।
यह व्रत सर्वव्रतों में मोटा है। इसके पालने में बहुत शुद्ध उपयोग और होशयारी चाहिये । क्योंकि प्रथम व्रत में तो जीव मात्र के जानने से दया पल सकती है। अरु दूसरों की वस्तु को विना दिये न लेने से अदत्तविरमण तीसरा व्रत पल जाता है। तथा स्त्री मात्र का संग त्यागने से चौथा
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जैनतत्त्वादर्श व्रत पालता है। तथा नवविध परिग्रह के त्यागने से परिग्रहव्रत भी पलता है। इसी तरे एक एक द्रव्य के जानने से यह चारों व्रत पाले जाते हैं। परन्तु मृषावादविरमण व्रत तो जहां लगि षड्द्रव्य की गुणपर्याय से तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अच्छी तरे से पिछाण न होवे, सम्मति प्रमुख द्रव्यानुयोग के शास्त्र न पड़े, बहुत निपुण ज्ञानवान् न होवे, तकां तक पालना कठिन है।, क्योंकि एक पर्यायमात्र विरुद्ध भाषण करने से भी यह व्रत मा हो जाता है। इसी वास्ते साधुओं को बहुत बोलना शास्त्र में निषेध करा है। इन पूर्वोक्त चारों महाव्रतों में से एक महाव्रत जेकर भङ्ग हो जावे, तब तो चारित्र भङ्ग होवे, अरु नहीं भी भङ्ग होवे । क्योंकि जेकर एक ही कुशील सेवे, तो सर्वथा चारित्र भङ्ग होवे, और शेष व्रतों के खण्डन से देश भङ्ग होवे, सर्वथा भङ्ग नहीं होवे, यह व्यवहार माण्य में कहा है। परन्तु उस का ज्ञान दर्शन भङ्ग नहीं होवे । अरु जब मृषावादविरमण व्रत का भङ्ग होवे, तब तो ज्ञान, दर्शन अरु चारित्र, यह तीनों ही जड़मूल से जाते रहते हैं। जीव मर कर दुर्गति में जाता है, अनंत संसारी, दुर्लभबोधी हो जाता है। इस वास्ते जेकर यह व्रत पालना होवे, तो षड्द्रव्य के गुण पर्याय जानने में अति उद्यम करे। जेकर बुद्धि की मन्दता होबे, तब गीतार्थ के कहने के अनुसार श्रद्धा की प्ररू. पणा करे । क्योंकि द्रव्यमृषावाद के त्यागी जीव तो
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अष्टम परिच्छेद षड्दर्शन में भी हो सकते हैं, परन्तु भावमृषावाद का त्यागी तो एक श्रीजिनेंद्रदेव के मत में ही मिलेगा। जो जीव, श्रद्धा-रुचि को शुद्ध घारेगा, सोई भावमृषावाद का त्यागी होवेगा। इस मृषावाद के पांच मोटे भेद हैं, सो आवक को अवश्य वर्जने चाहिये । सो कहते हैं:प्रथम कन्यालीक-अपने मिलापी की कन्या है,
उसकी सगाई होने लगी होवे, तब कन्या मृषावाद के के लेने वाले पूछे कि यह कन्या कैसी है ? तब पांच भेद वो मिलापी की प्रीति से उस कन्या में जो
दूषण होवे, सो छिपावे, गुण न होवे, तो भी अधिक गुणवाली कह देवे। जैसे कि यह कन्या निर्दोष हैं, ऐसी कुलवती, लक्षणवती साक्षात् देवांगना समान तुम को मिलनी मुशकिल है । तथा जेकर मिलापी के साथ द्वेष होवे, तदा वो कन्या जो निर्दोष और लक्षणवती होवे, तो भी कहे कि इस कन्या में अच्छे लक्षण नहीं हैं, बिडालनेत्री है, इसके साथ जो संबंध करेगा, वो पश्चाताप करेगा, ऐसे अनहोये दूषण बोल देवे । यह कन्यालीक है। प्रथम तो व्रतधारी श्रावक किसी की सगाई के झगड़े में पड़े ही नहीं, अरु जेकर अपना संबंधी मित्रादिक होवे, वो पूछे, तब यथार्थ कहे, कि भाई ! तुम अपना निश्चय कर लो, क्योंकि जन्म पर्यंत का संबंध है। ऐसे कहे, परन्तु झूठ न बोले । कन्यालीक में उपलक्षण से सर्व दो पग वाले का झूठ न बोले ।
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५८
गाय,
जैनतस्वादर्श
दूसरा गवालीक - सर्व चौपद - हाथी, घोड़ा, बलद, ' भैंस प्रमुख सम्बंधी झूठ न बोले ।
तीसरा भूम्यलीक दूसरे की धरती को अपनी कहे, तथा और की भूमि को और की कहे । तथा घर, हवेली, वाड़ी, बाग, बगीचा वृक्षादिक सम्बंधी तथा सर्व परिग्रह संबंधी मी झूठ न बोले ।
चौथा थापणमोसा का झुठ - कोई पुरुष श्रावक को प्रतीति वाला जान कर, उसके पास विना साक्षी तथा विना लिखत करे कोई वस्तु रख गया है, फिर वो मांगने आवे, तब मुकर न जावे, जैसे कि मैं तुम को जानता ही नहीं, तुम कौन हो ! ऐसा झूठ बोल के उसकी वस्तु रख लेवे । यह भी श्रावकने नहीं करना ।
पांचमा झूठी साक्षी भरनी-सो दो जने आपस में झगड़ते हैं, तिस में झूठे पासों धन लेकर अथवा उसके लिहाज से झूठी गवाही देनी । यह भी काम श्रावक ने नहीं करना । इस व्रत के भी पांच अतिचार श्रावक वर्जे ।
प्रथम सहसाभ्याख्यान अतिचार-विना विचारे किसी को कलंक देना - तू व्यभिचारी है, झूठा है, चोर है, इत्यादि कहना | जेकर श्रावक किसी का प्रगट कोई अवगुण देखे, तो भी अपने मुख से न कहे, तो फिर कलंक देना, तो महापाप है, सो कैसे करे !
दूसरा रहसाभ्याख्यान अतिचार — कई एक पुरुष एकांत
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अष्टम परिच्छेद में बैठ कर कुछ मता करते हों । उन को देख के कहे, कि तुम राजविरुद्ध मता करते हो, राजदण्ड दिलावे |
ऐसा कह कर उनकी
भंडी करे,
तीसरा स्वदारमंत्र भेद
स्त्री ने
अतिचार — अपनी कही है, वो बात लोको में
कोई गुप्त बात अपने पति से प्रगट करे, उपलक्षण से भाई प्रमुख की कही वात को प्रगट करे । क्योंकि लज्जनीय बात के प्रगट होने से स्त्री आदि कूपादिक में डूब मरती हैं ।
चौथा मृषा उपदेश अतिचार -- दूसरों को झूठी वस्तु के करने का उपदेश करे, तथा विषय सेवने के चौरासी आसन सिखावे, तथा दूसरों को दुःख में पड़ने का उपदेश करे; वीर्य पुष्ट होने की औषधि बतलावे, जिस से वो बहुत विषय सेवें । जिस से विषयकषाय अधिक उत्पन्न होवें, ऐसा उपदेश करे ।
पांचमा कूटलेखकरण अतिचार - किसी के नाम का झूठा पत्र, बही बना लेना, अगले अंक को तोड़ के और बना देना, तथा अक्षर खुरच देना, झूठी मोहर छाप बना लेनी, इत्यादि कूट लेख अतिचार हैं। इन पांच अतिचार अरु पांच प्रकार के पूर्वोक्त झूठ को नरकादि गति के कारण जान कर श्रावक वर्ज देवे ।
तीसरा स्थूल अदत्तादानविरमणत्रत लिखते हैं । प्रथम
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जैनतवादर्श
मोटी चोरी-भीत फोडी कुंभल देकर अथवा अदत्तादान एकले को रस्ते में छल बल करके ठग लेना । विरमणबत जबरदस्ती से किसी की वस्तु खोस लेनी ।
नजर बचा के किसी की वस्तु उठा लेनी। अरु कोई वस्तु घर गया हो, जब वो मांगने आवे तव, मुकर जावे । तथा हीरा, मोती, पन्ना प्रमुख झूठे सच्चे का अदल बदल कर देवे, इत्यादि अदत्तादान अर्थात् चोरी का स्वरूप है । इस के करने से परलोक में खोटी नरकादि गति प्राप्त होती है । अरु इस लोक में भी प्रगट हो जावे, तो राज दण्ड, अपयश, अप्रतीति होवे, इस वास्ते श्रावक अदत्तादान का त्याग करे । इस अदत्तादान व्रत के दो भेद हैं । प्रथम द्रव्य अदत्तादानविरमण व्रत-सो पूर्वोक प्रकार से दूसरों की वस्तु पडी और विसरी हुई लेवे नहीं, सो द्रव्य अदनादान-विरमणबत जानना । दूसरा भाव अदत्तादानविरमण व्रत-सो पर जो पुद्गल द्रव्य, तिस की जो रचनावर्ण, गंध, रस, स्पर्शादि रूप तेवीस विषय, तथा आठ कर्म की वर्गणा । यह सर्व पराई वस्तु हैं, सो वस्तु तत्त्वज्ञान में जीव को अग्राह्य है, तिस की जो उदय भाव करके वांछा करनी, सो भाव चोरी है। तिस को जिनागम के सुनने से त्यागना, पुद्गलानंदीपना मिटाना, सो भाव अदत्तादानविरमणव्रत कहिये। अतः जो जो कर्मप्रकृति का बंध मिटा है, सो भाव अदत्तविरमणव्रत है। सामान्य प्रकार से
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अष्टम परिच्छेद अदत्त के चार भेद हैं:१. किसी की वस्तु बिना दिये ले लेनी, इस का नाम
स्वामी अदत्त है । २. सचित्त वस्तु अर्थात् भदत्त के चार जीववाली वस्तु-फूल, फल, बीज, गुच्छा, ___ भेद पत्र कंद, मूलादिक, तथा बकरा, गाय,
सूअर आदिक, इन को तोड़े, छेदे, मेदे, काटे, सो जीव अदत्त कहिये। क्योंकि फूलादि जीवों ने अपने शरीर के छेदने मेदने की आज्ञा नहीं दीनी है, कि तुम हम को छेदो मेदो, इस वास्ते इसका नाम जीव अदत्त है । ३. जो वस्तु तीर्थकर अहंत ने निषेध करी है, तिसका जो ग्रहण करना । जैसे साधु को अशुद्ध आहार लेने का निषेध है, अरु श्रावक को अभक्ष्य वस्तु ग्रहण करने का निषेध है। सो इन पूर्वोक्त को ग्रहण करे, तो इस का नाम तीर्थंकर अदत्त है । ४. गुरु अदत्त जैसे कोई साधु शास्त्रोक्त निर्दोष आहार व्यवहार शुद्ध लावे, पीछे उस आहार को जो गुरु की आज्ञा विना खावे, सो गुरु अदत्त है। ___ यह चारों अदत्त संपूर्ण से रीति तो जैन का यति ही त्याग सकता है, गृहस्थ से तो एक स्वामी अदत्त ही त्यागा जाता है, इस वास्ते इसी की यहां मुख्यता है । तिस वास्ते पराई वस्तु पूर्वोक्त प्रकार से लेनी नहीं। जेकर ले लेवे, तो चोर नाम पड़े, राजदण्ड होवे; अपयश अप्रतीति होवे, इस वास्ते न लेनी चाहिये । अरु जिस वस्तु की बहुत मनाई
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जैनतत्त्वादर्श नहीं है, लेने से चोर नाम नहीं पड़ता है, तिस की जयणा करे । अरु किसी की गिरी पड़ी वस्तु मिल जावे, पीछे जेकर जान जावे कि यह वस्तु अमुक की है, तब तो उस को दे देवे । जेकर उस वस्तु के स्वामी को न जाने, अरु अपना मन दृढ रहे तो लेवे नहीं । अरु कदाचित् बहुमोली बस्तु होवे, अरु मन दृढ न रहे, तो उस वस्तु को लेकर अपने पास कितनेक दिन रक्खे। जेकर उसका मालिक कोई जान पड़े तो उसको दे देवे, जेकर उसका स्वामी कोई मालूम न पड़े तो धर्मखाते में उस धन को लगा देवे । जेकर लोम अधिक होवे, तो आधा धर्म में लगा देवे । तथा अपनी जमीन को खोदते हुए तिस में से धन निकल आवे, तो रखने का आगार है । परन्तु इसमें भी आधा भाग अथवा चौथा हिस्सा धर्म में लगावे। तथा दूसरे की जगा मोल से ली होवे, उसमें से खोदते हुए धन निकल आवे, जेकर मन में सतोष होवे, तब तो उस मकानवाले को वो धन दे देवे; जेकर लोभ होवे, तब आधा धर्म में लगावे, अरु आधा अपने पास रक्खे । तथा कोई पुरुष अपने पास धन रख कर, पीछे से मर गया होवे, अरु उसका कोई वारिस न होवे, तब श्रावक उस धन को पंचों के आगे जाहिर करे, जो कुछ पंच कहें, सो करे । कदापि देश काल की विषमता से उस धन को जाहिर करते कोई राज सम्बंधी क्लेश उठता मालूम पड़े, कोई दुष्ट राजा लोभ के वश से कहे, कि तेरे घर में और भी ऐसा धन
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अष्टम परिच्छेद
है, इत्यादि होवे, तब तो मौन करके उस धन को धर्मस्थान में लगा देवे ।
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तथा घर की चोरी यह है - घर की सर्व वस्तुओं के मालिक माता पिता हैं, तिन के पूछे बिना धन वस्त्रादि लेने की जयणा रक्खे । अथवा जिस के साथ प्रेम होवे, तथा जो संबंधी होवे, जिस के घर में जाने आने का अरु खाने पीने का व्यवहार होवे उसके बिना पूछे कोई फलादि वस्तु खाने में आवे, उसका आगार रखखे । परन्तु जेकर खाने से मालिकों का मन दुःखे, तो न लेवे। तीसरा व्रत पाले । यह व्यवहार शुद्ध विरमण व्रत हैं ।
उस वस्तु के
इस रीति से
अदत्तादान
निश्चय से तो जितना अबंधपरिणाम हुआ अर्थात् गुणस्थान की वृद्धि होने से बंध का व्यवच्छेद हुआ है, सो निश्चय अदत्तादानविरमण व्रत कहिये । इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, सो कहते हैं ।
प्रथम स्तेनाहृत अतिचार --- चोर की चुराई हुई जो वस्तु तिस को स्तेनाहृत कहते हैं । सो वस्तु न लेवे, एतावता चोरी की वस्तु जान करके न लेवे। क्योंकि जो चोरी
वो
की वस्तु जान कर लेता है, हैं । क्योंकि जैनमत के शास्त्रों में
लेनेवाला भी चोर सात प्रकार के चोर
लिखे हैं । यथा:
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जैनतत्वादर्श चौरश्चौरापका मन्त्री, भेदज्ञः क्राणकक्रयी। अनदः स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥
[धर्म० प्र० टीका में संगृहीत] दूसरा प्रयोग अतिचार-चोरी करनेवालों को प्रेरणा करनी जैसे कि अरे ! तुम चुपचाप निर्व्यापार आज कल क्यों बैठे रहे हो! जेकर तुमारे पास खरचा न होवे, तो मैं देता हूं, अरु तुमारी लाई हुई वस्तु मैं बेच दूंगा, तुम चोरी करने के वास्ते जाओ, इत्यादि वचनों करके चोरों को प्रेरणा करनी।
तीसरा तत्प्रतिरूपक व्यवहार अतिचार-सरस वस्तु में नीरस वस्तु मिला कर बेचे, जैसे केसर में कसुंभादि मिला कर बेचे, घी में छाछादि, हींग में गूंदादि, खोटी कस्तूरी खरी करके बेचे, अफयून में खोट मिलावे, पुराणा वस्त्र रंगा कर नवे के भाव बेचे, रूई को पानी से मिगो कर बेचे, दूध में पानी मिला के बेचे, इत्यादि करे ।
चौथा राजविरुद्धगमन अतिचार-अपने गाम के वा देश के राजा ने आज्ञा दी, कि फलाने गाम में जाना नहीं, इत्यादि जो राजा की आज्ञा है, उसका उल्लंघन करना, वैरी राजा के देश में अपने राजा के हुकुम के बिना जाना ।
पांचमा कूट तोलमान अतिचार-खोटा तोल, माप, करने का अतिचार है। कमती तोल से तो देना, अरु अधिक तोल से लेना।
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अष्टम परिच्छेद चौथा मैथुन त्याग व्रत कहते हैं-सो मैथुन सेवने का
त्याग करना है । इस व्रत के दो भेद मैथुनविरमण व्रत हैं, एक द्रव्य मैथुनत्याग, दूसरा भाव मैथुन
त्याग । उसमें द्रव्य मैथुन तो परस्त्री तथा परपुरुष के साथ संगम करना है। सो पुरुष स्त्री का त्याग करे, अरु स्त्री पुरुष का त्याग करे, रतिक्रीडा-कामसेवन का त्याग करे तिस को द्रव्य ब्रह्मचारी तथा व्यवहार ब्रह्मचारी कहिये । भाव मैथुन-सो एक चेतन पुरुष के विषयविलास परपरिणतिरूप, तथा तृष्णा ममता रूप, इत्यादि कुवासना, सो निश्चय परस्त्री को मिलना तिस के साथ लालन पालनरूप कामविलास करना, सो भावमैथुन जानना । तिस का जब जिनवाणी के उपदेश से, तथा गुरुकी हितशिक्षा से ज्ञान हुआ, तब जातिहीन जान करके अनागत काल में महा दुःखदायी जान कर पूर्वकाल में इस की संगत से अनंत जन्म मरण का दुःख पाया, इस वास्ते इस विजातीय स्त्री को तजना ठीक है। अरु मेरी जो स्वजाति स्त्री, परम भक्त उत्तम, सुकुलीन, समतारूप सुन्दरी, तिस का संग करना ठीक है । अरु विभावपरिणतिरूप परस्त्री ने मेरी सर्व विभूति हर लीनी है। तो अब सद्गुरु की सहायता से ए दुष्ट परिणाम रूप जो सी, संग लगी हुई थी, तिस का थोड़ा थोड़ा निग्रह करूं-त्यागने का भाव आदरूं, जिस से शुद्धस्वभाव घटरूप घर में आजावे, तथा स्वरूप तेज की वृद्धि
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जैन तत्वादर्श
होवे । ऐसी समझ पा करके जो परपरिणति में मग्नता त्यागे, और कर्म के उदय ने व्यापक न होवे, शुद्ध चेतना का संगी होवे, सो भाव मैथुन का त्यागी कहिये । इहां द्रव्यमैथुन के त्यागी तो षड् दर्शन में मिल सकते हैं, परन्तु भावमैथुन का त्यागी तो श्रीजिनवाणी सुनने से भेदज्ञान जव घट में प्रगट होता है, तब भवपरिणति से सहज उदासीनता रूप भाव मैथुन का त्यागी जैनमत में ही होता है । इहां स्थूल परस्त्रीगमनविरमण व्रत - सो परस्त्री का त्याग करना । परपुरुष की विवाहिता स्त्री, तथा पर की रक्खी हुई स्त्री, तिल के साथ अनाचार न सेवना, ऐसा जो प्रत्याख्यान करना, सो परदारगननविरमण व्रत है । अरु जो अपनी स्त्री है, तिस ने संतोष करूं, ऐसा जो व्रत धारण करे, तिस को स्वदार संतोष व्रत कहिये ।
देवांगना तथा तिर्यचनी के साथ तो काया से मैथुन सेवन का निषेध है । तथा वर्तमान स्त्री को बर्ज के और स्त्री से विवाह न करे । तथा दिन में अपनी स्त्री से भी संभोग न करे, क्योंकि दिनसम्भोग से जो संतान उत्पन्न होती है, सो निर्बल होती है । जेकर कामाधिक होवे; तो दिन की भी मर्यादा कर लेवे । इसी तरे स्त्री भी परपुरुष का त्याग करे । इस रीति से चौथा व्रत पाले । इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, सो लिखते हैं।
प्रथम अपरिगृहीतागमन अतिचार - बिना विवाही स्त्री
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अष्टम परिच्छेद कुमारी तथा विधवा, इन को अपरिगृहीता कहते हैं, क्योंकि इन का कोई मार नहीं है। जेकर कोई अल्पमति विषयाभिलाषी मन में विचारे, कि मैने तो परस्त्री का त्याग करा है; परन्तु ए तो किसी की भी स्त्रियें नहीं हैं, इन के साथ विषय सेवने से मेरा ब्रतमंग नहीं होवेगा। ऐसा विचार करके कुमारी तथा विधवा स्त्री के साथ भोगविलास करे, तो प्रथम अतिचार लग जावे । तथा स्त्री भी व्रतधारक होकर कुमारे पुरुष से तथा रंडे पुरुष से व्यभिचार सेवे, तो तिस स्त्री को भी अतिचार लगे।
दूसरा इत्वरपरिगृहीतागमन अतिचार-इवर नाम थोड़े काल का है, सो थोड़े से काल के वास्ते किसी पुरुष ने धन खरच के वेश्यादि को अपनी करके रक्खी है। इहां कोई अज्ञान के उदय से मन में ऐसा विचार करे कि मेरे तो परस्त्री का त्याग है, अरु इस वेश्यादि को तो मैने अपनी स्त्री बना करके थोडे से काल के वास्ते रक्खी है, तो इस के साथ विषय सेवने से मेरा व्रतभंग नही होवेगा। ऐसे अज्ञान के विचार से उसके साथ संगम-विषय सेवन करे, तो दूसरा अतिचार लगे । तथा स्त्री भी जव अपनी सौकन की वारी के दिन में अपने भार से विषय सेवे, वो अपने मन में ऐसा विचार करे, कि अपने पति के साथ विषय सेवने से, मेरा व्रतमंग नहीं होवेगा; क्योंकि मैंने तो पर पुरुष का त्याग करा है। यह दूसरा अतिचार । इन
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ટ
जैनतस्वादर्श
पूर्वोक्त दोनों अतिचारों को जो श्रावक जानता है, कि ये श्रावक को करने योग्य नहीं, अरु फिर जेकर करे, तो व्रतभंग होवे, परन्तु अतिचार नहीं ।
तीसरा अनंगक्रीडा अतिचार - अनंग नाम काम का है, तिस काम - कंदर्प को जागृत करना, आलिंगन, चुंबन प्रमुख करना, नेत्रों का हाव, भाव, कटाक्ष, हास्य, ठठ्ठा, मरकरी प्रमुख परस्त्री से करना । वह दिल में सोचता है, कि मैने तो परस्पर एक शय्या पर विषय सेवने का त्याग करा है, पूर्वोक्त अनंगक्रीडा तो नहीं त्यागी है । परन्तु वो मूढमति यह नही जानता है, कि ऐसा काम करनेवाले का व्रत कदापि न रहेगा । तथा मन से उस जीव ने महापाप का उपार्जन कर लिया । निश्चय नय के मत से उसका व्रत भंग भी हो गया । तथा अपनी सी से चौरासी आसनों से भोग करे, तथा पंदरा तिथि के हिसाव से स्री के अंगमर्द्दनादि करके काम जगावे । तथा परम कामाभिलापी होने से जब अपनी स्त्री का भोग न मिले, तब हस्तकर्म करे; स्त्री भी काम व्याप्त होकर गुणस्थान में कोई वस्तु संचार करके हस्तकर्म करे, तब स्त्री को भी अतिचार है । तिस वास्ते श्रावक को जैसे तैसे करके भी कामेच्छा घटानी चाहिये । क्योंकि विषय के घटाने से अरु वीर्य के रखने से बुद्धि, आरोग्य, दीर्घायु, बल प्रमुख की वृद्धि होती है । अधिक काम के सेवन से मन मलिन, पापवृद्धि, राज्यक्ष्मा - क्षय,
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अष्टम परिच्छेद
६९ श्रम, मूर्च्छा, कम और स्वेदादि रोग उत्पन्न होते हैं। इस वास्ते श्रावक को अत्यंत विषय मन नहीं होना चाहिये । केवल जिस से वेदविकार शांत हो जावे, तितना ही मैथुन करना चाहिये । अरु जब काम उत्पन्न होवे, तब स्त्री सम्बंधी काम सेवन की जगे को जाजरू - टट्टी समान मल मूत्र से भरी हुई विचारे । मलिन वस्तु है, मुख में दुर्गध भरी है, नाक में सिघाण की दुर्गध है, कानों में मैल है, पेट में विष्ठा, मूत्र भरा है, नसों में खाये पीये का रस, रुधिर, हाड़, नाम, चर्बी, वात, पित्त, कफ, भरा है, यह महाअशुचि का पुतला है; जिस अंग में वास लेवेगा, वहां महा दुर्गंध उछलती है; अनित्य -- अशाश्वत है, सड़न, पतन, विध्वंसन हो जाना इस का स्वभाव है । तो फिर हे मूढ जीव ! स्त्री को देखकर क्यों कामाकुल होता है ? ऐसे विचार से काम को शांत करे । चौथा पर विवाहकरण अतिचार - अपने पुत्र पुत्री के बिना, यत्र के वास्ते, पुण्य के वास्ते, और लोकों के विवाह करावे, सो चौथा अतिचार |
पांचमा तीव्रानुराग अतिचार - जो पुरुष स्त्री के ऊपर तीव्र अभिलाप घरे, पराई स्त्री को देख कर मन में बहुत चाहना धरे, उस सी के देखे विना क्षणमात्र रह न सके; चलते फिरते उस स्त्री ही में चित्त रहे । अथवा देह में काम की वृद्धि के वास्ते अफयून, माजून, भांग, हड़ताल, पारा प्रमुख खावे, तीत्र काम से प्रीति करे। तब पांचमा अतिचार
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७०
जैनतस्वादर्श
लगे । अथवा स्त्री भी काम की वृद्धि करने के वास्ते अनेक उपाय करे, बहुत हाव भाव विषय लालसा करे, तब पांचमा अतिचार लगे । इन पांच अतिचारों को श्रावक जाने, परन्तु आदरे नहीं । इन पांचों अतिचारों का विशेष स्वरूप धर्मरत्न प्रकरण की टीका से जानना ।
पांचमा स्थूलपरिग्रहपरिमाण व्रत लिखते हैं- परिग्रह के दो भेद हैं, एक तो बाह्यपरिग्रह अधिकरण परिग्रहपरिमाण रूप, सो द्रव्यपरिग्रह नव प्रकार का है । व्रत दूसरा भावपरिग्रह, सो चौदह अभ्यंतर ग्रंथिरूप जो परभाव का ग्रहण समस्त प्रदेश सहित सकषायरूप से बंध, सो भावपरिग्रह है । अरु शास्त्र में मुख्य वृत्ति करके मूर्छा को भावपरिग्रह कहा है । तिन में से चौदह प्रकार का जो अभ्यंतर हैं । १. हास्य, २. रति, ३. अरति, ४. जुगुप्सा, ७. क्रोध, ८. मान, ९. माया, वेद, १२. पुरुषवेद, १३. नपुंसकवेद, १४. मिथ्यात्व यह चौदह प्रकार की अभ्यंतर ग्रन्थि है। संसार में इस जीव को केवल अविरति के बल से इच्छा आकाश के समान अनंती है, जो कि कदापि भरने में नहीं आती। अविरति के उदय से इच्छा अरु इच्छा से कर्मबंधन में पड़ा हुआ यह जीव चार गति में भ्रमण करता है । सो किसी पुण्य के उदय से मनुष्य भव आदि सकल सामग्री का योग पाकर,
परिग्रह है, सो लिखते भय, ५. शोक, ६. १०. लोभ, ११. स्त्री
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अष्टम परिच्छेद
७१ सद्गुरु की संगति से जव श्री जिनवाणी को सुना, तव चेतना जागृत मई, तब विचार हुआ कि अहो मैं समस्त परभाव से अन्य हूं ! अवन्धि, अछेद्य, अभेद्य, अदह्यधर्मी हूं! परन्तु इच्छा के वश होकर समस्त छेदन, भेदन, परिभ्रमणादि दुःखों को भोगने वाला परधर्मी बन रहा हूं! इस वास्ते समस्त परभाव का मूल जो इच्छा है, तिस को दूर करे । तब समस्त परभाव त्यागरूप चारित्र आदरे, साधुवृत्ति अंगीकार करे। तथा जिस जीव के इच्छा प्रबल होने से एक साथ सर्व परिग्रह त्यागने का सामर्थ्य न होवे, अरु दोष से डरे, तब गृहस्थ, धर्म के विषय में इच्छा परिमाण रूप व्रत को आदरे, सो इच्छा परिमाण व्रत नव प्रकार का है । सो कहते हैं:
प्रथम धन-परिमाण व्रत-धन चार प्रकार का है। प्रथम गणिम धन-सो नारिकेल प्रमुख, जो गिनती से वेचने में आवे । दूसरा धरिम घन-सो गुड़ प्रमुख, जो तोल के बेचने में आवे । तीसरा परिछेद्य धन-सो सोना, रूपा, जवाहिर प्रमुख, जो परीक्षा से वेचने में आवे । चौथा मेयधन-सो दूध आदि वस्तु, जो माप के बेचने में आवे । यह चार प्रकार का धन है। इस का जो परिमाण करे, सो धन परिमाण व्रत है।
दूसरा धान्य-परिमाण व्रत-सो धान्य चौवीस प्रकार का है। १. शालि, २. गेहू, ३. जुवार, १. बाजरी, ५. यव,
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७२
जैनतस्वादर्श ६. मूंग. ७. नोठ, ८. उड़द, ९. डूंट, १०. वोड़ा, ११. मटर, १२. तुमर, १३. किसारी, १४. कोद्रया, १५. कंगणी, १६. चना, १७. वाल, १८. नेयी, १९. कुल्य, २०. मनूर, २१. तिल. २२. नंडा, २३. कूरी, २४. अटी, यह खाने तथा व्यवहार वारते अयोगी हैं। तथा धनियां, भिंडी, तोवा, अजगन्न, जीरा, यह भी धान्य की जाति में हैं। परंतु ये सर औषधि सादि में ज्ञान आते हैं। तथा सामक, नगली. मुरट, चेकरीया, ये नारवाड़ देश में प्रसिद्ध हैं। और मी जो बड़क पान्य बिना बोये उगता है, जिस को लोक काल दुकाल ने साते हैं, इस सर्व जाति के अन्न-का परिमाण करे।
तीसरा क्षेत्रपरिमाण व्रत-सो बोने का खेत, तथा वागनाग नादिक जानना । इस क्षेत्र के तीन भेद है, उस ने एक क्षेत्र तो ऐसा है. कि जो वर्षा के पानी से होता है, दूसरा रादिक के जर सींचने से होता है, तीसरा पूर्वोक्त दोनों प्रकार से होता है। इन का परिनाण करे। ___ चौथा वास्तुक-परिमाण ब्रत-सो घर, हाट, हवेली प्रमुख; तिन के भी तीन भेद है। एक तो भोरा प्रमुत्ता दूसरा उच्छूित-ऊंची हवली, एक मंजली, दो मंजली, तीन नंजली, यावत् सातभूमि तक, तीसरी नीचे भोरा प्रमुख ऊपर एक दो आदि नंजल तिन का परिमाण करे।
पांचमा खप्यपरिग्रह-परिमाण त-सो सिके बिना का
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अष्टम परिच्छेद कच्चा रूपा, तिस के तोल का परिमाण करे। ___छट्ठा सुवर्णपरिग्रहपरिमाण व्रत-सो बिना सिके का सोना, तिस के तोल का परिमाण करे। ___सातमा कुप्यपरिग्रहपरिमाण व्रत-सो त्रांबा, पीतल, रांगा, कांसा, सीसा, भरत, लोहा प्रमुख सर्व धातु के बरतनों के तोला का परिमाण करे। ___ आठमा द्विपदपरिग्रहपरिमाण व्रत-सो दासी, दास, अथवा पगारदार-गुमास्ता प्रमुख रखना, तिन की गिनती का परिमाण करे। __नवमा चतुष्पदपरिग्रहपरिमाण व्रत-सो गाय, महिषी, घोड़ा, बलद, बकरी, भेड़ प्रमुख, तिन की गिनती का परिमाण करे। ___अथ अपनी इच्छा परिमाण से परिग्रह किस तरे रक्खे ! सो कहते हैं। रूपा घड़ा हुआ अरु अनघड़ा तथा नगद रूपक इतना रक्खू, तथा सोना भी घड़ा अनघड़ा अशरफ़ी तथा जवाहिर इतना रक्खू, इस रीति से परिमाण करे । उपरांत पुण्योदय से धन वधे, तो धर्मस्थान में लगावे । तथा वर्ष भर में इतने, इस भांत के वस्त्र पहिरूं। तथा एक वर्ष में इतना अन्न में घर के खरच के वास्ते रक्खू, अरु इतना वणिज के वास्ते रक्खू । तिस का स्वरूप सातमे व्रत में लिखेंगे। तथा क्षेत्रपरिमाण में क्षेत्र, वाड़ी, बगीचा प्रमुख सर्व मिल कर इतने वीधे धरती रक्खूगा। तथा घर,
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जैनतस्वादर्श
खिड़की बंद, अरु खुल्ली दुकान, तबेला, बुखारी, तथा परदेश, संबन्धी दुकान की जयणा, तथा इतना भाड़े देने के वास्ते घर को रखने की जयणा, तथा भाड़े लिये हुये घर को समराने की जयणा, तथा कुटुंब सम्बन्धी घर बनाने में उपदेश की जयणा, तथा अपना सम्बन्धी अरु गुमास्ता परदेश गया होवे, पीछे से तिस के घर प्रमुख समरावने की जयणा तथा आजीविका के वास्ते किसी की चाकरी करनी पड़े, तब उसके घर प्रमुख के समरावने की जयणा । तथा कुप्यपरिमाण में तांबा, पीतल रांग, लोहखण्ड, कांसी, भरत, सर्व मिल कर धातु के वरतन, तथा और घाट, तथा छूटा, इतने मन रखने की जयणा । तथा दुपद परिमाण में श्रावक ने दासी, दास को मोल दे कर नहीं लेना, परंतु पगारवाले नौकर गिनती में इतने रखने चाहियें, तथा गुमास्ता रखने की जयणा । तथा चौपद परिमाण में गाय, भैंस, बकरी प्रमुख रखने का परिमाण करे । अब इस इच्छा परिमाण व्रत के पांच अतिचार हैं, सो लिखते हैं ।
७४
प्रथम धनपरिणाम - अतिक्रम अतिचार - सो इस रीति से होता है । जब इच्छा परिमाण से धन अधिक हो जावे, तब लोभ संज्ञा से दिल में ऐसा मनसूबा करे, कि मेरा पुत्र जो बड़ा हो गया है, तिस को भी धन चाहिये, पुत्र को धन देना ही है। ऐसा कुविकल्प करके के पांच हजारादि रूपक जुदे रक्खे । तथा अन्न प्रमुख अपने
अरु मैंने भी
पुत्र के नाम
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अष्टम परिच्छेद
७५
नियम परिमाण घर में पड़ा है, तब अधिक रखने की इच्छा से दूसरे के घर में रख छोड़े । जब चाहे तब ले आवे, अरु अज्ञान से ऐसा विचारे कि मैंने तो इच्छा परिमाण से अधिक रखने का नियम करा है, अरु यह तो दूसरों के घर में रक्खा है, इस वास्ते मेरे नियम में दूषण नहीं । तथा व्रत लेने के वक्त में कच्चे मन के हिसाब से अन्न रक्खा है । अरु जब परदेशांतर में गया, तब पक्के मन का वहां तोल जान कर अन्न भी पक्के मन के हिसाब से रक्खे | ऐसे विचार वाले को प्रथम अतिचार लगता है ।
दूसरा क्षेत्र परिमाण - अतिक्रम अतिचार - सो जब इच्छा परिमाण से अधिक घर हाट आदिक हौ आवे, तब विचली भीत तोड़ के दो तीन घर आदि का एक घर आदि बनावे | तथा दो तीन खेतों की विचली डौली तोड़ के एक बना लेवे । अरु भन में यह विचारे, कि मैंने तो गिनती रक्खी है, सो तो मेरा नियम अखंडित है, बड़ा कर लेने में क्या दूषण
है ? ऐसे करे, तो दूसरा अतिचार लगे ।
तीसरा रूप्यसुवर्ण परिमाण - अतिक्रम जव इच्छा परिमाण से अधिक होवे, तब गहने भारी तोल के बनवावे, तथा अपने भारी बनवावे |
अतिचार - सो अपनी स्त्री के
आभरण तोल में
चौथा कुप्यपरिमाण - अतिक्रम अतिचारतो त्रांबा, पीतल, कांसी प्रमुख के वरतन वगैरे जो गिनति में रक्खे
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जैन तत्त्वादर्श
हैं, सो जब घर में संपदा होवे, तब गिनती में तो उतने ही रक्खे, परन्तु तोल में वज़नदार दुगने तिगुने बनवावे, अरु मन में ऐसा विचारे कि मेरा व्रत तो अखंडित है; क्योंकि बरतनों की गिनती तो मेरे उतनी ही है । तथा कच्चे तोल -- परि. माण रक्खे थे, फिर पक्के तोल परिमाण रख लेवे ।
पांचमा द्विपदचतुष्पद - परिमाणातिक्रम अतिचार - सो दास दासी, घोड़ा, गाय, बलद प्रमुख अपने परिमाण से जब अधिक हो जावें, तब वेच गेरे ( डाले ), अथवा गर्म ग्रहण अवेरे ( देर में ) करावे, जितने गिनती में हैं, उनमें से प्रथम बेच के फिर गर्म ग्रहण करावे, अथवा भाई पुत्र के नाम करके रक्खे, तो पांचमां अतिचार लगता है ।
अथ छट्ठा, सातमा अरु आठमा, इन तीनों व्रतों को गुणव्रत कहते हैं । तिन में छठे व्रत में दिशाओं का विचार है, इस वास्ते इसका नाम दिकूपरिणाम व्रत है । अब तिस का स्वरूप लिखते हैं ।
पूर्व जो पांच अणुव्रत कहे हैं, तिन को इन तीनों व्रतों करके गुण वृद्धि होती है, इस वास्ते इन का नाम गुणनत है । क्योंकि जब दिशा परिमाणत्रत किया, तब तिस क्षेत्र से बाहिर के सर्व जीवों को अभयदान दिया, यह पहिले प्राणातिपातविरमण व्रत में गुणपुष्टि भई । तथा बाहिर के जीवों के साथ झूठ बोलना मिट गया, इह मृषावादविरमण व्रत को पुष्टि भई । तथा
गुणवत
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}
अष्टम परिच्छेद
बाहिर के क्षेत्र की वस्तु की चोरी का त्याग हुआ, यह तीसरे व्रत को पुष्टि भई । तथा बाहिर के क्षेत्र की स्त्रियों के साथ मैथुन सेवने का त्याग हुआ, यह चौथे व्रत की पुष्टि भई । तथा नियम से बाहिर के क्षेत्र में क्रय विक्रय का निषेध भया, यह पांचमे व्रत की पुष्टि भई । इस वास्ते पांचों अणुव्रतों को यह तीनों व्रत गुणकारी है ।
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व्रत
तहां दिक्परिमाण व्रत - सो चारों दिशा, तथा चारों विदिशा, तथा ऊर्ध्व अरु अधो, इन दश दिशाओं दिक्परिमाण का परिमाण करे । तिस के दो भेद हैं । एक व्यवहार - सो अपनी काया से दशों दिशा में जाने का, तथा मनुष्य भेजने का, तथा व्यापार करने का परिमाण करे, उस को व्यवहार दिकू - परिमाण व्रत कहिये | दूसरा निश्चय -- सो जो कुछ नरकादि गति में गमन है, सो सर्व कर्म का धर्म है। जिस के वश पड़ के यह जीव चारों गति में भटकता है; परानुयायी चेतना हो रही है, इसी वास्ते जीव परभावानुसारी गतिभ्रमण करता है । परन्तु जीव तो शुद्ध चैतन्य, अगतिस्वभाव, तथा निश्चल स्वभाव है । ऐसा श्री जिनवाणी के उपदेश से समझ कर चेतना शुद्धस्वरूपानुयायी होवे । तब अपना अगति स्वभाव जान कर सर्व क्षेत्र से उदास रहे, समस्त क्षेत्र से अप्रतिबंधक भाव से वर्ते, सो निश्चय से दिक्परिमाण व्रत कहिये । इन दश दिशा का जो परिमाण, तिस के दो भेद हैं ।
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जैनतत्त्वादर्श प्रथम जलमार्ग-सो जहाज़ नाबों करके इतने योजन अमुक दिशा में अमुक बंदर तथा अमुक द्वीप तक जाऊं, जेकर पवन, तथा वर्षा के वश से और दूर किसी बंदर में वह जावे तो आगार, अर्थात् व्रतमंग न होवे । अथवा अजानपने से-भूल चूक से किसी बंदर में चला जाऊं, उसका भी आगार है। - दूसरा स्थल का मार्ग-सो जिस जिस दिशा में जितने जितने योजन तक जाने का परिमाण करा है, तहां तक जाने की जयणा । जेकर चोर, म्लेच्छ, पकड़ के नियम-क्षेत्र से बाहिर ले जावे, तिस का आगार है । तथा ऊर्ध्व दिशा में बारां कोस तक जाने की जयणा रक्खे, तथा अघोदिशा में आठ कोस तक जाने की जयणा । परन्तु जो ऊंचा चढ़ के फिर नीचा उतरे, वो अघोदिशा में नहीं। तथा जितने क्षेत्र का परिमाण करा है, तिस से बाहिर का कोई पिछाणवाले पुरुष का पत्र आवे, सो वाच कर उसका उत्तर लिखना पड़े तिस का आगार है । परन्तु मै अपनी तरफ से विना कारण पत्र प्रमुख नहीं लिखूगा, तथा परदेश की विकथा सुनने का आगार । इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, सो कहते हैं।
प्रथम ऊर्ध्वदिशापरिमाणाविक्रम अतिचार-सो अनाभोग से अथवा वे सुरती-बे खबरी से अधिक चला जावे तो प्रथम अतिचार ।
दूसरा अघोदिशापरिमाणातिक्रम अतिचार-पूर्ववत् । तीसरा तिरछीदिशापरिमाणातिकम अतिचार-ऊपर
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अष्टम परिच्छेद वत् । जेकर नियम मंग के भय से गुमास्ता भेजे, तो भी अतिचार लगे। ___ चौथा क्षेत्रवृद्धि अतिचार-एक दिशा में सौ योजन रक्खे हैं, अरु एक दिशा में पचास योजन रक्खे हैं। पीछे जब एक ही दिशा में डेढ सौ योजन जाना पड़े तब दूसरी तरफ के पचास योजन भी उसी तरफ़ जोड़ लेवे, और अज्ञान से ऐसा विचारे कि मेरे नियम के ही पचास योजन हैं, इस वास्ते मेरे व्रत का भंग नहीं। ____पांचमा स्मृत्यंतर्धान अतिचार-सो अपने नियम के योजन को भूल जावे, क्या जाने पूर्व दिशा के सौ योजन रक्खे हैं ? कि पचास योजन रक्खे है ? इत्यादि, ऐसे संशय के हुए फिर पचास योजन से अधिक जावे, तो पांचमा अतिचार लग जावे। __ अथ सातमे भोगोपभोग व्रत का स्वरूप लिखते है। यह
दूसरा गुणव्रत है। इस व्रत के अंगीकार भोगोपभोग व्रत करने से सचित्त वस्तु खाने का त्याग करे,
अथवा परिमाण करे। तथा जिल में बहुत हिंसा होवे, ऐसा व्यापार न करे । तथा जिस काम में अवश्य हिंसा बहुत करनी पड़े तिस का त्याग करे। अभक्ष्य त्यागे, अरु चौदह नियम भी इस व्रत में गिने जाते हैं। इस वास्ते यह व्रत पूर्वोक्त पांच ही अणुव्रतों को गुणकारी है । इस व्रत के दो भेद हैं, सो कहते हैं।
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जैनतस्वादर्श
प्रथम व्यवहार - सौ भक्ष्याभक्ष्य का ज्ञान करके त्यागे, दूसरा आश्रव संवर का ज्ञान करके खानपानादिक जो इन्द्रिय सुख का कारण है, उस में अपनी शक्ति प्रमाण बहुत आरंभ को छोड़ के अल्पारंभी होना, सो व्यवहार भोगोपभोगविरमण व्रत है ।
तत्व के स्वरूप को जान कर वस्तु है, सो सर्व हेय है; इस
दूसरा निश्चय - सो श्रीजिनवाणी को सुन कर वस्तु विचारे, कि जगत् में जो पर वास्ते तत्त्ववेत्ता पुरुष परवस्तु को न खावे, न अपने पास रक्खे | तब शुद्ध चैतन्यभाव को धार कर परम शांतिरूप हो कर जो वस्तु सड़े, पड़े, गिरे, जाती रहे; तब परवस्तु जान कर ऐसा विचार करे, कि यह पुद्गल की पर्याय हैं, सर्व जगत् की जूठ है, ऐसी वस्तु का भोगोपभोग करना सो तन्त्रवेता को उचित नहीं । ऐसे ज्ञान से परभाव को त्यागे, स्वगुण की वृद्धि करे, ऐसा ज्ञान पा कर आत्मा को स्वस्वरूपानंदी करे, चिद्विलास का अनुभवी होवे । सो निश्चय भोगोपभोग विरमण व्रत
कहिये ।
अथ भोगोपभोग शब्द का अर्थ कहते हैं । जो आहार, पुष्प, विलेपनादि, एक वार भोगने में आवे, सो भोग कहिये । जो भुवन, वस्त्र, स्त्री आदि वार वार भोगने में आवे, सो उपभोग कहिये, तथा कर्माश्रय से इस व्रत के अनेक भेद है, सो आगे लिखेंगे ।
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अष्टम परिच्छेद तथा श्रावक को उत्सर्ग मार्ग में तो निरवद्य आहार लेना
लिखा है । जेकर शक्ति न होवे, तब सचित्त वाईस अमक्ष्य का त्यागी होवे, जेकर यह भी न कर सके,
तो बाईस अभक्ष्य अरु बत्तीस अनंतकाय, इन का तो ज़रूर त्याग करे, तिन में प्रथम बाईस अभक्ष्य वस्तुका नाम लिखते हैं:
१. वड़ के फल, २. पीपल के फल, ३. पिलखण के फल, ४. कळंबर के फल, ५. गूलर के फल, यह पांच तो फल अभक्ष्य हैं। क्योंकि इन पांचों फलों में बहुत सूक्ष्म कीड़े त्रस जीव भरे हुए होते हैं, जिनों की गिनती नहीं हो सकती है। इस वास्ते धर्मात्मा जीव, इन पांचों फलों को न खावे । जेकर दुर्भिक्ष में अन्न न मिले, तो भी विवेकी पूर्वोक्त फल भक्षण न करे।
६. मदिरा, ७. मांस, ८. मधु, ९. माखन, इन चारों में तद्वर्ण असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं, अरु यह चारों विगय महाविगय हैं, सो महाविकार की करने वाली हैं। तिन में प्रथम मदिरा त्यागने योग्य है, क्योंकि मदिरा के पीने में जो दूषण है, सो श्री हेमचंद्रसूरिकृत योगशास्त्र के दश श्लोकों के अर्थ से लिखते हैं।
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जैनतत्वादर्श . १. मदिरा पीने से चतुर पुरुष की बुद्धि नष्ट हो जाती है,
जैसे दुर्भागी पुरुष को सुंदर स्त्री छोड़ जाती मदिरापान के है, तैसे इस पुरुष को बुद्धि छोड़ जाती है। दोष २. मदिरापायी पुरुष अपनी माता, बहिन,
वेटी को अपनी भार्या की तरे समझ के जोराजोरी से विषय भी सेवन कर लेता है, अरु अपनी भार्या को अपनी माता समझता है, मदिरा पीनेवाला ऐसा निर्लज्ज और महापाप के करनेवाला होता है। ३. मदिरापायी अपने अरु पर को भी नहीं जानता। ४. मदिरापायी अपने स्वामी को अपना किकर जानता है, अरु अपने को स्वामी जानता है, एसी निजबुद्धिवाला होता है । ५. मदिरा पीनेवाले पुरुष को चौक में लेटा हुआ देखकर, मुरदा जान कर कुत्ते उसके मुंह में मूत जाते हैं । ६. मदिरा के रस में मग्न पुरुष चौक में नंगा-मादरजात, निर्लज्ज हो कर सो जाता है । ७. मदिरा पीनेवाले ने जो गम्यागम्य, चोरी, यारी, खून प्रमुख कुकर्म करे हैं, वो सर्व लोगों के आगे प्रकाश कर देता है । ८. मदिरा पीने से शरीर का तेज, कीर्ति, यश, तात्कालिकी बुद्धि, यह सब नष्ट हो जाते हैं । ९. मदिरापायी भूत लगे की तरे नाचता है । १०. मदिरा पीनेवाला कीवड़ और गंदकी में लोटता है। ११. मदिरा पीने से अंग शिथिल हो जाते हैं । १२. मदिरा पीने से इन्द्रियों की तेजी घट जाती है। १३. मदिरा पीने से बड़ी मूर्छा आ जाती है।
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अष्टम परिच्छेद १४. मदिरा पीनेवाले का विवेक नष्ट हो जाता है । १५. संयम नष्ट हो जाता हैं। १६. ज्ञान नष्ट हो जाता है । १७. सत्य नष्ट हो जाता है। १८ शौच नष्ट हो जाता है। १९. दया नष्ट हो जाती है । २०. क्षमा नष्ट हो जाती है । जैसे अग्नि से तृण भस्म हो जाते हैं, तैसे पूर्वोक्त गुण भी उस का नष्ट हो जाते हैं । २१. मदिरा, चोरी अरु परस्त्रीगमन आदिक का कारण है । क्योंकि मदिरा पीनेवाला कौन सा कुकर्म नहीं कर सकता है ! २२. मदिरा आपदा तथा वघ, बंधनादिकों का कारण है । २३. मदिरा के रस में बहुत जीव उत्पन्न होते हैं, इस वास्ते दया धर्मी को मदिरा न पीनी चाहिये । २४. मद्य पीनेवाला दिये को अनदिया कहता है । २५. लिये को नहीं लिया कहता है। २६. करे को न करा कहता है । २७. मद्यपी घर में तथा वाहिर पराये धन को निर्भय हो कर लूट लेता है। २८ मदिरे के उन्माद से वालिका, यौवनवती, वृद्धा, ब्राह्मणी, चण्डालिनी प्रमुख लियो से भोग कर लेता है । २९. मधप अरराट शब्द करता है । ३०. गीत गाता है । ३१. लोटता है । ३२. दौड़ता है। ३३. क्रोध करता है । ३४ रोता है । ३५. हंसता है । ३६. स्तंभवत् हो जाता है । ३७. नमस्कार करता है । ३८. भ्रमता है । ३९. खड़ा रहता है। ४० नट की तरें अनेक नाटक करता है । ४१. ऐसी वो कौनसी दुर्दशा है, जो मदिरा पीनेवाले को नहीं होती है। शास्त्रों में सुनते हैं, कि साम्बकुमार ने
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जैन तत्रवादर्श
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का
मदिरा नीच
मदिरा पी कर द्वैपायन ऋषि को सताया, तब द्वैपायन ने द्वारका को दग्ध किया । ४२. मदिरा पीना सर्व पापों का मूल है । ४३. मदिरा पीनेवाला निश्चय नरक गति में जावेगा । ४४. मदिरा सर्व आपदा स्थान है । ४५. मदिरा अकीर्त्ति का कारण है । ४६. म्लेच्छ लोक पीते हैं । ४७. गुणी जन जो हैं, सो वाले की निंदा करते हैं । ४८. मदिरा पठ्ठे में लग जाने से तत्काल मर जाता है । ४९ मदिरा पीनेवाले के मुख से महा दुर्गन्ध आती है । ५०. मदिरा सर्व शास्त्रों में निंदित है । ५१. मदिरा पीनेवाला ईश्वर का भक्त नहीं । इत्यादि मदिरा पीने में अनेक दोष हैं, इस वास्ते श्रावक मदिरा न पीवे ।
मदिरा पीने
सातमा अभक्ष्य मांस है । मांस भक्षण करने में जो दूषण है, सो लिखते हैं। जो पुरुष मांस मांसभक्षण का खाने की इच्छा करता है, वो पुरुष, दयानिषेध धर्मरूपी वृक्ष की जड़ काटता है । क्योंकि जीव के मारे बिना मांस कदापि नहीं हो सकता है । जेकर कोई कहे कि हम मांस भी खा लेवेंगे, अरु प्राणियों की दया भी करेंगे। एसे कहनेवाले को हम उत्तर देते हैं, कि सर्वदा जो मांस के खानेवाले हैं अरु अपने मन में दयाधर्मी बनना चाहते हैं, वो पुरुष अग्नि में कमल लगाना चाहते हैं । क्योंकि जब उनोंने मांस खाया तब प्राणियों की दया उन के मन में कदापि नहीं हो सकती है । जैसे अंब
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अष्टम परिच्छेद का खानेवाला आम्रफल देखता है, तब उस की मनशा अंब खाने ही को दौड़ती है, तैसे मांसाहारी किसी गौ, भेड, बकरी, प्रमुख को देखता है, तब उन जीवों का मांस खाने की तर्फ उसकी सुरती दौड़ती है, ऐसे पुरुष को दया धर्म, क्योंकर संभवे ! जेकर कोई कहे कि जीव के मारनेवाला तो सौकरिक अर्थात् कसाई है, तिस के पासों बना बनाया मांस लाकर खावे, तो क्या दोष है ! ऐसे मूढमति को उत्तर देते हैं, कि जो मांस खानेवाला है, वो भी जीव का हिंसक है, क्योंकि भगवंत ने शास्त्रों में सात जनों को घातक-हिंसक अर्थात् कसाई ही कहा है। उन के नाम कहते है:-एक जीव के मारनेवाला, दूसरा मांस बेचने चाला, तीसरा मांस रांधनेवाला, चौथा मांस भक्षण करनेवाला, पांचमा मांस खरीदनेवाला, छहा मांस की अनुमोदना करनेवाला, सातमा पितरों को, देवताओं को, अतिथियों को मांस देनेवाला | यह सात साक्षात् और परं. परा करके घातक अर्थात् जीव वध के करनेवाले हैं। मनुजी भी मनुस्मृति में कहते हैं।
अनुमंता विशसिता, निहंता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च, खादकश्चेति घातकाः ।।
[अ० ५, श्लो० ५१ अर्थः-१. अनुमोदक-अनुमोदन करनेवाला, २. विश
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जैनतत्त्वादर्श सिता-मारे हुए जीव के अंग का विभाग करनेवाला, ३. निहंता-मारनेवाला, ४. मांस का बेचनेवाला, ५. मांस को रांधनेवाला, ६. मांस को परोसनेवाला, ७. मांस को खानेवाला, यह सातों घातकी हैं, अर्थात् जीव के वध करनेवाले हैं। दूसरा श्लोक भी मनुस्मृति का लिखते हैं:
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां, मांसमुत्पद्यते कचित् । न च प्राणिवधः स्वयंस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।
[अ० ५०, श्लो० ४८] अर्थ:-जितना चिर जीव को न मारे, तहां तक मांस नहीं होता है, अरु जीव वध से स्वर्ग नहीं अपितु नरक गति होती हैं। इस वास्ते मांस खाना वर्जे । __अब मांस खानेवाले को ही वधकपना है, यह बात कहते हैं। दूसरे जीवों का मांस जो अपने मांस की पुष्टता के वास्ते खाते हैं, वास्तव में वे ही कसाई हैं। क्योंकि जेकर खानेवाले न होवें, तो कोई जीव को भी काहे को मारे । जो प्राणियों को मार करके अपने को सप्राण करते हैं, वे जीव थोड़ी सी जिंदगी के वास्ते अपना नाश करते हैं । एक अपने जीवन के वास्ते कोड़ों जीवों को जो दुःख देता है, तो वो क्या सदा काल जीता रहेगा ! जिस शरीर में सुन्दर मिष्टान्न विष्टा हो जाता है, अरु दूध प्रमुख अमृत वस्तुएं.मूत्र हो जाती हैं, तिस शरीर के वास्ते कौन बुद्धिमान
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अष्टम परिच्छेद
जीववध अरु मांस भक्षण करे ।
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وی
जो कोई महामूढ़, निर्विवेकी यह लिख गये हैं, कि मांस भक्षण करने में दूषण नहीं, वे भी म्लेच्छ थे, क्योंकि वे लिखते हैं:
न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृचिरेपा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ||
[ मनु० अ० ५ श्लो० ५६ ]
इस श्लोक के कहनेवालों ने व्याध, गृत्र, भेड़िये, श्वानकुत्ते, व्याघ्र, गीदड़, काग प्रमुख हिंसक जीवों को अपना धर्मगुरु माना है, क्योंकि जेकर ये पूर्वोक्त गुरु न होते तो इन को मांस खाना कौन सिखाता ! बिना गुरु के उपदेश के पूज्यजन उपदेश नहीं देते हैं । इस श्लोक के बनाने वालों की अज्ञानता देखिये, वे कहते हैं, कि मांस खाने में, मदिरा पीने में अरु मैथुन सेवने में पाप नहीं, परन्तु 'निवृचिस्तु महाफला 'इन से जो निवृत्ति करे, तो महाफल है । यह स्ववचन विरोध है, क्योंकि जिस के करने में पाप नहीं, उस के त्यागने में धर्मफल कदापि नहीं हो सकता है ।
अथ निरुक्ति के वल से भी मांस त्यागने योग्य है । सो कहते हैं:
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जैनतत्वादर्श
* मांस भक्षयितामुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम् - 1. एतन्मांसस्य मांसत्वे, निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥
[ यो० श० प्र० ३ श्लो० २६]
अर्थ:- जिस का मांस मैं खाता हूं, वो जीव मुझ को परभव में भक्षण करेगा, इस निरुक्त से #मनु जी मांस का अर्थ कहते हैं । मांसभक्षणवाले को महापाप लगता है । जो पुरुष मांस भक्षण में लंपट है, वो पुरुष जिस जिस जीव को - जलचर मत्स्यादि को, स्थलचर- मृग, सूअर प्रमुख को,
खेचर - तित्तर, लाव, नटेरे प्रमुख को
देखता है,
तिस तिस को
।
डाकन की
तरें सर्व को
मार के खाने की बुद्धि करता है खाया चाहता है । मांस खानेवाला उत्तम पदार्थों का परिहार करके नीच पदार्थ के लेने में उद्यत होता है । जैसे काग पंचामृत छोड़ कर विष्ठे में चोंच देता है, उसी तरे जान लेना । इसी का नाम निर्विवेकता है ।
ये भक्षयंति पिशितं दिव्यभोज्येषु सत्स्वपि । सुधारसं परित्यज्य, भुंजते ते हलाहलम् ॥
[ यो० शा०, प्र० ३ श्लो० २८ ]
* मनु० अ० ५, श्लो० ५५ में नीचे का आधा भाग इस प्रकार हैएतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
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अष्टम परिच्छेद अर्थः-सकल धातुओं की वृद्धि करने वाला दिव्य भोजन विद्यमान हुए अर्थात् सर्व इन्द्रियों के आह्वादजनक दूध, क्षीर, किलाट, कूर्चिका, रसाल, दधि आदिक, मोदक, मंदक मंडिका, खाजे, पापड़, घेउर, इंडरिका, खंडवड़े, पूरणपड़े, गुड़पापड़ी, इक्षुरस, गुड़, मिसरी, द्राक्षा, अंब, केले, अनार, नारियल, नारंगी, संतरे, खजूर, अक्षोट, राजादनखिरणी, फनस, अलूचे, वादाम, पिस्ता, इत्यादि अनेक दिव्यभोजनों को छोड़ के मूढमति विनगंधि, सूगवाला, वमन का करने वाला, ऐसे वीभत्स मांस का भक्षण करता है, वो जीव जीवितव्य की वृद्धि के वास्ते अमृत रस को छोड़ कर जीवितांतकारी हलाहल-विष को मक्षण करता है। बालक जो होता है, वो भी पत्थर को छोड़ कर सुवर्ण को ग्रहण करता है। परन्तु जो मांसाहारी पुरुष है, वो तो मांस से भी अधिक पुष्टता को देने वाला जो दिव्य भोजन, तिस को छोड़ कर मांस खाता है, वो तो वालक से भीअज्ञानी है। ___ अब और तरे से मांसभक्षण में दूषण लिखते हैं । जो निर्दय पुरुष है, उस में धर्म नही, क्योंकि धर्म का मूल दया है। ये वात सर्व संत जन मानते हैं। अरु मांसाहारी को दया तो है नहीं, मांस खाने वाले को पूर्व में कसाई कहा है, इस वास्ते मांसाहारी में धर्म नहीं। . प्रश्न:-मांसाहारी अपने आप को अधर्मी क्यों बनाता है।
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जैनतत्त्वादर्श उत्तरः-मांस के स्वाद में लुब्ध हुमा वो धर्म दया कुछ नहीं जानता है, जेकर कदाचित् जान भी जाता है, तो भी आप मांसलब्ध है, इस से मांस त्याग करने को समर्थ नहीं। इस वास्ते वो मन में विचार करता है, कि मेरे समान ही सर्व हो जावें, ऐसा जान कर औरों को भी मांसभक्षण न करने का उपदेश नहीं करता है।
अब मांसभक्षण करने वाले महामूढ हैं, यह बात कहते हैं। कितनेक मूढमति आप तो मांस नहीं खाते हैं, परन्तु देवता, पितर, अतिथि, इन को मांस चढ़ाते हैं, क्योंकि उन के शास्त्रकार कहते हैं:
क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य, परोपहृतमेव चा । देवान् पितृन् समभ्यर्च्य, खादन मांसं न दुष्यति ।
[यो शा०, प्र० ३, श्लो० ३१] यह श्लोक मृग पक्षियों के विषय में है, इस का अर्थ यह है । कसाई की दुकान विना व्याघ्र, शकुनिकादिकों से अर्थात् शिकारी और जानवरों के मारने वालों से मांस मोल से लेकर देवता, अतिथि, पितरों को देने चाहिये। क्योंकि वे लिखते हैं, कि कसाई की दुकान के मांस से देवता, पितरों की पूजा नहीं होती है, तांते आप मांस उत्पन्न करके
* मनुस्मृति अ. ५, श्लो० ३२ में "परोपकृतमेव चा" ऐसा पाठ है।
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अष्टम परिच्छेद
पितृ आदिकों को देवे, तो पितृ आदि प्रसन्न होते हैं । सो इस प्रकार से मांस उत्पन्न करे, कि ब्राह्मण तो मांग कर मांस लावे, और क्षत्रिय शिकार मारके मांस लावे, अथवा किसी ने मांस मेट करा होवे, उस मांस से देवता पितरों की पूजा करके मांस खावे, तो दूषण नही, परन्तु यह सर्व महामूढ और मिथ्यादृष्टियों का कहना है । क्योंकि दयाधर्मी आस्तिकमत बालों को तो मांस दृष्टि से भी देखना योग्य नहीं । तो फिर देवता, पितरों की पूजा मांस से करनी, यह भावना तो धर्मी को स्वझे में भी न होवेगी । इस वास्ते देवताओं को मांस चड़ाना यह बुद्धिमानों का काम नहीं, कारण कि देवता तो बड़े पुण्यवान हैं, कवल का आहार करते नहीं हैं; तो फिर जुगुप्सनीय मांस क्योंकर खायेंगे ! जो कहते हैं कि देवता मांस खाते हैं, वे महा अज्ञानी हैं। अरु पितर जो हैं, वे तो अपने अपने पुण्य पाप के प्रभाव से अच्छी बुरी गति को प्राप्त हो गये है, अपने करे हुए कर्मों का फल भोगते हैं, पुत्र के करे हुए कर्म का उनको कुछ भी फल नही लगता है । तब मांस देने रूप पाप का तो कया कहना है !
केले में फल नहीं
पुत्रादिकों का सुकृत करा हुआ भी तिन को नहीं मिलता है, क्योंकि अंब के सींचने से फलता है । अरु अतिथि की भक्ति के है, सो तो नरकपात का हेतु अरु महा अधर्म का कारण. है। यहां कोई ऐसे कहे कि जो बात श्रुति स्मृति में है, वो
वास्ते जो मांस देना
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१२
जैनतत्वादर्श माननी चाहिये, तो यह कहना ठीक नहीं है। क्यों कि जो बात अति में अप्रमाणिक लिखी है, वो बुद्धिमान् कदापि नहीं मानेंगे। तथापिः
* " श्रूयन्ते हि श्रुतित्रचासि-यथा पापनो गोस्पशी, हुमाणां च पूजा, छागादीनां वधः स्वयः, ब्राह्मणओजनं पितृप्रीणनं, मायावीन्यधिदैवतानि, वह्नौ हुतं देवप्रीतिपदम् ।
ऐसा कथन जो श्रुतियों में है, तिस को युक्ति कुशल पुरुष कदापि नहीं मानेंगे। तिस वास्ते यही महा अज्ञान है, जो कि मांस करके देवताओं की पूजा करनी। कितनेक कहते हैं, कि जैसे मन्त्रों करके संस्कृत अग्नि दाह नहीं करती है, जैसे ही मन्त्रों करके संस्कार करा हुआ मांस भी दोष के वास्ते नहीं होता है, यह कथन मनुजी का है । यथा
असंस्कृतान् पशून्मंत्रै धाद्विप्रः कथंचन । मंत्रैस्तु संस्कृतानधाच्छाश्चत विधिमास्थितः ॥१॥
[अ० ५, श्लो० ३६ ] अर्थ:--मन्त्रों करके असंस्कृत पशुओं के मांस को वैदिक
* यो० शा., अ० ३, को० ३1 के स्वोपन विवरण का पाठ ।
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अष्टम परिच्छेद
९३
विधि में स्थित हुआ ब्राह्मण न खावे, अरु जो मन्त्रों करके संस्कृत पशु है, तिन का मांस खावे ।
परन्तु यह कथन ठीक नहीं है । मन्त्र करके जो मांस पवित्र किया है, उस मांस को धर्मी पुरुष कदापि भक्षण न करे, क्योंकि मन्त्र जैसे अग्नि की दाह शक्ति को रोकते हैं, तैसे मांस की नरकादि प्रापण शक्ति को दूर नहीं कर सकते । जेकर दूर कर देवें, तब तो सर्व पाप करके पीछे पाप हननेवाले मन्त्र के स्मरण मात्र से ही सर्व पाप दूर हो फिर जो वेदों में पाप का निषेध करा है, सो सर्व निरर्थक हो जावेगा; क्योंकि सर्व पापों का मन्त्र के स्मरण से ही नाश हो जायगा । इस वास्ते यह भी अज्ञों ही का कहना है !
जाने चाहियें। तो
तथा कोई कहते हैं, कि जैसे थोड़ा सा मद्य पीने से नशा नहीं चढ़ता हैं, तैसे थोड़ा सा मांस खाने में भी पाप नहीं लगता है । यह भी ठीक नहीं । अतः बुद्धिमान् यवमात्र भी मांस न खाये, क्योंकि थोड़ा भी विष जैसे दुःखदायी होता है, तैसे थोड़ा भी मांस खाना दोष के तांह है ।
अब मांस खाने में अनुत्तर दूपण कहते हैं। तत्काल ही उत्पन्न होते है, अरु अनंत वारंवार होना, तिस करके
इस मांस में संमूच्छिम जीव
निगोद रूप जीवों का संतान दूषित है । यदाहु:
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जैमतस्वादर्श
*आमासु अ पक्कासु अ चिपचमाणासु मंसपेसीसु । सययं चिय उववाओ, भणिओ उनिगोयजीवाणं || [ संबो० स० गा० ६६ ]
जो मांस की पेशी - बोटी
अर्थ:-- कच्ची तथा अपक्क ऐसी खती हैं, तिस में निरन्तर निगोद के जीव उत्पन्न होते है । इस वास्ते मांस का खाना जो है, सो नरक में जानेबालों को पूरी खरची है, इस लिये बुद्धिमान् पुरुष मांस कदापि न खावे ।
अथ जिन्होंने यह मांस खाना कथन करा है, तिन के नाम लिखते हैं--- १. मांस खाने के लोभियों ने, २. मर्यादारहितों ने, ३. नास्तिकों ने, ४. थोड़ी बुद्धिवालों ने, ५. खोटे शास्त्रों क्रे बनानेवालों ने, ६. वैरियों ने मांस खाना कहा है । तथा मांसाहारी से अधिक कोई निर्दयी नहीं । तथा मांसाहारी से अधिक कोई नरक की अग्नि का इन्धन नहीं । गन्दगी खा कर जो सूअर अपने शरीर को पुष्ट करता है, सो अच्छा हैं; परन्तु जीव को मार के जो निर्दयी हो कर मांस खाता है, सो अच्छा नहीं है ।
प्रश्नः - सर्व जीवों का मांस खाना तो सर्व कुशास्त्रों मैं लिख दिया है, परन्तु मनुष्य का मांस खाना तो कहीं
* छायाः -- आमासु च पक्कासु च विपच्यमानासु मांसपेशीषु ।
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सततमेव उपपातो भणितस्तु निगोदजीवानाम् ॥
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अष्टम परिच्छेद
९५ किसी शास्त्र में नहीं लिखा है। इस का क्या हेतु होगा।
उत्तरः-अपने मांस की रक्षा के वास्ते मनुष्य का मांस खाना नहीं लिखा। क्योंकि वे कुशास्त्रों के बनानेवाले जानते थे, कि यदि मनुष्य का मांस खाना लिखेंगे, तो मनुष्य कभी हम को ही न खा लेवें। इस शङ्का से नहीं लिखा। अत: जो व्यक्ति पुरुषमांस में अरु पशुमांस में विशेष नहीं मानता है, तिस के समान कोई धर्मी नहीं। अरु तिन में जो भेद मान के मांस खाते हैं, इनके समान कोई पापी भी नहीं। तथा मांस जो है, तिस की रुधिर से उत्पत्ति होती है, अरु विष्टे के रस से वृद्धि होती है, तथा लहू जिसमें भरा रहता है, अरु कृमि जिसमें उत्पन्न होते हैं। ऐसे मांस को कौन बुद्धिमान खा सकता है ! आश्चर्य तो यह , है, कि ब्राह्मण लोक शुचिमूलक तो धर्म कहते हैं, अरु सप्त धातु से जो मांस, हाड़ बनते हैं, तिस मांस हाड़ को मुख में दांतों से चवाते है । अब उनको कुत्तों के समान समझे कि शुचि धर्मवाले मानें ! जिन दुष्टों की ऐसी समझ है, कि अन्न और मांस यह दोनों एक सरीखे हैं, तिन की बुद्धि में जीवन अरु मृत्यु के देनेवाले अमृत और विष भी तुल्य ही हैं।
अरु जो जड़-बुद्धि ऐसा अनुमान करते हैं, कि मांस खाने योग्य है, प्राणी का अंग होने से, ओदनादिवत् । इस दृष्टांत से यह मांस भी प्राणी का अंग है; इस वास्ते मांस भी
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९६ . जैनतत्वादर्श खाने योग्य है। तब तो गौ का मूत तथा माता, पिता, भार्या, बेटी, इनका मूत पुरुष भी क्यों नहीं पीते खाते हैं ! क्योंकि यह प्राणी के अंग हैं। तथा अपनी भार्या की तरें अपनी माता, बहिन, बेटी को क्यों नहीं गमन करते हैं ! स्त्रीत्व अरु प्राणी का अंगत्व सर्व जगे बराबर है। तथा जैसे गौ का दूध पीते हैं, तैसे गौ का रुधिर तथा माता पितादिकों का रुधिर भी क्यों नहीं पीते हैं ? क्योंकि 'प्राणी का अंग'-हेतु तो सर्व जगह तुल्य हैं। इन वास्ते जो अन्न और मांस इन दोनों को तुल्य जानते हैं, वे भी महा पापियों के सरदार हैं।। ___ तथा शङ्ख को शुचि मानते हैं, परन्तु पशु के हाड़ को कोई शुचि नहीं मानता; इस वास्ते अन्न और मांस यद्यपि प्राणी के अङ्ग हैं, तो भी अन्न भक्ष्य है, अरु मांस अभक्ष्य है। एक पञ्चेन्द्रिय जीव का वध करके जो मांस खाता है, जैसी तिस को नरक गति होती है, तैसी खोटी गति अन्न खाने. वाले को नहीं होती है क्योंकि अन्न मांस नहीं हो सकता है, मांस की तसीरों से अन्न की तसीरें और तरें की हैं। जैसा मांस महाविकार का करनेवाला है, तैसा अन्न नहीं। इत्यादि कारणों से विलक्षण स्वभाव है। इस वास्ते मांस खानेवालों की नरकगति को जान कर संत पुरुष अन्न के भोजन से तृप्ति मानते हैं, सरस पद प्राप्त को होते हैं। ये मांस के दूषण श्रीहेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र के अनुसार लिखे हैं । तथा इस काल में भी युरोपियन लोग जो बुद्धि
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अष्टम परिच्छेद मान् हैं । उनोंने भी मांस खाने में चौवीस दूषण प्रगट करे हैं। अरु मदिरा पीने से जो ख़रावियां होती हैं, तिन की तो गिनती भी नहीं है। इस वास्ते मदिरा अरु मांस इन दोनों प्रकार के अभक्ष्य को श्रावक त्यागे। ८. माखन अभक्ष्य है क्योंकि जैन मत के शासानुसार
___छाछ से बाहिर काढ़े माखन को जब अंतरमक्खन खाने मुहूर्त अर्थात् दो घड़ी के लगमग काल का निषेध व्यतीत हो जाता है, तब उस माखन में सूक्ष्म
जीव तद्वर्ण के उत्पन्न हो जाते हैं, इस वास्ते माखन खाना वर्जित है। जैन लोगों को छाछ से बाहिर माखन निकाल के तत्काल अग्नि के संयोग से घी बना के, छान के, देख के, पीछे से खाना चाहिये। क्योंकि एक तो इस रीति से शास्त्रोक्त जीव उत्पन्न नहीं होते हैं, तिन की हिंसा भी नहीं होती हैं। अरु मकड़ी, कंसारी, मच्छरादि जानवरों के अवयवटांग प्रमुख भी घी छानने से निकल जाते हैं । अरु माखन काम की भी वृद्धि करता है, तब मन में खोटे विकर उत्पन्न होते है। इस वास्ते भी श्रावक को माखन न खाना चाहिये। तथा एक जीव के वध करने से भी जब पाप होता है, तब तो पूर्वोक्त रीति से माखन तो जीवों का ही पिंड हो जाता है, तब माखन के खाने में पाप की क्या गिनती है !
प्रश्न:-माखन में तो दो घड़ी पीछे कोई भी जीव उत्पन्न हुआ हम नहीं देखते हैं, तो फिर माखन में दो धड़ी
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जैनतत्वादर्श
९८
पीछे हम क्यों कर जीव मान लेवें ?
उत्तर:- जो जैनमत के शास्त्रों को सत्य मानेगा, वो तो शास्त्रकारों के कथन को सत्य सत्य ही मानेगा, अरु जो जैन के शास्त्रों को सत्य नहीं मानता; वो चाहे सत्य माने, चाहे न माने । परन्तु हम आगम प्रमाण के बिना इस बात में और प्रमाण नहीं दे सकते हैं, क्योंकि वस्तु दो तरें की होती है - एक हेतुगम्य, दूसरी आगमगम्य । तो माखन, द्विदलादि में जो जीव उत्पन्न होते हैं; वे हेतुगम्य नहीं, किंतु आगमगम्य हैं । इस वास्ते जो आगम सर्वज्ञ, जिन, अर्हत वीतराग का कहा हुआ है, उसीका कहा मानना चाहिये । जेकर कोई पुरुष किसी भी शास्त्र को न माने, किन्तु आंखों से देखी वस्तु ही माने; तब तो नरक, स्वर्गादि जो अदृष्ट हैं, उनको भी न मानना चाहिये तथा परमेश्वर चौदवें तथा सातवें आसमान पर रहता है; तथा पुण्य पाप करने से जीव स्वर्ग और नरक में जाता है; यह भी न मानना पड़ेगा । इस वास्ते आगम प्रमाण भी मानना चाहिये; क्योंकि सर्व वस्तु हमारी दृष्टि में नहीं आती है ।
९. मधु अर्थात् सहत अभक्ष्य है । सहत जो है, सो अनेक जीवों का घात होने से उत्पन्न होता मधुमक्षण का है, यह तो परलोक विरोध दोष है । अरु मधु जुगुप्सनीय - निंदने योग्य है । मुख की
निषेध
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लालवत् यह इहलोक
विरुद्ध दोष है । इस
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अष्टम परिच्छेद चास्ते श्रावक धर्मी को मधु न खाना चाहिये। अब मधु खाने वाले में पापीपना दिखाते हैं । यथाः
भक्षयन् माक्षिकं क्षुदं, जंतुलक्षक्षयोद्भवम् । स्तोकजंतुनितम्या, शौनिकेभ्योऽतिरिच्यते ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ३७] अर्थ:-लाखों शुद्र जन्तु-छोटे जीवों अथवा हाड़ रहित जीवों, उपलक्षण से बहुत जीवों का नव विनाश होता हैं, तब मधु उत्पन्न होता है। जब मधु भक्षण करता है, तब थोड़े पशु मारनेवाले कसाई से भी उसको अधिक पाप लगता है। क्योंकि जो भक्षक है, सो भी घातक है, यह बात ऊपर लिख आये हैं । तथा लोक में यह व्यवहार है, कि जूठा भोजन नहीं खाना । परन्तु यह जो मधु है, सो तो महाजूठ है । क्योंकि एक एक फूल से रस-मकरन्द पी करके मक्खिये वमन करती हैं, सो मधु है। इस वास्ते धर्मी पुरुष को जूठ न खानी चाहिये। यह लौकिक व्यवहार में प्रसिद्ध है।
यदि कोई कहे कि मंधु तो त्रिदोष का दूर करने वाला है, इस लिये रोग दूर करने के वास्ते औषधि में भक्षण करे तो क्या दोष है ! इसके उत्तर में कहते हैं:
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जैनतत्त्वादर्श अप्यौषधकृते जग्धं, मधु श्वभ्रनिबंधनम् । भक्षितः प्राणनाशाय, कालकूटकणोऽपि हि ॥
[यो शा०, प्र० ३, श्लो० ३९] अर्थः-जो कोई रस की लंपटता से मधु खावे, उसकी बात तो दूर रही, परन्तु जो औषधि के वास्ते भी मधु खावे, सो यद्यपि रोगादि अपहारक है, तो भी नरक का कारण है। क्योंकि प्रमाद के. उदय से जीवन का अर्थी हो कर जो कोई कालकूट विष का एक कण भी खायगा, सो ज़रूर प्राण नाश के वास्ते होवेगा।
प्रश्न-मधु तो खजूर, द्राक्षादि रस की तरे मीठा है, सर्व इन्द्रियों को सुखकारी है, तो फिर इसको त्यागने योग्य क्यों कहते हो!
उत्तर:-सत्य है ! मधु मीठा है, यह व्यवहार से है, परंतु परमार्थ से तो नरक की वेदना का हेतु होने से अत्यंत कडुआ है। ___अब जो मंद बुद्धि जीव, मधु को पवित्र मान कर उस को देवस्नान में उपयोगी समझते हैं, तिन का उपहास्य शास्त्रकार करते है:
मक्षिकामुखनिष्ठतं, जंतुधातोद्भवं मधु । अहो पवित्रं मन्वाना, देवस्नाने प्रयुञ्जते ।।
[यो० शा०, प्र० ३, श्लोक ४१]
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अष्टम परिच्छेद
१०१
अर्थः--मक्खियों के मुख की जूठ, अरु जीवघात से अर्थात् हज़ारों बच्चों अरु अण्डों के मारने से उत्पन्न होता है; वो बच्चे, अण्डे जब मरते हैं, तब तिन के शरीर का लहू पानी भी मधु के बीच मिल जाते हैं। तत्र तो मधु महा अशुचिरूप है । अहो यह शब्द उपहास्यार्थ में है । क्योंकि जैसे वे देवता हैं, तैसी तिन को पवित्र वस्तु चढ़ायी जाती है, यह उपहास्य है । ' अहो शब्द उपहासे ' यथा:
करभाणां विवाहे तु, रासभास्तत्र गायनाः । परस्परं प्रशंसंति, अहो रूपमहो ध्वनिः ॥
१०. पानी की बनी हुई बरफ़ अभक्ष्य है, क्योंकि यह असंख्य अकाय जीवों का पिण्ड है । इसके खाने से चेतना मंद होती है, अरु तत्काल सरदी करती है, कुछ चलवृद्धि भी नहीं करती है, अरु वीतराग अहंत सर्वज्ञ परमेश्वर ने इसका निषेध करा है; इस वास्ते यह अभक्ष्य है ।
पेट में कृमि,
विष खाने से
११. अफीम प्रमुख विष वस्तु के खाने से गंडोलादिक जीव होते हैं, सो मर जाते है । चेतना मुरझा जाती है । अरु जेकर खाने का ढब पड़ जाता है, तो फिर छूटना मुश्किल होता है। वक्त पर अमल न मिले तो क्रोध उत्पन्न होता है । शरीर शिथिल हो जाता है । अरु जो अमली हो जाता है, उसको व्रत नियम अंग
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१०२
जैनतत्त्वादर्श कार करना दुष्कर है। अमली का स्वभाव बदल जाता है। जब अमल खाता है, तब एक रंग होता है, अरु जब अमल उतर जाता है, तब दूसरा रंग हो जाता है । तथा स्वतंत्रता छोड़ कर पराधीन होना पड़ता है। इसका खाने में स्वाद भी बुरा है। तथा विष खानेवाला जहां लधुनीति, बड़ीनीति करता है, तिस क्षेत्र में त्रस थावर जीवों की हिंसा होती है। सोमल, वच्छनाग, मीठा तेलिया, संखिया, हरताल प्रमुख ये सर्व विष ही में जानने, इसके खाने का त्याग करना।
१२. करक-ओले-गड़े जो आकाश से गिरते हैं, यह भी अभक्ष्य हैं।
१३. सर्व जात की कच्ची मट्टी अभक्ष्य है। कच्ची-सचित्त मट्टी नाना प्रकार की असंख्य जीवात्मक जाननी । मट्टी खाने से पेट में बहुत जीव उत्पन्न हो जाते है। तथा पांडु रोग, आंब, वात, पित्त, पथरी प्रमुख बहुत रोग उत्पन्न हो जाते हैं। बहुत मट्टी खानेवाले का पीला रङ्ग हो जाता है । तथा कितनीक जात की मट्टी में मेंडक प्रमुख जीवों की योनि है, इस वास्ते अभक्ष्य है। १४. रात्रिभोजन अभक्ष्य है। रात्रिभोजन में तो प्रत्यक्ष से
दूषण इस लोक में है, अरु परलोक में दुःख . रात्रिभोजन का का हेतु है। रात्रि में चारों आहार अभक्ष्य
निषेध हैं, रात्रि में जो जैसे रंग का आहार होता .. . है, तिस में तैसे रंग के जीव जिनका नाम
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अष्टम परिच्छेद
१०३ तमस्काय जीव हैं, उत्पन्न होते हैं। तथा आश्रित जीव भी बहुत होते हैं। तथा रात्रि में उचित अनुचित वस्तु का मेल संमेल हो जाता है । तथा रात्रिभोजन करने से प्रसंग दोष बहुत लगते हैं। सो किस तरे! कि जब रात्रि को खावेगा तब नित्य रसोई भी रात्रि को करनी पड़ेगी, तिस में जीवों का अवश्य संहार होवेगा। इस प्रकार करने से श्रावक के कुल का आचार भ्रष्ट हो जाता है। सूक्ष्म त्रस जीव नज़र में नहीं आते हैं। कदापि दीख भी जावें तो भी यल नहीं होता। जब अग्नि बलती है, तब पास की भीत में रात्रि को जो जीव आश्रित हैं, वो तप्त से आकुल व्याकुल होकर अग्नि में गिर पडते हैं। सादिकों के मुख से जेकर भोजन में लाल गिरे, तव कुटुम्ब का तथा अपनी आत्मा का विनाश होवेगा। तथा पतंगिये प्रमुख पड़ेगे। छत में अरु छप्पर में रात्रि को सर्प, किरली, छपकली, मकड़ी, मच्छरादि बहुत जीव वसते है। जेकर ये जीव भोजन में खाये जावें तो भारी रोग उत्पन्न हो जाते हैं । यदुक्तं योगशास्त्रे
मेधां पिपीलिका हंति, यूका कुर्याजलोदरम् । कुरुते मक्षिका वांति, कुष्टरोगं च कोलिका ।। कंटको दारुखण्डं च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनांतर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥
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१०४
जैनतत्वादर्श विलग्नश्च गले वाला, स्वरभङ्गाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशिभोजने ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५०-५२] अर्थ:-~कीड़ी अन्नादि में खाई जावे, तो बुद्धि को मंद करती है, तथा यूका-जू खाने से जलोदर करती है। मक्षी वमन करती है, मकड़ी कुष्ठ रोग करती है। अरु बेरी प्रमुख का कांटा तथा काष्ठ का टुकड़ा गले में पीड़ा करता है; तथा बटेरे आदि के व्यञ्जन में जेकर बिच्छु खाया जावे तो तालु को बींधता है, इत्यादि रात्रिभोजन करने में दृष्ट दोष-सर्व लोगों के देखने में आते हैं। तथा रात्रिभोजन करने पर अवश्य पाक अर्थात् रसोई रात्रि को करनी पड़ेगी। तिस में अवश्य षट्काय के जीवों का वध होवेगा। भाजन घोने से जलगत जीवों का विनाश होता है। जल गेरने से भूमि में कुंथु, कीड़ा प्रमुख जीवों का घात होता है। इस वास्ते जिस को जीव रक्षण की आकांक्षा होवे, वो रात्रिभोजन न करे।
जहां अन्न भी रांधना न पड़े, भाजन भी धोने न पड़े ऐसे जो वने बनाये लड्डू, खजूर, द्राक्षादि भक्ष्य है। तिन के खाने में क्या दोष है ! सो कहते हैं
नाप्रेक्ष्यसूक्ष्मजंतूनि, निश्यद्यात्प्राशुकान्यपि । अप्युधत्केवलज्ञानैर्नादृतं यनिशासनम् ।।
[ यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५३ ]
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अष्टम परिच्छेद
१०५
अर्थः- मोदकादि, फलादि, यद्यपि प्राशुक अर्थात् अचेतन भी हैं, तो भी रात को न खाने चाहियें; क्योंकि सूक्ष्म जीव - कुंवादि देखे नही जाते हैं । केवली भी जिन को सदा सर्व कुछ दीखता है, रात्रि में भोजन नही करते हैं । केवली सूक्ष्म जीवों की रक्षा के वास्ते अरु अशुद्ध व्यवहार को दूर करने के वास्ते रात्रि को नहीं खाते हैं । यद्यपि दीवे के चांदने से कीड़ी प्रमुख दीख जाती है, तो भी मूलगुण की विराधना को टालने के वास्ते रात्रिभोजन अनाचीर्ण है ।
अब लौकिक मतवालों की सम्मति देकर रात्रिभोजन का निषेध करते हैं:
धर्मविनैव भुंजीत, कदाचन दिनात्यये । बाह्या अपि निशामोज्यं, यदभोज्यं प्रचक्षते ॥
[ यो० शा० प्र०३, श्लो० ५४ ] अर्थ:- श्रुत धर्म का जाननेवाला कदाचित् रात्रिभोजन न करे, क्योंकि जो जिनशासन से बाहिर के मतवाले हैं, वे भी रात्रिभोजन को अभक्ष्य कहते हैं:
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त्रयीतेजोमयो भानुरिति वेदविदो विदुः । तत्करैः पूतमखिलं शुभं कर्म समाचरेत् ॥
[ यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५५]
अर्थ:- ऋग्, यजु, साम लक्षण तीनों वेद, तिन का तेज
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जैनतत्वादर्श जिस में है सो सूर्य है, 'त्रयीतनु' ऐसा सूर्य का नाम है। ऐसा वेदों के जानने वाले जानते हैं । तिस सूर्य की किरणों करके पूत-पवित्र संपूर्ण शुभ कर्म अंगीकार करे । जब सूर्यो. दय न होवे, तब शुभ कर्म न करे। तिन शुभ कर्मों का नाम लिखते हैं.
नैवाहूतिर्न च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ, भोजनं तु विशेषतः ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ५६] अर्थः-आहुति-अग्नि में घृतादि प्रक्षेप करना, स्नान-अंग प्रत्यंग का प्रक्षाल करना, श्राद्ध-पितृकर्म, देवपूजा, दान देना
और भोजन तो विशेष करके रात्रि में न करना । तथा परमत के यह भी दो श्लोक हैं:
देवैस्तु भुक्तं पूर्वाहे, मध्याह्ने ऋषिभिस्तथा। अपराले तु पितृभिः, सायाह्ने दैत्यदानवैः ॥१॥ संध्यायां यक्षरक्षोभिः, सदा मुक्तं कुलोद्वह ! । सर्ववेला व्यतिकम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ २॥
[यो० शा० प्र० ३, ५८, ५९] अर्थ:-सवेरे तो देवता भोजन करते हैं, मध्याह्न अर्थात् दो पहर दिन चढ़े ऋषि भोजन करते हैं, अपराह अर्थात्
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अष्टम परिच्छेद दिन के पिछले भाग में पितर भोजन करते है, अरु सायान्हविकाल वेला में दैत्य दानव मोजन करते हैं, संध्या में-राव दिन की संधि में यक्ष, गुह्यक, राक्षस खाते हैं । " कुलोद्वहेति युधिष्ठिरस्यामंत्रणम् "-हे युधिष्ठिर ! सर्व देवतादि के वक्त का उल्लंघन करके रात्रि को जो खाना है, सो अमक्ष्य है। यह इन पुराणों के श्लोकों करके रात्रिभोजन के निषेध का संवाद कहा।
अव वैद्यक शास्त्र का भी रात्रिभोजन के निषेध का संवाद कहते हैं:
हनामिरमसंकोचश्चंडरोचिरपायतः। अतो नक्तं न भोक्तव्यं, सूक्ष्मजीवादनादपि ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लोक० ६०] अर्थ:-इस शरीर में दो पद्म अर्थात् कमल हैं। एक तो हृदय पद्म, सो अधोमुख है, दूसरा नाभिपद्म, सो ऊर्ध्वमुख है। इन दोनों कमलों का रात्रि में संकोच हो जाता है। किस कारण से संकोच हो जाता है। सूर्य के अस्त हो जाने से संकोच हो जाता हैं । इस वास्ते रात्रि को न खाना चाहिये। तथा रात्रि को सूक्ष्म जीव खाये जाते हैं, इस से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। यह परपक्ष का संवाद कहा । अब फिर स्वमत से रात्रिभोजन का निषेध कहते हैं:
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जैनतत्त्वादर्श संसजज्जीवसंघातं, सुजाना निशिभोजनम् । राक्षसेभ्यो विशिष्यते, सूढात्मानः कथं न ते ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ६१]
अर्थ:-जब रात्रि में खाता है, तब जीवों का समूह भोजन में पड़ जाता है। ऐसे अधरूप, रात्रि के भोजन के खाने वालों को राक्षसों से भी क्योंकर विशेष नहीं कहना ! जब पुरुष जिनधर्म से रहित हो कर विरति नहीं करता है, तव शृंग पुच्छ से रहित पशु रूप ही है । यदुकं
वासरे च रजन्यां च, य: खादन्नेव तिष्ठति । शृंगपुच्छपरिभ्रष्टः, स्पष्टं स पशुरेव हि ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ६२]
अब रात्रिभोजन निवृत्ति के वास्ते पुण्यवंतो को अभ्यास विशेष दिखाते हैं।
अहो मुखेऽवसाने च, यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥
[यो० शा० प्र० ३, श्लो० ६३] अर्थ:-दिन उदय में अरु अस्त समय में दो दो घड़ी वर्जनी चाहिये, क्योंकि रात्रि निकट होती है। इसी वास्ते आगम में सर्व जघन्य प्रत्याख्यान मुहूर्त प्रमाण
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अष्टम परिच्छेद नमस्कार सहित कहा है। रात्रिभोजन के दूषणों का जानकार श्रावक दो घड़ी जब शेष दिन रहे, तब भोजन करे। जेकर दो घड़ी से थोड़ा दिन रहे भोजन करे, तो रात्रिभोजन के प्रत्याख्यान का उस को फल नहीं होता है। जेकर कोई रात्रि को न भी खावे, परंतु जो उसने रात्रिभोजना का प्रत्याख्यान नहीं करा; तो उसको भी कुछ फल नहीं मिलता है। क्योंकि उसने प्रतिज्ञा नहीं करी है। जैसे कि कोई पुरुष रुपये जमा करावे अरु व्याज का करार न करे । उस को व्याज नहीं मिलता है। इस वास्ते नियम जरूर करना चाहिये।
___ अव रात्रिभोजन करने का परलोक में होनेवाला कुफल कहते हैं:
उलूककाकमाजारगृध्रशंबरशूकराः । अहिवृश्चिकगोधाश्च, जायंते रात्रिभोजनात् ।।
[यो० शा० प्र० ३, स्लो० ६७] अर्थः-उल्लू, काग, विल्ली, गृध्र-चील, बारासिंगा, सूअर, सर्प, बिच्छू, गोह इत्यादि तिर्यंच योनि में रात्रि भोजन करनेवाले मर के जाते हैं। अरु जो रात्रिभोजन न करें, उनको एक वर्ष में छ महीने के तप का फल होता है।
१५. बहुवीजा फल भी अभक्ष्य है। जिस में गिरु थोड़ा अरु बीज बहुत होवे, सो बैंगण, पटोल, खसखस, पंपोट
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जैनतत्वादर्श प्रमुख फल । जिस में जितने बीज हैं, उस में उतने पर्याप्त जीव हैं । जो कि खाने में तो थोड़ा आता है, अरु जीवघात बहुत होता है। तथा बहुबीजा फड खाने से पित्त प्रमुख रोगों की अधिकता होती है, अरु जिनाज्ञा के विरुद्ध है।
१६. संघान-अथाणा-आचार तीन दिन से उपरांत का अमक्ष्य है। सो आचार अंब का, निंबु का, पत्र का, कर्मदा का, आदे का, जिमीकंद का, गिरमिर का, इत्यादि अनेक वस्तु का आचार बनता है । वह चाहे घी का होवे वा तेल का होवे वा पानी का होवे, सर्व तीन दिन उपरांत का अभक्ष्य है। परंतु इतना विशेष है, कि जो फल आप खट्टे हैं अथवा दूसरी वस्तु में खट्टा-अंबादिक जो मेल देवें, वे तो तीन दिन उपरांत अभक्ष्य है, अरु जिस वस्तु में खटाई नहीं है उसका आचार एक रात्रि से उपरांत अभक्ष्य है। क्योंकि इस आचार में त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । अरु बिल्ल प्रमुख तो प्रथम ही अभक्ष्य हैं, तो फिर उनके आचार का तो क्या ही कहना है ! आचार में चौथे दिन निश्चय दो इंद्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं। तथा जूठा हाथ लग जावे तो पंचेंद्रिय जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं। दूसरे मतवालों के शाखों में भी आचार नरक का हेतु लिखा हैं। । १७. द्विदल-जिस की दो दाल हो जावें, अरु घाणी में पीलें, तो जिस में से तेल न निकले, ऐसे सर्व अन्न को द्विदल कहते हैं। तिस द्विदल के साथ जो गोरस अग्नि ऊपर नहीं
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अष्टम परिच्छेद
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चढ़ा है, ऐसा कच्चा दही, कच्चा दूध, छाछ इन के साथ नहीं जीमना । अरु जेकर दही, दूध, छाछ गरम करी होवे फिर पीछे चाहे ठण्डा हो जावे, उसमें जो द्विदल मिला कर खावे तो दोष नहीं है ।
१८. सर्व जात के बैंगण एक तो बहुवीज हैं, इस वास्ते अभक्ष्य हैं । तिस के बीट में सूक्ष्म त्रस जीव रहते हैं । तथा बैगण काम की वृद्धि करते हैं, नीन्द अधिक करते हैं, कुछक बुद्धि को भी ढीठ करते हैं । इनका नाम भी बुरा है । इन का आकार भी अच्छा नहीं है । तथा कफ रोग को करता है । इनके अधिक खाने से चौथैया तप और खई रोगादि हो जाते हैं। और सब जात के फल तो सूखे भी खाने में आते हैं परन्तु यह तो सूखा भी खाने योग्य नहीं है । क्योंकि सूखे पीछे ये ऐसे हो जाते हैं, कि मानों चूहों की खलड़ी है । ताते यह द्रव्य अशुद्ध है, इस वास्ते अभक्ष्य है ।
१९. तुच्छ फल - जो दीड, पीलुं, पेंचु तथा अत्यंत कोमल फल सो भी अभक्ष्य हैं। क्योंकि ऐसी वस्तु बहुत मी खावे, तो भी तृप्ति नहीं होती है । अरु खाने में थोड़ा आता है और गेरना बहुत पड़ता है । तथा फल खाया पीछे तिन की गुठली जो मुख में चबोल के गेरते हैं, उस में असंख्य पंचेंद्रिय संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं । तथा जो पुरुष बहुत तुच्छ फल खाता है, तिस को तत्काल ही रोग हो जाता है ।
२०. अजाणा - अज्ञात फल- जिस का नाम कोई न जानता
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जैनतत्वादर्श होवे, तथा न किसी ने खाया होवे, सो फल भी अभक्ष्य है। क्योंकि क्या जाने कभी जहर फल खाया जावे, तो मरण हो जावे तथा बावला हो जावे।
२१. चलित रस-सो जिस वस्तु का काल पूरा हो गया होवे अरु स्वाद बदल गया होवे~सो जब स्वाद बदल जाता है, तब तिस का काल भी पूरा हो जाता है। जिस में से दुर्गध आने लगे, तार पड़ जावें, सो चलितरस वस्तु है। यह भी अभक्ष्य है। रोटी, तरकारी, खिचड़ी, बड़ा, नरमपूरी, सीरा, हलवा, इत्यादि रसोई की अनेक वस्तु जिन में पानी की सरसाई है, ऐसी वस्तु एक रात के उपरांत अभक्ष्य है। तथा द्विदल-दाल बड़े, गुलगले, भुजिये जिन में पानी की सरसाई है, वे चार पहर के उपरांत अभक्ष्य हैं। जूगली की राब-स जो विना विदल के और ओदन छाछ में रांधा है, सो आठ पहर उपरांत अभक्ष्य है। तथा वर्षाकाल में अच्छी रीति से जो मिठाई बनी होवे, तो पंदरह दिन उपरांत अभक्ष्य है। जेकर पंदरह दिन से पहिले बिगड़ जावे, तो पहिले ही अभक्ष्य है। इसी तरे सर्वत्र जान लेना। तथा उष्णकाल में मिठाई की स्थिति वीस दिन की है, अरु शीत काल में मिठाई की स्थिति एक मास की है। उपरांत अभक्ष्य है। तथा दही सोलां पहर उपरांत अभक्ष्य है, छाछ भी दहीवत् जान लेनी । इस चलित रस में दो इन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं, इस वास्ते यह अभक्ष्य है।
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अष्टम परिच्छेद
१९३ २२. बत्तीस अनंतकाय सर्व अभक्ष्य हैं। क्योंकि सूई
के अग्रमाग पर जितना टुकड़ा अनंतकाय अनंतकाय का का आता है, उस टुकड़े में भी अनंत जीव हैं, स्वरूप इस वास्ते अभक्ष्य है। तिस का नाम लिखते
हैं:-१. भूमि के अंदर जितना कंद उत्पन्न होता है, सो सर्व अनंतकाय है, २. सूरणकंद, ३. वज्रकंद, ४. हरी हलदी, ५. अद्रक, ६. हरा कचूर, ७. सौंफ की जड़, तिस का नाम विराली कंद है, ८. सतावरवेल औषधि, ९. कुमार, १०. थोहर कंद, ११. गिलो, १२. लसन, १३. बांस का करेला, १४. गाजर, १५, लाणा, जिसकी सज्जी बनती है, १६. लोढी पानी सो लोढाकंद, १७. गिरमिर-गिरिकरनी कच्छ देश में प्रसिद्ध है। १८. किसलयपत्र-कोमल पत्र-जो नवा अंकुर उगता है। सर्व वनस्पति के उगते वक्त के अंकुर प्रथम अनन्तकाय होते हैं। पीछे जब बढ़ते हैं, तब प्रत्येक भी हो जाते हैं, अरु अनंतकाय भी रहते हैं। १९, खरसूयाकंदकसेरु, २०. थेग कंद विशेष है, तथा थेग नामक माजी, २१. हरे मोथ, २२. लवण वृक्ष की छाल, २३. खिलोड़ी,, २४. अमृतवेल, २५. मूली, २६. भूमिरुहा सो भूमिफोड़ा छत्राकार, जिनको वालक पद्दबहेड़े कहते हैं, तथा सुब्बा कहते है, २७. वथुवे की प्रथम उगते की भाजी, २८. करुहार, २९ सूयरवल्ली-जो जंगल में बड़ी वेलडी हो जाती है, ३० पलक की भाजी, ३१. कोमल आंबली, जहां
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जैनतत्त्वादर्श वक उसमें बीज नहीं पड़ा है, तहां तक अनंतकाय है, ३२. आल, रताल, पिंडाल, यह बत्तीस अनंतकाय का नाम सामान्य प्रकार से कहा है, अरु विशेष नाम तो अनेक हैं। क्योंकि कोई एक वनस्पति तो पञ्चांग अनंतकाय है, कोई का मूल अनंतकाय है, कोई का पत्र, कोई का फूल, कोई की छाल, कोई का काष्ठ; ऐसे कोई के एक अंग, कोई के दो अंग, कोई के तीन अंग, कोई के चार अंग, कोई के पांच अंग अनंतकाय है। ___ अब इस अनंतकायके जानने के वास्ते लक्षण लिखते हैं। जिसके पत्ते, फूल, फल, प्रमुख की नसें गूढ होवें-दीखे नहीं, तथा जिसकी संधि गुप्त होवे, जो तोड़ने से बराबर टूटे, अरु जो जड़ से काटी हुई फिर हरी हो जावे, जिसके पत्ते मोटे दलदार चीकने होवें, जिसके पत्ते अरु फल बहुत कोमल होवे, वे सर्व अनंतकाय जाननी ।
इन अभक्ष्यों में अफीम, मांग प्रमुख का जिसको पहिला अमल लगा होवे, तो तिस के रखने की जयणा करे। तथा रात्रिभोजन में चउविहार, तिविहार, दुविहार एक मास में इतने करूं, ऐसा नियम करे। तथा रोगादिक के कारण किसी औषधि में कोई अभक्ष्य खाना पड़े, तिस की जयणा रक्खे । तथा बत्तीस अनंतकाय तो सर्वथा निषिद्ध हैं, तो भी रोगादि के कारण से औषधि में खानी पड़े, तिस की जयणा रक्खे । तथा अजानपने किसी वस्तु में मिली हुई खाने
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अष्टम परिच्छेद
मैं आ जावे, तो तिस की भी जयणा रक्खे ।
..
अथ चौदह नियम का विवरण लिखते हैं:
-
सचित्त दव विगह, वरणह तंबोल वत्थ कुसुमेसु । वाहण सयण विलेवण, वंभ दिसि न्हाणभचेसु |
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श्रावक के जावजीव पांच अणुव्रत में इच्छा परिमाण अर्थात् आगे की अनेक तरे की कर्म परिचौदह नियम गति का संभव जान कर अपने निर्वाह और सामर्थ्य के अति दुस्तर उदय का विचार करके, इच्छा परिमाण में बहुत वस्तु खुल्ली रक्खी हैं, तिन में से फिर नित्य के आश्रव का निवारण करने के वास्ते संक्षेप करणार्थ चौदह नियम का धारण प्रतिदिन करना चाहिये । तिस का स्वरूप कहते हैं:
-
१. सचित परिमाण -- सो मुख्य वृत्ति से तो श्रावक को सचित का त्याग करना चाहिये, क्योंकि अचित वस्तु के खाने में चार गुण हैं - १. अप्राशुक जलादिक का पीना वर्जने से, सर्व सचित वस्तु का त्याग हो जाता है। जहां तक अचित वस्तु न होवे, तहां तक मुख में प्रक्षेप न करे । २. जिह्वा इन्द्रिय जीती जाती है । क्योंकि कितनीक वस्तु बिना रांधे स्वादवाली होती हैं, तिन का त्याग हुआ । ३. अचित जलादि पीने से कामचेष्टा मंद हो जाती है; अरु चित में ऐसा खटका हरहमेश रहता है कि, मेरे
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जैन तत्वादर्श
को कभी सचित वस्तु खाने में न आ जावे । ४. जलादिक द्रव्य अचेतन करने में जो जीवहिंसा हुई है, सो तो कर्मबन्धन का कारण बन चूकी; परंतु जो क्षण क्षण में असंख्यअनंत जीवों की उत्पत्ति होती थी, सो तो मिट गई, तिन की हिंसा न होवेगी । अरु जो कोई मूढमति अपनी मन:कल्पना से ऐसा विचार करे कि, अचित्त करने में षट्काय के जीवों की हिंसा होती है, अरु सचिच जलादिक पीने में तो एक जलादिक की हिंसा है; इस वास्ते सचित का त्याग न करना चाहिये; और ऐसा विचार कर सचिच त्यागे नहीं सो मूर्ख जिनमत के रहस्य को नही जानता । क्योंकि सचित्त के त्यागने से आत्मदमनता, औत्सुक्य निवारणता, विषयकषाय की मंदता होती है । अरु इसमें स्वदयागुण बहुत है, यह भी वो नहीं जानते । इस वास्ते सचित त्यागने में बहुत लाभ है । -
-- २० द्रव्य नियम -- सो धातु वा शिला, काष्ठ, मट्टी
का पात्र प्रमुख तथा अपनी अंगुली प्रमुख बिना, मुख से
,
खाने में जो आवे सो द्रव्य कहते हैं-" परिणामांतरापन्नं
-
द्रव्यमुच्यते " - तिन में खिचड़ी, तो बहुत द्रव्यों से बनते हैं, तो ही द्रव्य है । तथा एक ही गेहूं की बाटी प्रमुख है, तो भी यह नामांतर, स्वादांतर, रूपांतर
सर्व
--
मोदक, पापड़, बड़ा प्रमुख भी परिणामांतर से एक बनी रोटी, पोली, गूगरी, भिन्न द्रव्य हैं; क्योंकि परिणामांतर से द्रव्यांतर हो
•
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अप्पम परिच्छेद जाते हैं। तथा कईएक आचार्य और तरे भी द्रव्य का स्वरूप कहते है। परन्तु जो ऊपर लिखा है, सो ही बहुत से वृद्ध आचार्यों को सम्मत है। इस वास्ते द्रव्यों का परिमाण करे कि आज मैं इतने द्रव्य खाऊंगा।
३. विगय नियम-सो विगय दश प्रकार का है, तिन में१. मधु, २. मांस, ३. माखन, ४. मदिरा, यह चार तो महाविगय है, इन चारों का त्याग तो बावीस अभक्ष्य में लिख आये हैं, शेष छ विगय रहीं; तिन का नाम कहते है१. दूध, २. दही, ३. घृत, ४. तैल, ५. गुड़, ६. सर्वजात का पक्वान्न । इन छ विगय में से नित्य एक, दो, तीनादि विगय का त्याग करे, अरु एक एक विगय के पांच पांच निवीता भी विगय के साथ त्यागना चाहिये । जेकर निवीता त्यागने की मन में न होवे, तब प्रत्याख्यान करने के अवसर में मन में धारे कि मेरे विगय का त्याग हैं। परन्तु निवीता का त्याग नहीं।
१. उपानह-जूता पहिरने का नियम करे। पगरखी, खड़ावां, मौजा, वूट प्रमुख सर्व का नियम करे, क्योंकि यह सर्व जीवहिंसा के अधिकरण हैं। तिन में श्रावक ने जिनपूजादि कारण विना खडावां तो कदापि नहीं पहरनी, क्योंकि इन के हेठ जो जीव आ जाता है, वो जीता नहीं रहता है। अरु गृहस्थ लोगों को जूते के विना सरता नहीं, इस वास्ते मर्यादा कर लेवे। फिर दूसरे के जूते में पग न देवे,
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जैनतत्त्वादर्श मूलचूक-हो जावे तो आगार ।
५. तंबोल-सो चौथा स्वादिम नामा आहार है, उस का नियम करे। उस में पान, सोपारी, लवंग, इलायची, तज, दारचीनी, जातिफल, जावत्री, पीपलामूल, पीपर, प्रमुख करियाने की चीजें, जिन से मुख शुद्ध हो जावे, परन्तु उदर भरण न होवे, तिस को तंबोल कहते हैं। तिस का परिमाण करे।
६. वस्न नियम-सो पुरुष के पांचों अंगो के वस्त्रों का वेष पहरने की संख्या करे कि, आज के दिन में मेरे को इतने वेष रखने हैं, तथा इतने खुल्ले वस्त्र ओढ़ने हैं। तथा रात्रि को पहिरने के वस्त्र तथा स्नान समय पहिरने के वस्त्र की वेष में गिनती नहीं। समुच्चय वस्त्र की संख्या रख लेवे। अजान. पने भेल, संमेल हो जावे तो आगार ।
७. फूलों के भोग का नियम करे-सो मस्तक में रखने. वाले, अरु गले में पहिरनेवाले, तथा फूलों की शय्या, फूलों का तकिया, फूलों का पंखा,, फूलों का चंद्रवा, जाली प्रमुख जो जो वस्तु भोग में आवे, फूल की छड़ी, सेहरा, कलगी, अरु जो सूंघने में आवे तिन का तोल-परिमाण रखना।
८. वाहन का नियम करे-सो रथ, गाड़ी, घोड़ा, पालखी, ऊंट, बलद, नाव प्रमुख, जिस के ऊपर बैठ के जहां जाना होवे, तहां जावे । सो वाहन सर्व तीन तरें का है-१. तरता, २. फिरता, ३. उड़ता. तिन की संख्या का नियम करे कि
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अष्टम परिच्छेद
इस तरें की सवारी में आज चढ़ना ।
९. शयन - शय्या का नियम करे सो खाट, चौकी, पाट, तखत, कुरसी, पालकी, सुखासन प्रमुख जितने रखने होवें, सो मन में धार लेवे ।
१०. विलेपन का नियम करे-सो भोग के वास्ते केसर, चंदन, चोवा, अतर, फुलेल, गुलावादिक जो वस्तु अंग में लगानी होवे, तिस का नाम मन में धार लेवे; तथा अंगलहणा भी इसी में रख लेना । इस में इतना विशेष है कि, देवपूजा, देवदर्शन, इत्यादि धर्म करनी करते समय हाथ में धूप, अगरबत्ती लेनी पड़े, तथा अपने मस्तक में तिलक करना पड़े, तिस का श्रावक को नियम नहीं है ।
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११. ब्रह्मचर्य का नियम करे – सो दिन में अरु रात्रि में इतनी बार स्वस्त्री से मैथुन सेवना, उपरांत स्वस्त्री से भी नहीं सेवना; अरु हास्य, विनोद, आलिंगन, चुंबनादिक करने का मांगा रक्खे |
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१२. दिशा का नियम करे - अमुक दिशा में आज मैने इतने कोस उपरांत नही जाना। इसमें आदेश, उपदेश, माणस भेजना, चिट्टी लिखनी एसर्व नियम आ गये । जैसे पाल सके, तैसे नियम करे ।
Comp
१३. स्नान का नियम करे सो आज के दिन तैल मर्दनपूर्वक तथा बिन मर्दनपूर्वक कितनी वक्त स्नान करना, सो धार लेवे | इसमें देवपूजा के वास्ते नियम से अधिक स्नान
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जैनतत्त्वादर्श करना पड़े, तो व्रत भंग नहीं।
१४. भात पानी का नियम-सो चार आहार में से स्वादिम का तो तंबोल के नियम में परिमाण रक्खा है, शेष तीन आहार हैं। तिन में प्रथम अशन--सो भात, रोटी, कचौरी, सीरा प्रमुख, तिस का परिमाण करे कि, आज के दिन में इतना सेर मेरे को खाना है, उपरांत का त्याग है। जहां घर में बहुत परिवार होवे, तिस के वास्ते बहुत अशनादि कराने पड़े, तिस की जयणा रक्खे। तथा औरों के घरों में पंचायत जीमे, तहां जाना पड़े, वहां बहुत आदमियों की रसोई बना रक्खी है, उसका दूषण नियमधारी को नहीं। क्योंकि नियमधारी ने तो अपने ही खाने की मर्यादा करी है, परन्तु न्याति के खाने की मर्यादा नहीं करी है। इस वास्ते अपने खाने का परिमाण करे कि, इतने सेर के उपरान्त मैं आज नहीं खाऊंगा । तथा दूसरा पानी-तिसके पीने का परिमाण करे कि, इतने कलसों के उपरांत पानी मैं ने आज नहीं पीना। तथा तीसरा खादिम-सो मिठाई अथवा मिष्टान-मोदकादिक, तिनका परिमाण करे । यह चौदह नियम हैं। इहां अधिक भाववाला श्रावक होवे, सो सचितादि परिमाण में द्रव्य का परिमाण जुदा जुदा नाम लेकर रक्खे, तो बहुत निर्जरा होवे।
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अष्टम-परिच्छेद
१२१
अथ पंदेरा कर्मादान का स्वरूप लिखते हैं । इन पंदरह व्यापार का श्रावक को निषेध है, सो करना
पंदरह कर्मादान नहीं । क्योंकि इन के करने से बहुत पाप लगता है । जेकर श्रावक : की आजीविका न चलती होवे तो परिमाण कर लेवे । सो अब पंदरा कर्मादान का नाम कहते हैं :- ·
१. इंगालकर्म - सो कोयले बना कर बेचने, ईंटें बनाकर वेचनी; भांडे, खिलौने बना पका करके बेचे । लोहार का कर्म, सोनार का कर्म, बंगड़ीकार, सीसकार, कलाल, भठियारा, भड़भूंजा, हलवाई, धातुगालक, इत्यादि जो व्यापार अग्नि के द्वारा होवें, सो सर्व इंगालकर्म हैं । इस में पाप बहुत लगता है, अरु लाभ थोड़ा होता है, इस वास्ते यह कर्म श्रावक न करे |
२. वनकर्म - सो छेद्या अनछेद्या वन बेचे, बगीचे के फल पत्र वेचे, फल, फूल, कंदमूल, तृण, काष्ठ, लकड़ी, वंशादिक वेचे, तथा जो हरी वनस्पति बेचे । यह सर्व कर्म है ।
३. साड़ीकर्म -- गाड़ी, बहिल तथा सवारी का रथ, नावा, जहाज़, तथा हल, दंताळ, चरखा, घाणी का अंग, तथा घूंसरा, चक्की, उखली, मूसल प्रमुख बना करके वेचे; यह सर्व साड़ी - शकटकर्म हैं ।
४. भाड़ीकर्म – गाड़ा, वलद, उंट, भैंस, गधा, खच्चर,
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१२२
जैनतत्त्वादर्श घोड़ा, नाव, रथ प्रमुख से दूसरों का बोझ वहे-ढोवे, भाड़े से आजीविका करे।
५. फोड़ीकर्म-आजीविका के वास्ते कूर, बावड़ी, तालाव खोदावे, हल चलावे, पत्थर फोडावे, खान खोदावे, इत्यादिक स्फोटिक कर्म है । इन पांचों कमों में बहुत जीवों की हिंसा होती है, इस वास्ते इन पांचों को कुकर्म कहते हैं।
अब पांच कुवाणिज्य लिखते हैं:
६. प्रथम दंतकुवाणिज्य-हाथी का दांत, उल्लु के नख, जीभ, कलेजा, पक्षियों के रोम, तथा गाय का चमर, हरण के सींग, वारासिंगे के सीग, कृमि-जिस से रेशम रंगते हैं, इत्यादिक जो ब्रस जीव के अंगोपांग बेचना है; सो सर्व दन्तकुवाणिज्य है । जब इन उक्त वस्तुओं को लेने के वास्ते आगर में जावेंगे, तब भिल्लादिक लोग तत्काल ही हाथी, गैंडा प्रमुख जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होवेंगे, और महापाप अनर्थ करेंगे। तथा, वहां जाने से अपने परिणाम भी मलिन हो जाते हैं। कदाचित् लोभ पीड़ित हो कर मिल्ल व्याघों को कहना भी पड़े कि, हम को मोटा भारी दांत चाहिये, तब वो लोग तत्काल हाथी को मार के वैसा दांत लावेंगे। इस वास्ते जेकर वस्तु लेनी भी पडे, तो व्यापारी के पास से लेवे, परन्तु आगर में जाकर न लेवे । क्योंकि आगर में जाकर एक चमर लेवे, तो एक गाय मरे इस वास्ते विचार करके वाणिज्य करे।
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अष्टम परिच्छेद
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७. दूसरा लाखकुवाणिज्य -- लोहा, घावड़ी, नील, सज्जीखार, सावन, मनसिल, सोहागा तथा लाख, इत्यादि, ये सर्व लाखकुवाणिज्य हैं। प्रथम तो त्रस जीवों के समूह ही से लाख बनती है, अरु पीछे जब रंग काढ़ते हैं, तब तिस को अन्न से सड़ाते हैं, तब त्रस जीव की उत्पत्ति होती है, अरु महादुर्गन्ध युक्त रुधिर सरीखा वर्ण दीखाता है । तथा घावड़ी में त्रस जीव उपजते हैं, कुंथुये भी बहुत होते हैं, अरु यह मदिरा के अंग हैं । तथा नील को जब प्रथम सड़ाते हैं तब त्रस जीव उत्पन्न होते हैं, पीछे भी नील के कुण्ड में त्रस जीव बहुत उत्पन्न होते है, अरु नीला वस्त्र पहिरने से उस में जूं, लीखादि त्रस जीव उत्पन्न होते हैं । तथा हरताल, मनसिल को पीसती वक्त यत्न न करे तो मक्खी प्रमुख अनेक जीव मर जाते हैं ।
८. तीसरा रसकुवाणिज्य --- मदिरा, मांस, इत्यादि वस्तु का व्यापार महा पापरूप है, तथा दूध, दही, घृत, तेल, गुड़, खांड प्रमुख जो ढीली वस्तु है, इसका जो व्यापार करना सो रसकुवाणिज्य हैं। इस में अनेक जीवों का घात होता है । इस वास्ते यह व्यापार श्रावक न करे ।
९. चौथा केशकुवाणिज्य है- द्विपद जो मनुष्य, दास, दासी प्रमुख खरीद कर बेचते । तथा चौपद जो गाय, घोड़ा, भैंस प्रमुख खरीद के बेचते । तथा पक्षियों में तीतर, मोर, तोता, मैना, बटेरा प्रमुख बेचते । इस वाणिज्य में पाप
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जैनतत्त्वादर्श : बहुत है, इस वास्ते यह व्यापार श्रावक न करे। : १०. पांचमा विषकुवाणिज्य-संखिया-सोमल, वच्छनाग, अफीम, मनसिल, हरताल, 'चरस, गांजा प्रमुख तथा शस्त्र-धनुष, तलवार, कटारी, छुरी, बरछी, फरसी, कुहाड़ी, कुशी, कुद्दाल, पेशकवज़, बंदूक, ढाल, गोली, दारु, बक्तर, पाखर, जिलम, तोप प्रमुख, जिन के द्वारा संग्राम करते हैं, तथा हल, मूसल, ऊखल, दंताली, कर्वत, दात्री, गोला, हवाई, पकाटा, कुहक, शतघ्नी प्रमुख सर्व हिंसा ही के अधिकरण है। इन का जो व्यापार करना, सो सब विषवाणिज्य हैं । इस में बहुत हिंसा होती हैं। ये पांच कुत्राणिज्य हैं।
अब पांच सामान्य कर्म कहते हैं, ११. प्रथम यन्त्रपीलन कर्म-तिल, सरसों, इक्षु आदि पीलाय करके बेचना, यह सर्व जीवहिंसा के निमित्त रूप यन्त्रपीलन कर्म है।
१२. दूसरा निलांछन कर्म-बैल, घोड़ों को खस्सी करना, घोड़े, बलद, ऊंट प्रमुख को दाग देना, कोतवाल की नौकरी, जेलखाने का दरोगा, ठेका लेना, मसूल इनारे लेना, चोरों के गाम में वास करना, इत्यादि जो निर्दयपने का काम है, सो सर्व निलाछन कर्म है। । १३. तीसरा दावाग्निदान कर्म-कितनेक मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव धर्म मान के बन में आग लगा देते हैं, वो अपने मन में जानते हैं कि, नवा घास उत्पन्न होवेगा, तब गौएं
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अष्टम परिच्छेद
चरेंगी, भिल्लादिक लोग सुख से रहेंगे, अन्न कार्य अज्ञानपने से धर्म जान के करे। आग जीव मर जाते हैं, इस वास्ते आग नहीं लगानी चाहिये । बावड़ी, तलाव, सरोवर, इन का जल
१४. चौथा शोषणकर्म अपने खेत में देवे । जब
पानी को बहार काढ़े, तब लाखों जीव जल रहित तड़फ २ कर मर जाते हैं, इस वास्ते सर्व पानी शोषण न करना ।
[
१५. पांचमा असतीपोषण कर्म - कुतुहल के वास्ते कुत्ते, विल्ले, हिंसक जीवों को पोषे । तथा दुष्ट भार्या अरु दुराचारी पुत्र का मोह से पोषण करे । साचा झूठा जाने नहीं, जो मन में आवे सो करे, तिन को राजी रक्खे । तथा बेचने के वास्ते दुराचारी दास दासी को पोधे । सो असतीकर्म कहिये । तथा माछी, कसाई, वागुरी, चमार प्रमुख बहु आरंभी जीवों के साथ व्यापार करे, तिन को द्रव्य तथा खरची प्रमुख देवे, यह भी दुष्ट जीवों का पोषण है। जेकर अनुकंपा करके. श्वान - कुत्ते प्रमुख किसी जीव को पुण्य जान कर देवे तो उसका निषेध नहीं । तथा अपने महल्ले में जो जीव होय, तिस की खबर लेनी पड़े, तथा अपने कुटुंब का पोषण करना पड़े, इस में पूर्वोक्त दोष नहीं। क्योंकि यह लोकनीतिः राजनीति का रास्ता है ।
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उपजेगा, इत्यादि लगाने से लाखों,
S
अब इस सातमे भोगोपभोग व्रत के पांच अतिचार लिखते हैं:
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जैनतत्वादर्श प्रथम सचित आहार अतिचार-मूल मांगे में तो श्रावक सर्व सचित्त का त्याग करे। जेकर नहीं करे, तो परिमाण कर लेवे । तहां सर्व सचित्त के त्यागी तथा सचित्त के परिमाणवाले जो अनाभोगादिक से सचित्त आहार करे। तथा जल तीन उकाली आ जाने से शुद्ध प्राशुक होता है, तिन में एक उकाला, दो उकाला का पानी तो मिश्र उदक कहा नाता है, तिस पानी को अचित्त जान के पीवे । तथा सचित्त वस्तु अचित्त होने में देर है, उस वस्तु को अचित्त जान कर खावे । तो प्रथम अतिचार लगे ।
दूसरा सचित्त प्रतिवद्धाहार अतिचार-जिस के सचित्त वस्तु का नियम है, सो तत्काल खैर की गांठ से गूंद उखेड़ के खावे । गूंद तो अचित्त है, परन्तु सचित्त के साथ मिला हुआ था, सो दूषण लगता है । तथा पके हुए अंब, खिरनी,
र प्रमुख को मुख से खावे, अरु मन में जानता है कि, मैं तो अचित्त खाता हुं, सचित्त गुठली को तो गेर दूंगा, इस में क्या दोष है ! ऐसा विचार करके खावे तब दूसरा अतिचार लगे।
तीसरा अपक्वौषधिमक्षण अतिचार-विना छाना आटा, अग्नि संस्कार जिस को करा नहीं, ऐसा कच्चा आटा खावे । क्योंकि श्री सिद्धांत में आटा पीसे पीछे विना छाने कितने ही दिन तक मिश्र रहता है, सो कहते हैं। श्रावण अरु भाद्रपद मास में अनछाना आटा पीसे पीछे पांच दिन मिश्र
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अष्टम परिच्छेद
१२७ रहता है, आश्विन और कार्तिक मास में चार दिन मिश्र रहता है, मागसिर और पौष मास में तीन दिन मिश्र रहता है, माघ अरु फागुण मास में पांच प्रहर तक मिश्र रहता है, चैत्र अरु वैशाख मास में चार प्रहर तक मिश्र रहता है, ज्येष्ठ अरु आषाढ़ मास में तीन प्रहर मिश्र रहता है। पीछे अचित्त हो जाता है। सो मिश्र खावे, तो तीसरा अतिचार लगे। ___ चौथा दुष्पकौषधिमक्षण अतिचार-कछुक कच्चा, कछुक पक्का, जैसे सर्व जात के पोंख अर्थात् सिट्टे जो मक्की, जवार, बाजरे, गेहूं प्रमुख के बीजों से भरे हुए होते हैं। इन को अग्नि का संस्कार करने पर कछुक कच्चे पक्के हो जाने से अचित्त जान कर खावे, तो चौथा अतिचार लगे।
पांचमा तुच्छौषधिमक्षण अतिचार-तुच्छ नाम इहां असार का है। जिस के खाने से तृप्ति न होवे, तिस के खाने में पाप बहुत है, जैसे चना का फूल खावे, तथा बेर की गुठली में से गिरी निकाल के खावे । तथा वाल, समा, मूंग, चवला की फली खावे | इस के खानेसे प्रसंग दूषण भी लग जाते हैं, क्योंकि कोई वनस्पति अतिकोमल अवस्था में अनंतकाय भी होती है, तिस के खाने से अनंतकाय का ब्रतमंग हो जाता है।
आठमे अनर्थदण्डविरमण व्रत का स्वरूप लिखते हैं:। १. अर्थदण्ड उसको कहते हैं कि, जो अपने प्रयोजन के वास्ते
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जैनतत्वादर्श
अनर्थदण्ड करे । सो धन, धान्य, क्षेत्रादि नवविध परिग्रह विरमण व्रत में हानि वृद्धि होवे; तब करे। क्योंकि धन- वृद्धि के निमित्त संसारी जीव को बहुत पाप के कारण सेवने पड़ते हैं, सत्य झूठ बोले विना रहा नहीं जाता है, पाप के उपकरण भी मेलने पड़ते हैं। जब कोई मनसूबा करना पड़ता है, तब अनेक विकल्प रूप-आध्यान करना पड़ता है। क्योंकि धनादि का परिग्रह आजीविका के वास्ते हैं । अतः धन की वृद्धि के वास्ते जो जो पाप करता है, सो २ सर्व अर्थदण्ड है । २. जब धन की हानि होती है, तब धनहानि के दूर करने वास्ते अनेक विकल्परूप पाप करता है। सो भी अर्थदण्ड है। क्योंकि संसार के सुख का कारणरूप धन व्यवहार है । तिस व्यवहार के वास्ते जो पाप करना पडे, सो अर्थदण्ड है । ३. अपने स्वजन, कुटुंब परिवारादिक के वास्ते अवश्य जो जो पाप सेवना पड़े, सो सो सब अर्थदण्ड है । ४. पांच प्रकार की इन्द्रियों के भोग के वास्ते जो पाप करे, सो भी अर्थदण्ड है। इन पूर्वोक्त चारों प्रयोजनों के बिना जो पाप करे, सो अनर्थदण्ड जानना । तिस के चार भेद हैं, सो कहते हैं-प्रथम अपध्यान अनर्थदण्ड, दूसरा • पापोपदेश अनर्थदण्ड, · तीसरा हिंसप्रदान अनर्थदण्ड, चौथा प्रमादाचरित अनर्थदण्ड है । इन में से प्रथम जो अपध्यान अनर्थदण्ड है, उसके फिर दो भेद है-एक आर्तध्यान, दूसरा रौद्रध्यान । तिन में फिर आध्यान के चार भेद हैं।
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अष्टम परिच्छेद
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सो पृथक् पृथक् कहते हैं ।
१. अनिष्टार्थसंयोगार्त्तध्यान -- इन्द्रिय सुख के विघ्नकारी - ऐसे अनिष्ट शब्दादि के संयोग होने की चिंता करे कि, मेरे को अनिष्ट शब्द न मिले । २. चार भेद इष्टवियोगार्त्तध्यान - हम को नवविध परि
आर्तध्यान के
ग्रह अरु परिवार जो मिला है, इस का वियोग मत होवे; ऐसी चिंता करे । अथवा इष्ट जो माता, पिता, स्त्री, पुत्र, मित्र प्रमुख हैं, इनके विदेशगमन से तथा मरण होने से बहुत चिंता करे, खावे पीवे नहीं, वियोग के दुःख से आत्मघात करने का विचार करे, अथवा सर्व दिन क्रोध ही में रहे । तथा घर में यह कुपूत है, यह भाई वेदिल है, मेरे पिता का मेरे ऊपर मोह नहीं है, यह स्त्री मुझ को बहुत खराब मिली है, मेरे ऊपर दिल नहीं देती है, इस का कोई उपाय होवे तो अच्छा है । अरु स्त्री मन में विचारे कि, मुझे सौकन खराब करती है, मेरे पति को भुलाती है, क्या जाने किसी दिन पति से मुझे दूर कर देगी ! इस वास्ते इस रांड का कुछ उपाय करना चाहिये । तथा सेवक ऐसा विचार करे कि, मेरे स्वामी के आगे फलाना मेरा दुश्मन गया है, सो ज़रूर मेरी खोटी कहेगा, मेरी रीतभांत को अदलबदल कर देवेगा, मेरे स्वामी को झूठ सच कह कर मेरी नौकरी छुड़ा देवेगा, तब मैं क्या करूंगा ! इस का कुछ उपाय करना चाहिये । तिस के निग्रह के वास्ते यन्त्र, मन्त्र,
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जैनतत्त्वादर्श कामन, मोहन, वशीकरण करे, तिस को झूठा कलंक देवे, बलिदान देने के वास्ते त्रस जीव को मारे, यह सब कुछ अपने शत्रु के निग्रह के वास्ते करे तथा मूठ चला के मारा चाहे। परन्तु वो मूर्ख यह नहीं विचारता कि-जेकर तूं अपने दिल से सच्चा है, तो तुझे क्या फिकर है ! अरु जहां तक अगले के पुण्य का उदय है, तहां तक तूं यंत्र मन्त्र से उसका कुछ भी बुरा नहीं कर सकता है। ये सर्व संसारी जीव की मूर्खता है । यह सर्व अनर्थदण्ड हैं। तथा प्रथम अपनी आतुरता से मन में कुविकल्प करे कि, मेरे बैरी के कुल में अमुक जबरदस्त उत्पन्न हुआ है, सो मेरे को दुःख देवेगा । इस की राजदरबार में आबरू जावे, अरु दण्ड होवे, तो ठीक है। तथा इसका कोई छिद्र मिले तो सरकार में कह कर इस को गाम से निकलवा देउं, तो ठीक है। ऐसा विचार मूढ अज्ञानी करता है। तथा यहां चोर बहुत पड़ते हैं सो पकड़े जाय, फांसी दिये जाय, तो बड़ा अच्छा काम होवे । तथा अमुक पुरुष मेरे ऊपर हो कर चलता है, इस हरामजादे का कुछ बन्दोबस्त करना चाहिये, ताकि फिर कदापि सिर न उठावे । इत्यादि खोटे विकल्पों करके अनर्थदण्ड करे । क्योंकि किसी की चितवना से दूसरों का बिगाड़ नहीं होता है। जो कुछ होता है, सो तो सब पुण्य पाप के अधीन है। तो फिर तूं काहे को बिल्लीवत् मनोरथ करता है ! क्योंकि यह बिना प्रयोजन के पाप लगता है,
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अष्टम परिच्छेद
१३१ सो अनर्थदण्ड है।
३. रोगनिदाना-ध्यान-मेरे शरीर में किसी वक्त रोग होता है, वो न होवे तो अच्छा है। लोगों को पूछे कि अमुक रोग क्योंकर न होवे ? जब कोई कहे कि, अमुक अमुक अभक्ष्य वस्तु खाने से नहीं होता है, तव अभक्ष्य भी खा लेवे । तथा जब शरीर में रोग होवे, तव बहुत हाय २ शब्द करे, बहुत आरम्भ करे, घड़ी घड़ी में ज्योतिषी को पूछे कि मेरा रोग कब जायगा ! तथा वैद्य को बार बार पूछे। तथा मेरे ऊपर किसी ने जादू करा है, ऐसी शंका करे । अरु रोग दूर करने के वास्ते कुलविरुद्ध, धर्मविरुद्ध आचरण करे, तथा अभक्ष्य खाने में तत्पर होवे । रोग दूर करने के वास्ते औषधि, जड़ी, बूटी, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र सीखे तथा सीखे हुए किसी वक्त मेरे काम आवेंगे।
४. अग्रशोच नामा आतघ्यान-अनागत काल की चिंता करे कि, आवता वर्ष में यह विवाह करूंगा तथा ऐसी हाट, हवेली वनाऊंगा कि, जिस को देख कर सर्व लोग आश्चर्य करें। तथा अमुक क्षेत्र में बगीचा लगाना है, जिसके आगे सर्व बाग निकम्मे हो जावें, सर्व दुश्मनों की छाती जले । तथा अमुक वस्तु का मैंने सौदा करा है, सो वस्तु आगे को महंगी होजावे तो ठीक है, ताकि मुझे बहुत नफा मिल जावे । इत्यादि अनागत काल की अपेक्षा अनेक कुविकल्प शेखचिल्ली की
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जैनतस्वादर्श
तरें चिंते इसका नाम अग्रशोच नामा आर्त्तध्यान है ।
अब रौद्रध्यान का स्वरूप कहते हैं । १. हिंसानंद रौद्रत्रस स्थावर जीवों की हिंसा करके मन में आनंद रौद्रध्यान के माने । तथा बहुत पाप करके सुंदर हाट, हवेली, चार भेद बाग प्रमुख बनावे । उसको देख के
सराहें । तथा राजाओं राजा का पक्षी बन
जब लोक प्रशंसा करें, तब मन में सुख माने कि, मैने कैसी हिकमत से बनाया है, मेरे समान अक्कल किसी में भी नही । तथा जब रसोई प्रमुख खाने की वस्तु बनावे, तब बहुत मसाले डाले, भक्ष्य वस्तु को अभक्ष्य सहरा बना के खावे । तथा मान के उदय से ऐसी जमणवारज्योनार करे कि, जिस को सर्व लोक की लड़ाई सुन कर खुशी माने । एक कर महिमा करे, दूसरे की निंदा करे । ने एक तलवार से सिंहादि को मारा है, प्रशंसा करे । तथा अपने दुश्मन को होवे, मुख मरोड़े, मूंछ पर हाथ फेरे, हाथ कहे कि, यह हरामखोर मेरे पुण्य से खोटी चितवना करके कर्म बांधे । परन्तु ऐसा न विचारे कि दूसरा कोई किसी का मारनेवाला नहीं है, उसकी आयु पूरी हो गई, इस वास्ते मर गया । एक दिन इसी तरे तूं भी मर जायगा, झूठा अभिमान करना ठीक नहीं। ऐसा विचार न करे ।
तथा अमुक योधा गहरे सुभट ! ऐसी
मरा सुन कर राजी
घसे, अरु मुख से
मर गया; ऐसी ऐसी
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अष्टम परिच्छेद
१३३ २. मृषानंद रौद्रध्यान-सो झूठ बोल के खुशी होवे अरु मन में ऐसा चिंते कि मैं ने कैसी बात बना के करी, किसी को भी खवर न पड़ी। मैं बड़ा अकलमंद हूं, मेरे समान कौन है, मेरे सन्मुख कौन जवाव करने को समर्थ है। बोलना है, सो तो करामत है, वोलना किसी को ही आता है। इस अवसर में जेकर मैं न होता, तो देखते क्या होता । इस प्रकार मन में फूले और अपने दुश्मन को संकट में गेर कर मन में आनंद माने अरु कहे कि, देखा, मैं ने कैसी हिकमत करी। राज दरवार में लोगों की चुगली करके स्थानभ्रष्ट करे, मन में खुशी माने ।
३. चौर्यानंद रौद्र-भद्रक जीवों से कूड़कपट की बातें बना कर बहुमूल की वस्तु थोड़े दाम में ले लेवे, तथा पराया धन लेखे से अधिक लेवे। तथा चोरी करके किसी की वही में अधिक कमती लिख देवे, और आप पैसा खा नावे । अनेक कपट की कला से सेठ को राजी कर देवे, और पीछे से विचारे कि मैं कैसा चतुर हूं कि, पैसा भी खाया अरु सेठ के आगे सच्चा भी बन गया । तथा जब व्यापार करे, तव खोटी-झूठी सौगंद खावे, मीठा बोल कर दूसरों को विश्वास उपजा कर न्यून अधिक देवे लेवे, अरु मन में राजी होके कहे कि. मेरे समान कमाऊ कौन है । तथा चोरी करके मन में आनंद माने कि मैं ने कैसी चोरी करी कि, जिस की किसी को खबर भी नहीं पड़ी। तथा झूठ खतपत्र बनाकर
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जैन तत्त्वादर्श
सरकार से फते पावे, तब मन में बड़ा आनंदित होवे कि, मैं बड़ा चालाक हूं, मैं ने हाकम को भी घोखा दिया ।
तब
४. संरक्षणानंद रौद्र - परिग्रह - धन, धान्य, बहुत बढ़ावे; पीछे और भी इच्छा करे, कुटुंब के पोषण के वास्ते परिग्रह की वृद्धि करे; बहुत कुबुद्धि करे; जैसे तैसे काम को अंगीकार करे; लोकविरुद्ध, राजविरुद्ध, कुलविरुद्ध, धर्मविरुद्धादि काम की उपेक्षा न करे | ऐसे करते हुए पूर्व पुण्योदय से पाप परिग्रह पावे, घन बहुत हो जावे; मन में बहुत खुशी माने कि इतना धन मैं ने अकेले ने पैदा किया है; ऐसा और कौन होशयार है, जो पैदा कर सके । ऐसा अहंकार करे, अहंकार में मन रहे । रात दिन मन में चिंता रहे कि, मत कभी मेरा धन नष्ट हो जावे । रात को पूरा सोवे भी नहीं, हाट हवेली के ताले टटोलता रहे, सगे पुत्र का भी विश्वास न करे। लोगों को कुबुद्धि सिखावे । ये आर्च अरु रौद्र मिल कर प्रथम अपध्यानानर्थदण्ड के भेद हैं । सो नहीं करने चाहिये ।
अब दूसरा पापकर्मोपदेश अनर्थदण्ड कहते हैं - हरेक अवसर में घर सम्बंधी दाक्षिण्य वर्ज के पापोपदेश करे । जैसे कि तुमारे घर में बछड़े बड़े हो गये हैं, इन को बधिया करके समारो, नाक में नाथ गेरो । घोड़े को चाबुकसवार के सुपुर्द करो वो इस को फेर कर सिखावे । तथा तुमारे क्षेत्र में सूड़ बहुत हो रहा है, उसको काटना तथा जलाना चाहिये ।
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अष्टम परिच्छेद
१३५.
इत्यादि जो पापकारी काम है, तिन का बिना प्रयोजन अज्ञानपने से उपदेश करे, यह दूसरा पापकर्मोपदेश अनर्थदण्ड है ।
तीसरा हिंस्रप्रदान अनर्थदंड - हिंसाकारी वस्तु - गाड़ी, हल, शत्र, तलवारादि । अग्नि, मूसल, ऊखल, धनुष, तरकश, चाकू, छुरी, दात्री प्रमुख दूसरों को दक्षिणता बिना देवे सो हिसप्रदान अनर्थदण्ड है ।
चौथा प्रमादाचरण अनर्थदण्ड - कुतूहल से गीत, नाटक, तमाशा, मेला प्रमुख सुनने देखने जाना; इन्द्रियों के विषय का पोषण करना। यहां कुतूहल कहने से जिनयात्रा, संघ, अठाईमहोत्सव, रथयात्रा, तीर्थयात्रा, इन के देखने के वास्ते जावे, तो प्रमादाचरण नहीं। किंतु ये तो सम्यक्त्व पुष्टि के कारण हैं । तथा वात्स्यायनादिकों के कामशास्त्रों में अत्यन्त
गृद्धि – उनका वार २ अभ्यास करना । तथा जुआ खेलना,
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मद्य पीना, शिकार मारने जाना । तथा जलक्रीडा - तलाव प्रमुख में कूदना, जल उछालना । तथा वृक्ष की शाखा के साथ रस्सा बांध कर झूलना, हिंडोले झुलाना । तथा लाल, तीतर, बटेरे, कुक्कड़, मींढे, भैंसें, हाथी, बुलबुल, इन को आपस मैं लड़ाना । तथा अपने शत्रु के बेटे - पोते से वैर रखना, बैर लेना । तथा भक्तकथा — मांस, कुलमाष, मोदक, ओदनादि बहुत अच्छा भोजन है, जो खाते हैं, उनको बड़ा स्वाद आता है, अतः यह हम भी खायेंगे; इत्यादि कहना । तथा स्त्री कथा - स्त्रियों के पहनने तथा रूप और अंगप्रत्यंग
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जैनतत्वादर्श हावभावादि का कथन यथा-" कर्णाटी सुरतोपचारकुशला, लाटी विदग्धा प्रिये" इत्यादि । तथा स्त्री के रूपोत्पादन, कुचकठिनकरण और योनिसंकोच, इत्यादि स्त्री सम्बन्धी विषयों का विचार करना स्त्रीकथा है । तथा देशकथा जैसे दक्षिण देश में अन्न, पानी अरु स्त्रियों से सम्भोग करना बहुत अच्छा है, इत्यादि । तथा पूर्वदेश में विचित्र वस्तु-गुड़, खाण्ड, शालि, मद्यादि प्रधान चीजें होती हैं। तथा उत्तर देश के लोग सूरमे है। वहां घोड़े बड़े शीघ्र चलनेवाले अरु दृढ़ होते हैं। और गेहूं प्रमुख धान्य बहुत होता है। तथा केसर, मीठी दाख, दाडिमादि वहां सुलभ है, इत्यादि । तथा पश्चिम देश में इंद्रियों को सुखकारी सुख स्पर्शवाले वस्त्र है, इत्यादि। तथा राजकथा-जैसे हमारा राजा बड़ा सूरमा है, वड़ा धनवान है, अश्वपति है, इत्यादि । जैसे यह चार अनुकूल कथा कही हैं। ऐसे ही चारों प्रतिकूल कथा भी जान लेनी । तथा ज्वरादि रोग अरु मार्ग का थकेवां, इन दोनों के विना संपूर्ण रात्रि सो रहना-निद्रा लेनी । इस पूर्वोक्त प्रमादाचरण को श्रावक वर्जे । तथा देशविशेष में भी प्रमाद न करना । तथा जिनमन्दिर में कामचेष्टा, हांसी, लड़ाई, हसना, थूकना, नींद लेना, चोर परदारिकादि की खोटी कथा करनी, चार प्रकार का आहार खाना, यह चौथा अनर्थदण्ड है। इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, सो कहते हैं।
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अष्टम परिच्छेद प्रथम कंदर्पचेष्टा-मुखविकार, भूविकार, नेत्रविकार, हाथ की संज्ञा वतावे, पग को विकार की चेष्टा करके औरों को हसावे । किसी को क्रोध उत्पन्न हो जावे, कुछ का कुछ हो जावे, अपनी लघुता होवे, धर्म की निन्दा होवे, ऐसी कुचेष्टा करे ।
दूसरा मुखारिवचन अतिचार-मुख से मुखरता करे, असंवद्ध वचन बोले, जिससे दूसरों का मर्म प्रगट होवे, कष्ट में गेरे, अपनी लघुता करे, वैर वधे, ढीठ, लबाड, चुगलखोर, इत्यादि नाम धरावे, लोगों में लजनीय होवे, इसी तरे बहुत वाचालपना करना।
तीसरा भोगोपभोगातिरिक्त अतिचार-~यहां स्नान, पान, भोजन, चन्दन, कुंकुम, कस्तूरी, वस्त्र, आभरणादिक अपने शरीर के भोग से अधिक करने, सो अनर्थदण्ड है। इहां वृद्ध आचार्यों की यह संप्रदाय है कि, तेल, आमले, दही प्रमुख, जेकर स्नान के वास्ते अधिक ले जावे, तो लौल्यता करके स्नान वास्ते बहुत से लोग तालाव आदि में जायंगे। तहां पानी के पूरे, तथा अप्काय के जीवों की बहुत विराधना होवेगी। इस वास्ते श्रावक को इस प्रकार से स्नान न करना चाहिये। क्योंकि श्रावक के स्नान की यह विधि है-श्रावक को प्रथम तो घर में ही स्नान करना चाहिये, तिस के अभाव से तेल, आमले, आकादि से घर में ही सिर घिस करके, मैल गेर करके तालाव के कांठे पर बैठ के
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जैनतस्वादर्श अंजलि से पानी सिर में डाल करके स्नान करना । तथा जिस फूलादिक में जीवों की संसक्ति का ज्ञान होवे तिन को परिहरे । ऐसे सर्व जगे जान लेना। ___चौथा कौकुच्य अतिचार-जिस के बोलने-करने से अपनी तथा औरों की चेतना काम क्रोधरूप हो जावे, तथा विरह की बात संयुक्त कथा, दोहा, साखी, चूत, झूलना, कवित्त, छन्द, परजराग, लोक, शृंगाररस की भरी हुई कथा कहनी । यह चौथा काममर्मकथन अतिचार है।
पांचमा संयुक्ताधिकरण अतिचार-ऊखल के साथ भूसल, हल के साथ फाला, गाड़ी से युग, धनुष से तीर इत्यादि । इहां श्रावक ने संयुक्त अधिकरण नहीं रखना, क्योंकि संयुक्त रखने से कोई ले लेवे, तो फिर ना नहीं करी जाती है, अरु जब अलग अलग होवे, तब उसको सुख से उत्तर दे सकेगा। अथ नवमे सामायिकवत का स्वरूप लिखते हैं। इन
पूर्वोक आठों व्रतों को तथा आत्मगुणों को सामायिकवत पुष्टिकारक अविरति कषाय में तादात्म्यभाव
से मिली हुई अनादि अशुद्धता रूप विभाव परिणति, तिस के अभ्यास को मिटाने के वास्ते अरु आत्मा का अनुभव करने के वास्ते तथा सहजानंद-स्वरूपरस को प्रगट करने के वास्ते यह नवमा शिक्षाबत है; अर्थात् शुद्ध अभ्यासरूप नवमा सामायिक व्रत लिखते हैं। दो घड़ी काल
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अष्टम परिच्छेद
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प्रमाण समता में रहना, राग द्वेष रूप हेतुओं में मध्यस्थ रहना, तिस को पण्डित जन सामायिक व्रत कहते हैं। 'सम' नाम है रागद्वेष रहित परिणाम होने से ज्ञान दर्शन- चारित्ररूप मोक्ष मार्ग, तिस का 'आय' नाम लाभ - प्रशमसुखरूप; इनका जो इक भाव सो सामायिक है । मन, वचन और काय की खोटी चेष्टा - एतावता आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान त्याग के तथा सावद्य मन, वचन, काया, पाप चिंतन, पापोपदेश, पाप करणरूप वर्ज के श्रावक सामायिक करे । इहां आवश्यक शास्त्र में लिखा है कि, जब श्रावक सामायिक करता है. तब साधु की तरे हो जाता है । इस वास्ते श्रावक सामायिक में देवस्नात्र, पूजादिक न करे। क्योंकि भावस्तव के वास्ते ही द्रव्यस्तव करना है, सो भावस्तव सामायिक में प्राप्त हो जाता है । इस वास्ते श्रावक सामायिक में द्रव्यस्तवरूप जिनपूजा न करे ।
सामायिक करनेवाला मनुष्य बत्तीस दूषण वर्ज के सामायिक करे, सो बत्तीस दूषण में प्रथम काया के वारां दूषण कहते हैं ।
१. सामायिक में पग पर पग चड़ा करके ऊंचा आसन ( पलांठी ) लगा कर बैठे, सो प्रथम दूषण है। कारण कि
* सामाइअंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणं बहुसो सामाइयं कुब्जा ॥
[ ० ६, श्रावकत्रताधिकार ]
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जैनत स्वादर्श
गुरुविनय की हानि का हेतु होने से यह अभिमान का आसन है । इस वास्ते जिस बैठने से विनयगुण रहे, और उद्धताई न होवे, तथा अजयणा न होवे, ऐसे आसन पर बैठे ।
२. चलासन दोष – आसन स्थिर न रक्खे, वार वार आगे पीछे हिलावे, चपलाई करे । मुख्य मार्ग तो यह है कि, श्रावक एक जगे एक ही आसन पर सामायिक पूरा करे, अडिगने से रहे । कदापि रोग निर्बलतादि के कारण से एक आसन पर टिका न जाय, फिरना पड़े, तो उपयोग संयुक्त जयणापूर्वक चरवला से जहां तहां पूंजना प्रमार्जना करके आसन फिरावे । यह पूर्वोक्त विधि न करे, तो दूसरा दूषण लगे ।
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३. चलदृष्टि दोष – सामायिक करे पीछे नासिका ऊपर दृष्टि रक्खे, अरु मन में शुद्ध उपयोग रक्खे, मौनपने से ध्यान करे । यदि सामायिक में शास्त्राभ्यास करना होवे, तो यत्न पूर्वक मुख के आगे मुखवस्त्रिका देकर, दृष्टि पुस्तक पर रख कर पढ़े, अरु सुने । तथा जब कायोत्सर्ग करे, तब चार अंगुल पीछे पग चौड़ा राखे, ऐसी योग मुद्रा से खड़ा हो कर दोनों बाहु प्रलंबित करे, दृष्टि नासिका पर रक्खे, अथवा सज्जे- दहिने पग के अंगूठे पर रक्खे | यह शुद्ध सामायिक करने की विधि है इस विधि को छोड़ के चपलदिशा में आंखे फिरावे, सो
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पने से चकितमृग की तरे चारों तीसरा दोष है ।
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अष्टम परिच्छेद ४. सावधक्रियादोष-क्रिया तो करे, परन्तु तिस में कछुक सावध क्रिया करे, अथवा सावध क्रिया की संज्ञा करे, सो चौथा दोप।
५. आलंबन दोप--सामायिक में भीतादिक का आलंबन, अर्थात् पीठ लगा कर बैठे। क्योंकि विना पूंजी भींत में अनेक जीव बैठे हुए होते हैं, सो मर जाते हैं, तथा आलंबन से नींद भी आ जाती है।
६. आकुंचन प्रसारण दोष-सामायिक करके विना प्रयोजन हाथ, पग, संकोचे, लंबा करे। क्योंकि सामायिक में तो किसी मोटे कारण के बिना हिलना नहीं, जरूरी काम में चरवला से पूंजन प्रमार्जन करके हिलावे ।
७. आलस दोप-सामायिक में आलस से अंग मोडे, अंगुलियों के कड़ाके काढ़े, कमर वांकी करे। ऐसी प्रमाद की बहुलता से व्रत में अनादर होता है, काया में अरति उत्पन्न हो जाती है । जब उठे, तब आलस मोड़ कर अति अशोभनिक रूप से उठे । यह सातमा आलस दोप है।
८. मोटन दोष-सामायिक में अंगुली प्रमुख टेढ़ी करी कढ़ाका काढे, ए पण प्रमाद की प्रबलता से होता है।
९. मल दोप-सामायिक ले करके खाज करे । मुख्यवृत्ति से तो सामायिक में खाज नहीं करनी, परन्तु जब लाचार होवे, तब चरवला प्रमुख से पूंजन प्रमार्जन करके हलवे हलवे खाज करे, यह शैली है।
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जैनतत्त्वादर्श १०. विषमासन दोष-सामायिक में गले में हाथ देकर बैठे। ११. निद्रा दोष-सामायिक में नींद लेवे ।
१२. शीत प्रमुख की प्रबलता से अपने समस्त अङ्गोपांग को वस्त्र से बांके।
यह वारां दोष काया से उत्पन्न होते हैं, इन को सामायिक में वर्ने । अब वचन के जो दश दोष हैं, सो लिखते हैं
१. कुबोल दोष--सामायिक में कुवचन वोले।
२. सहसात्कार दोष-सामायिक ले करके बिना विचारे बोले।
३. असदारोपण दोष-सामायिक में दूमरों को खोटी मति दवे।
४. निरपेक्ष वाक्य दोष-सामायिक में शास्त्र की अपेक्षा विना बोले।
५. संक्षेप दोष-सामायिक में सूत्र, पाठ, संक्षेप करे, अक्षर पाठ ही न कहे, यथार्थ कहे नहीं ।
६. कलह दोष-सामायिक में साधर्मियों से क्लेश करे। सामायिक में तो कोई मिथ्यात्वी गालियां देवे, उपसर्ग करे, कुवचन बोले, तो भी तिस के साथ लडाई नहीं करनी चाहिये, तो फिर अपने साधर्मी के साथ तो विशेष करके लडाई करनी ही नहीं।
७. विकथा दोष-सामायिक में बैठ के देशकथादि चार चिकथा करे । सामायिक में तो स्वाध्याय अरु ध्यान ही
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अष्टम परिच्छेद करना चाहिये।
८. हास्य दोष-सामायिक में दूसरों की हंसी करे, मश्करी करे।
९. अशुद्ध पाठ दोष-सामायिक में सामायिक का सूत्रपाठ शुद्ध न उच्चारे, हीनाधिक उच्चारे, यद्वा तद्वा सूत्र पढ़े।
१०. मुनमुन दोष-सामायिक में प्रगट स्पष्ट अक्षर न उच्चारे, दूसरों को तो जैसा मच्छर मिनमिनाट करता होवे, ऐसा पाठ मालूम पड़े, पद अरु गाथा का कुछ ठिकाना मालम न पड़े, गड़बड़ करके उतावल से पाठ पूरा करे।
अब मन के दश दोष लिखते हैं:
१. अविवेक दोष-सामायिक करके सर्व क्रिया करे, परन्तु मन में विवेक नहीं, निर्विवेकता से करे। मन में ऐसा विचारे कि सामायिक करने से कौन तरा है। इस में क्या फल है ! इत्यादि विकल्प करे।
२. यशोवांछा दोष-सामायिक करके यशः कीर्ति की इच्छा करे।
३. धनवांछा दोष-सामायिक करने से मुझे धन मिलेगा।
१. गर्वदोष-सामायिक करके मन में गर्व करे कि, मुझे लोग धर्मी कहेंगे। मैं कैसे सामायिक करता हूं, ये मूर्ख लोग क्या समझे ? . ५. भय दोष लोगों की निंदा से डरता हुआ सामायिक करे । क्योंकि लोग कहेंगे कि, देखो, श्रावक के कुल में उत्पन्न
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जैनतस्वादर्श
हुआ है, बड़ा पुरुष कहने में आता है, परन्तु धर्मकर्म का नाम भी नहीं जानता, धर्म तो दूर रहा, परन्तु हररोज़ सामायिक भी नहीं करता। ऐसी निंदा से डरता हुआ करे । ६. निदान दोष -- सामायिक करके निदान करे कि, इस सामायिक के फल से मुझे घन, स्त्री, पुत्र, राज्य, भोग, इन्द्र, चक्रवर्त्ती का पद मिले ।
७. संशय दोष — क्या जाने सामायिक का फल होवेगा कि नहीं होवेगा ! जिस को तत्त्व की प्रतीत न होवे, सो यह विकल्प करे ।
८. कषाय दोष - सामायिक में कषाय करे, अथवा क्रोध में तुरत सामायिक करके बैठ जाय । सामायिक में तो कषाय को त्यागना चाहिये ।
९. अविनय दोष - विनयहीन सामायिक करे ।
१०. अबहुमान दोष -- सामायिक बहुमान भक्तिभाव, उत्साहपूर्वक न करे ।
यह दश मन के दोष कहे, और पूर्वोक्त बारह काया के तथा दश वचन के मिला कर बत्तीस दूषण रहित सामायिक करे । इस सामायिक व्रत के पांच अतिचार टाले। सो अब पांच अतिचार कहते हैं ।
प्रथम कायदुष्प्रणिधान अतिचार - सो शरीर के अवयव हाथ, पग प्रमुख बिना पूंजे प्रमार्जे हिलावे, भींत से पीठ लगा कर बैठे !
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अष्टम परिच्छेद
१४५ दूसरा मनोदुष्पणिधान अतिचार-सो मन में कुन्यापार, चिंतन, क्रोध, लोभ, द्रोह, अभिमान, ईर्ष्या, व्यासंग, संश्रमचित्त सहित सामायिक करे।
तीसरा वचनदुष्प्रणिधान अतिचार-सो सामायिक में सावध वचन बोले, सूत्राक्षर हीन पढ़े, सूत्र का स्पष्ट उच्चार न करे। ___चौथा अनवस्था दोषरूप अतिचार-सो सामायिक वक्तसर न करे। जेकर करे तो भी वे मर्यादा से आदर विना उतावल से करे।
पांचमा स्मृतिविहीन अतिचार-सो सामायिक करी कि नहीं ! सामायिक पारी कि नहीं ! ऐसी भूल करे ।
अव दशमा दिशावकाशिक व्रत लिखते हैं:छठे व्रत में जो दिशाओं का परिमाण करा है, सो जहां
तक जीवे तहां तक है । उसमें तो क्षेत्र दिशावकाशिक बहुत छूटा रक्खा है, तिस का तो रोज़ काम बत पड़ता नहीं; इस वास्ते दिन दिन के प्रति
संक्षेप करे। जैसे आज के दिन दश कोस वा पन्दरां कोस वा पांच कोस, अथवा नगर के दरवाजे तक, कोस वा अर्द्धकोस, बाग बगीचे तक, घर की हद तक जाना आना है, उपरांत नियम करना; सो दिशावकाशिक व्रत है। ए छटे व्रत का संक्षेप रूप है। उपलक्षण से पांच अणुव्रतादिक का संक्षेप थोड़े काल का, सो भी इसी व्रत
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जैनतत्त्वादर्श में जान लेना । यह व्रत चार मास, एक मास, वीस दिन, पांच दिन, अहोरात्र, अथवा एक दिन, एक रात्रि, तथा एक मुहूर्त्तमात्र भी हो सकता है । इस का नियम ऐसे करे कि मैं अमुक प्रामादिक में काया करके जाऊंगा, उपरांत जाने का निषेध है। इस व्रतवाले जिस प्राणी के देश परदेश का व्यापार होवे, सो ऐसे कहे कि-मुझ को काय करके इतने क्षेत्र उपरांत जाना नहीं । परन्तु दूर देश का कागज प्रमुख लिखा हुआ आवे, सो वांचूं, अथवा कोई मनुष्य मेजना पड़े, उसका आगार है। परदेश की बात सुनने का आगार है । अरु जिसका दूर का व्यापार नहीं होवे, सो चिट्ठीखतपत्र भी न वांचे, अरु आदमी भी न भेजे, तथा चित्त की वृत्ति से जेकर संकल्पविकल्प न होवे, तो परदेश की बात भी न सुने। जेकर नहीं रहा जावे, तो आगार रक्खे । परन्तु जान करके दोष न लगावे । यह देशावकाशिक व्रत सदा सवेरे के वक्त चौदह नियम की यादगीरी में उपयोग से रक्खे, अरु रात्रि को जुदा रक्खे। यह व्रत गुरुमुख से जैसे धारे तैसे पाले, अरु इस व्रत के पांच अतिचार टाले । सो कहते हैं:
प्रथम आणवण प्रयोग अतिचार-नियम की भूमिका से बाहिर की कोई वस्तु होवे, तिसकी गरज पड़े, तब विचारे कि, मेरे तो नियम की भूमिका से बाहिर जाने का नियम है, परन्तु कोई जाता होवे, तो तिसको कह करके वो वस्तु
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अष्टम परिच्छेद
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मंगवा लेवे, अरु मन में यह विचारे कि, मेरा व्रत भी भंग नही हुआ, अरु वस्तु भी आगई, यह प्रथम अतिचार है ।
दूसरा पेसवण प्रयोग अतिचार -- दूसरे आदमी के हाथ नियम से बाहिरली भूमिका में कोई वस्तु मेजे, सो दूसरा अतिचार है ।
तीसरा सद्दाणुवाय अतिचार - नियम की भूमिका से बाहिर, कोई आदमी जाता है, तिस से कोई काम है, तब तिस को खुंखारादि शब्द करके बोलावे, फिर कहे कि, अमुक वस्तु ले आना, तब तीसरा अतिचार लगे ।
चौथा रूपानुपाती अतिचार — कोई एक पुरुष उसके नियम की भूमिका से वाहिर जाता है । तिस के साथ कोई काम है, तत्र हाट हवेली पर चढ़ के उसको अपना रूप दिखावे। तब वो आदमी उसके पास आवे, पीछे अपने मतलब की बातें करे, तब चौथा अतिचार लगे ।
पांचमा पुद्गलाक्षेप अतिचार - नियम की भूमिका से बाहिर कोई पुरुष जाता है । तिसके साथ कोई काम हैं, तब तिसको कंकरा मारे । जब वो देखे, तब तिसके पास आवे, तब उसके साथ बातचीत करे। यह पांचमा अतिचार है । अथ ग्यारहवा पौषघोपवास नामा व्रत लिखते हैं । इस पौyear के चार भेद हैं, उसमें प्रथम आहार पौषध है, तिसके भी दो भेद हैं, एक देशतः दूसरा सर्वतः । तहां देश से तो तिवि
पौपघनत
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जैनतस्वादर्श
हार उपवास करके पौषध करे, अथवा आचाम्ल करके पौषध करे, अथवा तिविहार एकाशना करके पौषध करे, यह तीन प्रकार से देश पौषध होता है । विसकी विधि लिखते हैं:
पौषध करने से पहिले अपने घर में कह रक्खे कि, मैं आज पौषध करूंगा, इस वास्ते आचाम्ल अथवा एकाशना करा है। भोजन के अवसर में आहार करने को आऊंगा, अथवा तुम ने पौषधशाला में ले आना। पीछे से पौषध करने को जावे । तहां पौषध करके देववंदन करके, पीछे चरवला, मुखवस्त्रिका, पूंछणा, ये तीन उपकरण साथ ले करके चादर ओढ़ करके साधु की तरे उपयोग संयुक्त मार्ग में यत्न से चल कर भोजन के स्थान में जा करके, इरियावहिया पडिक्कमे – गमनागमन की आलोचना करे । पीछे पूंछणा के ऊपर बैठ के आहार करने का भाजन प्रतिलेख के, पीछे अपने लेने योग्य आहार लेवे । साधु की तरे रसगृद्धि से रहित आहार करे । मुख से आहार को अच्छा बुरा न कहे । आहार की जूठ गेरे नहीं, किन्तु आहार करे पीछे उष्ण जल से आहार का बरतन धो कर पी जावे । बरतन शुद्ध करके, सुखा करके उपयोग संयुक्त पौषधशाला में आवे । पूर्वस्थान में जा कर बैठे, परन्तु मार्ग में जाते आते किसी के साथ बात न करे । इस रीत से स्वस्थानक में आवे । इरियावही पडिक्कम के, चैत्यवंदन करके धर्मक्रिया में प्रवर्त्ते, तथा
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अष्टम परिच्छेद आहार अपना कोई सम्बन्धी अथवा सेवक ले आवे, तो भी पूर्वोक्त रीति से आहार करके बरतन पीछे दे देवे। पीछे धर्मक्रिया में प्रवत्ते । तिसको देश से पौषध कहते हैं । वथा जो चउविहार करके पौषध करे, सो सर्व से पौषध कहिये। । दूसरा शरीरसत्कार पौषध-सर्वथा शरीर का सत्कारस्नान, धोवन, धावन, तैलमर्दन, वस्त्राभरणादि शृंगार प्रमुख कोई भी शुश्रूषा न करे। साधु की तरे अपरिकर्मित शरीर रहे। तिसको सर्वथा शरीरसत्कार पौषध कहते हैं। तथा पौषध में हाथ, पग प्रमुख की शुश्रूषा करनी, तिसका आगार रक्खे, उसको देशसत्कार पौषध कहते हैं।
तीसरा अब्रह्मपौषध-त्रिकरण शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत पाले, वो सर्वथा ब्रह्मचर्य पौपध है; अरु मन, वचन, दृष्टि प्रमुख का आगार रक्खे। अथवा परिमाण रक्खे, सो देश से ब्रह्मचर्य पौषध है। __चौथा सर्वथा सावध व्यापार का त्याग-सर्व से अव्यापार पौषध है । अरु जो एकादि व्यापार का आगार रक्खे, सो देश से अव्यापार पौषध जानना ।
एवं चार प्रकार के पौषध के दो दो मेद है। सो प्रथम जब आगम व्यवहारी गुरु होते थे, अरु श्रावक भी शुद्ध उपयोगवाले होते थे। तव जो जो प्रतिज्ञा लेते थे, सो सो प्रतिज्ञा अखण्डित तैसी ही पालते थे, भूलते नहीं थे, अरु
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जैनतस्वादर्श
न्यूनाधिक भी नहीं करते थे । और गुरु भी अतिशय ज्ञान
पौषध का आदेश
के प्रभाव से योग्यता जान कर देश, सर्व देते थे । तथा श्रावक कदाचित् भूल भी
जाते थे, तो भी काल में तो ऐसे
लेते थे । परन्तु इस
प्रभाव से जड़बुद्धि
तत्काल प्रायश्चित्त ले उपयोगी जीव हैं नही, दुषमकाल के जीव बहुत हैं । इस वास्ते पूर्वाचार्यो ने उपकार के वास्ते आहारपौषध तो दोनों करने, अरु शेष तीन पौषध जीतव्यवहार के अनुसार निषेध कर दिये हैं । यही प्रवृत्ति वर्त्त - मान संघ में प्रचलित है । पौषध श्रावक को जरूर करना चाहिये, कारण कि कर्मरूप भावरोग की यह औषधि हैं, ताते जब पर्वदिन आवे, तब ज़रूर पौषध करे । इस के पांच अतिचार टाले, सो कहते हैं:
प्रथम अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सिज्जासंथारक अतिचार — जिस स्थान में पौषध संस्थारक करा है, तिस भूमि की तथा संथारा की पडिलेहणा न करे. एतावता संथारे की जगा अच्छी तरे निगाह करके नेत्रों से देखे नहीं अरु कदापि देखे, तो भी प्रमाद के उदय से कुछ देखी कुछ न देखी जैसी करे ।
दूसरा अप्पमज्जिय दुष्पमज्जिय सिज्जासंथारक अतिचार - संथारा को रजोहरणादि करके पूंजे नहीं, कदापि पूंजे, तो भी यथार्थ न पूंजे, गड़बड़ कर देखे, जीवरक्षा न करे, तो दूसरा अतिचार लगे ।
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अष्टम परिच्छेद
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तीसरा अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय उच्चारपासवण भूमि अतिचार - सो लघुशंका, बड़ीशंका, परिठवने की भूमि का नेत्रों से अवलोकन न करे, अरु अवलोकन करे, तो भी अलसुपलसु करके काम चलावे, जीवयत्ना बिना करे परिठवे तो तीसरा अतिचार लगे ।
दुप्पमज्जिय उच्चारपासवणभूमि
भूमिका को उच्चारपूंजे, तो भी यद्वा
अप्पमज्जिय
चौथा अतिचार - सो जहां मूत्र, विष्ठा करे, उस प्रस्रवण करने से पहिले पूंजे नहीं, जेकर तद्वा पूंजे, परन्तु यत्न से न पूंजे ।
पोसह विहिविवरीए
पांचमा
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अतिचार सो पौषध करे; जैसे कि प्रभात
में क्षुधा लगे, तब
पारणे की चिंता
अथवा
अमुक
वस्तु का आहार
करना है, तहां जाना पड़ेगा,
में अमुक रसोई करूंगा । तथा अमुक कार्य अमुक पर तगादा करूंगा । तथा प्रभात में पौषध पार के अच्छी तरें तेल मर्दन कराऊंगा, अच्छे गरम पानी से स्नान करूंगा, तथा अमुक पोशाक पहरूंगा, स्त्री के साथ भोग करूंगा, इत्यादि सावद्य चिंतना करे । तथा संध्या समय में पौषध के मंडल शोधन न करे, सर्व रात्रि सोता रहे, विकथा करे । पौषध के अठारह दूषण हैं, सो वजें नहीं । सो अठारह दूषण लिखते हैं:
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१. विना पोसे वाले का लाया हुआ जल पीवे । २. पौषध
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जैनतस्वादर्श
के वास्ते सरस आहार करे। ३. पौषध के पौषध के दोष अगले दिन विविध प्रकार का संयोग मिलाय
के आहार करे । ४. पौषध के निमित्त अथवा पौषध के अगले दिन में विभूषा करे । ५. पौषध के वास्ते वस्त्र धोवावे । ६. पौषध के वास्ते आमरण घड़ा कर पहिरे । स्त्री भी नथ, कंकणादि सोहाग के चिह वर्ज के दूसरा नवा गहना घड़ा के पहिरे। ७. पौषध के वास्ते वस्त्र रंगा कर पहिरे । ८. पौषध में शरीर की मैल उतारे । ९. पौषध में विना काल निद्रा करे। १०. पौषध में स्त्रीकथा करे-स्त्री को भली बुरी कहे । ११. पौषध में आहारकथा करे-भोजन को अच्छा बुरा कहे। १२. पौषध में राजकथा करे-युद्ध की बात सुने, वा कहे । १३. पौषध में देशकथा करे-अच्छा बुरा देश कहे । १४. पौषधमें लघुशंका अरु बड़ीशंका भूमिका पूंजे विना करे । १५. पौषध में दूसरों की निंदा करे । १६. पौषध में स्त्री, पिता, माता, पुत्र, भाई प्रमुख से वार्तालाप करे । १७. पौषध में चोर की कथा करे । १८. पौषधमें स्त्री के अंगोपांग, स्तन, जघनादि को देखे, यह अठारह दूषण पौषध में वजें, तो शुद्ध पौषध जानना। अन्यथा पांचमा अतिचार लगे।
अथ बारहवां अतिथिसंविभागव्रत लिखते हैं। अतिथि
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अष्टम परिच्छेद
१५३ उसको कहते हैं कि, जिसने लौकिक पर्वोअतियिसविमाग त्सवादि तिथियों को त्याग दिया है, सो बत अतिथि है। जैसे पाहुणा विना तिथि आता
है, एतावता तिथि देख के नहीं आता है। ऐसे ही जो साधु अनचिंत्या ही आ जावे, सो अतिथि जानना । ऐसे मधुकर वृत्तिवाले से जो विभाग करे, एता. वता शुद्ध व्यवहार न्यायोपार्जित धन करके अपने उदर पूरणे योग्य जो रसोई करी है, उत्तम कुल आचारपूर्वक पूर्वकर्म पश्चात्कर्मादि दोष रहित, ऐसा शुद्ध निर्दोष आहार भक्तिपूर्वक जो देवे, सो अतिथिसंविभाग व्रत है। तहां प्रथम दान देनेवाले में पांच गुण होवें, तो वो दाता शुद्ध होता है, सो पांच गुण लिखते है:
१. जैनमार्गी दाता को, शुद्ध पात्र की प्राप्ति पा करके, अपने घर में मुनि का दर्शन मात्र होने से, अंतरंग में बहुत दिन की चाहना के उल्लास से आनंद के आंसु आवें, जैसे अपना प्यारा, अति हितकारी वल्लभ विछड़ के परदेश में गया है, उसको मन से कभी विसारता नहीं, मिला ही चाहता है, उस मित्र के अकस्मात् मिलने से आनंद आंसु आवें, तैसे मुनि को घर में आया देख के आनंद आंसु लावे । अरु मन में विचारे कि मेरा बड़ा भाग्य है कि, ऐसा मुनि मेरे घर में आया है। अरु मैं कैसा हूं ! अनादि का भूला, द्रव्य संबल रहित, दरिद्र पीड़ित, ज्ञान शोचन रहित, अंधभाव करी
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जैनतत्त्वादर्श पीड़ित, अपार संसारचक्र में भटकता हुआ, बहुत अकथनीय दुःख संयुक्त देख कर, मेरे पर दयाहष्टि करके प्रथम मेरे को ज्ञानांजन शलाका से ज्ञान रूप-देखनेवाला नेत्र खोल दीना, अरु तीन तत्व-सेवा रूप व्यापार सिखलाया, तथा मुझ को रत्नत्रयीरूप पूंजी-रास दे कर मेरा अनादि दरिद्र दूर करा, मुझे भले आदमियों की गिनती में करा । ऐसे गुरु मुनिराज, विना गरज के, परोपकारी मेरे घरांगन में आये । ऐसी पुष्ट भावना-प्रशस्त राग भाव के उल्लास से आनंद के आंसु आवे; यह दाता का प्रथम गुण है।
२. जैसे संसार में जीव को अत्यंत इष्ट वस्तु के संयोग से रोमावली खड़ी होती है, तैसे बड़ी भक्ति के प्रभाव से मुनि को देख के रोमावली विकस्वर होवे, हृदय में हर्ष समावे नहीं। यह दूसरा गुण है।
३. मुनि को देख के वहुमान करे, जैसे किसी गरीब के घर में राजा आप चल कर आवे, तब वो गरीब गृहस्थ जैसा राजा का आदर करे, अरु मन में विचारे कि, महाराज मेरे घर में आये हैं, तो मैं अच्छी वस्तु इन को भेट करूं तो ठीक है, क्योंकि राजा का आना वारंवार मेरे घर में कहां है ? ऐसा विचार के जैसे वस्तु भेट करे, वैसे श्रावक भी साधु को घर में आया देख के बहुत मान करे अरु मन में ऐसा विचारे कि, यह ऐसा निःस्पृहियों में शिरोमणि, जगहुँघु,
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अष्टम परिच्छेद
१५५ जगत् हितकारी, जगद्वत्सल, निष्कामी, आत्मानंदी, करुणासागर, संसारजलधि उद्धरण, परोपकार करनी में चतुर, क्रोधादि कपाय निवारक, स्व और पर का तारक, ऐसा मुनिराज, मेरे घर में चल कर आया, इस से मेरा अहो भाग्य है ! ऐसा जान कर संभ्रम संयुक्त सन्मुख जावे, त्रिकरण शुद्ध परिणाम से कहे कि, हे स्वामी ! दीनदयाल ! पधारो, मेरे गृहांगन को पवित्र करो, ऐसे बहुमान दे कर घर में पधरावे । मन में विचारे कि, मेरा बड़ा पुण्योदय है कि, साधु आहार पानी का अनुग्रह करते हैं। क्योंकि साधु के आहार लेने में बड़ी विधि है । साधु शुद्ध भात पानी जाने, तो लेवे, इस वास्ते मत मेरे से कोई दोष उपजे ऐसा विचार कर त्रिकरण शुद्ध, बहुमानपूर्वक उपयोग संयुक्त, विधिपूर्वक आहार लावे, अरु मधुर स्वर से विनति करे कि हे स्वामी ! यह शुद्ध आहार है, इस वास्ते सेवक पर परम कृपा करके, पात्र पसार के मेरा निस्तार करो, ऐसे वचन बोलता हुआ आहार देवे । मुनि भी उस आहार को योग्य जान कर ले लेवे, अरु श्रावक भी जितनी दान देने योग्य वस्तु है, उस सर्व की निमंत्रणा करे | इस विधि से दान देकर हाथ जोड़ के पृथ्वी पर मस्तक लगा कर नमस्कार करे। पीछे मीठे वचनों से विनति करे. कि, हे कृपानिधान ! सेवक पर बड़ी कृपा करी, आज मेरा घर पवित्र हुआ, क्योंकि पुण्योदय विना मुनि का योग कहां
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जैनतत्त्वादर्श होता है। फिर भी हे स्वामी ! कृपा करके अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध, वस्त्र, पान, शय्या, संस्तारकादि से प्रयोजन होवे, तब अवश्य सेवक पर अनुग्रह करके पधारना । आप तो मुनिराज, गुणवान, बेपरवाह हो, आपको किसी बात की कमी नहीं, किसी के साथ प्रतिबन्ध नहीं, पवन की तरे प्रतिबन्ध से रहित हो, तो भी मेरे ऊपर जरूर कृपा करनी, एसे मुख से कहता हुआ अपने घर की सीमा तक पहुंचावे । यह तीसरा गुण है।
४. तहां से वन्दना करके पीछे आ कर भोजन करे, परंतु मन में आनंद समावे नहीं। विचारे कि, मेरा बड़ा भाग्योदय हुआ, आज कोई भली बात होगी, क्योंकि आज मुनि, निःस्पृही, सहज उदासी, स्त्रसुखविलासी को मैंने विनति करी, आहार दिया, अरु आहार देते वीच में कोई विघ्न नहीं हुआ, इस वास्ते मेरा बड़ा भाग्य है, क्या फिर भी कभी ऐसे मुनि का योग मिलेगा ! ऐसी अनुमोदना वारवार करे । यह चौथ गुण है।
५. जैसे कोई मंदभाग्यवान व्यापार करते हुए थोड़ा थोड़ा कमाता है, तिस को किसी दिन कोई सौदे में लाख रुपये की प्राप्ति हो जावे, तब वो कैसा आनंदित होते है। अरु फिर उस व्यापार की कितनी चाहना रखता है। इस से भी अधिक साधु को दान देने की चाहना श्रावक रक्खे। यह
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अष्टम परिच्छेद
१५७ पांचमा गुण है। इन पांच गुणयुक्त शुद्ध दान देवे, तो अतिथिसंविभाग व्रत होवे।
इस व्रत के पांच अतिचार वनें, सो लिखते हैं:
प्रथम सचित्तनिक्षेप अतिचार-सो सचित्त-सजीव पृथ्वी, जल, कुम्भ, चूल्हा, इन्धनादिकों के ऊपर न देने की बुद्धि से आहार को रख छोड़े। अरु मन में ऐसा विचारे कि, ए आहार साधु तो नहीं लेवेगा, परन्तु निमन्त्रणा करने से मेरा अतिथिसंविभाग व्रत पल जावेगा। __ दूसरा सचित्तपीहण अतिचार-सो सचित्त करके ढक छोड़े । सूरणकंद, पत्र, पुष्प, फलादि करके, न देने की बुद्धि से ढक छोड़े।
तीसरा कालातिक्रम अतिचार-सो साधुओं के मिक्षा का काल लंघ करके अथवा भिक्षा के काल से पहिले अथवा साधु आहार कर चुके, तब आहार की निमन्त्रणा करे ।
चौथा परव्यपदेशमत्सर अतिचार-सो जब साधु मांगे तब क्रोध करे । तथा वस्तु पास में है, तो भी मांगने पर न देवे, अथवा इस कंगाल ने ऐसा दान दिया, तो मैं क्या इस से हीन हूं जो न देऊ ! इस भावना से देवे ।
पांचमा-गुड़, खण्ड प्रमुख अपनी वस्तु है, सो न देने की बुद्धि से औरों की कहे।
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जैनतत्त्वादर्श ___यह सम्यक्त्र पूर्वक बारह व्रतरूप गृहस्थधर्म का स्वरूप धर्मरत्न प्रकरण तथा योगशास्त्रादि ग्रन्थों से संक्षेप में लिखा है। जेकर विशेष देखना होवे, तो धर्मरलशास्त्रवृत्ति तथा योगशास्त्र देख लेना।
इति श्री तपागच्छीय मुनि श्रीवुद्धिविजय शिप्य मुनि मानंदविजय-आत्मारामविरचिते जैनतत्वादर्श
अष्टमः परिच्छेदः संपूर्णः ॥
RE
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नवम परिच्छेद
नवम परिच्छेद इस परिच्छेद में श्रावक के छे कृत्यों [दिनकृत्य, रात्रिकृत्य,
पर्वकृत्य, चातुर्मासिककृत्य, संवत्सरकृत्य, श्रावकदिनकृत्य जन्मकृत्य, यह छ प्रकार के कृरय हैं।]
में से प्रथम दिनकृत्य विधि, श्राद्धविधि ग्रन्थ तथा श्रावककौमुदी शास्त्र के अनुसार लिखते हैं। प्रथम तो श्रावक को निद्रा थोड़ी लेनी चाहिये । जब
___ एक प्रहर रात्रि शेष रहे, तब निद्रा छोड़ के जागने की विधि उठना चाहिये । जेकर किसी को बहुत नींद
आती होवे, तब जघन्य चौदमे ब्राह्म मुहूर्त में तो ज़रूर उठना चाहिये। क्योंकि सवेरे उठने से इस लोक अरु परलोक के अनेक कार्य सिद्ध होते हैं। उस अवसर में वुद्धि टिकी हुई अरु निर्मल होती है। पूर्वापर का अच्छी तरे से विचार कर सकता है। तथा ग्रन्थकार ऐसे भी कहते हैं कि, जिस के नित्य सोते हुए के सूर्य उग जावे, तिसकी आयु नल्प होती है, इस वास्ते ब्राह्म मुहूर्त में अवश्य उठना चाहिये । जब सोता उठे, तब मन में विचारे कि-मैं श्रावक हूं, अपने घर में तथा परघर में, इन दोनों में से कहां सोया था ! तथा हेठले मकान में सोया था कि चोबारे प्रमुख में सोया था ! दिनमें सोया था कि रात्रि को सोया था ! इत्यादि विचार करते भी जेकर निद्रा का वेग न मिटे तो नाक
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जैनतवादर्श अरु मुख का उच्छवास रोके, उससे निद्रा तत्काल दूर हो जाती है। पीछे दरवाजा अच्छी तरे से देख के लघुशंकादि करे। तथा रात्रि में किसी को कुछ कहना पड़े, तब मन्द स्वर से कहे, ऊंचे स्वर से न कहे। क्योंकि रात्रि में ऊंचा शब्द करने से छपकली प्रमुख हिंसक जीव जाग जाते हैं, फिर वो मक्खी आदिक जीवों की हिंसा करते हैं। तथा कसाई जाग जावे तो गौ, बकरी, भेड़ प्रमुख को मारने के वास्ते चला जावे । तथा माछी जाल ले कर मछली मारने को चला जावे। तथा बावरी, अहेडी, खून करनेवाला, मदिरा बनानेवाला, परस्त्रीगमन करनेवाला, तस्कर, लुटेरा, धोबी, घाडी, कुम्भार अरु जुआरी प्रमुख अनेक हिंसक जीव जाग कर अनेक तरें के पाप करने में प्रवृत्त हो जाते हैं। रात्रि में ऊंचे शब्द से बोलनेवालों को यह सर्व पाप लगे, इस वास्ते रात्रि में ऊंचे शब्द से न बोलना चाहिये। जब सबेर के वक्त निद्रा भंग होवे, तब तत्वों के जानने
वाले श्रावक को तत्त्वों का विचार करना शुभाशुभ तत्त्व चाहिये । सो तत्व पांच हैं, तिस का नाम और स्वर कहते है-१. पृथ्वी, २. जल, ३. अग्नि, ४.
वायु, ५, आकाश । निद्रा-छेद के समय में जेकर पृथ्वी, तत्व अरु जल तत्व वहे, तब तो शुभ है, अरु जेकर अग्नि, वायु तथा आकाश तत्व वहे, तो दुःखदायक है। शुक्ल पक्ष की पडवा के दिन जेकर वामी नासिका का स्वर
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नवम परिच्छेद
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चले, तो पंदरा दिन तक आनंद आरोग्य रहे, अरु कृष्ण पक्ष की एकम के दिन जेकर दक्षिण नासिका का स्वर वहे, तो पंदरा दिन तक सुख आनन्द रहे। इस से विपर्यय हो, तो विपर्यय फल होवे |
ऐसे ही क्रम से पंदरां की पड़वा के दिन से स्वर चले तो शुभ है, तक वाम स्वर चले तो स्वर चले तो शुभ है, चन्द्रस्वर में सूर्य उगे शुभ है। तथा सूर्यनाड़ी में अस्त होवे, तो भी शुभ है मंगल, गुरु, अरु शनि, इन चार वारों में दक्षिण स्वर में तो शुभ है; अरु सोम, बुध तथा दिन सोते, उठते चन्द्रस्वर - वामस्वर
तथा शुक्ल पक्ष के प्रथम तीन दिन बामी नासिका सवेरे उठते वहे, तो शुभ है, अगले तीन दिन दक्षिण स्वर चले तो शुभ है, फिर अगले तीन दिन वाम स्वर चले तो शुभ है, दिन तक जान लेना । अरु कृष्ण पक्ष ले कर जेकर तीन दिन तक दक्षिण अगले चौथे दिन से ले कर तीन दिन शुभ है, फिर अगले तीन दिन दक्षिण ऐसे पंदरां दिन तक जान लेना । तथा अरु सूर्यस्वर में सूर्य अस्त होवे तो सूर्य उदय होवे अरु चन्द्रनाड़ी में
।
किसी शास्त्र के मत में रवि,
सूर्यनाड़ी दिन उगते चले, शुक्र, इन तीनों वारों के चले, तो शुभ है; विपर्यय चले, तो अशुभ है।
तथा किसी के मत में संक्रांति के क्रम से सूर्य, चन्द्रनाड़ी वहे तो शुभ है । जैसे मेष संक्रांति के दिन सूर्यस्वर चले, अरु वृषसंक्रांति के दिन चन्द्रनाड़ी चले, तो शुभ जाननी,
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जैनतत्त्वादर्श इत्यादि । तथा किसी के मत में चन्द्रमा राशि पलटे तिस क्रम करके अढ़ाई घड़ी तक एक नाड़ी वहती है, इत्यादि । परन्तु जैनाचार्य श्री हेमचन्द्रादिकों का तो प्रथम जो लिखा है, सो मत है। छत्तीस गुरु अक्षरों के उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतना काल वायुनाड़ी को दूसरी नाड़ी में संचार करते लगता है। __अब पांच तत्वों की पहिचान कहते हैं। नासिका की पवन जेकर ऊंची जावे, तव तो अग्नि तत्व हैं। जेकर नीची जावे तो जल तत्व है। तिरछी जावे तो वायुतत्त्व, जेकर नासिका से निकल के सीधी, तिरछी जावे तो पृथ्वी तत्त्व है। जेकर नासिका के दोनों पुटों के अन्दर वहे, बाहर नहीं निकले तो आकाश तत्त्व जानना ।
पहिले पवन तत्व वहता है, पीछे अग्नि तत्त्व वहता है, पीछे जल तत्व वहता है, पीछे पृथ्वी तत्त्व वहता है, पीछे आकाश तत्त्व वहता है, इनका क्रम सदा यही है। दोनों ही नाड़ियों में पांचों तत्व वहते हैं। उसमें पृथ्वी तत्व पचास पल प्रमाण वहता है, जल तत्त्व चालीस पल प्रमाण वहता है, अग्नितत्त्व तीस पल प्रमाण वहता है। वायुतत्त्व तीस पल प्रमाण वहता है, आकाश तत्त्व दश पल प्रमाण वहता है।
पृथ्वी अरु जलतत्त्व में शांति कार्य करना । अग्नि, वायु, तथा आकाश, इन तीन तत्व में दीप्तिमान् अरु स्थिरकार्य करना, तब फलोनति शुभ होते है। तथा जीवने.का प्रश्न
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नवम परिच्छेद पूछना, जय प्रश्न, लाभ प्रश्न, धन उत्पन्न करने का प्रश्न, वर्षने का प्रश्न, पुत्र होने का प्रश्न,
मेघ
युद्ध का प्रश्न, जाने आने का प्रश्न; इतने प्रश्न जेकर पृथ्वी अरु जल तत्व में करे, तो शुभ होवे । जेकर अग्नितत्त्व अरु वायु तत्त्वके वहते हुए ये प्रश्न करे, तो शुभ नहीं । पृथ्वी तत्त्व में प्रश्न करे तो कार्य की सिद्धि स्थिरपने होवे अरु जल तत्त्व में शीघ्र कार्य होवे |
जब पहल पहिले जिनपूजा करे, तथा धन कमाने के वास्ते जावे । पाणिग्रहण - विवाह की वेला, गढ़ लेने की वेला, नदी उतरने की वेला तथा जो गया है सो आवेगा कि नहीं ! ऐसे प्रश्न करती वेला । जीवन के प्रश्न में तथा घर, क्षेत्रादि
लेती बेला, करियाना लेते बेचते, वर्ष के प्रश्न में, नौकरी करने की वेला, खेती करने के वक्त, शत्रु के जीतने में, विद्यारम्भ में, राज्याभिषेक में, इत्यादि वहे, तो कल्याणकारी है ।
शुभ कार्य में चंद्रनाडी
प्रश्न के समय कार्य के आरम्भ में पूर्ण वामी नाडी प्रवेश करती होवे, तो निश्चय कार्य की सिद्धि जाननी इस में संदेह नही । तथा कैद से कब छूटेगा ? रोगी कब अच्छा होवेगा ! अरु जो अपने स्थान से भ्रष्ट हुआ है, तिसके प्रश्न में तथा युद्ध करने के प्रश्न में, बरी को मिलती वक्त, अकस्मात् भय हुआ, स्नान करने लगे, भोजन पानी पीने लगे, सोने लगे, गई वस्तु के खोज करने में, मैथुन करने लगे, विवाद करने में, कष्ट में, इतने कार्यों में सूर्यनाड़ी शुभ है ।
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जैनतत्त्वादर्श कोई एक आचार्य ऐसे भी कहते हैं कि, विद्यारम्भ में, दीक्षा में, शास्त्राभ्यास में, विवाद में, राजा के देखने में, मन्त्र यन्त्र के साधने में सूर्यनाड़ी शुम है। अथवा जो चंद्रादि स्वर निरन्तर चलता होवे, तो तिस पासे का पग उठा के प्रथम चले तो कार्यसिद्धि होवे । ____ पापी जीवों के शत्रुओं के चोर प्रमुख जो क्लेश के करनेवाले हैं, तिन के सन्मुख जो नासिका बन्द होवे, सो पासा इन के सामने करे। जो सुख लाम जयार्थी है, उस में प्रवेश करता हुआ पूरा स्वर, वामा पग शुक्ल पक्ष में, अरु, जमणा पग कृष्ण पक्ष में शय्या से उठते हुए धरती पर रक्खे । इस विधि से श्रावक नींद त्यागे। अरु श्रावक अत्यन्त बहुमानपूर्वक मंगल के वास्ते पंच
परमेष्ठी नमस्कार मन्त्र का स्मरण करे, नमस्कार मन्त्र शय्या में बैठा हुआ तो मन में पंचपरमेष्ठी और जपविधि नमस्कारमन्त्र का स्मरण करे, वचन से उच्चा
रण न करे। जेकर मुख से उच्चारण करे, तो .शय्या. छोड़ कर धरती पर बैठ कर नमस्कारमन्त्र को पढ़े। ऐसे नमस्कार मन्त्र का हृदय में स्मरण करता हुआ शय्या से. उठे, पवित्र भूमि के ऊपर बैठे, तथा पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके खड़ा रह कर चित्त की एकाग्रता के वास्ते कमलबंध कर जपादि से नमस्कार मन्त्र पढ़े। तहां आठ पांखड़ी के कमल की कल्पना करके उस
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नवम परिच्छेद की कर्णिका में अरिहंत पद को स्थापन करे, पूर्व पांखडी में सिद्ध, दक्षिण पांखडी में आचार्य, पश्चिम पांखडी में उपाध्याय, उत्तर पांखडी में साधु पद को स्थापन करे । अरु बाकी चूलिका के जो चार पद हैं, सो अनुक्रम से अग्न्यादि चारों कोनों में स्थापन करे । उक्तं चाष्टमप्रकाशे योगशास्त्रे श्रीहेमचन्द्रसूरिभिः
अष्टपत्रे सितांमोजे, कणिकायां कृतस्थितिम् । आय सप्ताक्षरं मंत्रं, पवित्रं चिंतयेत्ततः ॥१॥ सिद्धादिकचतुष्कं च, दिपत्रेषु यथाक्रमम् । चुलापादचतुष्कं च, विदिक्पत्रेषु चिंतयेत् ॥ २ ॥ त्रिशुद्ध्या चिंतयंस्तस्य, शतमष्टोत्तरं मुनिः ।। भुञ्जानोऽपि लभेतैव, चतुर्थतपसः फलम् ।। ३ ।।
[लो० ३४, ३५, ३६] हाथ के आवर्त से पञ्च मङ्गल मन्त्र का जो नित्य स्मरण करे, उसको पिशाचादिक नहीं छलते हैं। बन्धनादि कष्ट में विपरीत शङ्खावर्चकादि से अक्षरों करके अथवा विपरीत पदों करके जो पञ्चमङ्गल मंत्र का लक्षादि जाप करे, तो शीघ्र क्लेशादिकों का नाश होवे । जेकर हाथ पर जाप न कर सके तो सूत की, रन की, रुद्राक्षादि की माला पर जाप करे । मालावाला हाथ, हृदय के सामने रक्खे, शरीर से तथा
ला
२०
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जैन तत्वादर्श
शरीर के वस्त्रों से तथा भूमिका से माला न लगने देनी । अंगूठे के ऊपर माला रख करके तर्जनी अंगुली से नख बिना लगाये मनका फेरे और मेरु उल्लंघन न करे । शास्त्रकार लिखते हैं कि, जो अंगुली के अग्र से जाप करे, अरु जो मेरु उल्लंघ के जाप करे, तथा जो बिखरे हुए चित से जाप करे, यह तीनों जाप थोड़ा फल देते हैं । जाप करने - वाला बहुतों से एकला अच्छा, शब्द करके जाप करने से मौन करके करे, सो अच्छा है । जेकर जप करते थक जावे, तो ध्यान करे, ध्यान करने से थक जाये, तो जप करे; दोनों से थक जावे, तो स्तोत्र पढ़े ।
P
श्रीपादलिप्त आचार्यकृत प्रतिष्ठाकल्पपद्धति में लिखा है कि, जाप तीन तरे का है— एक मानस, दूसरा उपांशु, तीसरा भाष्य । इन तीन में मानस उसको कहते हैं कि जो मन की विचारणा से होवे, स्वसंवेद्य होवे । अरु उपांशु उसको कहते हैं कि जो दूसरा तो न सुने, परन्तु अन्तर्जल्प रूप होवे । तथा जो दूसरों को सुनाई देवे, सो भाष्य । यह तीनों क्रम करके उत्तम, मध्यम, अरु अधम जान लेने | उसमें मानस से शांति होती है, एतावता शांति के वास्ते मानस जाप करना अरु, पुष्टि के वास्ते उपांशु जाप करना, तथा आकर्षणादिक में भाष्य जाप करना ।
नमस्कार मन्त्र के पांच पद, नवपद, अथवा अनानुपूर्वी को चित्त की एकाग्रता के वास्ते गुणे । तथा इस
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नवम परिच्छेद
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नवकार मन्त्र का एक अक्षर अथवा एक पद भी जपे, तो भी जाप हो सकता है योगशास्त्र के अष्टमप्रकाश में कहा है कि, पञ्चपरमेष्ठी मंत्र के " अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय साहु " इन सोलां अक्षर का जाप करे, तथा " अरिहंत सिद्ध " इन षड् वर्ण का जाप करे, तथा " अरिहंत " इन चार अक्षर का जाप करे, तथा आकार जो वर्ण है, सो भी मन्त्र है; इस के जाप से स्वर्ग मोक्ष का फल होता है । व्यवहार फल ऐसे जानना कि, षड् वर्ण का जाप तीन सौ वार करे, तथा चार वर्ण का जाप चार सौ बार करे, अरु सोलां दो सौ वार करे; तो एक उपवास का फल अकार को ध्यावे,
अक्षर का जाप
होता है ।
तथा
वर्ण को
मुख - कमल में
नाभि कमल में स्थिर मस्तक - कमल में ध्यावे, तथा आकार को घ्यावे । हृदय - कमल में स्थित उकार को ध्यावे, तथा साकार को कण्ठ- पिंजर में ध्यावे । यह सर्व कल्याणकारी जाप है । " यह पांच वीज हैं । इन पांचों वीजों का
“ असि आउ सा ओंकार बनता है ।
अरु सि
"C
तब तो
तथा और वीज मन्त्रों का भी जाप करे, जैसे नमः सिद्धेभ्यः " जेकर इस लोक के फल की ओंकार पूर्वक पढ़ना चाहिये, अरु मोक्ष रहित पढना चाहिये। इस जापादि के होता है । यतः
इच्छा होवे, वास्ते जपे, तो ओंकार करने से बहुत फल
Y
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जैन तत्त्वादर्श
पूजाकोटिसमं स्तोत्रं, स्तोत्रकोटिसमो जपः । जपकोटिसमं ध्यानं, ध्यानकोटिसमो लयः ॥ [ उप० त०, त० ३, श्लो० १६ ] ध्यान की सिद्धि के वास्ते श्रीजिन- जन्म - दीक्षादि कल्याणक भूमिरूप तीर्थ में जावे, अथवा और कोई विविक्त स्थान होवे, तहां ध्यान करे । ध्यान का स्वरूप देखना होवे, तो आवश्यक सूत्रांतर्गत ध्यानशतक में देख लेना । नमस्कार मन्त्र का जो जाप है, सो इस लोक तथा परलोक में बहुत गुणकारी है । महानिशीथ में कहा है: -
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नासेइ चोर सावय विसहर जल जलण बंधण भयाई । चिंतितो रक्खस रण राय भयाई भावेण ||
अर्थ: - चोर, सिंह, सर्प, पानी, अग्नि, बंधन, संग्राम, राजभय, इतने भय पञ्चपरमेष्ठी मन्त्र के स्मरण से नष्ट हो जाते हैं । परन्तु एकाग्रता भाव से जपे, तो यह फल होता है । पञ्चपरमेष्ठी मन्त्र सर्व जगे पढ़ना चाहिये, नमस्कार मन्त्र का एक अक्षर जपे, तो सात सागरोपम का करा हुआ पाप नष्ट होता है । जेकर संपूर्ण पञ्चपरमेष्ठी मन्त्र को जपे, तो पांच सौ सागर का करा हुआ पाप नष्ट हो जाता है । तथा जो पुरुष एक लक्ष वार पञ्चपरमेष्ठी मन्त्र का जाप करे अरु तिस की विधि से पूजा करे, तो तीर्थंकरनामकर्म गोत्र का
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नवम परिच्छेद बंध करे, इस बात में संदेह नहीं । तथा जो जीव आठ कोड़ी, अठ लाख, आठ हज़ार, आठ सौ, आठ वार; इस पंचपरमेष्ठी मन्त्र का जाप करे वो जीव तीसरे भव में सिद्ध हो जाता है। इस वास्ते सोते, उठते प्रथम नमस्कार मन्त्र का.स्मरण करना । तिसके पीछे धर्मजागरणा करनी।। यथा-मै कौन हूं, क्या मेरी जाति है, क्या मेरा कुल
है, कौन मेरा इष्ट देव है, कौन मेरा गुरु है, धर्मजागरणा क्या मेरा धर्म है, क्या मेरे अभिग्रह हैं, क्या
मेरी अवस्था है, क्या मैने सुकृतादि करा है, क्या मैंने दुष्कृतादि नहीं करा है, क्या मैं करने समर्थ हूं, क्या मैं नहीं कर सकता हूं, मुझ को कोई देखता है कि नहीं, अपनी भूल को आत्मा जानता है, फिर क्यों नहीं छोड़ता, तथा आज कौनसी तिथि है, क्या अहंत का कल्याणक दिन है, आज मेरा क्या कृत्य है, मै किस देश में तथा किस काल में हूं! सवेरे उठ के एसे स्मरण करने से जीव सावधान हो जाता है । जो विरुद्ध कृत्य है। उनका परिहार करता है तथा अपने नियम का निर्वाह अरु नवीन गुण की प्राप्ति होती है । इसी धर्मजागरणा से प्रतिबुद्ध होकर आनंद, कामदेवादि श्रावकों ने प्रतिमादि विशेष धर्मकरनी का अनुष्ठान किया है । . तिस पीछे जो श्रावक प्रतिक्रमण करनेवाला होवे, तो
प्रतिक्रमण करे । अरु जो प्रतिक्रमण न करे, स्वप्नविचार सो मी रागादिमय कुस्वप्न प्रद्वेषादिमय
अनिष्ट फल का सूचक, तिसके दूर करने
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जैनतत्वादर्श के वास्ते, तथा स्वप्न में स्त्री से प्रसंगादि करने के खोटे स्वप्न का उपलंभ हुमा होवे, तब एक सौ आठ उच्यास प्रमाण कायोत्सर्ग करे, अन्यथा सौ उच्छास प्रमाण कायोत्सर्ग करे । चार लोगस्स का काउस्सग्ग करे । यह कथन व्यवहार भाष्य में है । तथा *विवेकविलासादि ग्रन्थों में तो ऐसे लिखा है कि, स्वप्न देखने के पीछे फिर नहीं सोना, अरु स्वप्न को दिन में सद्गुरु के आगे कहना, जेकर खोटा स्वम आवे तो फिर सोना ठीक है, किसी के आगे कहना न चाहिये। तथा समधातुवाला, प्रशांतचित्तवाला, धर्मी और नीरोगी, जितेंद्रिय, इन को जो शुभाशुभ स्वम आवे, सो सत्य ही होता है । स्वम जो आता है, सो नव कारणों से आता है। सो नव कारण कहते हैं।
१. अनुभव करी हुई वस्तु का स्वप्न आता है, २. सुनी हुई बात का, ३. देखा हुआ, ४, प्रकृति-बात, पित्त अरु कफ के विकार से, ५. चिंतित वस्तु का, ६. सहज स्वभाव से, ७. देवता के उपदेश से, ८. पुण्य के प्रभाव से, ९. पाप
* सुस्वप्न प्रेक्ष्य न स्वप्यं, कथ्यमहि च सद्गुरो ।
दुःस्वनं पुनरालोक्य, कार्यः प्रोकविपर्ययः ॥' समधातोः प्रशान्तस्य, धार्मिकस्यापि नीरुजः । स्यातां पुंसो मिताक्षस्य, स्वप्नी सत्यौ शुभाशुभौ ।
[१ उल्लास ली. १४, १५]
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नवम परिच्छेद के प्रभाव से । इन में आदि के छ कारणों से जो स्वम आवे, सो निरर्थक है, अरु अगले तीन कारणों से जो स्वप्न आके तो सत्य होता है। ___रात्रि के पहिले पहर में स्वप्न आवे, तो एक वर्ष में फल देवे, अरु दूसरे पहर में स्वप्न आवे, तो छ महीने में फल देवे, तीसरे पहरमें स्वप्न आवे, वो तीसरे महिने में फल देवे, चौथे पहर में स्वप्न आवे, तो एक मास में फल देवे, सवेरो दो घड़ी रात्रि में स्वप्न आवे, तो दस दिन में फल देवे, सूर्योदय में स्वप्न आवे, तो तत्काल फल देवे।।
१. जो स्वप्न में बहुत आल जंजाल देखे, २. जो रोगोदय से स्वप्न आवे, तथा ३. जो मलमूत्र की वाधा से स्वप्न आवे, यह तीनों स्वप्न निरर्थक हैं। जेकर पहिले अशुम स्वप्न आवे, अरु पीछे से शुभ स्वप्न आवे, तो शुभ फल देवे । तथा पहिले शुभ स्वप्न आवे, पीछे अशुम आवे, तो अशुभ फल देवे । जेकर खोटा स्वप्न आवे, तो शांति अर्थात् देवपूजा दानादि करना । तथा स्वप्नचिंतामणि नामक ग्रन्थ में भी लिखा है कि, अनिष्ट स्वप्न देख कर सो जावे, अरु किसी को कहे नही; तो फिर वो स्वप्न, फल नहीं देता है। सोते उठ कर जिनेश्वरदेव की प्रतिमा को नमस्कार करके जिनेश्वर का ध्यान करे, स्तुति करे, स्मरण करे, पंचपरमेष्ठी मन्त्र पढ़े तो खोटा स्वप्न वितथ हो जाता है। अरु जो पुरुष देव, गुरु की पूजा करते हैं, तथा निजशक्ति के अनुसार
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जैनतत्त्वादर्श तप करते हैं, निरन्तर धर्म के रागी हैं, तिनों को खोटा स्वप्न भी अच्छा फल देता है । तथा जो पुरुष, देवगुरु का स्मरण करके अरु शत्रुजय, समेतशिखर प्रमुख शुभ तीर्थों का नाम, तथा गौतमस्वामी, सुधर्मस्वामी प्रमुख आचार्यों का नाम स्मरण करके सोवे, उसको कदापि खोटा स्वप्न नहीं होता है।
थूकना होवे, तो राख में थूकना चाहिये, शरीर को दृढ कर के वास्ते हाथों करके वज्रीकरण करे, अग्नितत्त्व, अरु पवनतत्व, जब वहता होवे, तब घाप करके आकंठ-कंठ ताई दूध पीवे। कईएक आचार्य कहते हैं कि आठ पसली पानी की पीवे, इस का नाम वज्रीकरण है । तथा सवेरे उठ कर माता, पिता, पितामह, बड़ा भाई प्रमुख को नमस्कार करे, तो तीर्थयात्रा के समान फल होता है। इस वास्ते यह प्रतिदिन करनी चाहिये । तथा जिसने वृद्धों की सेवा नहीं करी है, उसको धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। वृद्ध उसको कहते हैं कि जो शील में, सन्तोष में, तथा ज्ञान, ध्यानादिक में बड़े होवें । तिनकी सेवा अवश्य करनी चाहिये । तथा जिसने राजा की सेवा नहीं करी है, अरु जिसने उत्पन्न होते हुए अपने शत्रु को बन्द नहीं करा, तिस पुरुष से धर्म अर्थ अरु सुख दूर है।
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नवम परिच्छेद
१७३ श्रावक को सवेरे उठ करके चौदह नियमों को धारण
करना चाहिये। तिन का स्वरूप ऊपर लिख व्रतमंग का विचार आये हैं। तथा विवेकी पुरुष प्रथम सम्यक्त्व
पूर्वक द्वादश व्रत, विधिपूर्वक गुरु के मुख से धारण करे । अरु विरति जो पलती है, सो अभ्यास से पलती है। इस वास्ते धर्म का अभ्यास करना चाहिये। बिना अभ्यास के कोई क्रिया भी अच्छी तरे नहीं करी जाती है । ध्यान मौनादि सर्व अभ्यास करने से दुःसाध्य नहीं। जो जीव इस जन्म में अच्छा वा बुरा जैसा अभ्यास करता है, सोई प्रायः अगले जन्म में पाता है। तथा पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी आदि के दिन में तप आदि नियम जो जो धर्मी पुरुषने अंगीकार किया है, उस में तिथ्यंतर की प्रांत्यादि करके जो सचित्त जलादि पान, तंवोल-भक्षण, कितनाक भोजन भी कर लिया है, पीछे से ज्ञान हुआ कि आज तो तप का दिन था ! तव जो कुछ मुख में होवे, उसको राखादिक में गेर देवे, और प्राशुक पानी से मुखशुद्धि कर तप करे हुए की तरे रहे, तो नियम, भंग नहीं होता है। अरू नेकर संपूर्ण भोजन करा पीछे जान पड़े कि आज तप का दिन है, तव अगले दिन दंड के निमित्त वह तप करे । समाप्ति होने पर पोरिसी, एकाशनादि तप अधिक करे । अरु जेकर तप का दिन जान कर एक दाना मी खावे, तो व्रतमंग हो जाता है। जो व्रत का मंग जान करके करना है, 'सो नर
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१७४
जैनतत्वादर्श कादिक का हेतु है। तथा जेकर तप करे पीछे गाढ़ा मांदा हो जावे, अथवा मूतादि दोष से परवश हो जावे, अथवा सादिक काटे, ऐसी असमाधि में तप करने में समर्थ न होवे, तो भी चार आगार उच्चारण करने से व्रतभंग नहीं होता है। ऐसे सर्व नियमों में जान लेना । उक्तं चः
वयभंगे गुरुदोसो, थोवस्सवि पालणा गुणकरी य । गुरु लाघवं च नेयं, धम्मम्मि अओ अ आगारा ॥
[पंचाशक ५-६५] अर्थ-व्रत भंग करने से महा दूषण होता है, अरु जो पालन करे, तो थोड़ा व्रत भी गुणकारी है, इस वास्ते गुरु लघु जान कर ही धर्म में भगवान् ने आगार कहे हैं।
अब नियम ग्रहण करने की रीति कहते हैं । प्रथम तो मिथ्यात्व त्यागने योग्य है। तिस पीछे नित्य यथाशक्ति एक, दो, तीन वार जिनपूजा, जिनदर्शन, सम्पूर्ण देववंदन, चैत्यवंदन करे । ऐसे ही गुरु का योग मिले तो दीर्घ अथवा लघु वंदन करे । जेकर गुरु हाज़िर न होवे, तब धर्माचार्य का नाम लेके वंदना करे। तथा नित्य वर्षा ऋतु में-चौमासे में पांच पर्व के दिन अष्टप्रकरी पूजा करे। जहां लग जीवे, वहां लग नवा अन्न, नवा फल, पक्वान्नादिक देव को चढाये विना खावे नहीं। नित्य नैवेध, सोपारी, बदामादि देव के आगे चढ़ावे। तथा तीन चौमासे-संवत्सरी, दीवाली प्रमुख
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नवम परिच्छेद
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१७५ में चावलों के अष्ट मंगल भर के ढोवे । नित्य अथवा पर्व के दिन तथा वर्ष में खादिम, स्वादिम आदि सर्व वस्तु देव, गुरु को दे कर भोजन करे । प्रतिमास, प्रतिवर्ष, महाध्वजादि को उत्सव आडंबर से चढ़ावे । स्नात्रमहोत्सव अष्टोत्तरी पूजा, रात्रिजागरण करे । नित्य चौमासे आदिक में कितनीक वार जिनमन्दिर, धर्मशाला प्रमार्जन करे, देहरा समरावे, पौषधशाला लीपे । प्रतिवर्ष प्रतिमास जिनमन्दिर में अंगलहना तथा दीपक के वास्ते पूनी देवे, दीवे के वास्ते तेल देवे, चन्दनखण्डादि मन्दिर में देवे । पौषधशाला में मुखबखिका, जपमाला पूंछना, चरवला, कितनेक वस्त्र, सूत, कंबली, ऊनादि देवे। वर्ष में श्रावकों के बैठने के वास्ते कितनेक पाट, चौकी प्रमुख देवे । जेकर निर्धन होवे, तो भी वर्ष दिन पीछे सूत डोरा, अट्टी प्रमुख दे कर संघपूजा करे। कितनेक साधर्मियों को शक्ति के अनुसार भोजन दे के साधर्मिवात्सल्यादि करे । दररोज कितनेक कायोत्सर्ग करे । स्वाध्याय करे । नित्य जघन्य नमस्कार सहित प्रत्याख्यान करे । रात्रि में दिवसचरम प्रत्याख्यान करे, दोनों वक्त प्रतिक्रमण करे । यह करनी प्रथम कर लेवे, तो पीछे से बारां व्रत स्वीकार करे । तिन व्रतों में सातमे व्रत में सचिव, अचित अरु मिश्र वस्तु का स्वरूप अच्छी तरें जानना चाहिये ।
जैसे प्रायः सर्व धान्य, अन्न, अरु धनिया, जीरा, अजवा
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जैनतस्वादर्श
दातन,
तथा पानी में
यन, सौंफ, सोभा, राई, खसखस प्रमुख चित्त और सर्व कण, सर्व पत्र, सर्व हरे फल, तथा अचित्त वस्तु लूण, खारी, खारक अर्थात् छुहारे, रक्तलाल रंग का सेंघा लूण, खान का सौंचल लूण, खारा, मट्टी, खरी, हिरमची, हरी इत्यादि, ये सर्व व्यवहार से सचित्त-सजीव हैं । भिंजोये हुए चने, गेहूं आदि अन्न, तथा चने, तुअर प्रमुख की दाल, जिस में नक्कू रह गया मिश्र हैं । तथा पहिले लूण लगाये विना, अग्नि की बाष्पादि दिये बिना और तप्त बालु - रेत के गेरे विना चने, गेहूं, जुवारादि मूंजे, तथा खारादि दिये बिना मसले हुये तिल, होलां, ऊंबियां, सिट्टे, पहुंक, ईषत् सेकी फली; मिरच, राई, हींग प्रमुख करके वधारे चिर्मटादि फल तथा जिसके अन्दर बीज सचित हैं, ऐसे पके हुये सर्व फल; यह तिलवट - तिलकूट जिस दिन करे उस दिन
मूंग, उड़द, होवे, ये सर्व
सब मिश्र हैं । तथा
मिश्र है । अरु
तो एक मुहूर्च
देशों में बहुत
जेकर तिलों में अन्न - रोटी प्रमुख गेरके कूटे, पीछे अचित्त होवे । तथा दक्षिण मालवादि गुड़ प्रक्षेप करने से उसी दिन अचित हो जाते हैं । तथा वृक्ष से तत्काल का उखड़ा हुआ गूंद, लाख, छिल्लक, तत्काल का फोड़ा हुआ नारियल तथा निंबू, दाडिम, अनार, अंब, नींब, ईख, इन का तत्काल का काढ़ा हुआ रस, तथा तत्काल का काढ़ा हुआ तिलादि का तेल, तत्काल का भांग्या हुआ बीज,
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नवम परिच्छेद
१७७ तथा काटे हुए लर, सिंघाड़े, सोपारी आदि, तथा बीज रहित किया हुआ पक्क फल खरबूजादि, गाढ़ मर्दन से कणरहित किया हुआ जीरादि, ये सर्व अंतर्मुहर्त लग मित्र हैं। पीछे प्राशुक का व्यवहार है। तथा और भी प्रबल अग्नि के योग विना प्राशुक करे हुए अंतर्मुहूर्त तक मिश्र हैं, पीछे प्राशुक का व्यवहार है। तथा अप्राशुक पानी, कच्चा फल, कच्चा अन्न, इनको लेकर बहुत मर्दन भी करें, तो भी लवण अग्न्यादिक प्रबल शस्त्र बिना ये प्राशुक नहीं होते हैं। क्योंकि श्रीपञ्चमांग भगवती सूत्र के उन्नीसमे शतक के तीसरे उद्देश में लिखा है कि, वज्रमयी शिला पर वज्रमयी लोढ़ा से आमले प्रमाण पृथ्वीकाय लेकर इक्कीस बार पीसे, तब कितनेक पृथ्वी के जीवों को लोढे का स्पर्श भी नहीं हुआ है. ऐसी उन नीवों की सूक्ष्मकाया है। तथा सौ योजन से उपरांत आये हुए हरड़ां, खारक, किसमिस, लाल द्राक्षा, मेवा, खजूर, काली मिरच, पीपर, जायफल, बदाम, अखरोट, न्योजा, जरगोजा, पिस्ता, सीतलचीनी, स्फटिक समान उज्ज्वल संघालण, सज्जी, भट्ठी में पकाया हुआ लूण, वनावट का खार, कुंभार की कमाई हुई मट्टी, इलायची, लवंग, जावत्री, सूखी मोथ, कोकण देश प्रमुख के केले, कदलीफल, उबाले हुए संघाड़े, सोपारी-इन सर्व का प्राशुक व्यवहार है । साधु भी कारण पडे तो ले लेवे। यह बात कल्पभाष्य में भी लिखी है। यथा
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१७८
जैनतस्वादर्श
जोयणसयं तु गंतुं, अणहारेण तु मंडसंकंती | वायागणिधूमेण य, विद्वत्थं होइ लोणाई ||
इनमें से हरड, पीपल प्रमुख तो आचीर्ण हैं, इस वास्ते लेते हैं, अरु खर्जूर, द्राक्ष प्रमुख अनाचीर्ण हैं । तथा उत्पलकमल, पद्मकमल, धूप में रक्खे हुए एक पहर के अभ्यंतर ही अचित हो जाते हैं । तथा मोगरे के फूल, जुहि के फूल, यह धूप में बहुत चिर भी पड़े रहें, तो भी अचित्त नहीं होते हैं । तथा मगदंति का पुष्प अर्थात् मोगरे के फूल पानी में गेरे रहें, तो एक पहर के अन्दर ही अचित्त हो जाते हैं । तथा उत्पल - नीलकमल अरु पद्मकमल, ये दोनों गेरे रखने से बहुत काल में अचित नहीं होते हैं योनिकत्वात् " । तथा पत्रों फूलों का, जिन अमी तक गुठली बनी नहीं है, हरित वनस्पति का, इन सब का जावे, तब ये जीव रहित हुए जानने । यह कथन श्रीकल्पभाष्यवृत्ति में है
पानी में
।
" शीत
का,
फलों में
तिन का तथा बथुआ प्रमुख
वृन्त - डण्डी ही कुमलाय
।
तथा श्रीपञ्चमांग के छुट्टे शतक के पांचमे उद्देश में सचिवाचित वस्तु का स्वरूप ऐसा लिखा सचित्ताचित्त की है - शालि, त्रीहि, गेहूं, जव, जवजव; ये कालमर्यादा पांच धान्य की जाति कोठार में, तथा ठेके पाले में तथा मंचा, माला, कोठार विशेषों में
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नवम परिच्छेद
१७९ मुख ढांक के रक्खे, लीपा होवे, तथा चारों तर्फ से लीपा होवे, ऊपर कोई और ढकना दिया होवे, मुद्रित, लांछित करके रक्खे, तो कितने काल ताई जीवयोनि रहे! ऐसा प्रश्न पूछने से भगवान् कहते हैं कि, हे गौतम ! जघन्य तो अन्तर्मुहूर्ण रहे, अरु उत्कृष्ट तो तीन वर्ष रहे, फिर अचित्त हो जावे। तथा मटर, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, वाल, कुलथी, चवला, तुअर, गोल चणे, इत्यादि धान्य सर्व ऊपरवत् जानना । अनवरं उत्कृष्ट से पांच वर्ष उपरांत अचित्त होते हैं। तथा अलसी, कुसुमे की करड, कोदु, कंगुनी, चटरी, राल, कोरड्सक, सण, सरसों, मूली के वीज, इत्यादि धान्य भी ऊपरवत् , नवरं उत्कृष्ट से सात वर्ष उपरांत अचित्त हो जाते हैं। तथा कर्पास के विनौले, उत्कृष्ट तीन वर्ष से उपरांत अचित्त-जीव रहित हो जाते हैं। यह कथन भी कल्पमाण्यवृत्ति में है। तथा बिना छना आटा श्रावण भादों के महीने में पांच दिन तक मिश्र रहता है, पीछे अचित्त होता है। आसोज, कार्तिक मास में चार दिन तक मिश्र रहता है, पीछे अचित्त हो जाता है। मगसिर, पौष मास में तीन दिन मिश्र रहता है, पीछे अचित्त होता है। माघ, फाल्गुन मास में पांच पहर मित्र रहता है । चैत्र, वैशाख मास में चार पहर मिश्र रहता है। तथा ज्येष्ठ आषाढ़ में तीन पहर मिश्र रहता है, उपरांत अचित्त
* विशेष-अर्थात् प्रथम से इस में इतना विशेष है ।
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१८०
जैनतत्त्वादर्श हो जाता है। जेकर तत्काल छान लेवे, तब अन्तर्मुहर्त लग मिश्र रहे, पीछे अचित्त होवे ।
शिष्य प्रश्न करता है कि, पीसा हुआ आटा कितने दिन का अचित्तभोजी श्रावक को खाना चाहिये ?
उत्तर-सिद्धांत में हम ने आटे की मर्यादा का नियम नहीं देखा है, परन्तु बुद्धिमान् नवा, जीर्ण अन्न, तथा सरस नीरस क्षेत्र, तथा वर्षा, शीत, उष्णादि ऋतु, तिन में तिस आटे का पन्दरा दिन मासादि काल में वर्ण, गन्ध, रस, स्पहदि बिगड़ा देखे, तथा सुरसली प्रमुख जीव पड़ा देखे, तब न खावे, जेकर खावे, तो जीवहिंसा अरु रोगोत्पत्ति का कारण है।
तथा मिठाई की मर्यादा, अरु विदल का निषेध, ऊपर सातमे व्रत में लिख आये हैं, वहां से जान लेना। तथा दही में सोलां पहर उपरांत जीव उत्पन्न होते हैं। तथा विवेकी जीव को बैगन, टीबरु, जामन, बिल्ब, पीलं, पक्क करमद, पका गूंदा, लसूड़ा, पेंचु, मधुक-महुवा, मोर, वालोल, बडे बोर, झाड़ी के बोर, कच्चा कौठफल, खसखस, तिल, इत्यादि न खाने चाहिये। इनमें त्रस जीव होते हैं। तथा जो फल रक्त-लालरंग देखने में बुरा लगे, पक, गोल, ककोड़ा, फणस, कटेल प्रमुख भी बुरी भावना के हेतु होने से न खाने चाहिये। तथा जो फल जिस देश में खाना विरुद्ध होवे, जैसे कड़वा तूंबा, कूष्मांड अर्थात् कोहडा-हलवा कदु, सो भी न खाना
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नवम परिच्छेद
१८१ चाहिये। अरु अभक्ष्य, अनन्तकाय, कंदमूल, परपर के अचित्त करे, रांधे हुये भी न खाने चाहियें; क्योंकि एक तो निःशूकता अरु दूसरी रसलंपटता तथा वृद्धयादि दोष का प्रसंग होता है, इस वास्ते न खाना चाहिये। तथा उकाला हुआ सेलरा, रांधा हुआ आदि कंद, सूरण, वैग. नादि, यद्यपि अचित है, तो भी श्रावक, प्रसंग दूषण त्यागने के वास्ते न खावे । तथा मूली तो पंचांग ही खाने योग्य नही, निषिद्धत्वात् '-निषिद्ध होने से । तथा सोंठ, हलदी, नाम अरु स्वाद के मेद होने से अभक्ष्य नहीं हैं । तथा उप्ण जल, तीन उबाले आ जायें, तब अचित होता है, यह कथन पिंडनियुक्ति में है। चावलों के धोवन का पानी जब नितर के निर्मल हो जावे, तब अचित्त होता है । तथा उप्ण जल की मर्यादा प्रवचनसारोद्धारादि ग्रन्थों में ऐसे लिखी है-त्रिदण्डोद्धृत उष्ण जल, उष्णकाल के चारों मास में पाच पहर अचित्त रहता है। यह चूरहे से उतारे पीछे की मर्यादा है। तथा वर्षा के चारों मास में तीन पहर अचित्त अरु शीत काल के चारों मास में चार पहर अचित्त रहता है। पीछे सचित्त होता है । जेकर ग्लान, बाल, वृद्धादि साधु के वास्ते मर्यादा उपरांत रखना होवे, तब क्षारादि वस्तु का प्रक्षेप करके रखना। फिर सचित्त नहीं होता है। यह कथन प्रवचनसारोद्धार के १३६ द्वार में है। तथा कोकड मोठ, मूंग अरु हरडादिक की मीजी-मिटक यह यद्यपि अचेतन हैं,
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जैनतत्वादर्श तो भी योनि रखने के वास्ते तथा निःशूकतादि के परिहार के वास्ते दांतों से तोड़ना-मांगना न चाहिये । इत्यादि सचित्त वस्तु का स्वरूप जान कर सातमा व्रत अंगीकार करना चाहिये। श्रावक को प्रथम तो निरवद्य-दूषण रहित आहार खाना
___चाहिये। ऐसे न कर सके तो सर्व सचित्त प्रत्याख्यान खाने का त्याग करे । ऐसे भी न कर सके तो विधि बावीस अभक्ष्य अरु बत्तीस अनंतकाय तो
अवश्यमेव त्यागने चाहिये, तथा चौदह नियम धारने चाहिये। ऐसे सोता उठ कर यथाशक्ति नियम ग्रहण करे। पीछे यथाशक्ति प्रत्याख्यान करे । नमस्कार सहित पौरुष्यादि प्रत्याख्यान काल जो है, सो जेकर सूर्य उगने से पहिले उच्चारण करिये, तब तो शुद्ध है, अन्यथा शुद्ध नहीं । अरु शेष प्रत्याख्यान सूर्योदय से पीछे भी हो सकते हैं। तथा यह नमस्कार सहित प्रत्याख्यान जेकर सूर्योदय से पहिले उच्चारण करा हुआ होवे, तब तिसको पूर्व होने से तिसके बीच ही पौरुषी साढ़पौरुण्यादि काल प्रत्याख्यान हो सकता है। जेकर नमस्कार सहित सूर्योदय से पहिले उच्चारण न करिये, तब तो कोई भी काल प्रत्याख्यान करना शुद्ध नहीं। अरु जेकर प्रथम नमस्कारादि प्रत्याख्यान मुष्टिसहितादि करे, तब सर्व काल प्रत्याख्यान करे, तो शुद्ध है।
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नवम परिच्छेद
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तथा रात्रि में चौविहार करे अरु दिन में एकासना करे, पीछे ग्रंथि सहित प्रत्याख्यान करे, तब तिसको प्रतिमास उनतीस उपवास का फल होता है। दो वार भोजन उक्त रीति से करे, तो अठावीस उपवास का फल होता है । क्योंकि दो घड़ी का काल भोजन करते लगता है, शेष काल तप में व्यतीत हुआ । यह कथन पद्मचरित्र में है । प्रत्याख्यान उपयोगपूर्वक पूरा हो जावे तब पारे ।
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चार प्रकार के आहार का विभाग ऐसे है। एक तो अन्न, पक्कान्न, मण्डक, सत्तू आदि जो क्षुधा दूर करने को समर्थ होवे, सो प्रथम अशन नामक आहार है । दूसरा छाछ का पानी, तथा उष्ण जलादि, यह सर्व पानक नामक आहार है । तीसरा फल, फूल, इक्षुरस पहुंक, सूखडी आदिक, यह सर्व खादिम नामक आहार है । चौथा सूंठ, हरडे, पिप्पली, काली मिरच, जीरा, अजमक, जायफल, जावत्री, असेलक, कत्था, खैरवड़ी, मधुयष्टि-मुलठी, तज, तमालपत्र, एलायची, कुठ, विडंग, बिडलवण, अजमोद, कुलंजण, पिप्पलामूल, कबाबचीनी, कचूर, मुस्ता, कर्पूर, सौंचल, हरड़, बहेड़ा, बंबूल, धव, खदिर, खेज की छाल, पान, सौपारी, हिंगुलाटक, हिंगु, त्रैवीसओ पंचल, पुष्करमूल, जवासामूल, बाबची, तुलसी, कपूरिकंदादिक जीरा; यह सर्व भाष्य अरु प्रवचनसारोद्धारादिक ग्रंथो के लेख से स्वादिम नामक आहार
चार प्रकार
का आहार
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जैनतत्त्वादर्श है। अरु कल्प वृत्ति में इनको खादिम लिखा है। कोई एक अजवायन को भी खादिम कहते हैं। यह मतांतर है। यह सर्व स्वादिम नामक आहार है। तथा एलायची, कर्पूरादि वासित जल द्विविध आहार प्रत्याख्यान में पीना कल्पता है। तथा वेसण, सौंक, सोय, कोठवड़ी, आमलागांठ, अंच की गुठली, निंबू के पत्र प्रमुख खादिम होने से द्विविध आहार प्रत्याख्यान में नहीं कल्पते है। त्रिविध आहार प्रत्याख्यान में तो जल ही पीना कल्पता है । तिसमें भी फूंकारा हुआ पानी, साकर, कपूर, एलायची, कत्था, खदिर, चूर्णक, सेलक, पाड़लादि वासित जल, जेकर नितार अरु छान के लेवे तो कल्पे, अन्यथा नहीं।
तथा शास्त्रों में मधु, गुड़, साकर, खांड आदि भी स्वादिम कहे हैं । अरु द्राक्षा, शर्करादि, जल, तक्र-छाछादि को पानक कहा है। तो भी द्विविध आहार प्रत्याख्यान में नहीं कल्पते है । नागपुरीय गच्छ प्रत्याख्यानभाज्य में कहा है
दस्खा पाणाईयं, पाणं तह साइमं गुडाईयं । पढियं सुयंमि तहवि हु, तितो जणगंति नायरि।।
स्त्री के साथ भोग करने से चौविहार भंग नहीं होता है, परन्तु वालक तथा स्त्री के होठ मुल में लेकर चर्वण करे, तो भा होवे। अरु द्विविध आहार प्रत्याख्यान में यह भी करे तो भंग नहीं होता । प्रत्याख्यान जो है सो कवल आहार
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का है, परन्तु रोम करने से भंग नहीं
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आहार का नहीं है । इस वास्ते लेपादि
तथा निम्नलिखित इतनी वस्तु किसी आहार में भी नहीं हैं- पंचांग नींव, गोमूत्र, गिलोय, कडु, चिरायता, अतिविष, कुडे की छाल, चीड, चंदन, राख, हरिद्रा, रोहणी, ऊपलोट, वच, त्रिफला, ववूल की छिलक, घमासा, नाहि, असगंध, रंगणी, एलुवा, गुगल, हरडां, दाल, कर्पास की जड़, वेरी, कन्धेरी, करीर, इनकी जड़, पुंआड, वोढथोहर, आछी, मंजीठ, वोड, बीजकाष्ठ, कुआर, चित्रक, कुंदरु प्रमुख जो वस्तु खाने में अनिष्ट लगे, वो सर्व अनाहार है । यह अनाहार वस्तु रोगादि कष्ट में चौविहार प्रत्याख्यान में भी खा लेवे, तो भंग नहीं । इस तरह आहार के भेद जान के प्रत्याख्यान करे ।
पीछे मलोत्सर्ग, दंतधावन, जिह्वालेखन, कुरला करना, यह सर्व देश स्नान करके पवित्र होवे, यह मलोत्सर्गविवि कहना अनुवाद रूप है । क्योंकि यह पूर्वोक कर्म सवेरे उठ के प्रायः सर्व गृहस्थ करते हैं । इस में शास्त्रोपदेश की अपेक्षा नहीं, स्वतः ही सिद्ध है । परन्तु इनकी विधि शास्त्र कहता है । उसमें प्रथम मलोत्सर्ग की विधि यह है कि, मलोत्सर्ग मौनसे करना चाहिए, और निर्दूपण - योग्य स्थान में करे । यतः
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जैन तत्त्वा दर्श
सूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजने । संध्यादिकर्म पूजा च कुर्याजापं च मौनवान् ॥
अर्थः- मूतना, दिशा फिरना, मैथुन करना, स्नान, भोजन, संध्यादि कर्म, पूजा, जाप, यह सर्व मौनपने करने । तथा दोनों संध्या वस्त्र पहिर के करे । तथा दिन में उत्तर के सम्मुख हो करके, अरु रात्रि को दक्षिण दिशा के सन्मुख हो करके लघुशंका उच्चार करे । तथा सर्व नक्षत्रों का तेज सूर्य करके जब भ्रष्ट हो जावे, नहां तक सूर्य का आधा मांडला उगे, तहां तक सवेरे की संध्या करनी । तथा सूर्य आघा अस्त होवे, उसके पीछे दो तीन नक्षत्र जहां तक नजर न पड़े, तहां तक सायंकाल कहते हैं। तथा राख का ढेर, गोवर का ढेर, गौ के बैठने के स्थान में, सर्प की बंवी पर तथा जहां बहुत लोग पुरीषोत्सर्गं करते होवें, तथा उत्तम वृक्ष के हेठ, रस्ते के वृक्ष के हेठ, रस्ते में, सूर्य के सन्मुख, पानी की जगह में, मसानों में, नदी के कांठे पर, तथा
जिस जगह को स्त्री पूजती होवे, इत्यादि स्थानों में मलोत्सर्ग न करे । परन्तु जहां बैठने से कोई मारपीट न करे, पकड़ के न ले जावे, धर्म की निंदा न होवे, तथा जहां बैठने से गिरे, फिसले नहीं, पोली भूमि न होवे, घासादि न होवे, त्रस जीव वीज न होवे, इत्यादि उचित स्थान में मलोत्सर्ग करे । गाम के तथा किसी के घर समीप मलो
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नवम परिच्छेद त्सर्ग न करे । तथा जिस तरफ से पवन आती होवे, तथा गाम, सूर्य, पूर्व दिशा की तरफ पीठ करके मलोत्सर्ग न करे। दिशा अरु मूत्र का वेग रोकना नहीं, क्योंकि मूत्र के वेग रोकने से नेत्रों में हानि होती है। तथा दिशा का वेग रोकने से काल हो जाता है । तथा वमन रोकने से कुष्ट रोग हो जाता है । जेकर ये तीनों बातें न होवेंगी तो रोग तो ज़रूर हो जावेगा । श्लेष्मादि करके ऊपर धूलि गेर देवे। क्योंकि श्रीप्रज्ञापनोपांग के प्रथम पद में लिखा है कि, चौदह जगे में संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। सो चौदह स्थानक कहते हैं
१. पुरीप में, २. मूत्र में, ३. मुखके थूक में, ४. नाक के मैल में, ५. वमन में, ६. पित्तों में, ७. वीर्य में, ८. वीर्य रुधिर दोनों में, ९. राध में, १० वीर्य का पुद्गल अलग निकल पड़े, उसमें ११. जीव रहित कलेवर में, १२. स्त्री पुरुष के संयोग में, १३. नगरी की मोरी में, १४. सर्व अशुचि स्थान में, कान की मैल में, आंख की गोद में, कांख की मैल प्रमुख में, यह सर्व चौदह बोल मनुष्य के संसर्गवाले ग्रहण करने । अरु जब ये शरीर से अलग होवें, तब इनमें जीव उत्पन्न होते हैं।
तथा दातन भी निरवद्य स्थान में करे। दातन अचिर
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जैनतत्त्वादर्श जाने हुए वृक्ष की झोनल करे। तथ दांतों तवन निको हड़ करने के वास्ते तर्जनी अंगुली ते
दांजे की बीड क्ति । जो दांतों की नैल पड़े उसके जर लिगेर देवे । तया दतन नी जैसी करे ! जो द्वारन सी हो, बीच में गांठ न होवे, कूर्च अच्छा होते. आगे से पचली होवे. चेंटी अंगुली सनान मोटी होवे, सुनूनि ची उसन्न हुई हो. ऐसी दातन कनिष्ठा, अनानिका के लेकर करे । पहिले दाहिनी दाद घिसे, फिर वानी हिसे : उन्ोगवंत स्वत्य दांत अरु मंड के नांस को पीज न दे। उत्तर नया पूर्व सन्मुल हो करके निश्चलासन, नौन युक्त हो कर बन करे। दुर्गव. पोली, सूखी. उट्टी, तारी वन्तु से दां- सोन विते, त्या व्यतिरात, रविवार, संक्रांति के दिन, महम लोन. नग्नी, भष्टनी. पड़वा. चौदस, पूर्णनाती. स्नाइस, इन दिनों में दातन न करे। जेजर दातन न निले, तब जुत्तशुद्धि के वास्ते वासं कुरले करे। अरु जिला उल्लेखन तो सबा करे। दातन की फांक से जिहा क नल हलने हवे सर्व उतार के शुचित्त्थान ने दातन धो करके अपने नुख के तानने गरे । त्या सांसी, श्वास, तर, मार्ग, शोक, मावाला, सुख पके वाला, नत्तक, नेत्र, हृदय, कान, इनके रोगवाल दातन न करे।
नस्तक के केशों को सदा तनारे, जिससे कि जून पड़े। जेकर तिलक करके जारीला देखे, उस ने नुल नहीं
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नवमं परिच्छेद
१८९ दीखे, सिर नहीं दीखे, तो पांच दिन के अन्दर उसका मरना जानना । अरु जिस ने उपवास पौरुष्यादिक प्रत्याख्यान करा होवे, वो दांत धोये बिना भी शुद्ध है, क्योंकि तप का बड़ा फल है । लौकिक शास्त्रों में भी उपवासादि करे, तो दातन बिना ही देवपूजा करते हैं । इस वास्ते लौकिक शास्त्रों में भी उपवासादि में दातन करने का निषेध है । यदुक्तं विष्णुभक्तिचंद्रोदयमंथे
प्रतिपद्दर्शपष्ठी, मध्याह्ने नवमीतिथौ ।
संक्रांतिदिवसे प्राप्ते, न कुर्यादंतधावनम् ॥ १ ॥
उपवासे तथा श्राद्धे, न कुर्यात् दंतधावनम् । दंतानां काष्ठसंयोगो, हंति सप्त कुलानि वै ॥ २ ॥
तथा जब स्नान करे, तब उत्तिग, पनक, कुंथु आदि नीवों से रहित भूमि में करे। सो भूमि ऊंची, नीची. पोली न होवे । प्रथम तो उष्ण प्राशुक जल से स्नान करे; जेकर उष्ण जल न मिले, तब वस्त्र से छान करके प्रमाण संयुक्त शीतल जल से स्नान करे । तथा व्यवहार शास्त्र में ऐसा लिखा है कि, नग्न हो कर तथा रोगी तथा परदेश से आया हुआ, भोजन करे, पीछे आभूषण पहिर के, किसी को विदा करके पीछे आ करके, मंगल कार्य करके स्नान न करे । तथा अनजाने पानी में, दुष्प्रवेश जल में, मैले जल में, वृक्षों करके
स्नानविधि
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जैनतत्त्वादर्श आच्छादित जल में, शैवल करके आच्छादित जल में स्नान न करे, तथा शीतल जल से स्नान करके उष्ण भोजन न खाना चाहिये। अरु उष्ण जल से स्नान करके शीतल भोजन न खाना चाहिये । तैलमर्दन सदा ही करना चाहिये । तथा स्नान करे पीछे जिस की कांति फीकी दीसे, तथा जिस के दांत परस्पर घिसे, अरु शरीर से मृतक जैसी गन्ध आवे, तिस का मरण तीन दिन के अन्दर होगा। तथा स्नान करे पीछे जिसके हृदय में, तथा दोनों पगों में तत्काल पानी शोष जावे, तो छ दिनों के बीच में उसका मरण जानना । मैथुन का सेवन तथा वमन, इन दोनों में कछुक देर पीछे स्नान करे। तथा मृतक की चिता के धूम लगने से क्षौरकर्म में मस्तक मुण्डवा करके छाने हुये शुद्ध जल से स्नान करे । तथा तेलमर्दन करी स्नान करे, पीछे उज्ज्वल वस्त्र,
आमरण पहिरना । पीछे प्रयाण करने के दिन में, संग्राम में बाते हुए, विधामंत्र साधते, रात को, सांझ को, पर्व दिन में, नवमे दिन में स्नान न करे, मस्तक मुण्डन भी न करावे । तथा पक्ष में एक वार दाढी मस्तक के केश तथा नख दूर करावे । परन्तु अपने दांतों करी तथा अपने हाथ करके नख न कतरे। स्नान करने से शरीर पवित्र चैतन्य सुखकर होने से भाव शुद्धि का हेतु हो जाता है। उक्तं च द्वितीये अष्टकप्रकरणे
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नवम परिच्छेद
१९१ जलेन देहदेशस्य, क्षणं यच्छुद्धिकारणम् । प्रायोऽन्यानुपरोधेन, द्रव्यस्नानं तदुच्यते ।।
[ श्लो०२] अर्थ:-देहदेश-त्वचामात्र ही की क्षणमात्र शुद्धि है,
परन्तु प्रभूत काल नहीं। शुद्धि जो है, सो स्नानप्रयोजन भी प्रायः करके ही है, कुछ एकांत नहीं है।
क्योंकि अतिसारादि रोग वाले को क्षणमात्र भी शुद्धि नहीं हो सकती है। धोने योग्य मैल से अन्य दूसरा मैल नासिकादि अन्तर्गत जो है, सो भी स्नान से दूर नहीं होता है। अथवा पानी से और जीवों की हिंसा न करने से जो स्नान है, सो बाह्य स्नान है । जो पुरुष स्नान करके भगवान् की तथा साधु की पूजा करे, तिस का स्नान भी अच्छा है, क्योंकि भावशुद्धि का निमित्त है। स्नान करने में अपकाय के जीवों की विराधना भी है, तो भी सम्यग्दर्शन की शुद्धिरूप गुण हैं । यदुवं
पूआए कायवहो, पडिकुट्टो सोउ किंतु जिणपूआ। सम्मत्त सुद्धिहेउत्ति भावणीया उ निरवजा ।।
अर्थः--कोई कहते हैं कि, पूजा करने से जीवों का नाश होता है, अरु नीववध का तो शास्त्र में निषेध करा है वास्ते पूजा न करनी चाहिये । इसका उत्तर कहते है कि,
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जैनतत्त्वादर्श पूजा जो जिनराज की है, सो सम्यक्त्व निर्मल करनेवाली है। इस वास्ते जिनपूजा निरवध है । अतः देवपूजा के वास्ते गृहस्थ को स्नान करना कहा है तथा शरीर के चैतन्य सुख के वास्ते भी स्नान है। परन्तु जो स्नान करने से पुण्य मानते हैं, सो बात मिथ्या है, क्योंकि जो कोई तीर्थ में भी जान कर स्नान करता है, तिसको भी शरीरशुद्धि के सिवाय और कुछ फल नहीं होता है । यह बात अन्य दर्शन के शास्त्रों में भी कही है ! उक्तं च स्कंदपुराणे काशीखण्डे षष्ठाध्याये
मृदो भारसहस्रण, जलकुंभशतेन च । न शुध्यंति दुराचाराः, स्नानतीर्थशतैरपि ॥१॥ जायते च नियंते च, जलेष्वेव जलौकसः। न च गच्छति ते स्वर्गमविशुद्धमनोमलाः ॥२॥ चित्तं शमादिभिः शुद्धं, वदनं सत्यभाषणैः । ब्रह्मचर्यादिभिः काया, शुद्धो गंगां विनाप्यसौ ॥३॥ चित्तं रागादिभिः क्लिष्टमलीकवचनैर्मुखम् । जीवहिंसादिभिः कायो, गंगा तस्य पराङ्मुखी ॥४॥ परदारापरद्रव्यपरद्रोहपराङ्मुखः । गंगाप्याह कदागत्य, मामयं पावयिष्यति ॥ ५॥
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नवम परिच्छेद जल से स्नान करने से असंख्य जीवों की विराधना होती है। इस वास्ते पुण्य नहीं है। जल में जीवों का होना मीमांसा शास्त्र से भी सिद्ध होता है। यदुक्तं उत्तरमीमांसायाम्
लूतास्यतंतुगलिते, ये * क्षुद्राः संति जंतवः। सूक्ष्मा भ्रमरमानास्ते, नैव मांति त्रिविष्टपे ।।
किसी के स्नान करे भी जेकर गुमडादि में से राध आदि सवे, तो तिस ने अंगपूजा फूलादिक से आप नहीं करनी, वह दूसरों से करावे । अरु अग्रपूजा तथा भावपूजा आप भी करे, तो कुछ दोष नहीं। थोड़ा सा भी अपवित्र होवे, तब देव का स्पर्श न करे। स्नान करके पवित्र मृदु, गंध, काषायिकादि वस्त्र, अंग
लूइना, पोतिया छोड़ करके पवित्र वस्त्रांतर पूजा के वस्त्र पहिरने की युक्ति से पानी के भीजे पगों से
धरती को अस्पर्शता हुआ पवित्र स्थान में आ करके उत्तर के सन्मुख हो करके अच्छी तरे मनोहर नवा वन जो फटा हुआ तथा सिला हुआ न होवे, अरु वर्ण में धवल होवे, ऐसा वस्त्र पहिरे। तथा जो वस कर्टि में पहिरा होवे, तथा जिस वस्त्र से दिशा गया होवे, तथा जिस वस्त्र से मैथुन सेवन होवे, तिस वस्त्र को पहिर के पूजादि न करे।
* 'विन्दौ' ऐसा पाठान्तर है ।
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जैन तत्त्वादर्श
तथा एक वस्त्र पहिन के भोजन तथा देवपूजादि न करे । तथा स्त्री, कंचुकी विना पहने देवपूजा न करे । इस रीति से पुरुष को दो वस्त्र तथा स्त्री को तीन वस्त्र के बिना पूजा करनी नहीं कल्पती है । देवपूजा में धोती अतिविशिष्ट धवल करनी चाहिये । निशीथचूर्णी तथा श्राद्धदिनकृत्यादि शास्त्रों में ऐसा ही लिखा है । तथा पूजाषोडश में ऐसा मी लिखा है कि, रेशमी आदि जो सुंदर वस्त्र लाल पीला होवे, सो भी पूजा में पहिरे तो ठीक है, तथा * " एगसाडियं उत्तरासंगं करेड़ " इत्यादि आगम के प्रमाण से उत्तरासंग अखण्ड वस्त्र का करे, सिये हुए दो टुकड़ों का वस्त्र न कल्पे । तथा जिस रेशमी कपड़े से भोजनादि करे, अरु मन में समझे कि, यह तो सदा पवित्र है, तो भी तिस से पूजा न करे । तथा जिस वस्त्र को पहिर के पूजा करे, उसको भी वारंवार पहिनने के अनुसार घोवावे, धूप देकर पवित्र करे । धोती थोड़े ही काल तक पहननी चाहिये, उस धोती से पसीना श्लेष्मादि न दूर करना चाहिये । क्योंकि उससे अपवित्रता हो जाती है । तथा पहिने हुए वस्त्रों के साथ पूजा के वस्त्र छुआने नहीं चाहियें । दूसरों की पहनी हुई घोती पहननी न चाहिये । तथा बाल, वृद्ध, स्त्री के पहनने में आई होवे, तो विशेष करके न पहननी चाहिये ।
* भगव० श० ३ में यह पाठ है ।
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नवम परिच्छेद तथा मले स्थान से ज्ञातगुण मनुष्य के पासों पवित्र
भाजन में आच्छादित करके रस्ते में लाने की पूजासामग्री विधिसंयुक्त पानी अरु फूल, पूजा के वास्ते
मंगावने चाहिये । अरु फूलादि लानेवाले को अच्छी तरें मोल देकर प्रसन्न करना चाहिये। इस प्रकार मुखकोश वांध के पवित्र स्थानादि में, जिस में कोई जीव पड़ा न होवे, ऐसा गोधा हुवा केसर कर्पूरादिक से मिश्न चन्दन को युक्ति से घिसे । शोधा हुआ सुन्दर धूप, प्रदीप, अखण्ड चावलादि, छूत रहित, प्रशंसा करने योग्य, ऐसा नैवेद्य फलादि सामग्री मेल के, इस प्रकार द्रव्य से शुचि कर के अरु भाव से शुचि तो राग, द्वेष, कपाय, ईर्ष्या रहित, तथा इस लोक परलोक के सुखों की इच्छा रहित हो कर अरु कुतूहल, चपलता आदि का त्याग करके एकाग्रचित्तारूप भाव शुद्धि करे । कहा भी है
मनोवाकायवस्रोर्वीपूजोपकरणस्थिते । शुद्धिः समविधा कार्या, श्रीअर्हत्पूजनक्षणे ।। ऐसे द्रव्य भाव करके शुद्ध हो कर जिनघर-देहरे में
दक्षिण तर्फ से पुरुष, अरु वाम दिशा से जिनमन्दिर प्रवेश स्त्री, यत्न पूर्वक प्रवेश करे। प्रवेश के अवसर और पूजाविधि में दक्षिण पग पहिले घरे । पीछे सुगंध--
वाले मीठे सरस द्रव्यों करके पराङ्मुख
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जैनतरवादर्श
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वाम स्वर चलते हुए मौन से देवपूजा करे । तीन नैषेधिकीकरण, तीन प्रदक्षिणा, इत्यादि विधि से शुचि पाट के ऊपर पद्मासनादि सुखासन पर बैठ के, चन्दन के भाजन से चंदन ले कर दूसरी कटोरी में तथा हथेली में लेकर मस्तक में तिलक करके हस्तकंकण, श्रीचंदनचर्चित, धूपित हाथ करी जिन अर्हत की पूजा करके अर्थात् १. अंगपूजा, २. अग्रपूजा, ३. भावपूजा आदि से पूजा करके प्रथम जो प्रत्याख्यान करा था, सो यथाशक्ति देव की साक्षी में उच्चारण करे, तब पीछे विधि से बडे पंचायती मन्दिर में जा कर पूजा करे । सो इस विधि से करे :
यदि राजादि महर्द्धिक होवे, सो तो ऋद्धि, सर्वदीप्ति, सर्वयुक्ति, सर्वसैन्य, सब उद्यम से जिनमत की प्रभावना के वास्ते महा आडम्बर पूर्वक जिनमन्दिर में पूजा करने को जावे । जैसे दशार्णभद्र राजा श्रीमहावीर भगवंत को वंदना करने गया था, तैसे जावे ।
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अरु जो सामान्य ऋद्धिवाला होवे, सो अभिमान रहित लोकोपहास्य को त्याग के यथायोग्य आडंबर – भाई, मित्र, पुत्रादिकों से परिवृत हो कर जावे । ऐसे जिनमंदिर में जा कर -~१. पुष्प, तंबोल, सरस, दुर्वादि त्यागे । २. छुरी, पावड़ी, मुकुट, हाथी प्रमुख सचिताचित वस्तु शरीर के भोग की त्यागे । ३. मुकुट वर्ज के शेष आभरणादि अचित्त वस्तु न त्यागे, अरु एक बडे वस्त्र का उत्तरासंग करे ।
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नवम परिच्छेद
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४. जिनेश्वर की मूर्ति जब दीखे तब अंजलि बांध के मस्तक पर चढा के ' नमो जिणाणं ' ऐसा कहे । ५. मन एकाग्र करे । इस रीति से पांच अभिगम सम्भाल के नैषेधिकीपूर्वक प्रवेश करे ।
जेकर राजा जिनमंदिर में प्रवेश करे, तब तत्काल राजचिन्हों को दूर करे । १. तलवार, २. छत्र, ३. सवारी, ४. मुकुट, ५. चामर, ये पांचों चिन्ह राजा के हैं, इनको त्यागे । अग्रद्वार में प्रवेश करते हुए घर के व्यापार का निषेध करने के वास्ते तीन नैषेधिकी करे, परन्तु तीनों निस्सही की एक नैपेधिकी गिनती में करनी, क्योंकि एक ही घर व्यापार का निषेध किया है। तब पीछे मूल बिंव को नमस्कार करके सर्व कृत्य, कल्याणवाञ्छक पुरुष ने दक्षिण के पासे करना । इस वास्ते मूलविंव को दक्षिण के पासे करता हुआ ज्ञान, दर्शन अरु चारित्र, इन तीनों के आराधनार्थ तीन प्रदक्षिणा देवे । प्रदक्षिणा देता हुआ समवसरणस्थ चार रूप संयुक्त जिनेश्वरदेव को ध्यावे । गंभारे में पृष्ठ, वाम, और दहिने पासे जो विंव होवें, तिन को वन्दे । इसी वास्ते सर्व मन्दिर में चारों तर्फ समवसरण के आकार में तीन तर्फ तीन विंव स्थापे जाते हैं। ऐसे करने से जो अरिहंत के पीछे वसने में दोष था, सो दूर हो गया, पीठ किसी पासे भी न रही । तिस पीछे चैत्यप्रमार्जनादि जो आगे लिखेंगे, सो करे । पीछे सर्व प्रकार की पूजा सामग्री के
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जैनतत्वादर्श प्रति तथा देहरा समारने के काम के निषेध करने के वास्ते मुखमंडपादिक में दूसरी नैषेधिकी करे । पीछे मूलबिंब' को तीन प्रणाम करके पूजा करे। भाष्यकार ने भी ऐसा कहा है कि, तीन निस्सही करके प्रवेश करी मण्डप में जिनेश्वर के आगे धरती पर हाथ गोडे स्थापन करके, विधि से तीन बार प्रणाम करे । तिस पीछे हर्ष से उल्लास युक्त हो करके मुखकोश बांध करके जिनप्रतिमा का निर्माल्य, फूल प्रमुख मोरपीछी से दूर करे। जिनमन्दिर का प्रमार्जन आप करे, अथवा औरों से करावे । पीछे जिनबिंब की पूजा विधि से करे । मुखकोश आठ पुड़ का करे, जिस से नासिका अरु मुख का निःश्वास निरोध होवे । बरसात में निर्माल्य में कुंथु आदि जीव भी होते हैं। इस वास्ते निर्मात्य मरु स्नान जल न्यारा न्यारा पवित्र स्थान में गेरे, गिरावे । ऐसे आशातना भी नहीं होती है। कलशजल से पूजा करता हुआ जैसी भावना मन में लावे, सो लिखते हैं।
हे स्वामिन् ! बालपन में मेरुशिखर पर सुवर्ण कलशों से इन्द्र आदि देवताओं ने आप को स्नान कराया था, सो धन्य थे, जिनोंने तुमारा दर्शन करा था, इत्यादि चिंतवना करके पीछे सुयल से वालकूची से जिनविंव के अंग पर से चन्दनादि उतारे । पीछे जल से प्रक्षालन करके दो अंगलूहनों से जिनप्रतिमा को निर्मल करे। अनन्तर पग, जानु, कर, अंस और मस्तक में यथाक्रम से नव अंग में श्रीचन्द
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नवम परिच्छेद नादि चर्चे, पूजा करे। कोई आचार्य कहते हैं कि, पहिले मस्तक में तिलक करके पीछे नवांग पूजा करनी। श्रीजिनप्रभसूरिकृत पूजाविधि ग्रन्थ में ऐसे लिखा है-सरस सुरभि चन्दन करी देव के दाहिने जानु, दाहिने स्कंध, निलाड, वाम स्कंध, वाम जानु, इस क्रम से पूजा करे, हृदय प्रमुख में पूजा करे, तब नव अंग की पूजा होती है। अंगों में पूजा करके पीछे सरस पांच वर्ण के प्रत्यग्र फूलों करके चन्दन सुगन्ध वास करी पूजे । जेकर पहिले किसी ने बड़े मण्डाण से पूजा करी होवे, अरु अपने पास वैसी सामग्री पूजा की न होवे, तव पहिली पूजा उतारे नहीं । क्योंकि विशिष्ट पूजा देखने से भन्यों को जो पुण्यानुबन्धी पुण्य होता था, तिस की अन्तराय हो जाती है। किन्तु तिसी पूजा को शोभनीक करे, यह कथन बृहद्भाग्य में है।
तथा पूजा के ऊपर जो पूजा करनी है, सो निर्माल्य के लक्षण न होने से निर्माल्य नहीं। क्योंकि जो भोगविनष्ट द्रव्य है, सोई निर्माल्य गीतार्थों ने कहा है। आभूषण वारं. वार पहराये जाते हैं, परन्तु निर्माल्य नहीं होते हैं। नहीं तो कषाय वस्त्र करके एक सौ आठ जिनप्रतिमा के अंग क्योंकर लहे ! इस वास्ते जिनबिंबारोपित जो वस्तु शोभा रहित, सुगंध रहित दीख पड़े, अरु भव्य जीवों को प्रमोद का हेतु न होवे, तिस ही को बहुश्रुत निर्माल्य कहते हैं। यह कथन संघाचारवृत्ति में है। चढ़े हुए चावलादि निर्माल्य
लक्षण न होननस्य गीतार्थों ने कहा होते हैं। नहीं तो
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२००
जैनतत्त्वादर्श नहीं । कोई आचार्य निर्माल्य भी कहते हैं। तत्त्व तो केवली ही जाने कि वास्तव में क्योंकर हैं। ___चन्दन फूलादि से ऐसे पूजा करनी, जिस से भगवान् के नेत्र मुखादि ढके न जावें, अरु बहुत शोभनीक दीखें, जिस में देखनेवालों को प्रमोद और पुण्यादिक की वृद्धि होवे। तथा १. अंगपूजा, २. अग्रपूजा, ३. भावपूजा, यह तीन
प्रकार की पूजा है। तिन में जो निर्मात्य अंगपूजा दूर करना, प्रमार्जना करना, अंगप्रक्षालन
करना, वालवूची का व्यापार, पूजना, कुसुमांजलिमोचन, पञ्चामृतस्नान, शुद्धोदकधारा देनी, धूपित स्वच्छ मृद्गंध काषायकादि वस्त्र से अंगलूहन करना, कर्पूर कुंकुमादि मिश्र गोशीर्ष चन्दन विलेपन से आंगी रचनी, तथा गोरोचन, कस्तूरी से तिलक करना; पत्र, वेल, फूल प्रमुख की रचना करनी, बहुमोल रत्न, सुवर्ण, मोती, रूपे के, पुष्पादि के आमरण-अलंकार पहिराने । जैसे श्री वस्तुपाल ने अपने कराये हुये सवालक्ष विबों के तथा श्री शत्रुञ्जयतीर्थ में सर्व बिंबों के रल, सुवर्ण के आभरण कराये थे। तथा दमयंती ने पिछले भव में अष्टापद पर्वत पर चौबीस अहंतों के तिलक कराये थे। क्योंकि प्रतिमानी की जितनी उत्कृष्ट सामग्री होवे, उतने ही अधिक भव्य जीवों के शुभ भावों की वृद्धि होती है । तथा पहरावणी, चन्द्रवादि, विचित्र
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नवम परिच्छेद
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दुकूलादि वस्त्र पहिरावें । तथा १. ग्रंथिम, २. वेष्टिम, ३. पूरिम, ४. संघातिमरूप चतुर्विध प्रधान अम्लान विधि से लाया हुआ शतपत्र, सहस्रपत्र, जाई, केतकी, चंपकादि विशेष फूलों करी माला, मुकुट, सेहरा, फूलघरादिक की रचना करे । तथा जिनजी के हाथ में बिजोरा, नारियल, सोपारी, नागवल्ली, मोहर, रुपया, लड्डु प्रमुख रखना । अरु धूपक्षेप, सुगंध, वासप्रक्षेपादि, यह सर्व अंगपूजा की गिनती में है । महाभाष्य में भी कहा है
हवण विलेवण आहरण वत्थ फल गंध धूव पुप्फेहिं । कीरड़ जिणंगपूया तत्थ विही एम नायो ।
वत्थेण वंधिऊणं नासं अहवा जहा समाहीए । वज्जेयवं तु तथा देहंमित्र कंडुअणमाई ||
अन्यत्रापि --
कायकंडणं वज्जे, तहा खेलविर्गिचणं । थुथुतमणणं चेव, पूअंतो जगबंधुणो ॥
देव पूजन के अवसर में मुख्यवृत्ति से तो मौन ही करना चाहिये । जेकर न कर सके तो भी पापहेतु वचन तो सर्वथा ही त्यागे । नैधिकी करने में गृहादि-व्यापार का निषेध होने से पाप की संज्ञा भी वर्जे । मूलविंग की विस्तार सहित पूजा करे । पीछे अनुक्रम से अन्य सर्व बिंबों की पूजा करे ।
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जैनतत्त्वादर्श द्वारबिंव और समवसरण बिंबों की पूजा भी मूल बिंब की पूजा करने के पीछे, गंभारा से निकलती वक्त करनी चाहिये। परन्तु प्रवेश करते समय तो मूलबिंब की ही पूजा करनी उचित मालूम होती है। संघाचार में ऐसे ही लिखा है। इस वास्ते मूलनायक की पूजा, सर्व किंवों से पहिले और सविशेष करनी चाहिये । कहा भी है
उचिअचं पूआए, विसेसकरणं तु मूलविंबस्स । जं पडइ तत्थ पढमं, जणस्स दिह्रो सहमणेणं ॥
[चेइ० महा०, गा० १९७] शिष्य प्रश्न करता है कि, चंदनादि करके प्रथम एक मूलनायक को पूजिये अरु दूसरे विबों की पीछे पूजा करनी, यह तो स्वामी सेवक भाव ठहरा, सो तो लोकनाथ तीर्थकर में है नहीं । क्योंकि एक बिब की बहुत आदर से पूजा करनी, अरु दूसरे बिंबों की थोडी पूजा करनी, यह बड़ी भारी आशातना मुझ को मालूम पड़ती है।
गुरु ऊत्तर देते हैं। अहंत प्रतिमाओं में नायक सेवक की बुद्धि ज्ञानवंत पुरुष को नहीं होती है, क्योंकि सर्व प्रतिमाजी के एक सरीखा ही परिवार-प्रातिहार्य प्रमुख दीख पड़ता है। यह व्यवहार मात्र है कि, जो बिब पहिले स्थापन किया गया है, सो मूलनायक है। इस व्यवहार से शेष प्रतिमाओं का नायक भाव दूर नहीं होता है।
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नवम परिच्छेद
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एक प्रतिमा को वंदन करना, पूजा करनी, नैवेद्य चढ़ाना, यह उचित प्रवृत्तिवाले पुरुष को आशातना नहीं है । जैसे माटी की प्रतिमा की पूजा फूलादि रहित उचित है, अह सुवर्णादिक की प्रतिमा को स्नान विलेपनादि उचित है, तथा कल्याणक प्रमुख का महोत्सव एक ही बिंव का विशेष करके किया जाता है, परन्तु वो महोत्सव दूसरी प्रतिमाओं की आगातना का कारण नहीं होता है। जैसे धर्मी पुरुष को पूजते हुए और लोगों की आशातना नहीं। इस प्रकार की उचित प्रवृत्ति करते हुए जैसे आशातना नहीं होती है, तैसे ही मूल चित्र की विशेष पूजा करते भी आशातना नहीं होती है। जिनमन्दिर में जिनचिव की जो पूजा करते हैं, सो तीर्थंकरों के वास्ते नहीं करते हैं, भावों की वृद्धि के निमित्त करते हैं । जिस का उपादान समर जाता है, अरु दूसरों को होती है। कोई जीव तो श्रीजिनमन्दिर को बोध को प्राप्त हो जाता है, अरु कोई जीव जिनप्रतिमा का प्रशांतरूप देख के प्रतिबोध को प्राप्त हो जाता है, कोई पूजा की महिमा देख के, अरु कोई गुरु के उपदेश से प्रति - वोध को प्राप्त हो जाता है, इस वास्ते चैत्य - जिनबिंब की रचना बहुत सुंदर बनानी चाहिये । अरु अपनी शक्ति के अनुसार मुख्य बिंत्र की विशेष अद्भुत शोमा करनी चाहिये ।
किंतु अपने शुभ निमित्त से आत्मा
वोध की प्राप्ति
देख के प्रति
तथा घर देहरासर तो अब भी पीतल, ताम्र, रूपामय
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२०४
जैनतत्वादर्श करावने को समर्थ है। यदि पीतलादिक का बनाने का सामर्थ्य न होवे, तदा दांत आदि मय पीतल सिंगरफ की रंगावे, कोरणी विशिष्ट काष्ठादिमय करावे । घर चैत्य तथा चैत्य समुच्चय में प्रतिदिन सर्व जगे प्रमार्जन, तैलादि से काष्ठ को चोपडे, जिस से घुण न लगे, तथा खडिया से धवल करे। श्रीतीर्थकर के पंचकल्याणकादि का चिन्नाम करावे, समग्र पूजा के उपकरण समरावे । पड़दा, कनात, चन्द्रवा आदि देवे। ऐसे करे कि, जैसे जिनमंदिरादि की अधिक अधिक शोभा होवे। घर देहरे के ऊपर घोती प्रमुख न गेरे । घर देहरे की भी चौरासी आशावना टाले । पीतल पाषाणादिमय जो प्रतिमा होवे, तिन सर्व को एक अंगलहने से सर्व बिबो का पानी लहे। पीछे निरन्तर दूसरे सुकोमल अंगलहने से वारंवार सर्व अंगो पर फेर के पानी की गिलास बिलकुल रहने न देवे। ऐसे करने से प्रतिमा उज्ज्वल हो जाती है। जहां जहां प्रतिमा के अंगोपांग पर जल रह जावे, वहां तहां प्रतिमा के श्यामता हो जाती है । इस वास्ते पानी की स्निग्धता सर्वथा टाले । केसर बहुत अरु चन्दन थोड़ा ऐसा विलेपन करने से प्रतिमा अधिक अधिक उज्ज्वल हो जाती है।
तथा पंचतीर्थी, चौवीसी का पट्टादि में स्नात्र जल का प्रतिमाजी को परस्पर स्पर्श होने से आशातना होती है! ऐसी आशंका न करनी चाहिये, अशक्य परिहार होने से ।
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नवम परिच्छेद १. एक अहंत की प्रतिमा होवे, तिस का नाम व्यक्त है। २. एक ही पाषाणादिक में भरत ऐवत क्षेत्र की चोवीसी बनवावे, तिन का नाम क्षेत्रप्रतिमा है। ३. ऐसे ही एक सौ सित्तेर प्रतिमा को माहाल्य कहते हैं। ४. फूल की वृष्टि करनेवाला जो मालाधर देवता है, तिस का रूप पञ्चतीर्थी के ऊपर बनाते हैं। जिनप्रतिमा को न्हवण करते हुए पहिले मालाधर को पानी स्पर्श के पीछे जिनबिंव पर पड़ता है, सो दोष नहीं है। यह वृद्धों का आचरण है। इसी तरे चौवीसी गट्टे आदिक में भी जान लेना । ग्रन्थों में भी ऐसी ही रीति देखने में आती है। यहां भाज्यकार लिखते हैंजिनराज की ऋद्धि देखने वास्ते कोई भक्तजन एक प्रतिमा बनवाता है। उसको प्रगट पने अष्ट प्रातिहार्य, देवागम से सुशोभित करता है । दूसरा दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना के वास्ते तीनतीर्थी प्रतिमा बनवाता है। कोई भक्त पञ्चपरमेष्ठी के आराधनार्थ उद्यापन में पञ्चतीर्थी प्रतिमा भराता है। कोई चौवीस तीर्थङ्करों के कल्याणक तप उजमने के वास्ते भरतक्षेत्र में जो ऋषमादि चौवीस तीर्थकर हुए है, तिनके बहुमान वास्ते चौवीसी बनवाता है । कोई भक्ति करके मनुष्य लोक में उत्कृष्ट, एक काल में एक सौ सत्तर तीर्थकर विहरमान की एक एक सौ सत्तर प्रतिमा बनवाता है। तिस वास्ते तीनतीर्थी, पांचतीर्थी, चौवीसी आदिक का बनाना युक्तियुक्त है, यह पूर्वोक्त सर्व
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जैनतत्त्वादर्श अंगपूजा है। अथ अग्रपूजा लिखते हैं। रूपे के, सुवर्ण के चावल, धवल
सरसव प्रमुख अक्षरों करके अष्टमंगल का अप्रपूजा आलेखन करे। जैसे श्रेणिक राजा रोज की
रोज एक सौ आठ सोने के यवों से निकाल में भगवान की प्रतिमा के आगे साथिया करता था । अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना के वास्ते क्रम से पट्टादिक में चावलों के तीन पूंज करने, तथा एक भात प्रमुख मशन, दूसरा शक्कर गुड़ादि पान, तीसरा पकान फलादि खादिम, चौथा तंबोलादि स्वादिम, इनका चढ़ाना, तथा गोशीर्ष चन्दन के रस करी पंचांगुली तेल से मंडील आलेखानादि पुष्पप्रकार आरति प्रमुख करनी, यह सर्व अग्रपूजा की गिनती में है । यद्भाष्यम्
गंधवनवाइय लवणजलारत्तिआइ दीवाई। जं किच्चं तं सबंपि ओअरई अग्गपूआए ।।
नैवेद्य पूजा तो दिन दिन प्रति करनी सुखाली है, अरु इसमें फल भी मोटा है। कोरा अन्न साबत तथा रांधा हुआ चढावे । लौकिक शास्त्रों में भी लिखा है
धूपो दहति पापानि, दीपो मृत्युविनाशकः । . नैवेद्यं विपुलं राज्यं, सिद्धिदात्री प्रदक्षिणा ।।
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नवम परिच्छेद नैवेद्य का चढ़ाना, आरति करनी आदि आगम में भी लिखा है। " कीरइ वलि" ऐसा पाठ आवश्यक नियुक्ति में है। तथा निशीथचूर्णी में भी बलि चढ़ानी लिखी है। तथा कल्पभाष्य में भी लिखा है कि, जो जिनप्रतिमा के आगे चढ़ाने के वास्ते नैवेद्य करा है, सो साधु को न कल्पे । तथा प्रतिष्ठाप्राभूत से रची हुई श्रीपादलिप्त आचार्यकृत प्रतिष्ठापद्धति में भी लिखा है कि, आरति उतारनी; मङ्गलदीवा करके पीछे चार स्त्री मिल कर गीतगान विधि से करें । तथा च महानिशीथे तृतीये अध्ययने
अरिहंताणं भगवंताणं गंधमल्लपईवसंमञ्जणोवलेषणविचिचवलिवस्थधृवाइएहिं पूआसकारेहिं पइदिणमन्मचणपि कुवाणा वित्थुच्छप्पणं करेमी ति । भावपूना जो है, सो द्रव्यपूजा का व्यापार है, विस
के निषेधने वास्ते तीसरी निस्सही तीन वार भावपूजा करे । श्रीजिनेश्वरजी के दक्षिण के पासे
पुरुष अरु वामी दिशा में स्त्री रह कर, आशातना टालने के वास्ते मन्दिर में भूमि के संभव हुये, जघन्य नव हाथ प्रमाण, अरु घर देहरे में जघन्य एक हाथ प्रमाण अरु उत्कृष्ट से तो साठ हाथ प्रमाण अवग्रह है। तिससे वाहिर बैठ के चैत्यवंदना, विशिष्ट कान्यों करके करे । श्री निशिथ में तथा वसुदेवहिडि में तथा अन्य शास्त्रों में श्रावकों
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जैन तत्त्वादर्श
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ने भी कायोत्सर्ग थुइ, आदि करी चैत्यवंदना करी है, ऐसा उल्लेख है । चैत्यवंदना तीन तरह की भाष्य में कही है, सो कहते हैं । एक तो जघन्य चैत्यवंदना, सो अंजलि बांध कर शिर नमा कर प्रणाम करना, यथा 'नमो अरिहंताणं ' इति । अथवा एक श्लोकादि पढ़ के नमस्कार करना, अथवा एक शक्रस्तव पढे, तो जघन्य चैत्यवंदना होवे । दूसरी मध्यम चैत्यवंदना, सो चैत्यस्तवदंडक युगल ' अरिहंतचेइयाणं इत्यादि कायोत्सर्ग के पीछे एक स्तुति कहनी, यह मध्यम चैत्यवंदन है । अरु तीसरा उत्कृष्ट चैत्यवंदन, सो पञ्चदंड १. शक्रस्तव, २. चैत्यस्तव, ३. नामस्तव, ४. श्रुतस्तव, ५. सिद्धस्तव, प्रणिधान, जयवीयराय, इत्यादि यह सर्व उत्कृष्ट चैत्यवंदना है । तथा कोई आचार्य का ऐसा मत है कि, एक शक्रस्तव करी जघन्य चैत्यवंदना होती है, दो तीन शक्रस्तव करी मध्यम चैत्यवंदना होती है, तथा चार अथवा पांच शक्रस्तव करी उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है। इसकी विधि चैत्यवंदन भाष्य से जान लेनी ।
ra यह चैत्यवंदना नित्य प्रति सात वार करनी, महानिशीथ में साधु को कही है, को भी उत्कृष्ट प्रतिक्रमण में,
तथा श्रावक
।
यथा— एक
पहिले करनी,
सात वार करनी कही है दूसरी मंदिर में, तीसरी आहार करने से चौथी दिवसचरिम करते, पांचमी देवसी छट्ठी सोती वक्त, और सातमी सोकर उठे
पडिक्कमणे में,
उस वक्त, यह
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नवम परिच्छेद
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सात वार चैत्यवंदन साधु को करनी कही है। तथा जो श्रावक आठों पहर में प्रतिक्रमण करता होवे, वो तो निश्चय से सात बार चैत्यवंदन करे, दो प्रतिक्रमण में दो चैत्यवंदन करे, तीसरी सोते वक्त, चौथी उठते वक्त, तथा तीन काल पूजा करने के पीछे तीन बार, एवं सात बार श्रावक चैत्यवंदन करे । तथा जो श्रावक एक ही वार पडिक्कमणा करे, सो छ वार चैत्यवंदन करे । तथा जो पडिकमणा न करे, सो पांच वार चैत्यवंदन करे । तथा जो सोते वा उठते समय भी चैत्यवंदन न करे सो तीन वार करे । नेकर नगर में बहुत जिनमंदिर होवें, तदा सात से अधिक भी करे । तथा जेकर त्रिकाल पूजा न कर सके, तो त्रिकाल देववंदना करे । क्योंकि महानिशीथ में लिखा है कि, जिसको गुरु प्रथम जैनमत की श्रद्धा करावे, उसको प्रथम ऐसा नियम करावे कि, सवेरे के वक्त जिनप्रतिमा का दर्शन करे विना पानी भी नहीं पीना, तथा मध्यान्ह काल में जहां तक देव - जिन प्रतिमा अरु साधुओं को वंदना न करे, तहां तक भोजनक्रिया न करे । तथा सन्ध्या के समय चैत्यवंदन करे बिना शय्या पर पग न देवे ।
तथा गीत, नृत्य, जो अग्रपूजा में कहे हैं, सो भावपूजा में भी बन सकते हैं । सो गीत, नृत्य, मुख्यवृत्ति करके तो श्रावक आप करे, जैसे निशीथचूर्णी में उदयनराजा की रानी प्रभावती का कथन है । तथा पूजा करने के अवसर में
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जैन तत्त्वादर्श
श्रीमहंत की तीन अवस्था की कल्पना करे । उसमें स्नान करती वक्त छद्मस्थ अवस्था की कल्पना करे । तथा आठ प्रातिहार्य की शोभा करते हुए केवली अवस्था की कल्पना करे तथा पर्यंकासन कायोत्सर्गासन देखके सिद्धावस्था की कल्पना करे, इस में छद्मस्था अवस्था तीन तरह की कल्पे । एक जन्माबस्था, दूसरी राज्यावस्था, तीसरी साधुपने की अवस्था । तहां स्नान के वक्त जन्म अवस्था कल्पे, तथा माला, फूल, आभरण पहिराने के वक्त राज्यावस्था कल्पे, तथा दाढी, मूंछ, शिर के बालों के न होने से साधु अवस्था को विचारे, इनमें साधु, केवली, मोक्ष अवस्था को वंदना करे ।
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तहां पूजा पंचोपचार सहित अष्टोपचार सहित, अरु धनवान् होवे, तो सर्वोपचार से पूजा करे । विविध पूजा तहां फूल, अक्षत, गंध, धूप अरु दीप से पूजा करे, सो पंचोपचार पूजा जाननी । तथा फूल, अक्षत, गंध, दीप, धूप, नैवेद्य, फल अरु जल, यह अष्टोपचार पूजा है । सो अष्टविध कर्म को मथनेवाली है । तथा स्नात्र, विलेपन, वस्त्र, आभूषणादिक, फल, दीप, गीत, नाटक, आरति आदिक करे, सो सर्वोपचार पूजा है । इति बृहद्भाष्ये ।
तथा पूजा के तीन मेद हैं। एक आप ही काया से पूजा की सामग्री लावे, दूसरी बचनों करके दूसरों से मंगवावे, तीसरी मन करके भला फूल, फल प्रमुख करी पूजा करे । ऐसे काया, वचन अरु मन, इन तीनों योगों से
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करे,
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नत्रम परिच्छेद करावे अरु अनुमोदे । यह तीन तरें से पूजा है।
तथा एक फक, दूसरा नैवेद्य, तीसरी थुई अरु चौथी प्रतिपति, सो वीतराग की आज्ञा पालनरूप | यह चार प्रकार से यथाशक्ति पूजा करे । ललितविस्तरादिक ग्रंथों में पुष्पामिपस्तोत्रप्रतिपत्तिपूजानां यथोत्तरं प्राधान्यमित्युक्तम् " अर्थात् फूल, नैवेद्य, स्तोत्र अरु आज्ञा आराघनीय, ये उत्तरोत्तर प्रधान हैं; ऐसा कहा है। यह आगमोक्त पूजा के चार भेद हैं ।
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तथा पूजा दो प्रकार की है । एक द्रव्य पूजा, दूसरी भाव पूजा । जो फूलादिक से जिनराज की पूजा करनी सो द्रव्य पूजा है। दूसरी श्रीजिनेश्वर की आज्ञा पालनी, सो भावपूजा है । तथा पुप्पारोहण, गंधारोहण इत्यादि सतरह मेद से तथा स्नात्रविलेपनादि इक्कीस भेद से पूजा है । परन्तु अंगपूजा, अग्रपूजा अरु भावपूजा, इन तीनों पूजाओं में सर्व पूजाओं का अंतर्भाव है । तिन में पूजा के सतरह मेद लिखते हैं:
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१. स्नान करना, निनप्रतिमा को विलेपन करना, २ . चक्षु जोड़ा, वास सुगंध चढ़ाना, ३. फूल चढ़ाने, ४. फूल की माला चढ़ानी, 8. पंच रंगे फूल चढ़ाने, ६. भीमसेनी वरास प्रमुख का चूर्ण चढ़ाना. ७. आभरण चढ़ाने, ८. फूलों का घर करना, ९ फूलपगर - सो फूलों का ढेर करना, १०. आरति, मंगल दीवा, ११. दीपकपूजा, १२. धूपोपक्षेप, १३. नैवेद्य,
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जैनतत्वादर्श
१४. शुभ फल का दौकन, १५. गीतपूजा, १६. नाटक करना, १७. वाजंत्र । यह सतरह मेदों की पूजा है। अथ पूजा के इकीस मेद लिखते हैं। तहां प्रथम पूजा करने की विधि लिखते हैं:-१. पूजा
करनेवाला पूर्व दिशा की तरफ मुख करके पूजा सम्बन्धी स्नान करे । २. पश्चिम दिशा को मुख करके नियम दातन करे । ३. उत्तर दिशा के सन्मुख श्वेत
वस्त्र पहिरे । ४. पूर्वोत्तर मुख करके पूजा करे। ५. घर में प्रवेश करते वामे पासे शल्य रहित भूमि में देहरासर करावे । ६. डेढ़ हाथ भूमिका से ऊंचा देहरासर करावे । जेकर देहरासर नीची भूमिका में करावे, तब तिस का संतान दिन दिन नीचा होता जावेगा । ७.' दक्षिण दिशा तथा विदिशा के सामने मुख न करे। ८. घर देहरे में पश्चिम की तरफ मुख करके पूजा करे, तो चौथी पेढी में सन्तानोच्छेद होवे । ९. दक्षिण दिशा की तर्फ मुख करे, तो संतानहीन होवे । १०. अग्निकोण में करे, तो धनहानि होवे । ११. वायु कोण में करे, तो संतान न होवे । १२. नैऋत्यकोण में करे तो कुलक्षय होवे । १३. ईशानकोण में करे, तो एक जगे रहना न होवे । १४. दोनों पग, दोनों जानु, दोनों हाथ, दोनों स्कंध, मस्तक, ये नव अंग में क्रम से पूजा करे । १५. चंदन विना पूजा नहीं होती है। १६. मस्तक में, कण्ठ में, हृदय में, पेट में,
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नवम परिच्छेद
૨૬૩ तिलक करे । १७. नव अंग में नव तिलक करके निरंतर पूजा करे। १८. सवेरे पहिले वास पूजा करे। १९. मध्याह में फूलों से पूजे । २०. संध्या को धूप, दीप करके पूजा करे । २१. जो फूल हाथ से धरती में गिर पडे, तथा पगों को लग जावे, तथा जो मस्तक से ऊंचा चला जावे, तथा जो मैले वस्त्र में रक्खा होवे, तथा जो नामि से नीचे रक्खा होवे, तथा जो दुष्ट जनों ने स्पर्शा होवे, जो बहुत ठिकानों-स्थानों में हत होवे, जो जीवों ने खाया होवे, ऐसे फूल, फल, भक्त जनों ने जिनपूजा में नहीं रखना । २२. एक फूल के दो टुकडे न करे। २३. कली को छेदे नहीं। चंपक, उत्पल, फूल के भांगने बड़ा दोष है। २४. गंव, धूप, अक्षन, फूलमाला, दीपक, नैवेध, पानी, प्रधान फल, इनों करके जिनराज की पूजा करे । २५. शाति कार्य में श्वेत वस्त्र पहिर के पूजा करे। २६. द्रव्यलाभ के वास्ते पीत वस्त्र पहिर के पूजा करे। २७. शत्रु को जीतने के वास्ते काले वस्त्र पहिर के पूजा करे । २८. मांगलिक कार्य के वास्ते लाल वस्त्र पहिर के पूजा करे । २९. मुक्ति के वास्ते पांच वर्ण के वस्त्र पहिर के पूजा करे। ३०. शांति कार्य के वास्ते पञ्चामृत का होम, दीवा, घी, गुड़, लवण का अग्नि में प्रक्षेप, शांति पुष्टि के वास्ते जानना । ३१. फटा हुआ, जोड़ा हुआ, छिद्रवाला, काटा हुआ, जिस का भयानक रक्त वर्ण होवे, ऐसे वस्त्र पहिर के दान, पूजा, तप, होम अरु सामायिक प्रमुख करे, तो
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जैनतरवादर्श
निष्फल होवे । ३२. पद्मासन बैठ के, नासाग्र लोचन स्थापन करके मौन धारी हो कर वस्त्र से मुखकोश करके जिनराज की पूजा करे ।
अथ इक्कीस प्रकार की पूजा का नाम लिखते हैं१. स्नात्रपूजा, २. विलेपनपूजा, ३. आभरणपूजा, ४. फूल, ५. वासपूजा, ६. धूप, ७. प्रदीप, ८. फल, ९. अक्षत, १०. नागरवेल के पान, ११. सोपारी, १२. नैवेद्य, १३. जलपूजा, १४. वस्त्रपूजा, १५. चामर, १६. छत्र, १७. वार्जिन, १८. गीत, १९. नाटक, २० स्तुति, २१. भंडारवृद्धि । यह इक्कीस प्रकार की पूजा है । जो वस्तु बहुत अच्छी होवे, सो जिनराज की पूजा में चढ़ानी चाहिये। यह पूजा प्रकार, श्री उमास्वाति वाचककृत पूजाप्रकरण में प्रसिद्ध है ।
तथा ईशान कोण में देवधर बनाना यह बात विवेक विलास में है । तथा विषमासन बैठ के, पग ऊपर पग धरके, उकडु आसन बैठ के, वाम पग ऊंचा करके तथा वाम हाथ से पूजा न करे। सूखे हुए फूलों से पूजा न करे, तथा जो फूल धरती में गिरे होंवें, तथा जिनकी पांखडी सड़ गई होवे, नीच लोगों का जिन को स्पर्श हुआ होवे, जो शुभ न होवें, जो विकसे हुए न होवें, जो कीड़े ने खाये हुए, सड़े हुए, रात को वासी रहे, मकड़ी के जालेवाले, जो देखने में अच्छे न लगें, दुर्गन्धवाले, सुगंध रहित, खट्टी गन्धवाले, मलमूत्र की जगा में उत्पन्न हुए होवें, अपवित्र करे हुए; ऐसे
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नवम परिच्छेद
२१५ फूलों से जिनेश्वर देव की पूजा नहीं करनी। तथा विस्तार सहित पूजा के अवसर में, तथा नित्य, अरु विशेष करके पर्वदिन में, सात तथा पांच कुसुमाञ्जलि चढावे । पीछे मग. वान् की पूजा करे । तहां यह विधि करे। प्रभाव समय पहिले निर्मात्य उतारे । पीछे प्रक्षाल
करे, संक्षेप से पूजा करे, आरति मङ्गल दीवा स्नानविधि करे । पीछे स्नात्रादि विस्तार सहित दूसरी
वार पूजा का प्रारम्भ करे। तब देव के आगे केसर जल संयुक्त कलश स्थापन करे। पीछे यह आर्या कह कर अलंकार उतारे:
मुक्तालङ्कारविकारसारसौम्यत्वकांतिकमनीयम् । सहजनिजरूपनिर्जितजगत्त्रयं पातु जिनवित्रम् ।। पीछे यह कह कर निर्माल्य उतारेःअवणि कुसुमाहरणं, पयइपइडियमनोहरच्छायं । जिणरूवं मजणपीठसंठियं वो सिवं दिसउ ।
पीछे प्रागुक्त कलग ढालन और पूजा करे, कलश धो कर, धूप दे कर, उनमें स्नात्र योग्य सुगंध जल का प्रक्षेष करे। पीछे श्रेणीवन्ध स्थापन करे हुए वे कलश सुन्दर वस्त्र से ढक देने । साधारण केसर, चंदन, धूप करके हाथ पवित्र करे। मस्तक में तिलक, हाथ में चंदन का कंकण करे,
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जैनतत्त्वादर्श हाथ धूपन करके श्रेणीबन्ध स्नात्री श्रावक कुसुमाञ्जलि का. पाठ पढ़े । यथा
सयवचकुंदमालइ, बहुविहकुसुमाई पश्चवन्नाई। जिणनाहन्हवणकाले, दिति सुरा कुसुमाञ्जली हिट्ठा ।। यह कह कर देव के मस्तक पर पुष्पारोपण करे । गंधायडिअमहुयरमणहरझंका रसदसंगीआ । जिणचलणोवरि मुक्का, हरउ तुम्ह कुसुमाञ्जली दुरियं ।।
इत्यादि पाठ करके जिनचरणों पर एक श्रावक कुसुभाञ्जलि चढावे । सर्व कुसुमाञ्जलि के पाठों में तिलक करना, फूल, पत्र, धूपादि सर्व एकत्र करी चढाना। पीछे उदार मधुर स्वर करके जिस जिनेश्वर का नाम स्थापन करा होवे, तिस ही जिनेश्वर का जन्माभिषेक कलश का पाठ कहना । पीछे घी, इक्षुरस, दूध, दही, सुगन्ध जलरूप पञ्चामृत करी, स्नान करावे । स्नात्र के बीच में धूप देवे। स्नात्रकाल में भी जिनराज का शरीर फूलों करके शून्य न करना । वादिवेताल श्रीशांतिसूरि कहते हैं कि, जहां तक स्नात्र की समाप्ति न होवे, तहां तक भगवान् का मस्तक शून्य न रखना, निरन्तर पानी की धारा अरु उत्तम फूलों की वृष्टि भगवान् के मस्तक पर करे, तथा स्नान करती वक्त चामर, संगीत, तूर्याद्याडम्बर सर्व शक्ति से करे ।
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नवम परिच्छेद सर्वे श्रावक, जब स्नान कर चुकें, पीछे निर्मल जल की धारा देनी । तिसका पाठ यह है
अभिषेकतोयधारा, धारेव ध्यानमंडलाग्रस्य । भवभवनभित्तिभागान् , भूयोऽपि भिनक्तु भागवती ।।
पीछे अंग लहे। विलेपनादि पूजा, पहली पूजा से अधिक करनी। सर्व प्रकार का धान्य, पक्कान, शाक, विकृति, फलादि, करके नैवेद्य ढोवे । ज्ञानादि तीनों सहित तीन लोक के स्वामी भगवान् के आगे भक्त जन श्रावक तीन पुंज करके पीछे स्नात्रपूजा करे। पहिले बड़ा श्रावक तीन पुंन करे, पीछे छोटा श्रावक करे, पीछे श्राविका करे। क्योंकि जिनजन्ममहोत्सव में मी पहिला अच्युतेंद्र अपने देवता संयुक्त स्नान करता है, पीछे यथाक्रम से दूसरे इन्द्र स्नान करते हैं । स्नात्रजल को जेकर श्रावक अपने मस्तक में प्रक्षेप करे, तो दोष नहीं । यदुक्तं श्रीहेमचन्द्राचार्यैः श्रीवीरचरित्रे
अभिपेकजलं तत्तु, सुरासुरनरोरगाः । ववंदिरे मुहुर्मुहुः, सर्वांगं परिचिक्षिपुः ।।
तथा श्रीपश्नचरित्र के उनतीसवें उद्देशे में लिखा है किराजा दशरथ ने अपनी रानियों को स्नात्र जल भेजा है। तथा वृहदशांतिस्तोत्र में "शांतिपानीयं मस्तके दातव्यमि"त्यु
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जैनतत्वादर्श कम् । तथा सुनते हैं कि, जरासंध ने जब जरा विद्या छोड़ी, तब तिस करके पीड़ित निज सेना को देख के श्रीनेमिनाथ के कहने से श्रीकृष्ण ने धरणेन्द्र को आराधा। धरणेन्द्र ने पाताल में रही श्रीपार्श्व प्रतिमा शंखेश्वर पुर में ला करके तिस के स्नात्र का जल छिड़कने से सेना सचेत करी। तथा श्रीजिनदेशना के पीछे राजा प्रमुख जो चावलों की बली उछालते हैं, तिस में से आधे चावल धरती में पड़ने से पहेले देवता ले लेते हैं, तिसका अर्थ उछालनेवाला लेता है, अरु बाकी का चावल सर्व लोक लट लेते हैं। उस में से एक दाना भी जेकर मस्तक में रक्खे, तो सर्व रोग उपशांत हो जाते हैं। अरु छ महीने आगे को रोग न होवे, यह कथन आवश्यक शास्त्र में है। पीछे सद्गुरु की प्रतिष्ठी हुई बहुत सुन्दर वस्त्र की मोटी ध्वजा, बड़े उत्सवपूर्वक तीन प्रदक्षिणा करके विधि से देवे । सर्व संघ यथाशक्ति परिधापन का नैवेद्य प्रमुख चढ़ावे।
अब जो आरति, मंगलदीवा श्रीअरिहंतजी के सन्मुख
करना, सो लिखते हैं। मंगलदीवे के पास आरति अग्नि का पात्र स्थापन करना । तिस में लवण
जल गेरना । पीछेउवणेउ मंगलं वो, जिणाण मुहलालिजालसंवलिया। तित्थपवत्तणसमए, तियसविमुक्का कुसुमवुट्टी॥
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नवम परिच्छेद यह पढ़ कर प्रथम कुसुमवृष्टि करे । अनन्तर
उअह पडिभग्गपसरं, पयाहिणं मुणिवई करेऊणं । पडइ स लोणचेण, लजि व लोणं हुअवहमि ॥
इत्यादि पाठ से विधिपूर्वक जिनराज के तीन वार फूल सहित लवण जल उत्तरणादि करना। तिस पीछे अनुक्रम से पूजा करके आरात्रिक धूपोपक्षेप सहित दोनों पासे कलश के पानी की धारा देते हुए श्रावक फूलों को बखेरे । और
मरगयमणिपडियविसालथालमाणिकमंडिअपईवं । ण्हवणयरकरुखितं, भमउ जिणारतिअंतुम्ह ।।
इत्यादि पाठपूर्वक प्रधान भाजन में रख के उत्सव सहित तीन वार उतारे। यह कहना नेसठ शलाका पुरुष चरित्रादिक में है। मंगल दीपक को भी आरति की तरें पूजे, और यह पाठ पढे
मामिजंतो सुरसुंदरिहिं तुह नाह ! मंगलपईवो। कणयायलस्स नजद, माणुष्व पयाहिणं दितो ॥
इस पाठ पूर्वक मंगलदीवा उतार के दीप्यमान जिनचरणों के आगे रख देना। आरति को बुझा देने में दोष नहीं | आरति अरु मंगलदीवा मुख्यवृत्ति से घृत, गुड़,
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जैनतस्वादर्श
कर्पूरादिक से करे, विशेष फल होने से। यहां मुक्कालंकार इत्यादि जो गाथा है, सो श्री हरिभद्रसूरिजी की करी हुई मालूम होती है । क्योंकि श्री हरिभद्रसूरिकृत समरादित्य चरित्र नामक ग्रंथ की आदि में " उवणेउ मंगलं वो " इस प्रकार नमस्कार किया देखने में आता है । तथा यह गाथा तपगच्छ में प्रसिद्ध है, इस वास्ते सर्व गाथा इहां नहीं लिखी ।
स्नानादिक में सामाचारी विशेष से विविध प्रकार की विधि के देखने से व्यामोह नहीं करना, क्योंकि सर्व आचार्यों को अर्हद्भक्तिरूप फल की सिद्धि के वास्ते ही प्रवृत्त होने से, गणधरादि सामाचारियों में भी बहुत भेद होता है । तिस वास्ते जो धर्म से विरुद्ध न होवे, अरु अत मक्ति का पोषक होवे, वो कार्य किसी को भी असम्मत नहीं । ऐसे ही सर्व धर्मकार्य में जान लेना । यहां लवण, आरति प्रमुख का उतारना संप्रदाय से सर्व गच्छों में अरु परदर्शनों में भी करते हुवे दीखते हैं। तथा श्रीजिनप्रभसूरिकृत पूजाविधि शास्त्र में तो ऐसे लिखा है
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लवणाइउचारणं, पालित्तयसूरिमा इव पुरिसेहिं । संहारेण अणुनापि, संपयं सिट्टिए कारिज ||
अर्थः-- लवणादि उतारना श्रीपादलिप्तसूरि प्रमुख पूर्व पुरुषों ने एक वार करने की माज्ञा दीनी है । हम इस
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नवम परिच्छेद
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कराते हैं। स्नात्र के करने में सर्व प्रभावनादिक के करने से परलोक
काल में उनके अनुसार प्रकार विस्तार सहित पूजा में उत्कृष्ट मोक्षप्राप्ति रूप फल होता है । जैसे चौसठ इन्द्रों ने जिन -- जन्मस्नान करा है, तिस ही के अनुसार मनुष्य करते हैं । इस वास्ते इस लोक में पुण्य निर्जरा अरु परलोक में मोक्ष फल होता है । यह कथन राजप्रभीय उपांग में है। प्रतिमा भी अनेक प्रकार की है। तिनकी पूजा की विधि सम्यक्त्व - प्रकरण में ऐसे कही है
गुरुकारिआइ केह, अन्ने सयकारिआइ तं बिंति । विहिकारिआइ अन्ने, पडिमाए पूजणविहाणं ||
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व्याख्या - गुरु कहिये माता, पिता, दादा, पड़दादा प्रमुख तिनकी कराइ हुई प्रतिमा पूजनी चाहिये; कोई ऐसे कहते हैं । तथा कोई कहते हैं कि, अपनी कराई - प्रतिष्ठी हुईं पूजनी चाहिये । कोई कहते हैं कि, विधि से कराई प्रतिष्ठी प्रतिमा पूजनी चाहिये । इनमें यथार्थ पक्ष तो यह है कि, ममत्वरहित सर्व प्रतिमा को विशेष --- मेद रहित पूजना चाहिये । क्योंकि सर्व जगे तीर्थंकर का आकार देखने से तीर्थंकर बुद्धि उत्पन्न होती है । जेकर ऐसे न मानें, तब तो जिनबिंब की अवज्ञा से उसको दुरन्त संसार में भ्रमणरूप निश्चय यही दण्ड होवेगा ।
1
ऐसा भी कुविकल्प न करना कि, जो अविधि से जित -
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जैनतत्त्वादर्श मन्दिर, जिनप्रतिमा बनी है, उसके पूजने से अविधि मार्ग की अनुमोदना से भगवन्त की आज्ञा का मंगरूप दूषण लगता है। इस प्रकार का कुविकल्प करना भी ठीक नहीं है क्योंकि इसमें आगम-प्रमाण है । तथाहि श्रीकल्पभाष्ये
निस्सकडमनिस्सकडे अचेइए सबहिं थुई तिन्नि । वेलंबचइआणिअ, नाउं इक्किकिया वात्रि ।।
व्याख्याः-एक निश्राकृत जो कि गच्छ के प्रतिबन्ध से बना हो, जैसे कि यह हमारे गच्छ का मन्दिर है। दूसरा अनिश्राकृत, सो जिस पर किसी गच्छ का प्रतिबन्ध नहीं है। इन सर्व जिनमन्दिरों में तीन थुइ पढनी। जेकर सर्व मन्दिरों में तीन तीन थुइ देता बहुत काल लगता जाने, तथा जिनमन्दिर बहुत होवें, तदा एक एक जिनमन्दिर में एक एक शुइ पढे । इस वास्ते सर्व जिनमन्दिरों में विशेष भक्ति करे।
जिनमन्दिर में मकड़ी का जाला लग जाये, तो तिसके उतारने की विधि कहते हैं। जिनके सुपुर्द जिनमन्दिर होवे, तिनको साधु इस प्रकार निर्मर्सना-प्रेरणा करे, तुम लोग जिनमन्दिर की नौकरी खाते हो, तो सारसम्माल बयों नहीं करते हो! मकड़ी का जाला भी तुम नहीं उतारते हो । तथा जिनकी कोई सारसम्भाल न करे, तिन को असंविग्न-देवकुलिक कहते हैं। तिन मन्दिरों में जो
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नवम परिच्छेद
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मकड़ी का जाला होवे,
तिसके दूर करने के वास्ते सेवकों
को प्रेरणा करे कि, तुम जिनमन्दिर को मंखफलक की तरे
चमक दमकवाला रक्खो । जेकर वे सेवक लोग न मानें, तब निर्भर्त्सना करे, और पीछे साधु जयणा से आप दूर करे । तात्पर्य कि, जिनमन्दिर और ज्ञानभण्डारादि की सर्वथा साधु भी उपेक्षा न करे ।
यह पूर्वोक्त चैत्यगमन, पूजा, स्नानादि विधि जो कही है, सो सब धनवान् श्रावक की अपेक्षा कही है । अरु जो श्रावक धनवान् न होवे, वो अपने घर में सामायिक करके किसी के साथ लेनेदेने का झगड़ा न होवे, तो उपयोग संयुक्त साधु की तरे ईर्या को शोधता हुआ तीन नैषेधिकी करी भाव पूजानुयायी विधि से जावे। पूजादि सामग्री के अभाव से द्रव्यपूजा करने में असमर्थ है, इस वास्ते सामायिक पार के काया से जो कुछ फूल गुंथनादिक कृत्य होवे सो करे ।
प्रश्नः -- सामायिक त्याग के द्रव्यपूजा करनी उचित नहीं ! उत्तरः- सामायिक तो तिसके स्वाधीन है, चाहे जिस वक्त कर लेवे । परन्तु पूजा का योग उसको मिलना दुर्लभ है। क्योंकि पूजा का मंडाण तो संघ समुदाय के अधीन है, और वह कभी २ होता है। इस वास्ते पूजा में विशेष पुण्य है । यदागम:
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जैनतत्त्वादर्श जीवाण बोहिलामो, सम्महिट्ठीण होइ पिअकरणं । आणा जिणिदभची, तित्थस्स पभावणा चेव ॥
इस वास्ते इसमें अनेक गुण हैं, ताते चैत्यकार्य करे। यह कथन दिनकृत्य सूत्र में है-दश त्रिक, पांच अभिगम, इत्यादि विधि प्रधान ही सर्व देवपूजा वंदनकादि धर्मानुष्ठान का महाफल होता है; अन्यथा अल्प फल है। तथा अविधि से करने पर उपद्रव भी हो जाता है । उक्तं च
धर्मानुष्ठानवैतथ्यात्प्रत्यवायो महान् भवेत् । रौद्रदुःखौघजननो, दुष्प्रयुक्तादिवौषधात् ।।
तथा अविधि से चैत्यवंदनादि करनेवाले के वास्ते आगम में प्रायश्चित्त कहा है। महानिशीथ के सातमे अध्ययन में अविधि से चैत्यवन्दना करे, तो प्रायश्चित्त कहा है। देवता, विद्या, मन्त्र भी विधि से ही सिद्ध होते हैं।
यदि कोई कहे कि, विधि न होवे, तब न करना ही श्रेष्ठ है ! यह कहना सर्वथा अयुक्त है । यदुक्तम्
अविहिकया वरमकयं, असूयवयण भणंति समयन्नू । पायच्छित्तं अकए, गुरु वितह कए लहुअं॥
अर्थः- अविधि करने से न करना अच्छा है, ऐसे जो कहता है, सो असूया वचन हैं। यह कहनेवाला जैन
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नवम परिच्छेद
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सिद्धांत को जानता नहीं। क्योंकि जैनशास्त्र के ज्ञाता तो ऐसे कहते हैं कि, जो न करे, उसको गुरु प्रायश्चित्त आता है, अरु जो अविधि से करे, उसको लघु प्रायश्चित्त आता है । इस वास्ते धर्म जरूर करना चाहिये । अरु विधिमार्ग की अन्वेषणा करनी । यह तत्त्व है, यही श्रद्धावन्त का लक्षण है | सर्व कृत्य करके अविधि, आशातना के निमित्त मिध्यादुष्कृत देना ।
अंग, अग्रादि तीनों पूजा के फल, शास्त्र में ऐसे लिखते हैं । विन उपशांत करनेवाली अंगपूजा है, तथा मोटा अभ्युदय —– पुण्य के साधनेवाली अग्रपूजा है, तथा मोक्ष की दाता भावपूजा है । पूजा करनेवाला संसार के प्रधान भोगों को भोग कर पीछे सिद्धपद को पाता है । क्योंकि मन शांत होता है, अरु मन की शांति से होता है, अरु शुभध्यान से मोक्ष होता हैं, सुख है।
पूजा करने से
पूजाफल
उत्तम शुभ ध्यान
मोक्ष हुए अबाध
तथा श्रीजिनराज की भक्ति पांच प्रकार से होती है । पुष्पाद्यच तदाज्ञा च तद्रव्यपरिरक्षणम् । उत्सवास्तीर्थयात्रा च, भक्तिः पञ्चविधा जिने ॥
द्रव्यपूजा आभोग तथा अनाभोग भेद से दो प्रकार की
- है । तिसमें श्रीवीतराग देव के गुण जान कर वीतराग की
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जैनतश्वादर्श
भावना करके आदर संयुक्त जिनप्रतिमा की जो पूजा, सो आभोगद्रव्य पूजा है । इस से चारित्र का लाभ होता है, कर्म का नाश होता है । इस वास्ते बुद्धिमान् ऐसी पूजा अवश्य करे । तथा जो पूजा की विधि जानता नहीं तथा श्रीजिनराज के गुण भी नहीं जानता, सो दूसरी अनाभोग पूजा है । यह शुभ परिणाम पुण्य का कारण, बोधिलाभ का हेतु है और पापक्षय करने का साधन है । उस पुरुष का जन्म भी धन्य है, आगामी काल में उसका कल्याण है, यद्यपि वो वीतराग के गुण नहीं भी जानता, तो भी भक्ति प्रीति का उल्लास उसके अन्दर अवश्य उछलता है । अरु जिस पुरुष को अरिहंत बिंब में द्वेष है, वो पुरुष भारी-कर्मी तथा भवामिनंदी है। जैसे रोगी को अपथ्य में रुचि अरु पथ्य में द्वेष होवे, तो उसका वह मरण का समय होता है । ऐसे ही जिनबिंब में जिसको द्वेष है, तिसको भी दीर्घ- संसारी
जानना ।
यहां जो भाव पूजा है, सो श्रीजिनाज्ञा का पालना है । जिनाज्ञा दो प्रकार की है : एक अंगीकार करने रूप, दूसरी त्यागने रूप । तहां सुकृत का अंगीकार करना, अरु निषेघ का त्याग करना । परन्तु स्वीकार - पक्ष से परिहार - पक्ष बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि जो निषिद्ध आचरण करता है । उसका सुकृत भी बहुत गुणदायक नहीं होता है । जेकर दोनों बातें होवें, तब तो पूर्ण फल है। द्रव्य पूजा का फल अच्युत देव
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नवम परिच्छेद
૨૭ लोक है । अरु भाव पूजा का फल अंतर्मुहूर्त में मोक्ष है। __द्रव्य पूजा में यद्यपि पट्काय की किंचित् विराधना होती है, तो भी कूप के दृष्टांत से वह गृहस्थ को अवश्य करने योग्य है । तात्पर्य कि करनेवाले अरु देखनेवालों को गिनती रहित पुण्य बंधन का कारण होने से करने योग्य है। जैसे नवे गाम में स्नान, पानादि के वास्ते लोक कूआं खोदते हैं।
और उस समय तिन को प्यास, श्रम, अरु कीचड़ से मलिन होना पड़ता है, परन्तु कुवे के जल निकलने से तिन की तथा औरों की तृपादि, अगला पिछला सर्व मैल दूर हो जाता है, अरु सर्वांगीण सुख हो जाता है। ऐसे ही द्रव्य पूजा में जान लेना । यह कथन आवश्यकनियुक्ति में है । तथा और जगे भी लिखा है
आरंमपसचाण, गिहीणछजीववह अविरयाणं । मवअडविनिवडियाणं, दवत्थओ चेव आलंवो ॥ स्थेयो वायुबलेन नितिकरं निर्वाणनिर्घातिना, स्वायत्तं बहुनायकेन सुबहुस्वल्पेन सारं परम् । निसारेण धनेन पुण्यममलं कृत्वा जिनाम्यर्चनं, यो गृह्णाति वणिक् स एव निपुणो वाणिज्यकर्मण्यलम्॥
* अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खल जुत्तो ।
संसारपयणुकरणे दव्वत्थए कूवदिलुतो ॥
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जैनतस्वादर्श
यास्याम्यायतनं जिनस्य लभते ध्यायंश्चतुर्थं फलम्, षष्ठं चोत्थित उद्यतोऽष्टममथो गन्तुं प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात्प्राप्तस्ततो द्वादशं, मध्ये पाक्षिकमीक्षते जिनपतौ मासोपवासं फलम् ॥
पद्म चरित्र में तो ऐसा लिखा है कि, १. जिनमन्दिर में जाने का मन करे, तब एक उपवास का फल होता है, २. यदि उठे, तो वेले का फल होता है, ३. चल पड़ने के उद्यमी को तेले का फल होता है, ४. चल पड़े, तो चौले का फल, ५. किञ्चित् गये को पंचौले का फल, ६. अर्ध मार्ग में गये को एक पक्ष के उपवास का फल होता है, ७. जिनराज को देखने से एक मास के तप का फल होता है, ८. जिनभुवन में संप्राप्त हुए को छमासी तप का फल होता है, ९. जिनमंदिर के दरवाजे पर स्थित हुए को एक वर्ष के तप का फल होता है. १० जिनराज को प्रदक्षिणा देने से सौ वर्ष के तप का फल होता है, ११. पूजा करे तो हज़ार वर्ष के तप का फल होता है, १२. स्तुति करे तो अनंतगुण फल होता है, १३. जिनमन्दिर पूजे, तो सौ गुणा पुण्य होता है, १४. लींपे, तो हज़ार गुणा पुण्य होता है, १५. फूलमाला चढ़ावे, तो लाखगुणा पुण्य होता है, १६. गीत वामित्र पूजां करे, तो अनंतगुणा पुण्य होता है ।
पूजा प्रतिदिन तीन संध्या में करनी चाहिये । यतः -
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नवम परिच्छेद जिनस्य पूजनं हंति, प्रातः पापं निशाभवम् । आजन्मविहितं मध्ये सप्तजन्मकृतं निशि ॥ जलाहारौषधस्वापविद्योत्सर्गकृषिकिया। सत्फलाः स्वस्वकाले स्युरेवं पूजा जिनेवरे ।।
तथा
जिणपूअणं तिसंझं कुणमाणो सोहए य संमत्तं । तित्थयरनामगुत्तं, पावइ सेणिअनरिंदुव ॥ जो पूएइ तिसंझं, जिणिदरायं सया विगयदोस । सो तईय भवे सिज्झइ, अहवा सत्तडमे जम्मे ॥ मवायरेण भयवं, पूहजंतोचि देवनाहेहि । नो होइ पूहओ खलु, जम्हा गंतगुणो भयवं ॥३॥ यह गाथा सुगम हैं।
तथा देवपूजादिक में हृदय में बहुमान और पूर्ण भक्ति भाव रक्खे । तथा जिनमत में चार प्रकार का अनुष्ठान कहा है। एक प्रीति सहित, दूसरा भक्ति सहित, तीसरा वचनप्रधान, अरु चौथा असंग अनुष्ठान । तीन में जिस के प्रीति का रस बढ़े, अरु ऋजु भद्रक स्वभाववाला होवे; जैसे वालकों में रतन को देख कर प्रीति होती है, ऐसी जिस को प्रीति होवे, सो प्रीति अनुष्ठान है। तथा बहुमान संयुक्त
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२३०
जैनतत्वादर्श
शेष पहिले अनुष्ठान
शुद्ध विवेकवाला होवे, अरु वाकी की तरे करे, सो भक्ति अनुष्ठान है । यद्यपि स्त्री का अरु माता का पालनपोषण एक सरिखा है,
तो भी स्त्री पर
यह प्रीति अरु
प्रीतिराग है, अरु माता पर भक्तिराग है । भक्ति का स्वरूप कहा है । तथा जो जिनेश के गुण का जानकार सूत्रोक्त विधि से जिनप्रतिमा को वन्दना करे, सो वचनानुष्ठान है । यह अनुष्ठान चारित्रवान् को निश्चय करके होता है । तथा जो अभ्यास के रस से सूत्रालोचना के बिना ही फल में निःस्पृह हो कर करे सो असंगानुष्ठान है । जैसे कुंभार चक्र को पहिले तो दण्ड से फिराता है, पीछे से दण्ड दूर करे, तो भी चक्र फिरता है । यह दृष्टांत वचनानुष्ठान अरु असंगानुष्ठान में है ।
इन चारों में प्रथम तो भावना के लेश से प्रायः वालक प्रमुख को होता है । आगे अधिक अधिक जान लेना । यह चारों प्रकार का अनुष्ठान वहुमान विधिसंयुक्त करे । तो रुपया भी खरा अरु खरे सन् के समान, प्रथम मेद है । दूसरा जो पुरुष, भक्तिराग बहुमान संयुक्त होवे, अरु विधि जानता न होवे, तिस का कृत्य एकांत दुष्ट नहीं । अशठ — सरल पुरुष का अनुष्ठान अतिचार सहित भी शुद्धि का कारण है, क्योंकि जो रतन अन्दर से निर्मल है, उसका बाह्य मल सहन में दूर हो सकता है। यह रुपया तो खरा, परंतु सन् खोटा के समान दूसरा भेद है । तथा जो पुरुष कपट, झूठ
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२३१
नवम परिच्छेद आदि दोष संयुक्त है, अरु अपनी महिमा-पूजा के वास्ते तथा लोगों को ठगने के वास्ते विधिपूर्वक सर्वानुष्ठान करता है, उसको बड़ा अनर्थ फल होता हैं, यह रुपया खोटा, अरु सन् खरा के समान तीसरा मेद जानना। तथा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव का जो कृत्य है, सो तो रुपया मी खोटा अरु सन् भी खोटा के समान चौथा मेद है। इस वास्ते जो देवपूजादिक करण को वहुमान अरु विधिपूर्वक करे, उसको संपूर्ण फल होता है। तथा उचित चिंता से मंदिरप्रमार्जन करना। जिस जगे
से मन्दिर गिर कर बिगड़ गया होवे, उस जिनमन्दिर की का समराना, प्रतिमा, प्रतिमा के परिवार सारसभाल को निर्मल करना; विशिष्ट पूजा दीपोत्सव
__फूल प्रमुख की शोभा करना तथा जो आगे लिखेंगे सो सर्व आशातना वर्जना; तथा अक्षत, नैवेद्यादि की चिंता करना, चंदन, केसर, धूप, दीप, तेल का संग्रह करना। विनाश न होवे, ऐसी रीति से चैत्यद्रव्य की रक्षा करे। तीन चार श्रावकों के सामने देवद्रव्य की उघराणी करे। देवद्रव्य को बहुत यल से अच्छी जगे स्थापन करे । देवद्रव्य के लाभ अरु खरच का नाम प्रगटपने लिखे । आप तथा औरों से देवद्रव्य देवे, देवावे । देवद्रव्य किसी पासों - लेना होवे, तहां देव के नौकर को भेज कर जिस रीति से देवद्रव्य जावे नहीं, तैसे करे। उधराणी के वास्ते नौकर
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जैनतत्त्वादर्श रक्खे । इस तरे देवद्रव्य की चिंता सारसम्भाल करे ।
देहरा प्रमुख की चिंता अनेक तरे की है, तिन में धनान्य को धन से, तथा स्वजन के बल से चिंता सुकर है। अरु धन रहित को अपने शरीर तथा स्वजन के बल से साध्य है। जिसका जहां जैसा बल होवे, वो विशेष तैसा यल करे। जो चिंता थोड़े काल में हो सके तिस को दूसरी निस्सही से पहिले करे, शेष को यथायोग्य पीछे करे । ऐसे ही धर्मशाला, गुरुज्ञानादि की भी यथोचित सर्व शक्ति से चिंता करे । क्योंकि देव, गुरु आदि की सारसम्भाल श्रावक के बिना और कोई करनेवाला नहीं। इस वास्ते श्रावक को देवादि की भक्ति और सारसंभाल में शिथिल न होना चाहिये । जेकर देव, गुरु प्रमुख की भक्ति, सेवा, सारसंभाल श्रावक न करे, तो उसका सम्यक्त्व कलंकित हो जाता है । अरु जो श्रावक देव, गुरु का भक्त है, उससे कदाचित् कोई आशातना भी हो जावे, तो भी अत्यन्त दुःखदायी नहीं। इस वास्ते चैत्यादि कृत्य में नित्य प्रवृत्त होवे । कहते भी हैं
देहे द्रव्ये कुटुंबे च, सर्वसंसारिणां रतिः । जिने जिनमते संघ, पुनर्मोक्षाभिलाषिणम् ।। * भावार्थ:-द्रव्य, शरीर और कुटुम्ब में तो सर्व ससारी लोगो की प्रीति है, परन्तु जिनधर्म और संघ में प्रीति तो केवल मोक्षामिलाषी पुरुषो की होती है।
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नवम परिच्छेद
૨૨૩ देव, गुरु प्रमुख की आशातना जो है, सो जघन्यादि भेद
___ करके तीन प्रकार की है, तहां प्रथम ज्ञान ज्ञान को भायातना की आशातना कहते हैं। पुस्तक, पट्टी, टीपणी,
जपमालादिक को मुख का थूक लेशमात्र लग जावे; हीनाधिक अक्षर उच्चारे, ज्ञानोपकरण-पाटी, पोथी, नवकारावली प्रमुख पास हुए, अधोवात निःसर्गादि होवे, सो जघन्य आयातना है। तथा अकाल में पठनादि, उपधान के विना मूत्र पढ़ना, भ्रांति करके अर्थ की अन्यथा कल्पना करना, पुस्तकादि को प्रमाद से पगादिक का स्पर्श करना, भूमि में गेरना, ज्ञानोपकरण के पास हुए आहार तथा मूत्रादि करना, सो मध्यम आशातना हैं। तथा थूक करके अक्षर मांजे, पाटी, पोथी प्रमुख ज्ञानोपकरण के ऊपर बैठना आदि करे, ज्ञानोपकरण के पास हुए उच्चारादिक करे, तथा ज्ञान की, ज्ञानी की, निंदा, प्रत्यनीकपना उपधात करे, उत्सूत्रभाषणादि करे, सो उत्कृष्ट आगातना है । अत्र देव की आगातना कहते हैं। तहां जघन्य देवाशातना
सो वास, वरास, केसर प्रमुख के डब्वे को जिनमन्दिर की वनावे; श्वास तथा वस के छेड़े से देव का ८४ आगातना स्पर्श करे, सो जघन्य आशातना है। तथा
पवित्र वल, धोती प्रमुख करे विना पूजा करे, पूजा के बल भूमि में गेरे, इत्यादि मध्यम आशातना है तथा प्रतिमा को पग से संघटना, श्लेष्म अरु थूक का
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२३४
जैनतरवादर्श लगाना, प्रतिमा का भंग करना, जिनेश्वर देव की अवहेलनादि करना । सो उत्कृष्ट आशातना है। अब देव की जघन्य दश आशातना, अरु मध्यम चालीस आशातना तथा उत्कृष्टी चौरासी आशातना है, सो क्रम करके कहते हैं।
- प्रथम जघन्य दश आशातना न करनी, सो लिखते हैं। जिनमन्दिर में १. पान सोपारी खावे, २. पानी पीवे, ३. भोजन करे, ४. पगरखा पहिरे, ५. स्त्री से संभोग करे, ६. सोवे, ७. थूके, ८. मूत्रे, ९. उच्चार करे, और १०. जूआ खेले। जघन्य से यह दश आशातना जिनमन्दिर में वर्जे।
दूसरी मध्यम चालीस आशातना वर्जे, तिन का नाम कहते हैं । १. मूतना, २. दिशा जाना, ३. अताप हरना, ४. पानी पीना, ५. खाना, ६. सोना, ७. मैथुन सेवना, ८. तंबोल खाना, ९. थूकना, १०. जूआ खेलना. ११. जूंआं देखे, १२. विकथा करे, १३. पालठी से बैठे, १४. जुदा जुदा पग पसारे, १५.झगड़ा करे, १६. हांसी करे, १७. किसी के ऊपर ईर्ष्या करे, १८. ऊंचे आसन पर बैठे, १९. केश शरीर की विभूषा करे, २०. शिर पर छत्र लगावे, २१. खड्ग रक्खे, २२. मुकुट धरना, २३. चामर कराने, २४. स्त्री से काम विलास सहित हांसी करनी, २५. धरना लगाना, २६. क्रीड़ा-खेल करना, २७. मुखकोश के बिना पूजा करनी, २८. मैले शरीर से
और मैले वस्त्रों से पूजा करनी, २९. पूजा करते समय मन को चपल करना, ३०. शरीर के भोग सचित्त द्रव्य को
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नवम परिच्छेद
२३५ बिना उतारे मन्दिर में जाना, ३१. अचित द्रव्य - आभूषणादि उतार के जाना, ३२. एक साडी का उत्तरासंग न करे, ३३. भगवान् को देख के हाथ न जोड़े, ३४. शक्ति के हुये पूजा न करे, ३५. अनिष्ट फूलों से पूजा करे, ३६. पूजा प्रमुख आदर रहित करे, ३७. जिनप्रतिमा के निद्रक को हटावे नहीं, ३८. मन्दिर के द्रव्य की सारसंभाल न करे, ३९. शक्ति के हुये भी सवारी पर चढ़ के मन्दिर में जावे, ४०. देहरे में बड़ो से पहिले चैत्यवंदन करे । जितेंद्र भवन में तथा जहां प्रतिमा होवे, तहां यह चालीश मध्यम आशातना टाले ।
अब उत्कृष्ट चौरासी आशातना का नाम कहते हैं । १. जिनमन्दिर में खेल खंखार गेरे, २. जूए आदिक की क्रीड़ा करे, ३. कलह करे, ४. धनुष्यादि कला सीखे, ५. कुरला करे, ६. तंबोल खावे, ७. तंबोल का उगाल गेरे, ८. गाली देने, ९. दिशा मात्रा करे, १०. हस्तादि अंग धोवे, ११. केश समारे, १२. नख समारे, १३. रुधिर गेरे, १४. सुखडी प्रमुख देहरे में खावे, १५. गुमडे आदिक की त्वचा गेरे, १६. औषधि खाके पित्त गेरे, १७. वमन करे. १८. दांत गेरे, १९. हाथ पग मसलावे, २० घोड़ादि वांधे, २१. दांत का मैल गेरे, २२. आंख का मैल गेरे, २३. नख का मैल गेरे, २४. गाल का मैल गेरे, २५, नाक का मैल गेरे, २६. माथे का मैल गेरे, २७. शरीर का मैल गेरे, २८. कान का मैल गेरे, २९. भूतादि के कीलने के वास्ते मंत्र साधे, अथवा राजा प्रमुख का काम होवे तिस
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जैनतत्त्वादर्श का विचार करे, ३०. मन्दिर में विवाहादिक की पंचायत करे, ३१. व्यापार का लेखा करे, ३२. राज का काम बांट के देवे, अथवा भाई प्रमुख को धन का हिस्सा बांट के देवे, ३३ घर का भंडार मन्दिर में रक्खे, ३४. पगोपरि पग रक्ख के दुष्टासन करके बैठे, ३५. मंदिर की भीत से छाणा लगावेगोबर का ढेर लगावे, ३६. वस्त्र सुखावे, ३७. दाल दले, ३८. पापड़ बेली सुखावे, ३९, बड़ा बनावे, उपलक्षण से कयर, चीमड़ा शाक प्रमुख सुकाने के वास्ते गेरे, ४०. राजा, भाई
और लेनदार के भय से भाग कर मूलगंभारे में लुक जावे, ४१, पुत्र, कलत्रादि के मरण से मन्दिर में रोवे, ४२. स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, देशकथा, यह चार विकथा करे, ४३. बाण, ईक्षु का गन्ना घड़े, तथा • धनुण्यादि शस्त्र घड़े, ४४. गाय, बैलादि को मन्दिर में रक्खे, ४५. शीत दूर करने को अग्नि तापे, ४६. धान्यादि रांघे, ४७. रुपैये परखे, ४८. विधि से नैषेधिकी न करे, ४९, छत्र, ५०. पगरखी, ५१. शस्त्र, ५२. चामर, यह चार, मंदिर के बाहिर न छोड़े, ५३. मन एकाग्र न करे, ५४. तैलादिक का मर्दन करे, ५५. शरीर के भोग के सचित्त फूलादिक का त्याग न करे, ५६. हार, मुद्रा, कुंडलादि, तिन को बाहिर छोड़े आवे [ तो आशातना लगे, क्योंकि लोगों में ऐसा कहना हो. जावे कि, अर्हत के भक्त सर्व कंगाल भिक्षाचर हैं, इसी तरे जिनमत की लघुता होती है ] ५७. भगवान् को देख के
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नवम परिच्छेद
२३७ हाथ न जोड़े ५८. एक साडी का उत्तरासंग न करे, ५९. मुकुट मस्तक में रक्खे, ६०. मौलि-सिर का लपेटना रखे, ६१. फूल का सेहरा रक्खे, ६२, नारियल आदिक का छोत गेरे, ६३. गेंद से खेले, ६४. पिता प्रमुख को जुहार करे, ६५, मांड चेष्टा करे, ६६. तिरस्कार के वास्ते रेकारा तुकारा देवे, ६७. लेने वास्ते धरना देवे, ६८. संग्राम करे, ६९. मस्तक के केश सुखावे, ७०. पाठठी मार कर बैठे, ७१. काठ, पादुकादि पग में रक्खे, ७२. पग पसारे, ७३. सुख के वास्ते पुडपुड़ी दवावे, ७४. शरीर का अवयव धोके कीचड़ कूड़ा करे, ७५. पगादि में लगी हुई धूल झाड़े, ७६. मैथुनकामक्रीडा करे, ७७. जूआं गेरे, ७८. भोजन जीमे, ७९. गुह्य चिन्ह को ढक के न बैठे, ८०. वैद्यक का काम करे, ८१. क्रय विक्रय रूप वाणिज्य करे, ८२. शय्या बना के सोवे, ८३. पानी पीने के वास्ते जल का मटका रक्खे, तथा मन्दिर के पतनाले का पानी लेवे, ८४. स्नान करने की जगा बनावे । वह उत्कृष्ट चोरासी आशातना जिनमंदिर में वजे । . अब गुरु की तेत्तीस आशातना लिखते हैं । १. गुरु के
आगे चले, तो आशातना है। जेकर रस्ता गुरु की ३३ बतावने के वास्ते चले, तो आशातना नहीं आयातना होती है। २. गुरु के वरावर चले, ३. गुरु
के पीछे अड़के चले, यह जैसे चलने की तीन आशातना कही हैं, ऐसे ही बैठने की भी तीन आशावना
आशातना
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२३८
जैनतत्वादर्श जान लेनी । तथा खड़ा होने की भी तीन आशातना जान लेनी । यह सर्व नव आशातना हुई। १०. भोजन करते गुरु से पहिले शिष्य चुल करे। ११. गमनागमन गुरु से पहिले आलोचे। १२. रात्रि में कौन जागता है, ऐसे गुरु के कहे को सुन कर जागता हुआ भी शिष्य उत्तर न देवे, तो आशातना लगे। १३. जब किसी को कुछ कहना होवे, तो गुरु से पहिले ही शिष्य कह देवे। १४. दूसरे साधुओं के आगे पहिले अशनादि आलोवे, पीछे गुरु के आगे आलोवे । १५. ऐसे ही अशनादि पहिले दूसरे साधुओं को दिखा के पीछे गुरु को दिखावे । १६. अन्नादिक की पहिले औरों को निमन्त्रणा करके पीछे गुरु को निमन्त्रणा करे। १७. गुरु के बिना पूछे स्वेच्छा से औरों को स्निग्ध मधुरादि आहार दे देवे । १८. गुरु को यत्किंचित् अन्नादि देकर पीछे यथेच्छा से स्निग्धादि आहार आप खावे । १९. गुरु बोलावें, तब बोले नहीं। २०. गुरु को बहुत कर्कश-कठोर वचन बोले । २१. जब गुरु बोलावे, तब आसन पर बैठा ही उत्तर देवे । २२. गुरु बोलावे तब कहे, क्या कहते हो ! २३. गुरु को तूंकारा देवे। २१. गुरु ने कोई प्रेरणा करी हो, तब गुरु की प्रेरणा को उत्तर करके हने । जैसे गुरु कहे कि हे शिष्य ! तुमने ग्लान की वैयावृत्य क्यों नहीं करी ! तब शिण्य कहे कि तुम क्यों नहीं करते ! २५. गुरु की कथा कहते हुए .मन में प्रसन्न न होवे, किंतु बिमन होवे । २६. सूत्रादि कहते
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नवम परिच्छेद
२३९ गुरु को कहे तुम को अर्थ याद नहीं है, यह अर्थ एसे नहीं होवे है । २७. गुरु कथा कहता है, तिस कथा को वीचमें छेद करे, अरु कहे कि मैं कथा करूंगा । २८. पर्षदा को भांगे, जैसे कहे कि अब भिक्षा का अवसर है, इत्यादि कहे। २९. पर्षदा के विना उठे गुरु की कही कथा को अपनी चतुराई दिखलाने के वास्ते विशेष करके कहे । ३०. गुरु की शय्या- संथारकादि को पगों से संघट्टा करे। ३१. गुरु की शय्यादि उपर बैठना आदि करे। ३२. गुरु से ऊंचे आसन पर बैठे । ३३, गुरु के बरावर आसन करे।
यह गुरु की आशातना मी तीन प्रकार की है, एक पगादि से संघट्टा करे, सो जघन्य आशातना, दूसरी श्लेष्म,
थूकादि गुरु के लवमात्र लगावे, तो मध्यम आशातना है। तीसरी गुरु का आदेश न करे, जेकर करे, तो भी उलटा करे, कठोर वचन बोले, गुरु का कहा न सुने, इत्यादि उत्कृष्ट आशातना है। स्थापनाचार्य की आशातना मी तीन प्रकार की है।
१. इधर उधर हलावे, पगों का स्पर्श करे, अन्य आशातना तो जघन्य आशातना, २. भूमि में गेरे, अवज्ञा
से घरे, सो मध्यम आशातना, ३. स्थापनाचार्य को खोवे, तथा तोड़े तो उत्कृष्ट आशातना है। ऐसे ही ज्ञानोपकरण, दर्शनोपकरण, तथा चारित्रोपकरण, रजोहरणादि, मुखवस्त्रिका, दंडक, दंडिका प्रमुख की भी आशातना
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जैनतत्वादर्श पहिले दाले।
श्रावक को, सर्व धर्मोपकरण-चरवला, मुखवस्त्रिकादि विधिपूर्वक स्वस्थान में स्थापना करनी चाहिये, अन्यथा धर्म की अवज्ञादि दूषणों की आपत्ति होवे । शास्त्र में लिखा है कि, जो सत्सूत्र भाखे, तथा अहंत की अरु गुरु की अवज्ञादि महा आशातना करे, तो उसको सावधाचार्य, मरीचि, जमाली, कूलवालकादि की तरें अनंत जन्म मरण की वृद्धि होवे । यत:--
उस्सुत्तमासगाणं, वोहीनासो अणंतसंसारो। पाणचएवि धीरा, उस्सु ता न भासंति ॥ तित्थयरपवयणसुयं, आयरियं गणहरं महिड्डियं । . आसायंतो बहुसो, अणंतसंसारिओ होइ ।। इन का अर्थ सुगम है
ऐसे ही देव, ज्ञान, साधारण द्रव्य का तथा गुरु द्रव्यवस्त्र, पात्रादि का विनाश, तिन की उपेक्षादिक जो करनी है, सो भी महामाशातना है। ।
चेइअदच्चविणासे-इसिघाए परयणस्स उड्डाहे । संजइचउत्थभंगे मूलग्गी बोहिलामस्स !!
तथा श्रावकदिनकृत्य दर्शनशुद्धि आदि शास्त्रों में भी लिखा है- . . .
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नवम परिच्छेद चेहअदवं साहारणं च, जो दहइ मोहिअमईओ। धम्म च सो न याणा, अहवा बद्धाउओ नरए । अर्थ:-चैत्यद्रव्य तथा साधारण द्रव्य को नाश करे,
या तो वो धर्म नहीं जानता है, अथवा उसने देवादि सम्बन्धी नरक का आयु बांधा है। इस वास्ते ही ऐसा द्रव्य अयोग्य काम करता है। तथा चैत्यद्रव्य का
नाश, भक्षण, उपेक्षण कोई करे, तिसको जेकर साधु न हटावे, तो वो साधु भी अनंतसंसारी हो जावे।
प्रश्न:-मन, वचन अरु काया करके जिसने सावध कर्म को त्यागा है, ऐसे यति को चैत्यद्रव्य की रक्षा में क्या अधिकार है !
उत्तर:-जेकर राजा तथा वज़ीर को याचना करके, तिनों के पास से घर, हाट, गामादि लेकर विधि से नवीं पैदायश-उत्पन्न करे, तब तो यह विवक्षित दूषण आ सकता है, परन्तु किसी-यथा भद्रकादि ने धर्म के वास्ते पहिले दिया होवे उसका नाश देखकर रक्षा करे, तो कोई दूषण नहीं होता है, बल्कि जिनआज्ञा की आराधना होने से धर्म की पुष्टि होती है।
तथा नवे मन्दिर के बनाने से जो पूर्व बना हुआ है, उसके प्रतिपंथी अर्थात् शत्रु को जो साधु हटावे तो उस
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૨૪૨
जैन तत्त्वादर्श
साधु को न प्रायश्चित्त है, तथा न उस साधु की प्रतिज्ञा
भन्न होती है । आगम भी ऐसा ही कहता है । इस वास्ते जो श्रावक जिनद्रव्य को खावे, उपेक्षा करे, वो श्रावक, अगले जन्म में बुद्धिहीन, अरु पापकर्म से लेपायमान होता है ।
आयाणं जो भञ्जइ, पडिवन्नधणं न देह देवस्स | मस्तं समुविक्खड़, सो वि हु परिभमह संसारे || अर्थ:- जो पुरुष मंदिर की आमदानी भांगे, अरु जो मुख से कह कर जिनद्रव्य न देवे, सो भी संसार में भ्रमण करे ।
तथा
जिणत्रयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं । भक्तो जिणदवं, अनंत संसारिओ होड़ ||
अर्थः- जो जिनमत की वृद्धि करे, चैत्यपूजा, चैत्यसमारना, महापूजा सत्कारादि से ज्ञान, दर्शन की प्रभावना करे, परन्तु जिनद्रव्य का नाश करे, तो अनंतसंसारी होवे । अरु जेकर जिनद्रव्य की रक्षा करे, तो अल्पसंसारी हो जावे । देवद्रव्य की वृद्धि करे, तो तीर्थङ्करनामकर्म बांधे । परन्तु पंदरा कर्मादान, खोटा वाणिज्य वर्ज के सद्व्यवहार से जिनद्रव्य की वृद्धि करे । यतः --
जिणवरआणारहियं वद्धारंतावि केवि जिणदवं । बुति भवसमुद्दे, मूढा मोहेण अन्नाणी ||
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नवम परिच्छेद
२४३ इस का अर्थ सुगम है
कोई कहते हैं कि, श्रावक विना औरों का अधिक गहना रक्ख कालांतर में व्याज की वृद्धि करे, सो उचित है । ऐसा कहना भी ठीक है। क्योंकि सम्यक्त्वपञ्चीसी आदिक ग्रन्थों में संकाश की कथा में तैसे ही लिखा है । चैत्यद्रव्य के खाने से बहुत कष्ट होने हैं; सागरश्रेष्ठीवत् । यह कथा श्राद्धविधि अन्य से जान लेनी। ज्ञानद्रव्य भी देवद्रव्य की तरें अकल्पनीय है, अर्थात् नाश करना, भक्षण करना, बिगड़ते की सारसभाल न करनी। ऐसे ही साधारण द्रव्य भी संघ का दिया हुआ ही कल्पता है; विना दिया काम में लाना न कल्पे । संत्र को भी सात क्षेत्र में ही साधारणद्रव्य लगाना चाहिये। मांगनेवालों को उसमें से देना न चाहिये। ऐसे ही ज्ञान सम्बन्धी कागज़ पत्रादि साधु का दिया हुआ श्रावक ने अपने कार्य में नहीं लगाना । अपनी पोथी में भी न रखना । स्थापना. चार्य अरु जम्मालादि ले लेने का व्यवहार तो दीखता है। तथा गुरु की आज्ञा के विना साधु साध्वी को लिखारी से लिखाना अरु वस्त्र, सूत्रादि का लेना भी नहीं कल्पता । इत्यादि विचार लेना । तिस वास्ते थोड़ा सा भी ज्ञानद्रव्य अरु साधारणद्रव्य का उपभोग न करना चाहिये ।
जो द्रव्यदेव के नाम का वोले, सो तत्काल दे देवे; क्योंकि देवद्रव्य जितना शीघ्र देवे, उतना अच्छा है । कदापि विलम्ब करे, तो पीछे क्या जाने धनहानि, मरणादि हो जावे;
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जैनतत्त्वादर्श तो देवद्रव्य का ऋण रह जाय । और संसारी का देना भी श्रावक को शीघ्र दे देना चाहिये, तो फिर देवद्रव्य का क्या कहना है ! जिस वक्त माला पहराई तथा और कुछ द्रव्य देव के भंडारे में देना करा, उसी वक्त से वो देवद्रव्य हो चुका । उस द्रव्य से जो लाम होवे, सो मी देवद्रव्य है। उस द्रव्य को श्रावक ने भोगना नहीं। इस वास्ते शीघ्र दे देना चाहिये। जेकर मासादिक पीछे देने का कौल करे, तदा करार ऊपर विना मांगे जरूर दे देवे । जेकर करार उल्लंघ के देवे, तो देवद्रव्य खाये का दूषण लगे। देवद्रव्य की उगराही भी श्रावक अपनी उगराही की तरे यत्न से करे । जेकर देवद्रव्य लेने में ढील करे, अरु कदाचित् दुर्मिक्ष, दरिद्रादि अवस्था आ जावे, तो फिर मिलना दुष्कर हो जावे। तथा देनेवाला भी उत्साहपूर्वक कपट रहित होकर शीघ्र दे देवे । नहीं तो देवद्रव्य भक्षण का दोष है। ___तथा देवज्ञान साधारण सम्बन्धी हार, खेत, वाडी, पाषाण, ईंट, काष्ठ, बांस, मिट्ठी, खड़िया, चन्दन, केसर, बरास, फूल, फूलचंगेरी, धूपपात्र, कलश, वासकूपी, छत्र सहित सिंहासन, चमर, चन्द्रोदय, झालर; मेरी, चान्दनी, तंबू, कनात, पडदे, कंबल, चौंकी, तखत, पाटा, पाटी; घड़ा, बड़ा उरसा, • कजल, जल, दीवा प्रमुख चैत्यशाला, प्रनालादिक का पानी, ये सर्व पूर्वोक्त वस्तु देव की अपने काम में न वर्तनी चाहिये। टूट फूट अथवा मलिन हो
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२४५
नवम परिच्छेद जावे, तो महापाप होवे। देव के आगे दीवा बाल के उस दीवे के चानणे में कोई सांसारिक काम करे, तो मर के तिर्यच होवे । इस वास्ते देव के दीवे से खत-पत्र भी न वांचना चाहिये । रूपक भी न परखना । घर का काम भी देव के दीवे से न करना । तथा देव के चंदन, केसर से तिलक न करे । देव के जल से हाथ न धोवे, स्नात्रजल भी थोड़ा सा लेना चाहिये। तथा देव संबंधी अल्लरी, मृदंग, मेरी प्रमुख गुरु के तथा संघ के आगे न बजावे । जेकर कोई देव के उपकरण अल्लरी आदिक से कोई कार्य करना होवे तो बहुत निकराना देव के आगे रखके लेवे, कदाचित् कोई उपकरण टूट जावे, तब अपना धन खरच के नवा बनवाने, देव का दीवा लालटैन, फानूम प्रमुख को जुदा ही राखे । तथा साधारण द्रव्य से जो झल्लरी प्रमुख बनावे, और सर्वधर्मकार्य में वर्ते तो दोष नहीं जैसे भावों से करे, सोई प्रमाण है।
देव का तथा ज्ञान का घर आदिक भी श्रावक को निःशूकतादि दोष होने से माड़े लेना न चाहिये । साधारण संबंधी घर आदि को संघ की अनुमति से लोक व्यवहार का माड़ा देकर वरते, तो दोष नहीं; परन्तु भाड़ा करार के दिन में स्वयमेव दे देवे। उस मकान के समराने में जो धन लगे, तिस को भाड़े में गिन लेवे; तो दोष नहीं। अरु जो साधर्मी संकट-निधनपने से दुःखी होवे, वो संघ की आज्ञा से
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जैन तत्वादर्श
बिना भाड़ा दिये भी रहे, तो दोष नहीं । तथा तीर्थादिक में अरु देहरे में जो बहुत काल रहना पड़े, वहां सोवे, तो तहां भी लेखे के अनुसार अधिक भाड़ा देवे । थोड़ा देवे, तो दोष है । भाड़ा दिये बिने देव, ज्ञान और साधारण सम्बन्धी वस्त्र, नारियल, सोने रूपे की पाटी, कलश, फूल, पक्वान्न, सूखडी प्रमुख को उजमने में, पुस्तक पूजा में, नन्दी मांडने में, न मेलना चाहिये। क्योंकि उजमणादि तो उसने अपने नाम का करा है । फिर देव, ज्ञान अरु साधारण सम्बन्धी पूर्वोक्त वस्तु भाड़े बिना वर्ते, तो स्पष्ट दोष है ।
बड़े
मन्दिर में भी
तथा घर देहरे में अक्षत, सोपारी, फल, नैवेद्यादि के बेचने से जो धन होवे, तिस से खरीदे हुए फूलादिक को घर देहरे में न चढ़ावे, तथा पंचायती आप न चढ़ावे । पूजारी के आगे सर्व स्वरूप कहे कि, यह मन्दिर ही का द्रव्य है, मेरा नहीं । पूजारी न होवे, तो संघ के समक्ष कह देवे । यदि न कहे, तो दूषण है । घरदेहरे का नैवेद्यादि माली को देवे, परन्तु उसको माली पहिले ही सामग्री नोकरी
की नौकरी में न गिन लेवे जेकर
मुख्यवृत्ति से तो नौकरी
में देनी कर लेवे, तो दोष नहीं
।
चढ़ावे से अलग देनी चाहिये ।
घर देहरे के चढे हुए चावलादि बड़े मन्दिर में भेज देवे, अन्यथा घर देहरे के द्रव्य से घर देहरे की पूजा होवेगी, स्वद्रव्य से नहीं होवेगी । यदि करे तो अनादर, अवज्ञादि
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२४७
नवम परिच्छेद दोष है। ऐसा करना युक्त नहीं, क्योंकि स्वद्रव्य से ही पूजा करनी उचित है। तथा देहरे का नैवेद्य अक्षतादि अपने धन की तरे रखने चाहिये। पूरे मूल्य से वेच के देवद्रव्यों को बढाना चाहिये । परन्तु जैसे तैसे मोल से न जाने देवे, नहीं तो देवद्रव्य के नाश करने का दूषण लग जावेगा। तथा सर्व तरे से करते हुए भी चौर, अग्नि, आदिक के उपद्रव से देवद्रव्य नष्ट हो जावे, तो चिता. कारक को दोप नहीं।
तथा देव, गुरु, यात्रा, तीर्थ अरु संघ की पूजा साधर्मिवात्सल्य, स्नात्र, प्रभावना, ज्ञान लिखाना इत्यादिक कारणों के वास्ते दूसरों के पास से जब धन लेवे, तब चार पांच पुरुषों की साक्षी से लेवे, फिर खरचने के अवसर में भी गुरु, संघादिक के आगे प्रगट कह देवे कि, यह धन मैंने अमुक का दिया हुआ खरचा है; मेरा नहीं है। __तथा तीर्थादि में अरु पूजा स्नात्र ध्वजा चढ़ाने आदि आवश्यक कर्तव्य में दूसरों का सिर न करे; किंतु स्वयमेव ही यथाशक्ति करे। जेकर किसी ने धर्म खरच में धन दिया होवे, तब तिस का प्रगट नाम ले कर सर्व समक्ष न्यारा ही खरच करना चाहिये । यढा बहुत मिल कर यात्रा साधर्मिवात्सल्य संघपूजादि करें, तब जितना जितना जिस का हिस्सा होवे, उतना उतना प्रगट कह देवे; नहीं तो पुण्य फल की चोरी लगे।
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जैनतस्वादर्श
तथा मरण के समय में माता, पितादिक जो धर्म में खरच करना कहे तथा पुत्रादि जो खरच करना माने सो बहुत से श्रावकों के आगे कहना चाहिये; जैसे मैं तुमारे नाम से इतने दिनों के बीच में इतना धन खरचूंगा । तुम उस की अनुमोदना करो । पीछे सो धन सर्व समक्ष अपने नाम से नहीं रखना, किन्तु माता पितादि के नाम से तत्काल खरच कर देना चाहिये । धर्म में मुख्यवृत्ति करके तो साधारण द्रव्य ही का खर्च करना चाहिये, क्योंकि जहां जहां काम पड़े, तहां तहां खरच में लावे । सात क्षेत्रों में कौनसा क्षेत्र
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सीदते - नष्ट होते देखे, तिस में धन खरच के तिस को उपष्टंभ देवे । कोई श्रावक निर्धन हो जावे तो भी उसको उसी घन से दें । लोकेऽप्युक्तम्:
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दरिद्र भर राजेंद्र 1 मा समृद्धं कदाचन । व्याधितस्योपधं पथ्यं, नीरोगस्य किमौषधम् १ ॥
इस वास्ते प्रभावना और संघ पहिरावणी, सम्यक्त्व के मोदकलम्भन आदि में जो निर्धन साधर्मी होवें, तिनको विशेष वस्तु देनी चाहिये; अन्यथा धर्मावज्ञादि दोष होवे । यह वात युक्त है कि, धनवान् से निर्धन को अधिक वस्तु देनी चाहिये । यदा शक्ति न होवे, तदा दोनों को बराबर देवे ।
अपना खरच धर्म द्रव्य से न करना । यात्रादिक के निमित्त जो धन काढे, सो सर्व देवादि निमित्त हो गया
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नवम परिच्छेद
२४९ नेकर वो द्रव्य अपने भोजन में अथवा गाडी आदिक के भाडे में लगावेगा, तब ज़रूर उसको देवद्रव्य खाने का पाप लगेगा, कदाचित् अज्ञान करके, चूक के, समझी से, इत्यादि कारणों से कोई श्रावकादि देवादि द्रव्य का उपभोग कर लेवे, तो तिसके प्रायश्चित्त में जितना द्रव्य खाया होवे, उतना द्रव्य देव साधारण संबंध में देवे । मरण अवस्था में शक्ति के अभाव से धर्मस्थान में थोड़ा ही खरचे । परन्तु देना किसी का न रक्खे । देवादि द्रव्य तो विशेष करके न रक्खे ।
- इस रीति से श्रीजिनराज की पूजा हुढ़ भावों से करनी चाहिये।
अब गुरुवंदना की विधि लिखते हैं। जो ज्ञानादि पाच आचार करके संयुक्त होवे, और शुद्ध धर्म के प्ररूपक होवें, सो गुरु हैं। पांच आचार का स्वरूप देखना होवे, तदा श्री रत्नशेखरसूरिकृत आचारप्रदीप ग्रंथ देख लेना। यह पूर्वोक्त गुरु आचार्यादिक के पास, जो प्रत्याख्यान
पूर्व में अपने आप करा था, सो विशेष करके गुरुवन्दन और विधिपूर्वक गुरु के मुख से उच्चरावे । क्योंकि प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान तीन तरे से करा जाता है-एक
आत्मसाक्षिक, दूसरा देवसाक्षिक, तीसरा गुरुसाक्षिक । तिस की विधि यह है। ___ मंदिर में देववंदनार्थ, स्नानादि देखने के अर्थ, धर्मोपदेश देने के अर्थ, गुरु जिनमन्दिर में आये होवें, तहां मन्दिर की
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२५०
जैनतश्चादर्श
तरें तीन निस्सही पंचाभिगमनादि यथायोग्य विधि से जा करके गुरु के धर्मोपदेश से पहिले तथा पीछे, यथाविधि से पच्चीस आवश्यक से शुद्ध द्वादशावर्त्त चंदना देवे । वंदना का बड़ा फल कहा हैं । कृष्णवासुदेववत् । तथा भाष्य में वंदना तीन तरें की कही हैं, एक तो मस्तक नमावणादि सो फेटा वंदना, दूसरी संपूर्ण दो खनासमण पढ़ने से स्तोमवंदना होती है । तीसरी द्वादशावर्च करने से द्वादशावत वंदना होती है । तिस में प्रथम वंदना तो सर्व संघ को करनी, दूसरी वंदना सर्व स्वदर्शनी साधुओं को करनी. अरु तीसरी वंदना जो है, सो पदवीधर आचार्यादिक को करनी ।
जिस ने सवेरे का पड़िकमणा न करा होवे, तिस ने विधिपूर्वक वंदना करनी। क्योंकि भाप्य में ऐसे ही लिखा है । १. भाप्योक्त विधि - ईर्यापथ प्रतिक्रमे २ पीछे कुस्वप्न का कायोत्सर्ग करे - सौ उछ्वास प्रमाण करे । जेकर स्वप्न में स्त्री से संगम करा होवे, तदा अशुचि की सर्व जगा धो के पीछे एक सौ आठ श्वासोच्छवास प्रमाण कायोत्सर्ग करे । ३ पीछे चैत्यवंदना करे । खमासमणपूर्वक
४. पीछे
५.
बंदना देवे ।
पीछे दो पीछे दो आलोवे । ७. अव्सुट्टिभोमि कहे । ९. पीछे दो बन्दना
फिर वन्दना
मुखवस्त्रिका प्रतिलेखे । ६. पीछे देवसि आदिक दो देवे । ८. पीछे
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नवम परिच्छेद
२५१ लरे, १०. पीछे प्रत्याख्यान करे, ११. पीछे ' भगवन् अहं' इत्यादि चार खमासमण देवे, १२, पीछे स्वाध्याय सन्दिसावओ कहे । फिर खमासमणपूर्वक सज्झाय करूं, ऐसे कहे, पीछे स्वाध्याय करे, यह सवेर की वंदनविधि है। ___तथा प्रथम १. ईपिथ पडिक्कमे, २. पीछे चैत्यवंदना करे, ३. पीछे क्षमाश्रमण पूर्वक मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करे, ४. पीछे दो वन्दना करे. ५. पीछे दिवसचरिम का प्रत्याख्यान करे, ६. पीछे दो वंदना करे, ७. पीछे देवसि आलोउं कहे, ८. पीछे दो वन्दना करे, ९. पीछे अन्मुहिउँ कहे, १० पीछे भगवन् इत्यादि चार स्तोमवन्दना करे, ११. पीछे देवसिक प्रायश्चित्त का कायोत्सर्ग करे, १२. पीछे पूर्ववत् दो खमासमण देकर स्वाध्याय करे, यह सन्ध्या की वंदन विधि है।
जेकर किसी कार्य में प्रवृत्त होने से गुरु का चित्त और तर्फ होवे, तदा संक्षेप मान वन्दना करे, ऐसे वन्दनापूर्वक गुरु पासों प्रत्याख्यान करावे । क्योंकि श्रावकप्रज्ञप्तिसूत्र में लिखा है कि, प्रत्याख्यान करने के परिणाम हढ़ भी होवे, तो मी गुरु के पासों करावे । गुरु पासों प्रत्याख्यान कराने में यह गुण है-१. दृढता होती है, २. आज्ञा का पालन होता है, ३. कर्म का क्षय होता है, ४. उपशम की वृद्धि होती है।
ऐसे ही देवसिक, चातुर्मासिक नियमादि भी गुरु का संयोग होवे तो गुरुसाक्षिक ही करने चाहिये। योगशास्त्र
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પર
जैनतत्त्वादर्श
में गुरु की भक्ति करनी ऐसे लिखी है
अभ्युत्थानं तदालोकेऽमियानं च तदागमे । शिरस्यंजलिसंश्लेषः स्वयमासनढौकनम् ॥ १ ॥ आसनाभिग्रहो भक्त्या, बन्दना पर्युपासनम् । तद्यानेऽनुगमश्चेति, प्रतिपत्तिरियं गुरौ ॥ २ ॥
[ यो० शा०, प्र० ३, लो० १२५, १२६] अर्थः- १. गुरु को आते देख के खड़ा हो जाना, २ . सन्मुख लेने जाना, ३. मस्तक पर अंजलि बांध कर प्रणाम करना, ४. गुरु को आसन देना, ५. जब गुरु आसन पर बैठ जावे लब मैं आसन पर बैठूंगा, ऐसा अभिग्रह लेवे, ६. भक्ति से वंदना पर्युपासना करे, ७. जब गुरु जावे, तत्र पहुंचाने जावे, ८. यह गुरु की भक्ति है । तथा १. अड के गुरु के बराबर न बैठे, २. आगे न बैठे, ३. गुरु की तर्फ पीठ दे कर न बैठे ४. पग ऊपर पग चढ़ा करके गुरु के पास न बैठे । ५. पाठीभार के न बैठे । ६. हाथों से जंघा को लपेट के न बैठे, ७. पग पसार के न बैठे, ८. विकथा न करे, ९. बहुत हसें नहीं, १०. नींद न लेवे, ११. मन, वचन, काया को गोप करके हाथ जोड़ भक्ति बहुमान पूर्वक उपयोग सहित सुधर्म को सुने क्योंकि गुरु पासों धर्म सुनने से इस लोक तथा
.
गुरु विनय
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२५३३
नवम परिच्छेद परलोक में बहुत गुण होता है।
तथा किसी साधु को रोगादि होवे तो गुरु से पूछे कि, वैद्य को बोलाऊं ! औषधि का योग मिलाऊं! इत्यादि गुरु और गच्छ की सर्व तरे से खबर-सार लेवे। भोजन के अवसर में उपाश्रय में जा कर के साधुओं को निमन्त्रणा करे । तथा औषधि पथ्यादि जो जिस को योग्य होवे, सो देवे । जब साधु श्रावक के घर में आवे, तब जो जो वस्तु साधु के योग्य होवे, सो सो सर्व वस्तु देने के वास्ते निमन्त्रणा करे। सर्व वस्तुओं का नाम लेवे, जेकर साधु नहीं भी लेवे, तो भी दाता को जीर्णशेठवत् पुण्य फल है। रोगी साधु की प्रतिचर्या करने से जीवानंद वैद्यवत् महापुण्य फल होता है । साधुओं के रहने को स्थान देवे, तथा जिनशासन के प्रत्यनीक को सर्वशक्ति से निवारण करे। तथा साधवियों की दुष्ट, नास्तिक, दुःशील जनों से रक्षा करे। अपने घर के पास बन्दोबस्तवाला गुप्त उपाश्रय रहने को देवे। उनों की अपनी स्त्री, बहु, बहिन, बेटी प्रमुख से सेवा-भक्ति करावे। अपनी बेटियों को साधवियों से विधा सिखलावे । जेकर किसी वेटी को वैराग्य चढ़े, तब साथवियों को दे देवे। जेकर कोई साधवी धर्मकृत्य भूल जावे, तदा स्मरण करा देवे । जेकर कोई साधवी अन्याय में प्रवृत्त होवे, तो निवारण करे। तथा आप रोज गुरु पासों नवीन नवीन शास्त्र पढे, जेकर बुद्धि थोड़ी होवे, - तदा ऐसा विचारे
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बनिया हो।
जा करके बार में जावे,
२५४
जैनतत्त्वादर्श कि सुरमें दानी में से थोड़ा थोड़ा अंजन निकलने से अंजन क्षय हो जाता है, तथा वर्मी का बन्धना । ऐसे परिश्रम अभ्यास करने से निष्फल दिन न जाने देवे। थोड़ी बुद्धि मी होवे तो भी पढ़ने का अभ्यास न छोड़े। इत्यादि धर्मकृत्य करके पीछे जेकर राजा श्रावक होवे,
तब तो राजसभा में जावे, प्रधान होवे, तो अर्थचिन्ता न्याय सभा में जावे, बनिया होवे तो हट्टी
बाजार में जावे, इत्यादि उचित स्थान में जा करके धर्म से विरुद्ध न होवे, उस रीति से धन उपा. जैन की चिन्ता करे। ___अब प्रथम राजा किस रीति से प्रवर्ते, सो लिखते हैं । जो राजा होवे, सो दरिद्री, मान्य, अमान्य, उत्तम, अषम आदि सर्व लोकों का पक्षपात रहित मध्यस्थ हो कर न्याय करे । राजा के कारभारी-मंत्री आदिक तिन का धर्माविरोध यह है, राजा का अरु प्रजा का नुकसान न होवे, तैसे प्रवर्ने । क्योंकि जो मन्त्री राजा का हित वांछता है, उस पर प्रजा द्वेष करती है, अरु जो प्रजा का हितकारी है, उसको राजा छोड़ देता है, इस वास्ते राजमन्त्री आदि को दोनों का हितकारी होना चाहिये।
वणिक् व्यापारी लोगों का धर्माविरोष यह है कि, व्यापार शुद्धि करे । यथा
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नवम परिच्छेद ववहारसुद्धि देसाइविरुडचायउचिअचरणेहिं । तो कुणइ अत्थचिंतं निवाहितो नियं धम्म ।।
अर्थ:-व्यापार की शुद्धि, देगादि विरुद्ध का त्याग, उचित आचरण, इन तीनों प्रकार से धन उपार्जन करने की चिंता करे, अरु अपने धर्म का भी निर्वाह करे। क्योंकि ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो धन से सिद्ध न होवे । तिस वास्ते बुद्धिमान् धन के उपार्जन में यल करे । यदाह
नहि तद्विद्यते किंचिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति । यत्नेन मतिमांस्तम्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ।।
इहा जो अर्थचिंता है, सो अनुवादरूप है, क्योंकि धन के उपार्जन की चिंता लोक में स्वतः ही सिद्ध है, कुछ शासकार के उपदेश से नहीं । अरु " धर्म निर्वाहयन् " यह जो कहना है, सो विधेय-करने योग्य है, क्योंकि इस की आगे प्राप्ति नहीं है। शास्त्र का जो उपदेश है, सो अप्राप्त अर्थ की प्राप्ति के वास्ते है, शेष सर्व अनुवादादि रूप है। अव आजीविका चलाने के प्रकार कहते हैं-आजीविका
सात प्रकार से होती है-१. व्यापार करने आजोविका के से, २. विद्या से, ३. खेती करने से, ४. साधन पशुओं के पालने से, ५. कारीगरी करने से,
६. नौकरी करने से, ७. भीख मांगने से।
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जैनतस्वादर्श
तिन में १ वाणिज्य करने से वणिक् लोकों की आजीविका है, २. विद्या से वैद्यादिकों की आजीविका है, ३. खेती करने से कौटुम्बिकादिकों की है, ४. पशु पालने से गोपाल अजापालादिकों की है, ५. शिल्प करके चितारादिकों की है, ६. नौकरी करने से सिपाही लोकों की है, ७. मिक्षा से मांग खानेवालों की आजीविका है ।
तिन में – १. वाणिज्य सो धान्य, घृत, तैल, कार्पास, सूत्र, वस्त्र, धातु, मणि, मोती, रुपया, सोनैया प्रमुख जितनी जात का करयाणा है, सो सर्व व्यापार है । अरु जो व्याजु देना है, सो भी व्यापार है ।
धर्म,
२. विद्या भी औषधि, रस, रसायन, चूर्ण, अंजनादि, वास्तुक शास्त्र, पंखी का शकुन, भूत भविष्यादि निमित्त, सामुद्रिक, चूड़ामणि, जवाहिर परखने का शास्त्र, अर्थ, काम, ज्योतिष, तर्कादि भेद से अनेक प्रकार की है । इस वैद्यविद्या में अतारपना, पंसारीपना करना ठीक नहीं, क्योंकि इस में प्रायः दुर्ध्यान होने से बहुत गुण नहीं दीखता है । क्योंकि जिस को जिस से लाभ होता है, वो उसी बात को चाहता है । तदुक्तं -
विग्रहमिच्छंति भटा वैद्याथ व्याधिपीडितं लोकम् | मृतक बहुलं विप्राः, क्षेमं सुभिक्षं च निर्ग्रथाः ।।
अर्थ :- सुभट संग्राम चाहते हैं, वैध रोगपीडित लोगों
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नवम परिच्छेद
२५७ को चाहते हैं, अरु ब्राह्मण बहुत लोगों का मरण चाहते हैं, तथा निरुपद्रव सुकाल को साधु निग्रंथ चाहते हैं। परन्तु जो वैद्य अत्यंत लोभी होवे, धन लेने के वास्ते उलटी
औषधि जान के देवे, जिसके मन में दया न होवे, जो त्यागी साधुओं की औषधि न करे, जो दरिद्री, अनाथादि लोगों को मरते जान के भी धन खोस लेवे, मांस मघादि अभक्ष्य वस्तु का मक्षण करना बतावे, झूठी औषधि बना के लोगों को ठगे, वो वैद्यविद्या नरक की देनेवाली हैसो न करनी चाहिये । अरु जो वैद्य सत् प्रकृतिवाला होवे, लोभी न होवे, पूर्वोक्त दूषण रहित होवे, परोपकारी होवे, ऐसे की वैद्यविद्या श्रीऋषमदेवजी के जीव जीवानंद वैद्य की तरे दोनों भवों में गुण देनेवाली है। ऐसी वैद्य. विधा से आजीविका करे, तो अच्छा है।
३. खेती-सो तीन तरे से होती है, एक मेघ से, दूसरी कूप, नहरादि से, तीसरी दोनों से ।
४. पशु पालकपना-सो गौ, महिष, बकरी, ऊंट, बैल, घोड़ा, हाथी इनको बेच कर आजीविका करनी।
खेती अरु पशुपालन, यह दोनों काम विवेकी को करने उचित नहीं। जेकर इनके करे बिना निर्वाह न होवे, तदा वीज बोने का काल जाने, भूमि की सरस नीरसता को जाने, अरु जो खेत पहिले वाहे बिना बोया न जावे, दूसरा रस्ते का क्षेत्र, यह दोनों क्षेत्र को वर्ने, तो धन की वृद्धि
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२५८
जैनतत्त्वादर्श
होवे । अरु जो पशुपाल्यपना करे, तो पशुओं के ऊपर निर्दय न होवे, पशु का कोई अवयव न छेदे । इसी तरे पशुपालकपना करे |
काल में न्यूनाधिक प्रथम सौ तरें का
वास्ते सौ ही लिखा
५. शिल्प आजीविका है । सो शिल्प सौ तरे का है। मूल शिल्प तो पांच हैं - १. कुम्भार, २. लोहार, ३ . चितारा, ४. बनकर अर्थात् बुननेवाला, ५. नाई । इन पांचों के वीस वीस मेद हैं । यद्यपि इस कभी होवेंगे, परन्तु श्री ऋषभदेवजी ने शिल्प ही प्रजा को सिखलाया था, इस है । जो सांसारिक विद्या है, सो सर्व कोई कर्म में है । शिल्प गुरु के उपदेश से स्वयमेव ही आ जाता है । यह प्रकार का है - १. उत्तम बुद्धि से धन कमाता है, हाथों से कमावे, ३. अधम पगों से मस्तक से बोझा ढो कर कमावे |
शिल्प में आता है,
I
अरु कर्म
कर्म भी सामान्य से चार
२. मध्यम
हैं, कोई
कमावे, ४ अधमाधम
·
६. सेवा करके आजीविका करे । सो सेवा राजा की, मन्त्री की, सेठ की, सामान्य लोगों की नौकरी, यह चार प्रकार से है। प्रथम तो नौकरी किसी की भी न करनी चाहिये, क्योंकि नौकर परवश हो जाता है । जेकर निर्वाह न होवे, तदा नौकरी भी करे, परन्तु जिस की नौकरी करे, 'उसमें यह कहे हुए गुण होवें, तो उसके वहां नौकर
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नवम परिच्छेद
२५१
रहे । जो पुरुष कानों का दुर्बल न होवे, सूरमा होवे, कृतज्ञ होवे, सात्विक, गम्भीर, घीर, उदार, शीलवान्, गुणों का रागी होवे; उसकी नौकरी करे। अरु जो क्रूर प्रकृतिबाला होवे, कुव्यसनी होवे, लोभी होवे, चतुर न होवे, सदा रोगी रहे, मूर्ख होवे, अन्यायी होवे, उसकी नौकरी न करे; क्योंकि कामंदकीय नीतिशास्त्र में लिखा है कि, जिस राजा की वृद्ध पुरुषों ने सेवा करी होवे, सो राजा अच्छा है । स्वामी को भी चाहिये कि जैसा सेवक होवे, तैसा उसका सन्मान करे । सेवक भी थके हुए, भूखे हुए, क्रोध में हुए, व्याकुल होये, तृपावंत होये, शयन करने लगे, दूसरे के अर्ज करते हुये, इन अवस्थाओं में स्वामी को विनति न करे । तथा राजा की माता, राजा की रानी, राजकुमार, मुख्य मंत्री, अदालती, राज का दरवान, इनके साथ राजा की दरें वर्त्तना चाहिये। इस रीति से प्रवर्चे, तो धन की प्राप्ति
दुर्लभ नहीं । यथा
इक्षुक्षेत्रं समुद्रश्य, योनिपोषणमेव च । प्रसादो भूभुजां चैव, सद्योधनंति दरिद्रताम् ॥ १ ॥
निंदंतु मानिनः सेवां, राजादीनां सुखैषिणः । स्वजनास्वजनोद्धारसंहारौ न तया विना ॥ २ ॥
1
मन्त्री, श्रेष्ठी, सेनानी इत्यादि व्यापार भी सर्व नृमसेवा
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२६०
जनतत्वादर्श के अंतर्भूत ही हैं। परन्तु जेलखाने का दारोगादि, नगर का कोटवाल, सीमापाल इत्यादि नौकरी न करनी चाहिये, क्योंकि यह नौकरी निर्दयी लोगों के करने की है। तिस वास्ते श्रावक को नहीं करनी । जेकर कोई श्रावक राज्याधिकारी हो जावे, तो वस्तुपालादिक मन्त्रियों की तरें महाधर्म कीर्ति का करनेवाला होवे । श्रावक मुख्यवृत्ति करके तो सम्यग्दृष्टि की ही नौकरी करे। ___७. भीख मांगने से आजीविका है। सो भीख मांगने के भी अनेक मेद हैं । तिन में धर्मोपष्टंभ मात्र आहार, वख, पात्रादिक की भिक्षा लेवे । सो भी जिस साधु ने सर्व संसार और परिग्रह का संग त्यागा है, तिस को मांगनी उचित है। क्योंकि उसकी भीख मांगने के सिवाय और गति नहीं है। श्रीहरिभद्रसूरिजी ने पांचमे अष्टक में मिक्षा तीन प्रकार की लिखी है । प्रथम भिक्षा सर्वसंपत्करी, दूसरी पौरुषघ्नी, तीसरी वृत्तिमिक्षा है। जो साधु परिग्रह का त्यागी, धर्म ध्यान संयुक्त, जिनाज्ञासहित होने से षट्काय के आरम्भ से रहित है तिसकी मिक्षा सर्वसंपत्करी है । तथा जो साधु तो बन गया है, परन्तु साधु के गुण उसमें नहीं हैं, तथा जो गृहस्थावास में लष्टपुष्ट, षट्काय का आरम्भी, पडिमा वहे बिना का श्रावक तथा और गृहस्थ जो मांग के खावे, तिस की पौरुषघ्नी भिक्षा है। वो पुरुष धर्म की लाघवता का करनेवाला है, पूर्वजन्म में जिनाज्ञा का खण्डन करनेवाला
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नवम परिच्छेद
२६१ है, आगे अनंत जन्म लग दुःखी रहेगा। तथा जो निर्धन, अंघा, पांगला, असमर्थ और कोई काम करने में समर्थ नहीं, वो मीख मांग के खावे, तो तीसरी वृत्तिमिक्षा है । यह मिक्षा दुष्ट नहीं। इस भीख के मांगने से लघुतादि धर्म के दूषण नहीं होते हैं। क्योंकि जो इनको देता है, वो अनुकंपादया करके देता है, देनेवाला पुण्य उपार्जन करता है। इस वास्ते गृहस्थ को भीख न मांगनी चाहिये । धर्मी श्रावक को तो विशेष करके भीख न मांगनी चाहिये। मिक्षा मांगने से धर्म की निंदा, अरु धर्म की निंदा से दुर्लभबोधी होता है। भीख मांगने से उदर पूर्ण तो हो जाता है, परन्तु लक्ष्मी नहीं होती है। यतः
लक्ष्मीर्वसति वाणिज्ये, किंचिदस्ति च कर्षणे । अस्ति नास्ति च सेवायां, भिक्षायां न कदाचन ।। यह बात मनुस्मृति के चौथे अध्याय में भी लिखी है।
तथा जब वाणिज्य करे, तव कष्ट में सहायक, व्यापार और पूंजी का बल, स्वमाग्योदय, देश, काल, व्यवहार नीति देख के करे। वाणिज्य करने लगे, परन्तु
पहिले थोड़ा करे, पीछे लाम जाने तो यथायोग्य करे । कदाचित निर्वाह के न हुए खरकर्म भी करे, तो भी अपने आप को निंदता हुआ करे । विना देखा विना परीक्षा के सौदा न लेवे । जो सौदा संदेहवाला
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२६२
जैनतत्त्वादर्श होवे वो बहुतों के साथ मिल कर लेवे। जहां स्वचक्र परचक्रादि का उपद्रव न होवे, अरु धर्म की सामग्री होवे, तिस क्षेत्र में व्यापार करे। ____ काल से तीन अट्ठाई और पर्वतिथि के दिन व्यापार न करे। जो वस्तु वर्षा काल के साथ विरोधी होवे, सो त्यागे। भाव से जो क्षत्रिय जाति का व्यापारी राजा प्रमुख होवे, तिसके साथ व्यापार न करे। अपने विरोधी को उधारा न देवे । तथा नट, विट, वेश्या, जुआरी प्रमुख को तो विशेष करके उधारा नहीं देवे। हथियारबंध के साथ तथा व्यापारी ब्रामण के साथ लेनदेन न करे। मुख्य तो अधिक मोल का गहना रख के व्याजु देवे, क्योंकि उससे मांगने का क्लेश, विरोध, धर्महानि, धनिरणादिक कष्ट नहीं होते हैं। जेकर ऐसे निर्वाह न होवे, तब सत्यवादी को व्याजु उधार देवे । व्याज भी एक, दो, तीन, चार, पांच प्रमुख सैकड़े पीछे महीने में भले लोक जिसको निंदे नहीं, ऐसा लेवे ।
जेकर देना होवे तदा करार पर बिना मांगे ही देना चाहिये। कदाचित् निर्धनपने से एक बार में न दे सके, तो किमत प्रमाणे तो ज़रूर दे देवे । क्योंकि देना किसीका न रखना चाहिये । यदुक्तम्
धर्माम्मे ऋणछेदे, कन्यादाने धनागमे । शनुपातेऽनिरोगे च, कालक्षेपं न कारयेत् ।।
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नवम परिच्छेद
२६३
जेकर देना न उतरे, तब उसका नौकर रहकर भी देना उतार देवे । नही तो भवांतर में उसका कर्मकर-चाकर, महिष, बैल, ऊंट, खर, खच्चर, घोड़ा, प्रमुख बन कर देना पड़ेगा । लेनेवाला भी जब जान लेवे कि, यह देने में समर्थ नहीं, तब बिलकुल मांगना छोड़ देवे। ऐसे कहे कि, जब तू देने में समर्थ होवेगा तब दे देना, नहीं तो यह धन मैं कुछ अपने धर्म में लगाया, वही में लिख लेता हू, तेरे से मैं कुछ नही लेऊंगा ।
श्रावक को मुख्यवृत्ति से तो धर्मी जनों से ही व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि दोनों पासे धन रहेगा तो धर्म में लगेगा | अरु किसी म्लेच्छ पास घन रह जावे, तदा व्युत्सर्जन कर देवे । व्युत्सर्जन करे पीछे जेकर वो म्लेच्छ फिर धन दे देवे, तदा वो धन धर्म में खरचने के वास्ते संघ को सौंप देवे, अरु व्युत्सर्जन करा है, ऐसा भी कह देवें । ऐसे ही जो कोई वस्तु खोई जावे, अरु ढूंढने से न मिले, तो तिस वस्तु का भी व्युत्सर्जन कर देवे। पीछे कदाचित् अपने पास धनहानि हो जावे, घन की अप्राप्ति हो जावे, तो भी खेद न करे; क्योंकि खेद का न करना, यही लक्ष्मी का मूल कारण है ।
बहुत धन जाता रहे, तो भी धर्म करने में आलस न करे/ क्योंकि संपदा अरु आपत् बड़े आदमी को ही सदा एक सरीखे दिन किसी के नहीं जाते हैं,
होती है ।
पूर्व जन्म
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२६४
जैनतत्त्वादर्श
जन्मांतर के पुण्यपापोदय से संपदा, विपदा होती है, इस वास्ते धैर्य का अवलंबन करना श्रेष्ठ है । यदा अनेक उपाय करने से भी दरिद्र दूर न होवे, तदा किसी भाग्यवान् का आधार लेवे, अर्थात् सांजी वन के व्यवहार करे; क्योंकि काठ के संग से लोहा भी तर जाता है ।
किसी के साथ
जेकर बहुता धन हो जावे, तदा अभिमान न करे, क्योंकि लक्ष्मी के साथ पांच वस्तु होती हैं - १. निर्दयत्व, २. अहं - कार, ३. तृष्णा, ४. कठिन वचन बोलना, ५. वेश्या, नट, विट, नीच पात्र, वल्लभ होते हैं । इस वास्ते बहुत धन हो जावे, तो इन पांचों को अवकाश न देवे । लड़ाई न करे, जबरदस्त के साथ तो विशेष कर के लड़ाई नहीं करे । तथा-- १. धनवंत, २. राजा, ३. पक्षवाला, ४. चलवान्, ५. दीर्घरोषी, ६. गुरु, ७. नीच, ८. तपस्वी, इन आठों के साथ वाद न करे । जहां तक नरमाई से काम बने, तहां तक कठिनाई न करे । लेने देने में भ्रांति मूलादिक से अन्यथा हो जावे, तो विवाद न करे, किंतु न्याय से झगड़ा मिटावे । न्याय करनेवाले को भी निर्लोभी पक्षपात रहित होना चाहिये । तथा जिस वस्तु के महंगे होने से प्रजा को पीड़ा होवे ऐसी वस्तु के महंगे होने की चिंता न करे । परन्तु कर्मयोग से दुर्भिक्षादिक हो जावे, तब भी सौदे में दुगने तिगने लाभ हो जावे, तदा अन्न में अधिक न लेवे ।
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नवम परिच्छेद
२६५ तथा एक, दो तीन, चार, पांच रुपये सैंकडे से अधिक व्याज न लेवे । किसी का गिर पड़ा धन न लेवे । तथा कालांतर में क्रयविक्रयादि में देशकालादि की अपेक्षा से उचित शिष्टजन अनिदित लाम होवे, सो लेवे । यह कथन प्रथम पंचाशकसूत्र में है । तथा खोटा तोल, खोटा माप, न्यूनाधिक वाणिज्य रस में मेलसंमेल न करे। वस्तु का अनुचित मोल, अनुचित व्याज, लंचा अर्थात् घूस, कोडवट्टी न लेवे। घिसा हुआ तथा खोटा रूपकादि किसी को खरे में न देवे। दूसरों के व्यापार में भंग न करे-ग्राहक न वहकावे । वानगी और न दिखावे, अंधेरा करके वस्तु न बेचे, जाली खत-पत्रादि न बनावे । इत्यादि परवंचनपने को वर्जे । सर्वथा प्रकारे व्यवहारशुद्धि करे, क्योंकि व्यवहारशुद्धि ही गृहस्थधर्म का मूल है।
तथा स्वामिद्रोह, मित्रदोह, विश्वासघात, वालद्रोह, वृद्धद्रोह और देवगुरुद्रोह न करे। तथा थापणमोसा न करे। ये सर्व महापाप के काम है, अतः इन को वर्ने । तथा कूड़ी साक्षी, रोप. विश्वासघात, कृतघ्नपना, ये चारों फर्म चण्डालपने के हैं, तिनको वर्जे । झूठ सर्व पापों से बड़ा पाप है, इस वास्ते झूठ सर्वथा न बोले। न्यास से धन उपार्जन करे।
जो अन्यायी लोग सुखी दीखते हैं, वो अन्याय से सुखी नहीं है। किंतु उनके पूर्वजन्म के पुण्य के फल से सुखी हैं, क्योंकि कर्मफल. चार तरे का है । जैसे कि श्रीधर्म
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२६६
जैनतत्वादर्श घोषसूरिजी ने कहा है-एक पुण्यानुबन्धी पुण्य है, दूसरा पापानुबन्धी पुण्य है, तीसरा पुण्यानुबन्धी पाप है, चौथा पापानुबन्धी पाप है। यह चार प्रकार जो हैं, तिनको किंचित् विस्तारपूर्वक कहते हैं
१. जिस ने जिनधर्म की विराधना नहीं की, किंतु संपूर्ण रीति से आराधन किया है, सो संसार में-भवांतर में महासुखी धनाढ्य उत्पन्न होवे, भरत बाहुबल की तरे, सो पुण्यानुबन्धी पुण्य है।
२. जो पुरुष नीरोगादि गुणयुक्त होवे, अरु धनाढ्य भी होवे, परन्तु कोणिक राजा की तरे पाप करने में तत्पर होवे; यह पुण्य पूर्व भव में अज्ञान कष्ट करने से होता है, सो पापानुबन्धी पुण्य है।
३. जो पुरुष पाप के उदय से दरिद्री अरु दुःखी होवे, परन्तु श्रीजिनधर्म में बड़ा अनुरक्त होवे, धर्म करने में तत्पर होवे; सो पुण्यानुबन्धी पाप है । यह दुमकमहर्षिवत् पूर्व भव में लेश मात्र दया आदि सुकृत करने से होता है।
४. पापी प्रचण्ड कर्म के करनेवाला विधर्मी, निर्दय, पाप करके पश्चाचाप रहित, यह पुरुष दुःखी है, तो भी पार करने में तत्पर है, सो पापानुबन्धी पाप है, कालसौकरिकादिवत् ।
तथा बाह्य जो नव प्रकार की परिग्रह रूप ऋद्धि, अरु अन्तरंग, जो आत्मा की अनंत गुणरूप ऋद्धि है, सो पुण्या
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नवम परिच्छेद
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नुबन्धी पुण्य से होती है। अतः जेकर कोई जीव पापानुबन्धी पुण्य के प्रभाव से इस लोक में सुखी भी दीखता है, तो भी अगले भव में महा आपदा को प्राप्त होगा । अरू ' जो महसूल की चोरी है, सो स्वामिद्रोह में हैं। यह चोरी इस लोक अरु परलोक में अनर्थ की दाता है। जिस में दूसरों को पीड़ा होवे, ऐसा व्यवहार न करे । यतः
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शाख्येन मित्रं कपटेन धर्म, परोपतापेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां परुषेण नारीं, बांछंति ये व्यक्तमपंडितास्ते ||
तथा जिस तरे लोगों को रागभाव होवे तैसे यत्न करे । यतः
जितेंद्रियत्वं विनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयादवाध्यते । गुणप्रकर्पेण जनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि संपदः ॥
तथा घनहानि, वृद्धि, संग्रहादि, गुह्य, दूसरों के आगे प्रकाश न करे । यतः
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स्वकीयं दारमाहारं सुकृतं द्रविणं गुणम् । दुष्कर्मम मन्त्रं च परेषां न प्रकाशयेत् ॥
तथा झूठ भी न बोले, जेकर राजा गुरु आदिक पूछे, तो सत्य कह देवे, सत्य बोलना ही पुरुषत्व की परम दशा है ।
तथा यथार्थ कहने से मित्र का मन हरे, तथा बांधव -
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२६८
जैनतस्थादर्श जनों को सम्मान से वश करे, तथा स्त्री को प्रेम से वश करे, तथा चाकरों को दान देने से वश करे, तथा दाक्षिज्यता करके इतर लोगों का मन हरे, तथा किसी जगे अपने कार्य की सिद्धि करने के वास्ते दुष्ट जनों को भी अगुवा-अगाडी करे। तथा जिस जगे प्रीति होवे, तहां लेने देने का व्यापार न करे, यह कथन सोमनीति में भी है। ___ तथा साक्षी के बिना मित्र के घर में भी धनादिक न रखना चाहिये, क्योंकि लोम बड़ा दुर्दात है। तथा जो धन रखनेवाला मर जावे तो वो धन उसके पुत्रादि को दे देना चाहिये । जेकर धन रखनेवाले का कोई भी संबंधी न होवे, तब वो धन सर्व लोगों के समक्ष धर्मस्थान में लगा देवे। तथा श्रावक, देवगुरु, चैत्य, जिनमन्दिर की चाहे सच्ची, चाहे झूठी भी शपथ अर्थात् सौगंद न खावे । तथा दूसरों का साक्षी भी न बने । कार्पासिक ऋषि कहते हैं
अनीश्वरस्य द्वे भायें, पथि क्षेत्रं द्विधा कृषिः । प्रातिभाव्यं च साक्ष्यं च, पंचानाः स्वयं कृताः ॥
तथा श्रावक मुख्यवृत्ति से तो जिस गाम में रहे, तहां ही व्यापार करे, क्योंकि ऐसे करने से कुटुम्ब का अवियोग तथा घर का कार्य अरु धर्मकार्यादिक सर्व बने रहते हैं । कदापि अपने गाम में निर्वाह न होवे, तदा निकट देशांतर में व्यवहार करे। जहां से कोई योग्य काम पड़े
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नवम परिच्छेद तो शीघ्र घर में आजावे। ऐसा कौन पामर है कि जिस का स्वदेश में निर्वाह होवे, तो मी परदेश में नावे ? कहा भी है
जीवंतोऽपि मृताः पंच, श्रूयते किल भारत !! दरिद्रो व्याधितो मूर्खः, प्रवासी नित्यसेवकः ।।
लेकर निर्वाह न होवे, तदा आप तथा पुत्रादिकों को परदेश में न भेजे, किंतु सुपरीक्षित गुमास्ते को भेजे। जेकर स्वयमेव देशांतर में जावे, तदा भला मुहूर्त शकुन निमित्त देख के अरु देव गुरु को वंदना करके, मंगलपूर्वक भाग्यवान् साथ के बीच में, निद्रादि प्रमाद वर्न के कितनेक अपने ज्ञातियों को साथ लेकर जावे। क्योंकि भाग्यवान् के साथ जाने से विन्न टल जाता है। तथा लेना, देना, गड़ा हुवा धन, सर्व, पिता, भाई, पुत्रादिकों को कह जावे । अपने सम्बंधियों को भली शिक्षा दे जावे । बहुमानपूर्वक सर्व को बोला के जावे। परन्तु जो जीवने की इच्छा होवे, तो देव गुरु का अपमान करके, किसी को निर्मर्स के, स्त्री आदि को ताड़ना कूदना करके, बालक को रुदन करवा करके न जावे । कदापि कोई पर्व महोत्सवादि का दिन निकट होवे, तदा उत्सव करके जावे । यतः
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Quo
जैनतत्त्वादर्श उत्सवमशनं स्नानं प्रगुणं चोपेक्ष्य मंगलमशेषम् । असमापिते च सूतकयुगेऽगनचौ च नो यायात् ॥
तथा दूध पीके, मैथुन करके, स्नान करके, अपनी स्त्री को मारपीट करके, वमन करके, थूक के, रुदन करके, कठिन शब्द सुन के, गालियां सुन के प्रदेश को न जावे । तथा सिर मुंडन करवा के, आंसु गिरा के, खोटे शुकन के हुये प्रामांतर को न जावे। ___तथा कार्य के वास्ते जब चले, तब कौनसा स्वर बहता होवे, उस पासे का पग पहिले उठा के धरे, जिस से कार्यशिद्धि होवे । तथा रोगी, बूढ़ा, ब्राह्मण, अंधा, गौ, पूजनिक, राजा, गर्भवती स्त्री, भार उठानेवाला, इन को कुछ दे कर आमांतर में जावे । तथा धान्य पक्का वा कच्चा पूजा योग्य मंत्रमंडल, इन को त्यागे नहीं। तथा स्नान का जल, रुधिर, मुरदा, थूक, श्लेष्म, विष्टा, मूत्र, बलती अग्नि, सांप, मनुष्य, शस्त्र, इन को उल्लंघे नहीं। तथा नदी के कांठे, गौओं के गोकुल में, बड़ वृक्ष के हेठ, जलाश्रय में, अरु कूप काठे में 'विष्टा न करे, तथा रात्रि को वृक्ष हेठ न रहे, उत्सव, सूतक पूरा हुये परदेश को जावे । विना साथ के न जावे, दास के 'साथ न जावे, मध्यान्ह में तथा अर्घ रात्रि में मार्ग में न चले। 'उथा क्रूर प्रकृतिवाला मनुष्य, कोटवाल, चुगल, दरजी, घोबी प्रमुख अरु कुमित्र, इतनों के साथ गोष्ठी न करे । इनों
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नवम परिच्छेद
૨૭૨ के साथ अकाल में चले नहीं। तथा महिप, गर्दभ, अरु गौ, इन की सवारी न करे । तथा हाथी से हज़ार हाथ, गाडे से पांच हाथ अरु घोडे तथा सींगवाले जनावरों से भी पांच हाथ दूर रहे। तथा खरची विना रस्ते में न चले। बहुत सोवे नहीं । रस्ते में किसी का विश्वास न करे। अकेला किसी के घर में न जावे । जीर्ण नाव पर चढे नहीं । एकला नदी में प्रवेश न करे। कठिन जगा में उपाय बिना न जावे । अगाध पानी में प्रवेश न करे । जहां बहुते क्रोधी हो, अरु बहुते सुखों के इच्छुक होवे, तथा जहां घणे सूम; हो; ऐसे साथ के साथ कदापि परदेश में न जावे । तथा वांधने के, मरने के, जूआ खेलने के, पीड़ा के, खजाने के, अंतेउर के स्थान में न जावे। तथा बुरे स्थान में, श्मशान में, शून्यस्थान में, चौक में, सूखे घास में, कूड़े में, ऊंची नीची जगा में, उकलडी में, वृक्षाय में, पर्वतान में, नदी के कांठे में, कूप के कांठे में, बैठे नहीं। तथा जो जो कृत्य जिस जिस काल में करना है, सो करे, परन्तु छोडे नहीं।
तथा पुरुष को जो भले वस्त्रादि पहरने का आडंबर चाहिये सो न छोडे । परदेश में तो विशेष करके आडम्बर नहीं छोड़ना, क्योंकि आडम्बर से अनेक कार्य सिद्ध हो जाते हैं। तथा जो कार्य करना हो सो पंचपरमेष्ठिस्मरणपूर्वक तथा गौतमादि गणधरों का नामग्रहणपूर्वक करे । तथा देव गुरु की भक्ति के वास्ते धन की कल्पना करे । क्योंकि
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२७२
जैनतत्वादर्श जब धन कमाने का प्रारम्भ करना, तब ही नफे में से इतना हिस्सा सात क्षेत्र में लगाऊंगा; ऐसी भावना जरूर करनी चाहिये। ___यदा लाभ हो जावे, तदा चिंता के अनुसार अपने मनोरथ को सफल करे, क्योंकि व्यापार का फल यह हैं कि, धन होना, अरु धन होने का फल यह है कि, धर्म में घन लगाना, नहीं तो व्यापार करना नरक तिर्यंचगति का कारण है। जेकर धर्म में खरचे, तो धर्मधन कहा जावे, जेकर नहीं खरचे तो पापधन कहा जावे। क्योंकि ऋद्धि तीन प्रकार की है-एक धर्म ऋद्धि, दूसरी भोग ऋद्धि, तीसरी पाप ऋद्धि। उस में जो धर्मकार्य में लगावे, सो धर्म ऋद्धि तथा जो शरीर के भोग में आवे सो भोगऋद्धि, अरु धर्म तथा भोग से जो रहित, सो पाप ऋद्धि जाननी। इस वास्ते नित्य प्रति स्वधन को दानादि धर्म में लगाना चाहिये । जेकर थोड़ा धन होय तो थोड़ा लगावे, क्योंकि किसी को ही इच्छानुसारिणी शक्ति होती है। तथा धन उत्पन्न करने का उपाय नित्य करना चाहिये, परन्तु अत्यन्त लोभ न करना चाहिये । तथा धर्म, अर्थ, अरु काम यथा अवसर में सेवना; परन्तु अत्यन्त कामासक्त न होना चाहिये । अरु जो धन उत्पन्न करना सो भी न्याय से उत्पन्न करना चाहिये। यहां पर जो न्यायार्जित धन सत्पात्र में देना, लगाना है, तिस के चार भंग हैं । यथा
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२७३
नवम परिच्छेद न्यायोपार्जित सत्पात्रविनियोगरूप प्रथम भंग । इस का पुण्यानुवन्धी पुण्य का हेतु होने से वैमानिक देवतापना, भोगभूमि, मनुष्यपना, सम्यक्त्वादि की प्राप्ति और निकट मोक्षफल है । धनसार्थवाह तथा शालिभद्रादिवत् ।
न्यायोपार्जित असत्पात्रविनियोगरूप दूसरा मंग। इनका पापानुबन्धी पुण्य का हेतु होने से भोग मात्र फल भी है, तो भी छेकड़ में विरस फल है। जैसे लक्ष भोज्य करनेवाला ब्राह्मण बहुत भवों में किञ्चित्सुख भोग के सेचनक नामा सर्वाग सुलक्षण भद्र हस्ती हुआ।
अन्याय से आया सस्पानपरिपोपरूप तीसरा भंग है। तिसका अच्छे खेत में जैसे सामक बो देनेवत् फल है। यह मुखानुबन्धी होने करके राजा के कारमारियों के बहुत आग्म्मोपार्जित धनवत् है। परन्तु ऐसा धन भी धर्म में लगावे, तो अच्छा है । आबू के पर्वत पर जिनमन्दिर बनाने. वाले विमलचन्द्र अरु तेजपाल मन्त्री की तरे जेकर ऐसा धन भी धर्म में न लगावे, तो दुर्गति अरु अकीर्ति ही इस का फल है, मम्मन शेठवत् । ___ अन्यायार्जित कुपात्रपोपरूप चौथा भंग है। यह मंग सर्वथा त्यागने योग्य है, क्योंकि अन्यायार्जित जो धन कुपात्र को देना. सो ऐमा है कि, जैसा गौ को मार के उस के मांस कागों का पोषण करना । इस वास्ते गृहस्थ को न्याय से ही धनोपार्जन करना चाहिये ।
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२७४
जैनतत्त्वादर्श श्राद्धदिनकृत्य सूत्र में लिखा है कि, व्यवहारशुद्धि जो है, सो ही धर्म का मूल है। जिसका व्यापार शुद्ध है, उसका धन भी शुद्ध है, जिसका धन शुद्ध है, उसका आहार शुद्ध है, जिसका आहार शुद्ध है उसकी देह शुद्ध है, जिस की देह शुद्ध है, वो धर्म के योग्य है । ऐसा पुरुष जो जो कृत्य करे, सो सर्व ही सफल होवे । अरु जो व्यवहार शुद्ध न करे, वो धर्म की निंदा कराने से स्वपर को दुर्लभवोधी करे । इस वास्ते व्यवहारशुद्धि जरूर करनी चाहिये। __ तथा देशादि विरुद्ध को त्यागे, अर्थात् देश, काल, राज
विरुद्धादि को परिहारे । यह कथन हितोदेगादि विरुद्ध पदेशमाला में भी है कि, देश, काल, रान, का त्याग अरु धर्म विरुद्ध जो त्यागे, सो पुरुष
सम्यग् धर्म को प्राप्त होता है । तिन में१. देशविरुद्ध जैसे कि सौवीर देश में खेती करनी । लाट देश में मदिरा बनानी, यह देशविरुद्ध है। तथा और भी जो जिस देश में शिष्टजनों के अनाचीर्ण है, सो तिस देश में विरुद्ध जानना । जाति, कुलादि की अपेक्षा जो अनुचित होवे, सो भी देशविरुद्ध है। जैसे ब्राह्मण जाति को मुरापान करना, तिल लवणादि बेचना, सो कुलापेक्षा विरुद्ध है । तथा जैसे चोहाण को मद्यपान करना, तथा और देशवालों के आगे और देशवालों की निन्दा करनी, यह भी देशविरुद्ध है।
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नवम परिच्छेद
२७५ २. कालविरुद्ध-सो जैसे हिमालय के पास अत्यन्त शीन में, गर्मी के समय जंगल तथा मरुदेश में, वर्सात में अत्यन्त पिच्छिल-पंक संयुक्त दक्षिण समुद्र के पर्यत भागों में, तथा अति दुर्भिक्ष में, दो राजाओं के परस्पर विगेय में, तथा धाड ने जहां रस्ता रोका होवे, दुरुत्तार महाअटवी में. सांझ की वेला भय स्थान में, इतने स्थानकों में तैना सामर्थ्य सहायादि हह बल बिना जावे, तो प्राण, धननागादि अनर्थकारी है। तथा फाल्गुन मास पीछे तिलों का व्यापार, तिल पीलाने, तिल भक्षण करने । वर्षा ऋतु चौमासे में पत्र शाक का ग्रहण करना, तथा बहुजीवाकुल भूमि में हल फिराना, यह महादोष के कारण हैं। यह सर्व कालविरुद्ध जान लेना।
३. राजविरुद्ध यह है कि, राजा के दोष बोलना, जिस को राजा माने तिसको न मानना, तथा राजा के वेरियों से मेल करना, गजा के शत्रु के स्थान में लोभ से जाना, स्थान पर आये हुए राजा के शत्रु के साथ व्यापार करना, राजा के काम में अपनी इच्छा से विधि निषेध करना ।
४. लोकविरुद्ध यह है कि, नगर-निवासियों के साथ प्रतिकूलता करनी, तथा स्वामिद्रोह करना, लोगों की
निन्दा करनी, गुणवान् अरु धनवान् की निन्दा करनी, : अपनी बड़ाई करनी, सरल की हांसी करनी, गुणवान् में
मरसर रखना, कृतघ्नना करना, बहुत लोगों का जो विरोधी
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जैनतस्वादर्श
होवे, उसकी संगति करनी, लोकमान्य की अवज्ञा करनी, भले आचारवाले को कष्ट पड़े, तब राजी होना । अपनी शक्ति के हुये साधर्मी के कष्ट को दूर न करना, देशादि उचिताचार का लंघन करना, थोड़े धन के हुए गुण्डों का सा वेष रखना, मैले वस्त्र पहिरने, इत्यादि लोकविरुद्ध है । यह सर्व इस लोक में अपयश का कारण है ।
यदुवाच वाचकमुख्य:
लोकः खल्वाधारः सर्वेषां धर्मचारिणां स्यात् । तस्माल्लोकविरुद्धं धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥
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अर्थः- उमास्वाति पूर्वधारी आचार्य कहते हैं कि, सर्व धर्म करनेवालों का लोक - जन समुदाय आधार है, तिस वास्ते लोकविरुद्ध अरु धर्मविरुद्ध यह दोनों त्यागने योग्य हैं, क्योंकि ऐसे करने से धर्म का सुखपूर्वक निर्वाह होता है | लोगविरुद्ध के त्यागने से सर्व लोगों को वल्लभ होता हैं, अरु जो लोगों को वल्लभ होना है, सोई सम्यक्वत्वतरु का बीज है ।
५. धर्मविरुद्ध — मिथ्यात्व की को निर्दय हो के ताड़ना, बांधना, जूं, गेरना, धूप में गेरना, सिर में कंघी से लीख फोड़नी । उष्ण
करनी, सर्व गौ आदिक माकड़ादि को निराधार
काल में तथा शेष काल में गलने के वास्ते न रखना
।
चौड़ा, लम्बा, गाढ़ा गलना पानी
पानी छान के पीछे जीवों को
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नवम परिच्छेद
२७७ युक्ति से पानी में न गेरना । तथा अन्न, इंधन, शाक, दाल, तांबूल, अरु फलादिकों को विना शोधे खाना । तथा अक्षत, सोपारी, खारीक, वारह, उलि, फलि, प्रमुख सम्पूर्ण मुख में गेरे। टूटी के रास्ते तथा पानी आदिक को धारा बांध कर पीवे । तथा चलने में, बैठने में, स्नान करते, हरेक वस्तु रखते, लेते, रांधते, धान छड़ने, पीसते, औषधि घिसते, तथा मूत्र, श्लेष्म, कुरलादि का जल, तंबोल का ऊगाल गेरते, उपयोग न करे। तथा धर्म में अनादर करे । देव, गुरु, अरु साधर्मी से द्वेष करे। जिनमंदिर का धन खावे। अधर्मी की संगति करे । धर्मियों का उपहास करे। कपाय बहुलता होवे । तथा बहुत पापकारी क्रय विक्रय खर कर्म करना, पाप की नौकरी करनी। इत्यादि सर्व धर्मविरुद्ध है। यह पांच प्रकार का विरुद्ध श्रावक को त्यागना चाहिये ।
अथ उचित आचरण कहते हैं। उचित आचरण पिता आदि विषय मेट से नव प्रकार का है। तथा स्नेहवृद्धि
और कीयादि का हेतु है। सो हितोपदेशमाला ग्रंथ से लिखते हैं। एक पिता के साथ उचित, दूसरा माता के साथ उचित, तीसरा भाइयों के साथ, चौथा सी के साथ, पांचमा पुत्र के साथ, छठा स्वजन के साथ, सातमा गुरु के साथ, आठमा नगरवालों के साथ, नवमा परतीर्थी अर्थात् दूसरे मतवालों के साथ, इन नव के साथ उचित आचरण करना।
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२७८
जैनतत्वादर्श पिता के साथ उचित आचरण-सो मन, वचन अरु
काया करके तीन प्रकार से है। तिस में काया पिता से उचित करके तो पिता के शरीर की शुश्रूषा करे, किकर व्यवहार दास की तरे विनय करे। विना मुख से निकला
ही पिता का वचन प्रमाण करे । पिता के.शरीर की शुश्रूषा करे, पिता के चरण धोवे, मुट्ठी चांपी करे, उठावे, बैठावे । देश काल उचित भोजन, शय्या, वस्त्र, शरीर विलेपनादिका योग मिलावे । विनय से करे, आग्रह से न करे, आप करे, नौकरों से न करावे । पिता के वचन को प्रमाण करने के वास्ते श्रीरामचन्द्रजी राज्याभिषेक छोड़ के वनवास में गये। तथा पिता का वचन सुना अनसुना न करे । मस्तक धुनना और कालक्षेप भी न करे। पिता के मन के अनुसार प्रवर्ने तथा सर्व कृत्यों में यत्नपूर्वक जो अपने मन में कार्य करना उत्पन्न हुआ है, सो पिता के आगे कह देवे । पिता के मन को जो कार्य गमे. सो करे। क्योंकि माता, पिता, गुरु, बहुश्रुत, ये आराधे हुये, सर्व कार्य का रहस्य प्रकाश देते हैं। माता, पिता, कदाचित् कठिन वचन भी बोले, तो भी क्रोध न करे। जो जो धर्म का मनोरथ माता पिता के होवे, सो सो पूरा करे । इत्यादि माता पिता के साथ उचित आचरण करे।
माता के साथ उचित आचरण-सो भी पितावत् करे,
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नवम परिच्छेद
२७२ परन्तु माता के मनोरथ पिता से भी अधिक माता से उचित पूरे । देवपूजा, गुरुसेवा, धर्म सुनना, व्यवहार देशविरति अंगीकार करनी, आवश्यक
करना, सात क्षेत्रों में धन लगाना, तीर्थयात्रा, अनाथ, दीन का उद्धार करना, इत्यादि माता के मनोरथ विशेष करके पूर्ण करे, क्योंकि यह करने योग्य ही है। ये पूर्वोक्त कृत्य भले-सपूत पुत्रों के हैं। इस लोक में गुरु, माता पिता है, सो माता पिता को जो पुत्र श्री अहंत के धर्म में जोड़े, तो ऐसा और कोई उपकार जगत् में नहीं है। उस पुत्र ने माता पिता का सर्व ऋण दे दिया, और किसी प्रकार से भी माता पिता का देना पुत्र नहीं दे सकता है । यह कथन श्रीस्थानांग सूत्र में है। ___ अब इस मात पिता के उचिताचरण में जो विशेष है, सो लिखते हैं। माता के चित्त के अनुसार प्रवर्ते, क्योंकि स्त्री का स्वभाव ही ऐसा होता है कि, जल्दी पीड़ा को प्राप्त हो जाना। इस वास्ते जिस काम से माता को पीड़ा होवे, सो काम न करे । क्योंकि पिता से मी माता विशेष पूज्य है।
यन्मनुःउपाध्यायान् दशाचार्या, आचार्याणां शतं पिता । सहस्रं तु पितॄन माता, गौरवेणातिरिच्यते ।।
[अ० २, श्लो० १४५]
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૨૮૦
जैनतत्त्वादर्श तथा औरों ने भी कहा है कि, जहां तक दूध पीवे, तहां तक यह अपनी माता है, ऐसे पशु जानते हैं, तथा जब तक सी की प्राप्ति नहीं हुई, तब तक अधम पुरुष माता जानते हैं, तथा जहां तक घर का काम करे, तहां तक मध्यम पुरुष माता जानते हैं, अरु तहां तक जीवे, जहां तक तीर्थ की तरे माता को उत्तम पुरुष मानते हैं । पशुओं की माता पुत्र से सुख मानती है । धन का उपार्जन करे तो मध्यम पुरुष की माता सुख मानते है। तथा पुत्र वीर होवे, संपूर्ण धर्माचरण से युक्त होवे, निर्मल चरितवाला होवे, तब उत्तम पुरुष की माता संतोष पाते है। ३. अथ सहोदर के साथ उचित आचरण लिखते हैं
बड़े माई को तो पिता समान जाने, अरु भाई से उचित छोटे भाई को सर्व कार्यों में माने । तथा व्यवहार जेकर दूसरी माता का बेटा होवे, तो जैसे
श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण की परस्पर प्रीति थी, तैसी प्रीति करना चाहिये। ऐसे ही बड़े माई अरु छोटे भाई की स्त्रियों के साथ तथा पुत्र पुत्रियों के साथ भी उचिताचरण यथायोग्य करे। पृथग्भाव न करे । माई को व्यापार में पूछे, उससे कोई छानी वात न रक्खे, तथा धन भी भाई से गुप्त न रक्खे। अपने भाई को ऐसी शिक्षा देवे, जिस से उसको कोई धूर्त न छल सके । जेकर भाई को खोटी संगति लग जावे, तथा अविनीत होवे, तदा
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नवम परिच्छेद
२८१
आप शिक्षा देवे, तथा भाई के मित्र पासों उलांभा दिलावे । तथा सगे सम्बन्धियों से शिक्षा दिलावे; काका से, मामा से, सुसरासे, इन के पुत्रों से अविनीत भाई को शिक्षा दिलावे, अन्योक्ति करके शिक्षा दिलावे, परन्तु आप तर्जना न करे । अरु जेकर आप तर्जना करे, तब क्या जाने निर्लज्ज हो कर निर्मर्याद हो जावे, सन्मुख बोल उठे। तिस वास्ते हृदय में स्नेह सहित ऊपर से जब भाई को देखे, तब ऐसे जान पड़े कि भाई मेरे ऊपर बहुत नाराज़ है । जब भाई विनयमार्ग में आ जावे, तदा निष्कपट मीठे वचन बोल के प्रेम बतावे । कदाचित् भाई अविनीतपना न छोड़े, तब चित में ऐसा विचारे कि इसकी प्रकृति ही ऐसी है, तब उदासीनपने से प्रवर्ते । तथा भाई की स्त्री अरु पुत्रों के साथ दान सन्मान देने में समदृष्टि होवे । तथा विमाता के पुत्र के साथ विशेष करके दान सन्मान प्रेमादि करे, क्योंकि उसके साथ थोड़ा भी अन्तर करे, तो उसको वेप्रतीति हो जावे, अरु लोगों में निन्दा होवे । ऐसे ही माता पिता अरु भाई के समान जो और जन है, तिनों के साथ भी यथोचित उचिता - चरण विचार लेना । यतः
जनकथोपकर्त्ता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति । अन्नदः प्राणदञ्चैव, पंचैते पितरः स्मृताः ॥ १ ॥
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૨૮૨
जैन तत्वादर्श
राजपत्नी गुरो: पत्नी, पत्नीमाता तथैव च । स्वमाता चोपमाता च, पंचैता मातरः स्मृताः ॥ २ ॥ सहोदरः सहाध्यायी, मित्रं वा रोगपालकः । मार्गे वाक्यसखा यश्च, पंचैते भ्रातरः स्मृताः ॥ ३ ॥
इन का अर्थ सुगम है । तथा अपने भाई को धर्मकार्य . में अवश्य प्रेरणा करे। भाई की तरे मित्र के साथ भी उचिताचरण करे |
व्यवहार
४. अथ स्त्री के साथ उचित कहते हैं - स्त्री विवाहिता के साथ स्नेह संयुक्त वचन बोल के स्त्री स्त्री से उचित को अभिमुख करे । वल्लभ और स्नेह संयुक्त वचन, निश्चय प्रेम का जीवन है । तथा स्त्री पासों स्नान करावे, अपना स्नान पगचंपी प्रमुख में स्त्री प्रति प्रवर्त्तावे । जब स्त्री विश्वास पा करके सच्चा स्नेह घरेगी, तब कदापि बुरा आचरण न करेगी । तथा देश काल कुटुंब के अनुसार धनादि उचित वस्त्राभरण देवे; क्योंकि अलंकार संयुक्त स्त्री लक्ष्मी की वृद्धि करती है । तथा स्त्री को रात्रि में कहीं जाने न देवे, तथा कुशील पुरुष की अरु पाखण्डी भगत योगी योगिनियों की संगति न करने देवे । स्त्री को घर के काम में जोड़ देवे । तथा राजमार्ग में वेश्या के पाड़े में न जाने देवे ।
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नवम परिच्छेद
૧૮૩
यदि धर्मकृत्य पडिकमणा, सामायिकादिक करने के वास्ते धर्मशाला - उपाश्रय में जावे, तदा माता वहिनादि सुशील धर्मिणी स्त्रियों की टोली में जाचे आवे । घर का काम, दान देना, सगे सम्बन्धी का सम्मान करना, रसोई का करना, यह सब करे । तथा प्रभात समय में शय्या से उठावे, घर प्रमार्जन करे, दूध के बर्तन धोवे, चौकादि चुल्ले की क्रिया करे, तथा भांडे घोने, अन्न पीसना, गौ, मैस दोहनी, दही बिलोना, रसोई करनी, खानेवालों को परोसना, जूठे वर्त्तन शुचि करने । सासु, भरतार, ननद, देवर, इतनों का विनय करना, इत्यादि पूर्वोक्त कामों में स्त्री को जोड़े अर्थात् काम करने में तत्पर करे । जेकर स्त्री को पूर्वोक कामों में न जोड़े, तब स्त्री चपलता से विकार को प्राप्त हो जाती है। काम में लगे रहने से स्त्री की रक्षा, गोपना होती है । तथा भरतार स्त्री के सन्मुख देखे, बोलावे, गुणकीर्त्तन करे, घन, वस्त्र, आभूषण देवे। जिस तरे स्त्री कहे, उस तरे करे । स्त्री को दूर न छोड़े। तब उस स्त्री का भरतार के ऊपर अत्यंत प्रेम हो जाता है, तथा स्त्री को न देखने से, अति देखने से, देख कर न बुलाने से, अपमान करने से, अहंकार करने से, इन पूर्वोक्त बातों से प्रेम टूट जाता है ।
तथा भरतार बहुत परदेश में रहे, तब त्री कदाचित् अनुचित काम कर लेवे इस वास्ते बहुत काल परदेश में
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૨૮૩
जैनतत्त्वादर्श मी न रहना चाहिये। तथा स्त्री का अपमान न करे। स्त्री मूल जावे, तो शिक्षा देवे । रूस जावे, तो मना लेवे । तथा धन की हानि वृद्धि, घर का गुह्य, स्त्री के आगे प्रगट न करे । तथा क्रोध में आ करके दूसरी स्त्री न विवाहे, क्योंकि दो स्त्री करनी महादुःखों का कारण है। कदाचित् संतानादिक के वास्ते दो स्त्री भी कर लेवे, तदा दोनों पर समभाव से प्रवः । तथा स्त्री किसी काम में मूल जावे, तदा ऐसी शिक्षा देवे कि, फिर वो स्त्री उस काम को न करे । तथा रूसी स्त्री को जेकर नहीं मनावे, तो सोमभट्ट की भार्या अंबावत् कूवें में गिर पड़े, इत्यादि अनर्थ करे। इस वास्ते सी से सर्व काम, स्नेहकारी वचनों से करावे, न कि कठिनता से।
जेकर निर्गुण स्त्री मिले, तब विशेष करके नरमाई से प्रवर्ते, परन्तु स्त्री को घर में प्रधान न करे। जिस घर में पुरुष की तरें स्त्री प्रधानपना करे, वो घर नष्ट हो जाता है। यह कहना, बाहुल्य से है, क्योंकि कोई स्त्री तो ऐसी बुद्धिमती होती है कि, जेकर उसको पूछ के कार्य करे, तो बहुत गुण के वास्ते होता है। जैसे तेजपाल की भार्या अनूप देवी को तेजपाल अरु वस्तुपाल पूछ के काम करते थे। तथा स्त्री बब धर्मकार्यों में तप करे, चारित्र लेवे, उद्यापन करे, दान देवे, देवपूजा, तीर्थयात्रादि करे, तथा इन बातों के करने का मन में उत्साह घरे, तब धन देवे, सुशील सहायक दे के
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व्यवहार
नवम परिच्छेद उसका मनोरथ पूर्ण करे, परन्तु अंतराय न करे । क्योंकि स्त्री जो धर्मकृत्य करेगी उस में से पति को भी पुण्य होगा, क्योंकि पति उस कृत्य करने में बहुत राजी रहे है। ५. अथ पुत्र के साथ उचिताचरण लिखते हैं-पिना
अपने पुत्र को बाल अवस्था में बहुत मनोन पुत्र से उचित पुष्टाहार से पोषे, स्वेच्छापूर्वक नाना प्रकार व्यवहार की क्रीडा करावे । क्योंकि मनोज्ञ पुष्ट आहार
देने से बालक के बुद्धि बल, अरु कांति की वृद्धि होती है। स्वेच्छा क्रीड़ा कराने से शरीर पुष्ट होता है। अरु अंगोपांग संकुचित नहीं होते हैं । नीति में कहा भी है
लालयेत् पंच वर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत् । प्राप्ते तु षोडशे वर्षे, पुत्रं मित्रपदाचरेत् ।।
तथा गुरु, देव, धर्म अरु सुखी स्वजन, इनकी सगति करावे। भली जाति, कुल आचार, शीलवान् ऐसे पुरुष के साथ मित्राचारी करावे । क्योंकि गुरु आदि का परिचय होने से बाल्यावस्था में भली वासनावाला हो जाता है, वल्कलचीरीवत् । जाति, कुल, आचारशील संयुक्त की मित्रता से, दैवयोग से कदापि अनर्थ भी आ पडे, तो भी भले मित्र की सहायता से कष्ट दूर हो जाता है । जैसे अभयकुमार के साथ मित्रता करने से आर्द्रकुमार को भली वासना हो गई। तथा नव अठारां वर्ष का पुत्र हो जावे, तब उसका विवाह
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२८६
जैनतत्त्वादर्थ करे, क्योंकि बाल्यावस्था' में वीर्यक्षय' हो जाने से वृद्धि, पराक्रम अरु आयु अधिक नहीं होता है। सर्व जैनमत के शास्त्रों में ऐसे ही लिखा है कि, जब पुत्र को भोगसमर्थ जाने, तब- पुत्र का विवाह करे। तथा जिस कन्या से विवाह करावे, उस कन्या का कुल, जन्म, रूप सरीखा होवे, तब विवाह करावे। तथा पुत्र के ऊपर घर का भार सर्व गेरे, घर का स्वामी बना देवे । तथा जिस कन्या में सरीखे गुण न होवें, उसके साथ विवाह करना महाविडंबना है। विवाह के भेद आगे लिखेंगे। जब पुत्र के ऊपर घर का भार होवेगा, तब चिंताक्रांत होने से कोई भी स्वच्छंद उन्मादादि न करेगा, क्योंकि वो जान जावेगा कि, धन बडे क्लेश से प्राप्त होता है। इस वास्ते अनुचित व्यय न करना चाहिये । ऐसा वो आप से आप जान जावेगा। परन्तु पुत्र की परीक्षा करके पीछे उसके ऊपर घर का भार डाले; जैसे प्रसेनजित राजा ने श्रेणिक पुत्र को दिया। तथा पुत्र की तरें पुत्री के साथ अरु भतीजादिक के साथ भी यथायोग्य उचित जान लेना । ऐसे ही बेटे की बहु.के. साथ-मी धनश्रेष्ठी की तरें उचिताचरण करे। तथा प्रत्यक्षपने पुत्र की प्रशंसा न करे। तथा जब कष्ट पड़े, तब दुःख सुख की वातः कहे। तथा। आय व्यय का स्वरूप कहे । तथा पुत्र को राजसभा दिखावे,, क्योंकि क्या जाने बिनाविचारे कोई कष्ट आ पड़े, तब क्या करे । तथा
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नवम परिच्छेद
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कोई दुष्टजन उपद्रव कर देवे, तब राजसभा बिना छुटकारा नहीं होता है । यथा
गंतव्यं राजकुले, द्रष्टव्या राजपूजिता लोकाः । यद्यपि न भवत्यर्थास्तथाप्यनर्था विलीयंते ॥
तथा पुत्र को परदेश के आचार, व्यवहारादि से जानकार करे, क्योंकि प्रयोजन के वश से किसी काल में देशांतर में भी जाना पड़े, तो कोई कष्ट न होवे । तथा विमाता के पुत्र के साथ विशेष उचित करे ।
६. अब सगों के साथ माता, स्त्री के स्वजन से उचित स्वजन कहते है । व्यवहार के बड़े काम में
उचित करना लिखते हैं-पिता, पक्ष के जो लोग हैं, तिन को इन स्वजनों का कोई घर तथा सदा काल सम्मान करे । तथा आप भी स्वजनों के काम में अग्रेश्वरी बने, जो स्वनन धनहीन होवे, रोगातुर होने, तिसका उद्धार करे। क्योंकि स्वजन का जो उद्धार करना है, सो तत्र से अपना ही उद्धार करना है । तथा स्वजन के परोक्ष उनकी निंदा न करे, तथा स्वजन के वैरियों से मित्राचारी न करे । स्वजनादिक से प्रीति करनी होवे, तदा शुष्क कलह, हास्यादि, वचन की लड़ाई न करे । स्वजन घर में न होवे, तो उसके घर में अकेला न जावे,
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जैन तत्त्वादर्श
देव, गुरु, धर्म, अरु धन के कार्य में स्वजन के साथ शामिल रहे। जिस स्त्री का पति परदेश में गया होवे, ऐसे स्वजन के घर में अकेला न जावे । तथा स्वजनों के साथ लेने देने का व्यापार न करे । तथाहि
यदीच्छेद्विपुलां प्रीतिं त्रीणि तत्र न कारयेत् । वागूवादमर्थसम्बन्धं, परोक्षे दारदर्शनम् ॥
तथा इस लोक के कार्य में स्वजनों के साथ एकचित रहे, अरु जिनमन्दिरादि कार्य में तो विशेष करके स्वजन से ही मिल के करे । क्योंकि ऐसे कार्य जेकर बहुतों से मिल के करे, तो ही शोभा है ।
व्यवहार
७. अब गुरु उचित कहते हैं-धर्माचार्य के साथ उचित भक्ति अन्तरंग का बहुमान, वचन, काया गुरु से उचित का आवश्यक प्रमुख कृत्य करना । गुरु के पास शुद्ध श्रद्धापूर्वक धर्मोपदेश श्रवण करना । गुरु की आज्ञा माने । मन से भी गुरु का अपमान न करे, गुरु का अवर्णवाद किसी को बोलने न देवे । गुरु की प्रशंसा सदा प्रगट करे, गुरु की प्रत्यक्ष वा परोक्ष स्तुति करे । गुरु स्तुति जो है, सो अगणित पुण्यबंधन का कारण है । गुरु के छिद्र कदापि न देखे । गुरु से मित्र की तरे अनुवर्तन करे । गुरुं के प्रत्यनीक - निंदक को सर्व शक्ति से निवारण करे । कदाचित्
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नवम परिच्छेद
२८९ गुरु प्रमाद के वश से कहीं चूक जावे, तव एकांत में हितशिक्षा देवे, अरु कहे कि, हे भगवन् ! तुम सरीखों को यह काम करना उचित नहीं । गुरु का विनय करे, गुरु के सन्मुख जावे, गुरु निकट आवे, तो आसन छोड़ के खड़ा हो जावे, गुरु को आसन देवे, गुरु की पगचम्पी करे । गुरु को शुद्ध, निर्दोष, वस्त्र, पानाहारादि देवे । यह द्रव्योपचार है। अरु भावोपचार, सो गुरु का परदेश में सदा स्मरण करे। ८. अब नगरनिवासी जनों का उचित कहते हैं-~-जिस
नगर में रहे, उस नगर के निवासी जनों के नगरवासी से उचित साथ उचित इस प्रकार से करना । अपने व्यवहार सरीखी जिन व्यापारियों की वृत्ति होवे,
__ उनके साथ जो एकचित्त से सुख, दुःख, व्यसन, कष्ट, राज के उपद्रवादि में बरावर रहे, उनके उत्साह में उत्साहवान् होवे । राजदरवार में किसी की चुगली न करे । तथा नगरनिवासियों से फटे नहीं। सर्व से मिल कर राज का हुकुम करे, क्योंकि जब निर्बल पुरुष बहुत इकडे हो के कार्य करें, तब तृणरज्जुवत् बलवान् हो जाते हैं। जब विवाद हो जावे, तब निष्पक्ष हो के कार्य करे। किसी से लांच ले कर झूठा काम न करे। तथा किसी से थोड़ी सी लड़ाई हो जावे, तो उसकी राज में पुकार न करे । तथा राजा के कारभारियों से लेने देने का व्यापार न करे, क्योंकि उन लोगों को नाणा देने के अवसर में क्रोध
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जैनतत्वादर्श
आजाता है, तब वो कोई और अनर्थ कर देते हैं । तथा समानवृत्ति नागरों की , तरे असमान वृत्तिवाले नगरनिवासियों के साथ भी यथायोग्य उचिताचरण करे।
९. अथ परतीर्थी-परमतवालों के साथ उचिताचरण । लिखते हैं जो पर मतवाला साधु भिक्षा के परमतवाले से वास्ते घर में आवे, तो उसका उचित सत्कार उचित व्यवहार करे । तथा राजा के माननीय का विशेष . उचित करे । उचित कृत्य सो यथायोग्य दान देना । जेकर उन साधुओं के मन में भक्ति नहीं भी होवे, तो भी घर में मांगने आये को देना चाहिये, क्योंकि दान देना यह गृहस्थ का धर्म ही है। तथा महंत कोई घर में आ जावे, तो आसन, दान, सन्मुख जाना, उठ के खड़ा होना प्रमुख सत्कार करे । तथा परमतवाला किसी कष्ट में पड़ा होवे, तदा उसका उद्धार करे। दुःखी जीवों पर दया करे । पुरुषापेक्षा मधुर आलापादि करे। तथा अन्यमतवाले को काम का पूछनादि करे, जैसे कि आप का आना, किस प्रयोजन के वास्ते हुआ है ! पीछे जो कार्य वो कहे, सो कार्य जेकर उचित होवे, तो पूरा कर देवे, तथा दुःखी, अनाथ, अन्धा, बधिर, रोगी प्रमुख दीन लोगों की दीनता को यथाशक्ति दूर करे ।।
जो श्रावकादि पूर्वोक्त लौकिक उचिताचरण में कुशल नहीं होवे, तो वो जिनमत में भी क्योंकर कुशल होवेंगे !
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नवम परिच्छेद
२९१
तिस वास्ते अवश्य धर्मार्थियों को उचिताचरण में निपुण होना चाहिये ।
-
अब अवसर में उचित बोलना, यह बड़ा गुणकारी हैं, तथा और भी जो कुशोभाकारी होवे, सो सामान्य शिष्टाचार त्यागे । विवेकविलास आदि में कहा है – जंभाई, छींक, डकार, तथा हसना, यह सब मुख ढांक के करे । सभा के बीच नाक में अंगुली डाल के मैल न काढे, हाथ मोडे नही, पर्यस्तिका न करे, पग न पसारे, निद्रा विकथा न करे, सभा में कोई बुरी चेष्टा न करे। जो कुलीन पुरुष है सो अवसर में हसे, तो होठ फरकने मात्र हसे, परन्तु मुख फाडके न हसे | अपना अंग बजावे नहीं, तृण तोडे नहीं, व्यर्थ भूमि में लिखे नहीं । नखों करके दांत घिसे नहीं, दांतों करी नख न तोड़े । अभिमान न करे । भाट - चारण की सुनके गर्व न करे। अपने गुणों का निश्चय करे। बात को समझ के बोले । नीच जन को अपने को हीन वचन कहे, तो उसको बदले का हीन वचन न बोले । जिस वस्तु का निश्चय न होवे, सो वात प्रगट न कहे। जो कोई पुरुष कार्य करे, अरु उस कार्य के करने में वो समर्थ न होवे, तिस को पहिले वर्ज देवे, कहे कि - यह काम तुम न करो। तथा किसी का बूरा न बोले, जेकर वैरी का बूरा बोले, उसका अटकाव नहीं, परन्तु सो भी अन्योक्ति करके बोले । तथा माता, पिता, रोगी, आचार्य, पराहुणा, अभ्यागत,
करी हुई प्रशंसा
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२९२
जैनतत्त्वादर्श
I
भाई, तपस्वी, वृद्ध, बाल, स्त्री, वैद्य, पुत्री, गोत्री, पामर, बहिन, बहिनोई, मित्र, इन सर्व के साथ वचन की लड़ाई न करे । सदा सूर्य को न देखे । तथा चन्द्र सूर्य के ग्रहण को न देखे । ऊंडे - गहरे कुर्वे को झूक के न देखे । संध्या समय आकाश न देखे । तथा मैथुन करते को, शिकार मारते को, नंगी स्त्री को, यौवनवती स्त्री को, पशुक्रीड़ा को और कन्या की योनि को न देखे । तथा तेल में, जल में, शस्त्र में, मूत में, रुघिर में, इतनी वस्तुओं में अपना मुख न देखे, क्योंकि इस काम से आयु टूट जाती हैं । तथा अंगीकार करे को त्यागे नहीं । नष्ट हो गई वस्तु का शोक न करे, किसी की निद्रा का छेद न करे। बहुतों से वैर न करे, जो बहुतों को सम्मत होवे, सो बोले। जिस काम में रस न होवे, सो न करे । कदापि करना पड़े, तो भी बहुतों से मिल के करे । तथा धर्म, पुण्य, दया, दानादि शुभ काम में बुद्धिमान् मुख्य होवे - अग्रेश्वरी बने । तथा किसी के चूरे करने में जलदी अग्रेश्वरी न बने । तथा सुपात्र साधु में कदापि मत्सर ईर्ष्या न करे । तथा अपने जातिवाले के कष्ट की उपेक्षा न करे । किन्तु मिल कर आदर से उसका कष्ट दूर करे । तथा माननीय का मान मंग न करे तथा दरिद्रपीडित, मित्र, साधर्मिक, न्याति में बुद्धिवाला होवे, तथा गुणों करके बड़ा होवे, बहिन संतान रहित होवे, इन सर्व की पालना करे। अपने कुल में जो काम करने
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नवम परिच्छेद
२९३ योग्य न होवे, सो न करे । तथा नीति शास्रोत तथा और शास्त्रों में जो उचिताचरण होवे, सो करे, अरु अनुचित होवे, सो वर्जे ।
मध्यान्ह में पूर्वोक्त विधि से विशेष करके प्रधान शाल्योदनादि निष्पन्न निःशेष रसवती ढोवे । दूसरी वार जिनपूजा, जो मध्यान्ह की पूजा, अरु भोजन, इन दोनों का कालनियम नही। क्योंकि जब भूख लगे, सोई भोजन काल है । इस वास्ते मध्यान्ह से पहिले भी प्रत्याख्यान पार के देवपूजापूर्वक भोजन करे, तो दोष नहीं । वैदक ग्रंथो में भी लिखा है कि, एक प्रहर में दो बार भोजन करे, तथा दो प्रहर उल्लंघे नहीं, क्योंकि एक प्रहर में दो वार खाने से रसोत्पत्ति होती है, अरु जेकर दो प्रहर पीछे न खावे, तो वलक्षय होता है ।
अव सुपात्रदानादि की युक्ति लिखते हैं । सो ऐसे हैभोजन वेला में भक्ति सहित साधुओं को निमंत्रणा करके, साधु के साथ घर में आवे, अथवा साधु स्वयमेव आता होवे तब सन्मुख जा के आदर करे । विनय सहित संविज्ञ भावित अभावित क्षेत्र देखे, तथा सुभिक्ष दुर्भिक्षादिक काल देखे, तथा सुलभ दुर्लभादिक देने योग्य वस्तु देखे, तथा आचार्य, उपाध्याय, गीतार्थ, तपस्वी, बाल, वृद्ध, ग्लान, सह असहादि अपेक्षा करके महत्त्व, स्पर्द्धा, मत्सर, स्नेह, लज्जा, भय,
सुपात्रदान
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२९४
जैनतस्वादर्श दाक्षिण्य, परानुयायिपना, प्रत्युपकार, इच्छा, माया, विलंब, अनादर, बुरा बोलना, पश्चात्तापादि, ये सर्व दान के दूषण वर्ज के आत्मा को संसार से तारने के वास्ते, ऐसी बुद्धि से बैतालीश दूषण सहित जो कुछ घर में अन्न, पकान, पानी, वस्त्रादि होवे, तिस की अनुक्रम से सर्व निमंत्रणा करे, अपने हाथ में पात्र ले के पास रही भार्यादिक से दान दिलावे । पीछे वंदना करके अपने घर के दरवाजे तक साथ जावे, फिर पीछा आवे । जेकर साधु न होवे, तदा बिना बादलों के मेघ की तरें साधु का आना देखे । जो साधु आ जावे, तो तेरा जन्म सफल हो जावे, इस वास्ते दिशावलोकन करे । जो भोजन साधु को न दिया होवे, सो भोजन श्रावक न खावे । तथा जो श्रावक लष्टपुष्ट साधु को बिना कारण अशुद्ध आहार देवे, तो लेने देनेवाले दोनों को रोगी के दृष्टांत करके हितकारी नहीं है । तथा जिस साधु का निर्वाह न होवे, दुर्मिक्ष होवे, साधु रोगी होवे तथा और कोई कारण होवे, तो उस साधु को अशुद्ध, अप्राशुक आहार देवे । तो लेने देनेवाले दोनों को हितकारी होवे । तथा रस्ते के थके हुए को, रोगी को, शास्त्र पढ़नेवाले को, लोच करे को, पारने के दिन को दान देवे, तो बहुत फल होता है। इस सुपात्रदान को अतिथिसंविभाग कहते हैं । यदागमः- " अतिहिसंविभागो नाम नायगयाणं" इत्यादि पाठ का अर्थ कहते हैं-अतिथिसंविभाग उसको कहते हैं कि, जो
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नवम परिच्छेद
२९५
न्याय से आया कल्पनीय अन्न, पानी प्रमुख, देश, काल, श्रद्धा सत्कार क्रमयुक्त उत्कृष्ट भक्ति से, आत्मा की अनुग्रह बुद्धि से संयत साधु को दान देवे । सुपात्रदान से देवता संबंधी तथा औदारिकादि सम्बन्धी अद्भुत भोग इष्ट सर्व सुखसमृद्धि, राज्य प्रमुख मनगमता संयोगादि की प्राप्ति, और निर्विलंब, निविंश, मोक्षफलप्राप्ति है; क्योंकि अभयदान अरु सुपात्रदान तो मोक्ष देते हैं, और अनुकंपादान, उचितदान अरु कीर्त्तिदान, यह तीनों सांसारिक मुखभोगों के देनेवाले हैं ।
पात्र भी तीन तरे का कहा है। एक उत्तम पात्र साधु है, दूसरा मध्यम पात्र श्रावक है, तीसरा अविरतिसम्यग् दृष्टि, सो जधन्य पात्र है । तथा अनादर, कालविलंब, विमुख, ये खोटा वचन बोलना अरु दान दे के पश्चाताप करना, पांच सद्दान के कलंक हैं । तथा आनंद के आंसु भावें, रोमांच होवे, बहुमान देवे, मीठा बोले, दान दिये पीछे अनुमोदना करे, यह पांच सुपात्र दान के भूपण हैं । सुपात्र दान का परिग्रह परिमाण करने का फल, रत्नसारकुमार की तरे होता है; यह कथा श्राद्धविधि ग्रंथ से जान लेनी । इस वास्ते ऐसे साधु आदि संयोग के मिलने से सुपात्रदान, दिनप्रतिदिन विवेकवान् अवश्य करे ।
तथा यथाशक्ति भोजनावसर में आये साधर्मियों को अपने साथ भोजन करावे, क्योंकि वो भी पात्र हैं । तथा
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जैनतत्त्वादर्श अन्धे आदि मांगनेवालों को भी यथायोग्य देवे । परंतु किसी मांगनेवाले को निराश न जाने देवे। धर्म की निंदा न करावे, कठिन हृदयवाला न होवे, भोजन के अवसर में दयावन्त को कपाट लगाने न चाहिये, उसमें भी धनचान् तो विशेष करके कपाट लगावे ही नहीं। आगम में भी कहा है
नेव दारं पिहावे, मुंजमाणो सुसावओ। अणुकम्पा जिणिदेहि, सड्डाणं न निवारिया ॥१॥ दहण पाणिनिवहं, भीमे भवसायरंमि दुक्खत्तं । अविससओणुकंप दुहावि सामत्थओ कुणइ ॥ २ ॥
अर्थ:-भोजन करते हुए दरवाजा बड़े नहीं, क्योंकि अनुकंपादान श्रावक को जिनेश्वर भगवान् ने मना नहीं करा है । जीवों के समूह को भयानक संसार में दुःखपीडित देख कर विशेष रहित द्रव्य अरु भाव दोनों तरे से अनुकम्पा करे। उस में द्रव्य से तो यथायोग्य अन्नादि देवे, अरु भाव से उनको सन्मार्ग में प्रववि। श्रीपंचमांगादिक में जहां श्रावकों का वर्णन करा है, तहां ऐसा पाठ है" अवगुंठिम दुवारा" इस विशेषण करके भिक्षुकादिकों के प्रवेश के वास्ते सदा किवाड़ उघाडे रक्खे । दीनोद्धार तो संवत्सरी दान देकर तीर्थंकरों ने भी करा है। कदापि काल
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नवम परिच्छेद
२९७ दुकाल पड़ जावे, तब तो श्रावक जो होवे, सो विशेष करके दानादि से दीनों का उद्धार करे। क्योंकि आगे भी विक्रमादित्य के संवत् १३१५ में भद्रेसर गाम के वसनेवाले श्रीमालजातीय गाह झगडु श्रावक ने एक सौ बारह दानशाला करके दान दीया है। तथा विक्रमादित्य के संवत् १४२९ में सोनी सिंहा श्रावक ने २४००० मन अन्न, दीन जीवों को दुकाल में दिया है। तथा निर्दूषण आहार देवे, तो सुपात्र दान शुद्ध है। तथा माता, पिता, भाई, बहिन, पुत्र, बहू, सेवक, ग्लान,
अरु चांधे हुये गौ प्रमुख, इन सर्व की चिंता भोजन सम्मती करके अर्थात् इन सर्व को भोजन करा के नियम पीछे पंचपरमेष्ठी स्मरण करके प्रत्याख्यान
पारके, सर्व नियम स्मरण करके, साम्यता से भोजन करे। साम्यता ऐसे जाननी कि-जो अन्न, पानी, आपस में विरुद्ध न होवे, तथा उलटा न परिणमे, अपने स्वभाव के माफक होवे, तिस को साम्य कहते है। जो पुरुष सपूर्ण जन्म तक साम्यता से भोजन करे, वो फिर कमी विप भी खावे, तो भी अमृत हो जावे । अरु असाम्यता से अमृत खाया भी विप हो जाता है । परन्तु इतना विशेष है कि, साम्यता से भी पथ्य ही खाना चाहिये, अपथ्य नहीं । तथा खाने में अत्यन्त गृद्ध भी न होना चाहिये । जव कंठनाड़ी से हेठ उतर जाता है, तब सर्व भोजन घरावर हो जाता है । अतः एक क्षणमात्र के स्वाद
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२९८
जैनतत्त्वादर्श के वास्ते अति लौल्य न करना चाहिये। तथा अभक्ष्य अनंतकाय, बहु सावध वस्तु अर्थात् बहुत पापवाली वस्तु न खावे । तथा जो थोड़ा खाता है, सो बहुत बलवान होता है। तथा जो बहुत खाता है, सो अल्प खाने के फलवाला होता है। तथा अधिक खाने से अजीर्ण, वमन, विरेचनादि मरणांत कष्ट भी हो जाता है । यथा--
हितमितविपक्कभोजी, वामशयी नित्यचंक्रमणशील। उज्झितमूत्रपुरीषः, स्त्रीषु जितात्मा जयति रोगान् ॥
अर्थ-जो भूख लगे तो हितकारी ऐसा अन्न थोडा जीमे, वामा पासा हेठ करके सोवे, नित्य चलने का स्वभावशील होवे, जब बाधा होवे, तब ही दिशा मात्रा करे, स्त्री से भोग न करे, वो पुरुष रोगों को जीत लेता है। ___अथ भोजनविधि, व्यवहार शास्त्रादिकों के अनुसार लिखते हैं। अतिप्रभात में, अतिसंध्या में तथा रात्रि में भोजन न करना चाहिये। तथा सड़ा, वासी अन्न न खावे । चलता हुआ न खावे, तथा दाहिने पग के ऊपर हाथ रख कर न खावे । हाथ ऊपर रख के न खावे । खुल्ले आकाश में न खावे, धूप में बैठ के न खावे। अंधेरे में वृक्ष के तले न खावे । तर्जनी अंगुली ऊंची करके कदापि न खावे । मुख, हाथ, पग, अरु वस्त्र, विना घोया न खावे। नंगा हो कर मैले वस्त्रों से, दाहिने हाथ से, थाल को विना पकड़े न
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नवम परिच्छेद
१९९ खावे, धोती आदिक एक वस पहिर के न खावे । भीने वस्त्र पहिर के न खावे । भीजे वस से मस्तक लपेट के न खावे ! यदा अपविन होवे तदा न खावे । अति गृद्ध रसलंपट हो कर न खावे । तथा जूते सहित, व्यग्रचित्त, केवल भूमि ऊपर बैठ के अरु मंजे पर बैठ के न खावे । विदिशा की तर्फ तथा दक्षिण की तर्फ मुख करके न खावे । पतले आसन पर बैठ के भोजन न करे, तथा आसन ऊपर पग रख के भोजन र करे, चण्डाल के देखते न खावे। जो धर्म से पतित होवे, उसके देखते न खावे । तथा फूटे पात्र में अरु मलिन पात्र में न खावे। जो शाकादिक वस्तु विष्टा से उत्पन्न होने, सो न खावे । वालहत्यादि जिस ने करी होवे, उसने तथा रजस्वला स्त्री ने जो वस्तु स्पर्शी होवे, तथा जो वस्तु गार, श्वान, पंखी ने सूंधी होवे, तथा जो वस्तु अजानी हो; तथा जो वस्तु फिर से उष्ण करी होवे; सो न खाये । तथा बचबचाट शन्द करके न खावे । तथा मुख फाटे तो बुरा लगे ऐसे मुख करके न खावे । तथा भोजन के अवसर में दूसरों को बुला के प्रीति उपजावे। अपने देव गुरु का नाम स्मरण करके समासन ऊपर बैठ के खावे । जो अन्न अपनी माता, बहिन, ताई-पिता से बड़े भाई की औरत, भानजी, स्त्री प्रमुख ने रांध्या होवे, सो पवित्रता से परोसा हुआ भोजन, उसको मौन करके दाहिना स्वर चलते खावे। जो जो वस्तु खावे, सो नासिका से सूंघ के खावे, इस से दृष्टिदोष नष्ट
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३००
जैन तत्त्वादर्श
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हो जाता है । तथा अति खारा, अति खट्टा, अति उष्ण, अति शीतल, अति शाक, अति मीठा, ये सर्व न खावे । मुख के स्वाद मात्र खावे | क्योंकि अति उष्ण खावे, तो रस मारा नता है, अति खट्टा खावे, तो इन्द्रियों की शक्ति कम हो नाती है । अति लवण खावे, तो नेत्र बिगड़ जाते हैं । अति स्निग्ध खावे, तो नासिका विषय रहित हो जाती है । तथा तीक्ष्ण द्रव्य अरु कौड़ा द्रव्य खावे, तो कफ दूर हो जाता है, तथा कषायला अरु मीठा खावे, तो पित्त नष्ट हो जाता है । स्निग्ध घृतादिक खाने से वायु दूर हो जाता है। बाकी शेष रोग जो हैं, सो न खाने से दूर हो जाते हैं ।
जो पुरुष शाक न खावे, अरु घृत से रोटी खावे, तथा जो दूध से चावल खावे, तथा बहुत पानी न पीत्रे, अजीर्ण होवे, तदा खावे नहीं, सो पुरुष रोगों को जीत लेता है । भोजन करते वक्त पहिले मीठा अरु स्निग्ध भोजन करे, बीच में तीक्ष्ण भोजन करे, पीछे कौडी वस्तु खावे । उक्तं च
I
सुस्निग्धमधुरैः पूर्वमश्रीयादन्वितं रसैः । द्रव्याम्ललवणैर्मध्ये पर्यंते कटुतिक्तकैः ॥
तथा जो पहिले द्रव्य अर्थात् नरम वस्तु खावे, मध्य में कडुआ रस खावे, अंत में फिर नरम रस खावे, सो बलवंत अरु नीरोगी रहे । तथा पानी को भोजन से पहिले पीवे, तो मंदाग्नि का जनक है, तथा भोजन के बीच में पीवे,
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नवम परिच्छेद तो रसायन समान गुणकारी है, तथा भोजन के अंत में पीवे, तो विष समान है। भोजन के अनंतर सर्व रस से लिप्त हुये हाथ से एक चुल रोज पीवे, पशु की तरह पानी न पीवे। पीये पीछे जो पानी रहे सो गेर देवे, अञ्जली से पानी न पीवे। पानी थोड़ा पीना पथ्य है, पानी से भीजे हुए हाथों को गला, तथा कपोल, हाथ, नेत्र, इतने स्थान में न लगावे, न पूंजे, गोडे-जानु का स्पर्श करे, तथा अंगमर्दन, दिशा जाना, भार उठाना, बैठना, स्नान करना, ये सर्व भोजन के किये पीछे न करे। तथा कितनेक काल ताई बुद्धिमान् पुरुष भोजन करके बैठ जावे, तो पेट बड़ा हो जाता है। तथा ऊपर को मुख करके-चित्त हो कर सोवे, तो वल वधे । वामे पासे सोवे, तो आयु वधे । भोजन करके दौड़े, तो मरण होवे । पीछे वामे पासे दो घड़ी ताई सोवे, परन्तु निद्रा न लेवे, अथवा सोवे नहीं तो सौ पग चले, फिरे। अन्यत्र भी कहा है कि, देव को, साधु को, नगर के स्वामी-राजा को तथा स्वजनों को, जब कष्ट होवे तब, तथा चन्द्र-सूर्य के ग्रहण में जेकर शक्ति होवे, तो विवेकवान् पुरुष भोजन न करे । तथा " अजीर्णप्रभवा रोगा" इस वास्ते अजीर्ण में भी भोजन न करे।।
___ ज्वर की आदि में लंघन करना श्रेष्ठ है, परन्तु वायुज्वर, श्रमज्वर, क्रोधज्वर, शौकज्वर, कामज्वर, घाव का ज्वर, इतने ज्वर को वर्ज के शेष ज्वर तथा नेत्ररोग के हुये
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जैनतस्वादर्श
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लंघन करे ।
तथा देव, गुरु के वन्दनादि के अयोग से, तथा तीर्थ अरु गुरु को नमस्कार करने जाते वक्त, तथा विशेष धर्मांचीकार करते, बड़ा पुण्य कार्य प्रारम्भ करते, अरु अष्टमी, चतुर्दशी आदि विशेष पर्व के दिन भोजन न करना चाहिये । रूप का जो करना है, तो इस लोक अरु परलोक में बहुत चुपकारी है ।
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तथा भोजन करे पीछे नमस्कार स्मरण करके उठे, चैत्यवंदना करके देव, गुरु को यथायोग्य वन्दना करे । तथा भोजन के पीछे गंठिसहित दिवसचरिम प्रत्याख्यान विधि से करे। पीछे गीतार्थ साधु, गीतार्थ श्रावक, तथा सिद्धपुत्रादिकों के समीप स्वाध्याय - पठन पाठन यथायोग्य करे | योगशास्त्र ने लिखा है कि, जो गुरुमुख से पढ़ा होवे, सो औरों को पढ़ावे, स्वाध्याय करे। पीछे संध्या में जिनपूजा करे पीछे पडिकमणा करे । पीछे स्वाध्याय करे। पीछे वैयावृत्त्य अर्थात् सुनि की पगचम्पी करे । घर जा कर सकल परिवार को जोड़ के धर्म का स्वरूप कथन करे । उत्सर्ग मार्ग में तो श्रावक को एक बार ही भोजन करना चाहिये । यदभाणि -
उस्सग्गेण तु सड्डो य, सचिताहारवजओ । इक्काaणगभोई अ, बंभयारी तहेब य ॥
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३०३
नवम परिच्छेद जेकर एक मुक्त करने का सामर्थ्य न होवे, तदा दिन का अष्टम भाग अर्थात् चार घड़ी दिन जव रहे, तव भोजन कर लेवे, अर्थात् दो घड़ी दिन रहने से पहिले ही भोजन कर लेवे। पीछे यथाशक्ति चार आहार, तीन आहार, दो आहार का त्यागरूप दिवसचरिम सूर्य उगते ताई करे, सो मुख्य वृत्ति से तो दिन होते ही करना चाहिये, परन्तु अपवाद में रात को भी करे।
इति श्री तपागच्छीय मुनि श्रीवुद्धिविजय शिष्य मुनि आनंदविजय-आत्मारामविरचिते जैनतत्त्वादर्श
नवमः परिच्छेदः संपूर्णः
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जैनतत्वादर्श दशम परिच्छेद
इस परिच्छेद में श्रावकों का एक रात्रिकृत्य, दूसरा पर्व - कृत्य, तीसरा चौमासिकृत्य, चौथा संवत्सरीकृत्य, अरु पांचमा जन्मकृत्य, यह पांच कृत्य अनुक्रम से लिखेंगे । तिस में प्रथम रात्रिकृत्य लिखते हैं ।
I
३०४
साधु के पास तथा पौषधशालादि में यत्न से प्रमार्जनापूर्वक सामायिक करके प्रतिक्रमण करे । पीछे साधुओं की पगचम्पी करे । यद्यपि साधुने श्रावक के पासों उत्सर्गमार्ग में विश्रामणादि नहीं करावनी, तो भी श्रावक यदि विश्रामणा करने का भाव करे, तो महाफल है । पीछे श्राद्ध दिनकृत्य, श्रावकविधि, उपदेशमाला अरु कर्मग्रन्थादि शास्त्रों का स्वाध्याय करे । पीछे सामायिक पार के घर में जावे ।
रात्रिकृत्य
पीछे सम्यक्त्व मूल बारह व्रत में, सर्वशक्ति से यत्नकरणादिरूप तथा सर्वथा अर्हत् चैत्य, अरु साधर्मिक वर्जित वासस्थान में अनिवासरूप तथा पूजा, प्रत्याख्यानादि अभिग्रहरूप, यथाशक्ति सप्त क्षेत्र में घन खरचनरूप, ऐसा यथायोग्य सकल परिवार को धर्मोपदेश कथन करे । जेकर श्रावक अपने परिवार को धर्म न कहे, तब उस परिवार को धर्म की प्राप्ति न होवेगी । तो इस लोक परलोक में पापकर्म करेंगे, सो सर्व उस श्रावक को लगेंगे ।
जो वे
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दशम परिच्छेद
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क्योंकि लोक में यह व्यवहार है कि, जो चोर को खानेपीने को देवे, सो भी चोर गिना जाता है; ऐसे ही धर्म में भी जान लेना । इस वास्ते श्रावक को द्रव्य तथा भाव से अपने कुटुम्ब को शिक्षा देनी चाहिये । उसमें द्रव्य से पुत्र, कलन, बेटी प्रमुख को यथायोग्य वस्सादि देवे, अरु भाव से तिनको धर्म का उपदेश करे । तथा दुःखी सुखी की चिंता करे । अन्यत्राप्युक्तं --
राज्ञि राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहिते । भर्त्तरि स्त्रीकृतं पापं, शिष्यपापं गुरावपि ॥
धर्म देशना दिये पीछे, रात्रि का प्रथम प्रहर वीते पीछे, शरीर को हितकारी शय्या में विधि से निद्रा अल्पमात्र करे । गृहम्थ बाहुल्य करके मैथुन से वर्जित होवे । जेकर गृहस्थ जावजीव तक ब्रम्मत पालने में समर्थ न होवे, तदा पर्वतिथि के दिन तो उसको अवश्य ब्रह्मचर्य व्रत पालना चाहिये |
dostond
नींद लेने की विधि नीतिशास के अनुसार यह है :जिस खाट में जीव पड़े होवें, जो खाट छोटी होवे, भांगी हुई होवे, मैली होवे, दूसरे पाये संयुक्त होवे, तथा अग्नि के बले काष्ठ की खाट होवे, सो त्यागे । खाट में तथा आसन में
निद्राविधि
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•३०६
जैनतत्त्वाद चार जात की लकडी लगे, तो शुभ है, परन्तु पांचादि काष्ठ लगे, तो अशुभ है। तथा पूजनीक वस्तु के ऊपर न सोवे, तथा पानी से पग भीजे न सोवे, तथा उत्तर दिशा अरु पश्चिम दिशा की तर्फ शिर करके न सोवे, बांस की तरे न सोवे, पगों के ठिकाने न सोवे, हाथी के दांत की तरें न सोवे । देवता के मन्दिर के मूलगंभारे में, सर्प की बंबी पर, वृक्ष के हेठ, तथा श्मशान में नहीं सोवे । किसी के साथ लड़ाई हुई होवे, तदा मिटा के सोवे । सोते वक्त पानी पास रक्खे, तथा दरवाजा जड़ के, इष्टदेव को नमस्कार करके बड़ी शय्या में अच्छी तरें ओढ़ने के वस्त्र समार के, सर्वाहार को त्याग के, वामा पासा नीचे करके सोवे ।
दिन को सोवे नहीं, परन्तु क्रोध, शोक, अरु मद्य के मिटाने के वास्ते तथा स्त्री कर्म, अरु भार के थके को मिटाने के वास्ते तथा रस्ते के खेद को मिटाने के वास्ते तथा अतिसार, श्वास, हिचकी प्रमुख रोग दूर करने के वास्ते सोवे । तथा जो बाल होवे, वृद्ध होवे, बलक्षीण होवे, सो सोवे । तथा तृषा, शूल, और क्षत की वेदना करके विह्वल होवे, सो सोवे । तथा जिसको अजीर्ण हुवा होवे, वाय हुवा होवे, जिसको खुशकी हुई होवे, तथा जिसको रात्रि में निद्रा थोडी आती होवे, वो दिन को भी सो जावे। तथा ज्येष्ठ अरु आषाढ़ महीने में दिन में भी सोना अच्छा है। और महीनों में सोवे, तो कफ अरु पित करता है। तथा बहुत
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दशम परिच्छेद
३०७ नींद लेनी, बहुत काल लग सोये रहना अच्छा नहीं । तथा रात को सोवे तदा दिशावकाशिकवत उच्चार के सोवे । तथा चार सरणा लेवे, सर्व जीवराशि से खामणा करे, अठारह पापस्थान का व्युत्सर्जन करे, दुष्कृत की निंदा करे, सुकृत का अनुमोदन करे, तथा
जह मे हुज पमाओ, इमस्स देहस्स इमाइ रयणीये । आहारमुबाहिदेहं, सवं तिविहेण वोसिरियं ॥
नमस्कारपूर्वक इस गाथा को तीन वार पढ़े, साकार अनगन करे, पंच नमस्कार स्मरण सोने के अवसर में करे । सी से दूर अलग शच्या मे सोवे । जेकर निकट सोवे, तब एक तो विकार अधिक जागता है, तथा दूसरा जिस वासना युक्त पुरुष सोवे, सो जितना चिर जागे नहीं, उतना चिर वही वासना उस पुरुष को रहती है। इस वास्ते स्त्री से अलग दूसरी शय्या में सोवे । तथा मरणावसर में गफलत हो जावे, तो भी तिस के जो सचित अवस्था में वासना थी वही वासना है, ऐसे जानना । इस वास्ते सर्वथा उपशांतमोह हो करके, धर्म वैराग्यादि भावना से वासित हो करके निद्रा करे, तो खोटा स्वप्न न होवे । जिस रीति से अच्छा धर्ममय स्वप्न देखे, उसी रीति से सोवे । जेकर कदाचित् उसकी आयु समाप्त भी हो जावे, तो भी वो अच्छी गति में जावे।
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जैनतस्वादर्श
तथा सोये पीछे रात्रि में जब जाग जावे, तदा अनादि काल के अभ्यास रस से कदाचित् काम पीड़ा करे, तो स्त्री के शरीर का अशुचिपना विचारे, अरु श्रीजंबूस्वामी तथा स्थूलभद्रादि महा ऋषियों की तथा सुदर्शनादि महाश्रावकों की दुष्कृत शील पालने की दृढता विचारे । तथा कषायादि दोष के जीतने के उपाय, भवस्थिति की अत्यंत दुःस्थिता और धर्म के मनोरथ का चितवन करे । तिन में स्त्री के शरीर की अपवित्रता, जुगुप्सनीयतादि सर्व विचारे । जैसे श्रीहेमचन्द्रसूरिने योगशास्त्र में लिखा है । तथा पूज्य श्रीमुनिसुन्दरसूरिने अध्यात्मकल्पद्रुम में लिखा है, तैसे विचारे । सो लेश मात्र इहां लिखते हैं
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चाम, हाड, मज्जा, आंदरां, चरबी, नसा, रुधिर, मांस, विष्ठा, मूत्र, खेल, खंकारादि अशुचि पुद्गल का पिंड स्त्री का शरीर है । इस पिंड में तू क्या रमणीक वस्तु देखता है ! जिस विष्ठे को दूर से देख कर लोक थूथूकार करते हैं, मूढ़ लोक उसी विष्ठे अरु मूत्र से पूर्ण, ऐसे स्त्री के शरीर की अभिलाषा करते हैं । विष्ठे की कोथली बहुत छिद्रोंवाली जिस के छिद्र द्वारा कृमिजाल निकलते हैं, अरु कृमिजाल से भरी है, ऐसी स्त्री है। तथा चपलता, माया, झूठ, ठगी, इनों करके संस्कारी हुई है । तातें जो पुरुष मोह से इस का संग करे, भोगविलास करे, तिसको नरक के तांई है । ऐसी स्त्री विष्ठे की कोथली जिस के
ग्यारा द्वारों
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दशम परिच्छेद
३०९ से अशुचि झरती है। जिस द्वार को सूचों, उसीमें से महा सड़े हुये कुत्ते के कलेवर समान दुर्गन्ध आती है। तो फिर कामीजन क्योंकर उस सी के शरीर में रागांध होते हैं ! इत्यादि सी के शरीर की अशुचिता को विचारे। धन्य है, वो पुरुष जम्बुकुमार जिस ने नवपरिणीत आठ पद्मिनी स्त्री, अरु निनानवे क्रोड़ सोनये छिनक में त्याग दिये । तिस का माहात्म्य विचारे । तथा श्रीस्थूलिभद्द्र अरु सुदर्शन सेठ के शील का माहास्य विचारे ।
कपाय जीतने का उपाय इस तरे करे-क्रोध को क्षमा करके जीते, मान को नरमाई से जीते, माया को सरलताई से जीते, लोभ को सन्तोष से जीते, राग को वैराग्य से जीते, द्वेप को मित्रता से जीते, मोह को विवेक से जीते, काम को स्त्री के शरीर की अशुचि भावना से जीने, मत्सर को पर की संपदा देख के पीड़ा न करने से जीते, विषय को संयम से जीते, अशुभ मन, वचन अरु काया इन तीनों को तीन गुप्ति से जीते, आलस को उद्यम से जीते, अविरतिपने को विरतिपने से जीते । इस प्रकार यह सब सुख से जीते जाते हैं। आगे भी बहुत महात्माओं ने इनको इसी तरे जीता है।
भवस्थिति महादुःखरूप है, क्योंकि चारों गति में जीव नाना प्रकार के दुःख पा रहे हैं। तिन में नरकगति में तो
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३१०
जैनतस्वादर्श
सातों नरकों में क्षेत्रवेदना है, तथा पांच नरकों में परस्पर
शस्त्रों करके ऊदीरी वेदना है । तथा तीन
नरक में परमा
आंख मींच के
धर्मिक देवताकृत वेदना है। उघाडे, इतना काल मी नरकवासी जीवों को सुख नहीं है । केवल दुःख ही पूर्वजन्म के करे हुए पापों से उदय हुआ है। रात अरु दिन एक सरीखे दुःख में जाते हैं, जितना नरकगति में जीव दुःख को पाते है, उस से अनंतगुणा दुःख जीव निगोद में पाते है । तथा तिर्यंचगति में अंकुश, परैण, लाठी, सोटा, श्रृंगमोड़न, गलमोड़न, तोड़न, छेदन, मेदन, दहन, अंकन और परवशतादि अनेक दुःख पावे है । तथा मनुष्यगति में गर्भजन्य, जरा, मरण, नाना प्रकार की पीड़ा, रोग, व्याधि, दरिद्रता, माता, पिता, स्त्री, पुत्र का मरणादि अनेक दुःख पाता है । तथा देवगति में चवन का दुःख, दासपने का दुःख, पराभव, ईर्ष्यादि अनेक दुःख हैं । इत्यादि प्रकार से भवस्थिति को विचारे |
तथा धर्ममनोरथ भावना - सो श्रावक के घर में जो
जाऊं, तो भी अच्छा
राजा भी न होऊं ।
ज्ञान, दर्शन, व्रत सहित मैं दास भी हो है । परन्तु मिध्यादृष्टि तो मैं चक्रवर्ती तथा कव मैं संवेगी वैराग्यवन्त गीतार्थ गुरु के चरणों में स्वजनादि संग रहित प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा ! तथा कब मैं तिर्यंच के पिशाच के भय से निष्प्रकंप हो कर श्मशानादि में विधिपूर्वक कायोत्सर्ग करूंगा ! तथा कब मैं तप से कृश
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दशम परिच्छे
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शरीर होके उत्तम पुरुषों के मार्ग में चलूंगा ! इत्यादिक भावना से काम के कटक को जीते।
पर्व के
अथ श्रावक का पर्वकृत्य लिखते हैं । पर्व जो अष्टमी, चतुर्दशी आदि दिवस, तिस में धर्म की पुष्टि करे तिसका नाम पोषध है । सो पोपत्र भले बतवाले श्रावक को दिन में अवश्य करना चाहिये, जेकर पर्व के दिन शरीर में साता न होवे, पौपत्र न कर सके, तो दो वार प्रतिक्रमण करे । तथा बहुत बार सामायिक अरु दिशावकाशिक व्रत अंगीकार करे । तथा पर्वदिनों में ब्रह्मचर्य पाले, आरम्भ वर्जे, विशेष तप करे, चैत्य परिपाटी करे, सर्व साधुओं को नमस्कार करे, तथा सुपात्रदान, देवपूजा अरु गुरुभक्ति, यह सर्व और दिनों से विशेष करे । धर्मकरनी तो सर्व दिनों में करनी अच्छी है, जेकर सदा न करी जावे, तो पर्व के दिन तो अवश्यमेव करनी चाहिये । सो पर्व ये हैं - अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी, अमावास्या, यह एक मास में छ पर्व अरु पक्ष में तीन पर्व, तथा दूज, पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दगी यह पांच तिथि, तीर्थकरोने कही हैं । उसमें दूज के दिन दो प्रकार का धर्म आराधन करना, पञ्चमी के दिन ज्ञान को आराधना, अष्टमी को अष्टकर्म का नाश करना एकादशी में ग्यारह अंग को आराधना, चतुर्दशी में चौदह पूर्व को आराधना, यह पांच तथा पूर्वोक्त अमावास्या अरु
पवल
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जैनतत्वादर्श पूर्णमासी, एवं षट् पर्व हुये अरु वर्ष में छ अट्ठाई पर्व है। चौमासी पर्वादि पों में जेकर सर्वथा आरम्म न त्याग सके, तो स्वल्प स्वल्पतर आरंभ करे। तथा पर्व के दिन सर्व सचित्ताहार वर्षे । श्रावक को तो नित्य ही सचित्ताहार वर्जना चाहिये। जेकर शक्ति न होवे, तदा पर्व के दिन तो अवश्य वर्जे । तथा ऐसे पर्व के दिनों में स्नान, शिर दिखाना, गूंथन कराना, वस्त्र घोना, रंगना, गाडा, हल आदि चलाना, धान्य का मूढक बांधना, कोरहू, अरहट चलाना, दलना, छड़ना, पीसना, पत्र, पुष्प, फल तोड़ना, सचित्त खड़ी हरमजी का मर्दन करना, धान्य काढना, लीपना, माटी खोदनी तथा घर बनाना, इत्यादि सर्व आरम्भ यथाशक्ति से त्यागना चाहिये । तथा सर्व सचित्ताहार का त्याग न कर सके, तो नाम लेके कितनीक वस्तु खाने की छूट रक्खे, उपरांत त्याग देवे । तथा छ ही अट्ठाइयों में जिनवर की पूजा करनी, तप करना और ब्रह्मचर्य पालना। इन छ अट्ठाइयों में चैत्र तथा आसोज की दो अट्ठाई हैं, सो शाश्वती हैं, इन दोनों में वैमानिक देवता भी नन्दीश्वरादि में यात्रोत्सव करते हैं। तथा तीन चौमासे की तीन अट्ठाई अरु चौथी पर्युषण की तथा दो चैत्र अरु आसोज की, यह सब मिल कर छ अट्ठाई हैं। । • तथा जो तिथि प्रभात समय-प्रत्याख्यान की वेला में
और ब्रह्मालाई हैं, सा
यात्रोत्सव
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दशम परिच्छेद
३१३ होवे सो तिथि जैन मत में माननी प्रमाण है। लोक में भी सूर्योदय के अनुसार दिन का व्यवहार होने से उदय तिथि माननी प्रमाण है । तथा च निशीथभाष्ये
चाउम्मासिअ बरिसे पक्खिअपंचट्ठमीसु नायन्या । ताओ तिहिओ जासिं, उदेह सूरो न अन्नाओ ॥१॥ पूआ पञ्चरखाणं, पडिकमणं तहय नियमगहणं च । जीए उदेह सूरो, तीइ तिहीए उ कायव्वं ॥ २ ॥ उदयम्मि जा तिही सा पमाणमिअरी कीरमाणीए । आणाभंगणवत्थामिच्छत्त विराहणं पावे ॥ ३ ॥
अर्थ:-चौमासी, संवत्सरी, पक्खी, पंचमी, अष्टमी, ये तिथियें सूर्योदय में हो, तब प्रमाण है। नान्यथा । पूजा, पडिकमणा, प्रत्याख्यान, तैसे ही नियम ग्रहण करना, सो जिस तिथि में सूर्योदय होवे, तिस में करना चाहिये । क्योंकि जो तिथि सूर्योदय में होवे, सो प्रमाण है। तथा उदय तिथि के बिना जो कोई और तिथि करे, माने, सो आज्ञा का विराधक, अनवस्थाकारक, मिथ्यादृष्टि है। पाराशरस्मृत्यादि में भी लिखा है
आदित्योदयवेलायां, या स्तोकापि तिथिर्भवेत् । सा संपूर्णेति मंतव्या, प्रभुता नोदयं विना ।।
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जैन तत्त्वादर्श
उमास्वातिवाचकप्रघोषश्चैवं श्रूयते -
क्षये पूर्वा तिथिः कार्या, वृद्धौ कार्या तथोत्तरा । श्रीवरज्ञान निर्वाण, कार्य लोकानुगैरिह ||
I
तथा श्री अर्हतों के - जन्मादि पंचकल्याणक के दिन भी पर्व हैं । जब दो, तीन, कल्याणक होवें, तब तो विशेष करके पर्व मानना चाहिये । शास्त्रों में सुनते हैं कि, श्रीकृष्णवासुदेव ने सर्व पर्व के आराधन में अपने को असमर्थ जान कर श्रीनेमिनाथ अरिहंत को पूछा कि, उत्कृष्ट पर्व कौन सा है ! तब भगवान् ने कहा कि, हे कृष्ण वासुदेव ! मगसिर शुक्ला एकादशी सर्वोत्तम पर्व हैं क्योंकि इस दिन श्रीजिनेंद्रों के पांच कल्याणक भये हैं, सर्व क्षेत्रों के डेढ़ सौ कल्याणक हुये हैं । तव श्री कृष्ण वासुदेव ने मौन पौषघोपवास करके तिस दिन को माना । तब से ही " यथा राजा तथा प्रजा इस रीति से सब लोक एकादशी मानने लगे, सो आज तक प्रसिद्ध है ।
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तथा दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, इन तिथियों में प्रायः जीवों का परभव का आयु बंधता है, इस वास्ते इन तिथियों में विशेष धर्म करनी करे । तथा पर्व की महिमा के प्रभाव से अधर्मी अरु निर्दयी भी धर्मी
* उमास्वाति वाचक का कथन इस प्रकार सुनने में आता है ।
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शाला
दशम परिच्छेद अरु दयावान् हो जाता है। कृपण भी धन खरच देते हैं, कुशील मी सुशील हो जाते हैं । वो जयवंत रहो कि, जिस ने संवत्सरी, चातुर्मासी आदि अच्छे पर्व कथन करे हैं। क्योंकि जो अनार्यों के चलाये पर्व है, तिन में आग जलाना, जीव मारने, रोना, पीटना, धूल उडानी, वृक्षों के पत्रादि तोड़ने इत्यादि नानाप्रकार के पाप होते है, अरु जो पर्व, परमेश्वर अरिहंतने कहे है, उनमें तो केवल धर्मकृत्य ही करना कहा है। इस वास्ते पर्वदिन में पौपधादि करे। पौषध के मेद अरु विधि यह सव श्राद्धविधि आदि शास्त्रों से जान लेना। अथ चौमासिककृत्य की विधि लिखते हैं। चौमासे में
विशेष करके नियम व्रत और परिग्रह का चातुर्मायिक मृत्य परिमाण करना चाहिये । वर्षा-चौमासे में बहुत
___ जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इस वास्ते विशेष नियमादि करना चाहिये। बर्सात में गाड़ा चलाना तथा हल फेरना न करे । तथा राजादन, अर्थात् खिरनी, आंब आदि में कीडे पड़ जाते है, सो न खाने चाहिये । देशों का विशेष अपनी बुद्धि से समझ लेना। तथा नियम भी दो तरे के हैं, एक सुनिर्वाह, दूसरा दुर्निर्वाह । तिन में धनवंतों को व्यापार का अरु अविरतियों को सचित्त का त्याग, रस का त्याग, तथा शाक का त्याग करना, अरु सामायिकादि अंगीकार करना, यह दुर्निर्वाहहे। अरु पूजा, दान, महोत्सवादि सुनिर्वाह है।
बीमासिक करके निकाहये । वर्षा वास्ते विशेष
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जैनतत्त्वादर्श अरु निधनों को इस से विपरीत जान लेना । तथा चित्त एकाग्र करना यह तो सर्व ही को दुष्कर है। इन में दुनिर्वाह नियम न हो सके तो सुनिर्वाह नियम अंगीकार करे । तथा चौमासे में ग्रामांतर न जावे, जेकर निर्वाह न होवे तो जिस गाम में अवश्य जाना है, तिसको वर्ज के और जगे न जावे । सर्व सचित्त का त्याग करे। निर्वाह न होवे, तो परिमाण करे। तथा दो तीन वार जिनराज की अष्टप्रकारी पूजा करे, संपूर्ण देववंदन सर्व जिनमंदिरों में जिनबिंबों की पूजा बंदना करनी, स्नानपूजा, महामहोत्सव, प्रभावनादि करे । गुरु को बृहत् वंदना तथा और साधुओं को प्रत्येक वंदना करे । चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग करे। अपूर्व ज्ञान पढे, गुरु की वैयावृत्य करे, ब्रह्मचर्य पाले, अचित्त पानी पीवे, सचित्त का त्याग करे। बासी, बिदल, रोटी, पूरी, पापड़ बड़ी, सूखा साग, पत्ररूप हरा साग, खारक, खजूर, द्राक्ष, खांड, शुंठ्यादि, यह सर्व नीली फूलण, कुंथुआदि लट कीड़े पड़ने से खाने योग्य नहीं रहते हैं। इस वास्ते इन का त्याग करे । कदाचित् औषधादि विशेष कार्य में लेनी पड़े तो सम्यग् रीति से शोध के लेवे । तथा खाट, स्नान, शिरगुंदाना, दातन, पगरखा, इन का त्याग करे । तथा भूषण, वस्त्र रंगने का निषेष करे। तथा घर, हाट, भीत, स्तंभ, खाट, पाट, पट्टक, पट्टिका, छींका अरु घृत, तैलादिक का वासन, इंधन, घान्यादि सर्व वस्तु में नीली फूली हो जाती है । अतः इस
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दशम परिच्छेद
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की रक्षा के वास्ते पहिले ही चूना आदि खार लगा देवे | मैल दूर करे, धूप में न गेरे, शीतल स्थान में रख देवे । तथा दिन में दो तीन वार जल छाने । स्नेह, गुड़, छाछ प्रमुख के बासन का सुख यत्न से ढक के रक्खे । तथा ओसामण का अरु स्नान का पानी, जहां जीव न होवें, तहां पृथक् पृथक् भूमि में थोड़ा थोड़ा गेरे । तथा चूल्हा अह दीपक प्रमुख उघाड़ा न छोड़े । तथा खंडना, पीसना, रांधना, वत्र भाजन धोने, इत्यादि कामों को देख के यत्न से करे । तथा जिनमन्दिर अरु धर्मशाला को समरा के रक्खे । तथा यथाशक्ति उपधान तप प्रतिमादि वहे, तथा कषाय अरु इंद्रिय को जीते । तथा योगशुद्धि तप, वीस स्थानक तप अमृत अष्टमी तप, एकादशांग तप, चौदह पूर्वं तप, नमस्कार तप, चौवीस तीर्थंकर के कल्याणक तप, अक्षयनिधि तप, दमयन्ती तप, भद्रमहाभद्रादि तप, संसारतारण भट्ठाई तप, पक्ष मासादि विशेष तप करे । तथा रात्रि को चतुविघ आहार, त्रिविध आहार का त्याग करे । पर्वदिन में विकृति त्यागे, पर्वदिन में पौषधोपवासादि करे । तथा निरन्तर पारने में अतिथिसंविभाग करे । चातुर्मासिक अभिग्रह करना पूर्वाचार्यों ने इस तरे से लिखा है । ज्ञानाचार में, दर्शनाचार में, चारित्राचार में तप आचार में, तथा वीर्याचार में द्रव्यादि अनेक प्रकार का अभिग्रह करे । सो इस रीति से है । ज्ञानाचार में शक्ति के अनुसार सूत्र
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जैनतत्त्वादर्श पढ़े, सुने, चिंते । तथा शुक्ल पंचमी को ज्ञान की पूजा करे । तथा दर्शनाचार में काना काढ़े, अर्थात् संमार्जना करे । देहरे में लीपे, गुंहली करे, मांडली करे, चैत्य जिनप्रतिमा की पूजा करे, देववंदना करे, जिनबिंबों को निर्मल करे। तथा चारित्र में जूओं की यना करे, वनस्पति में कीड़े पडे खार न देवे, इंधन में, जल में, अग्नि में, धान्य में, जीव हो, तिन की रक्षा करे। किसीको कलंक न देवे, कठिन वचन न बोले, रूखा वचन न बोले । तथा देव की अरु गुरु की सोगंद न खावे, किसी की चुगली न करे, किसी के अवर्णवाद न बोले, माता पिता से छाना काम न करे । निधान तथा पड़ा हुआ धन देख के जैसे शरीर और धर्म न बिगड़े, तैसे करे । दिन में ब्रह्मचर्य पाले, रात्रि को स्वदारा से संतोष करे। तथा धनधान्यादि नव प्रकार के परिग्रह का इच्छा परिमाण व्रत करे। दिशावकाशिक व्रत करे। तथा स्नान का, उवटने का, विलेपन का, आमरण का, फूल का, तंवोल का, चरास का, अगर का, केसर का, कस्तूरी का, इतनी मोगने की वस्तुओं का परिमाण करे। तथा मंजीठ, लाख, कुसुंभा, नील, इन से रंगे वस्त्रों का परिमाण करे। तथा रत्न, वज्र, नीलमणि, सुवर्ण, रूपा, मोती प्रमुख का परिमाण करे । तथा जवीर, जंवरूद, जंबू, राजादन, नारंगी, सन्तरा, बिजोरा, काकड़ी, अखरोट, बदाम, कोठफल, टीवरू, बिल, खजूर, द्राक्ष, दाडिम, उत्तिन का फल, नालियर, अंबली, बोर,
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दशम परिच्छेद
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बीलूक फल, चीभड़ा चीभड़ी, कयर, कर्मदा, भोरड, निंबू, आंवली, अथाणा - आचार तथा अंकुरे हुए नाना प्रकार के फूल, पत्र, सचित, बहुवीजा, अनंतकाय, इतनी वस्तु वर्जे । तथा विगय अरु विगयगत का परिमाण करे । तथा वस्त्र धोने का, लीपने का, हल वाहने का, स्नान की वस्तु का परिमाण करे । तथा खण्डना, पीसना, इत्यादिक का परिमाण करे । झूठी साख न देवे । तथा पानी में कूदना अरु अन रांधने का परिमाण करे । व्यापार का परिमाण करे । चोरी का त्याग करे । तथा स्त्री के साथ संभाषण करना, स्त्री को देखना त्यागे । तथा अनर्थदण्ड त्यागे । सामायिक, पौषध करे, अतिथिसंविभाग करे, इन सर्व वस्तुओं का प्रतिदिन परिमाण करे । तथा जिनमन्दिर को देखे, तथा जिनमन्दिर की वस्तु की सारसंमाल करे। पर्व में तप करे, उजमने करे, धर्म के वास्ते मुखवस्त्रिका अरु पानी का छलना देवे, तथा औषधी देवे । साधर्मिवत्सल यथाशक्ति से करे । गुरु की विनय करे। मास मास में सामायिक करे, वर्ष में पौषध करे |
अथ श्रावकों का वर्षकृत्य द्वादश द्वारों करी लिखते हैं । प्रथम संघपूजा करे, स्वद्रव्यकुलादि के वर्षकृत्य — अनुसार बहुत आदरमान से साधु साध्वी योग्य निर्दोष वस्त्र, कंवल, पूंछना, सूत, ऊन, पानी का पात्र, तुंबकादि, दंड, दंडिका, सूई,
संघपूजा
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जैनतत्वादर्श
कागज, दबात, लेखिनी, पुस्तकादिक देवे। तथा और भी जो संयम का उपकारी उपकरण होवे, सो मी देवे । ऐसे ही प्रातिहारक, पीठ, फलक, पट्टिकादि सर्व साधुओं को देवे। ऐसे ही श्रावक, श्राविकारूप संघ की भक्ति यथाशक्ति से पहरावणादि करके सत्कार करे, देवगुरु के गुण गाने. वाले गंधर्वादिक याचकों को भी यथोचित दान देवे। संघ की पूना तीन प्रकार की है-एक जघन्य, दूसरी मध्यम, तीसरी उत्कृष्ट । तिस में सर्व दर्शन सर्व संघ को करे, सो उत्कृष्टी पूजा, तथा सूत, मात्रादि देवे, तो जघन्य पूना । तथा शेष सर्व मध्यम पूजा है। तहां अधिक खरच करने की शक्ति न होवे, तो गुरु को सूत, मुखवत्रिका देवे, तथा एक दो तीन श्रावक, श्राविका को सोपारी प्रमुख वर्ष वर्ष प्रति देवे। इस रीति से संघपूजा करे, तो निर्धन को मी महाफल है । यतः
संपत्ती नियमाशक्ती, सहनं यौवने व्रतम् । दारिद्रये दानमध्यल्पं, महालाभाय जायते ।। दूसरा साधर्मिकवात्सल्य करे। सो सर्व साधर्मियों की
___ अथवा कितनेक की यथाशक्ति यथायोग्य साधर्मिवात्सल्य भक्ति करे। तथा पुत्र के जन्मोत्सव में, विवाह
में तथा और किसी कार्य में पहिले तो साधर्मियों को निमंत्रणा करके विशिष्ट भोजन, तांबूल, वस्त्रा
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दशम परिच्छेद
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भरणादि देवे । तथा किसी साधर्मी को कोई कष्ट पडे, तब अपना धन खरच के उसका कष्ट दूर करे । जेकर कोई साधर्मी निर्धन होवे, तो धन से सहाय करे, परदेश से देश में पहुंचावे । तथा धर्म से सीदते को जैसे बने तैसे स्थिर करे । जेकर कोई साधर्मी प्रमादी होवे, तो तिसको प्रेरणादि करे । साधर्मियों को विद्या पढावे, पूछना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा में यथायोग्य जोडे । तथा धर्म करने के वास्ते साधारण पौषधशालादि करावे । तथा श्राविका के साथ भी श्रावकवत् वात्सल्य करे क्योंकि श्राविका भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शील, संतोषवाली होती है। तथा सघवा, विधवा जो जिनशासन में अनुरक्त होवे वो, सर्व को साधर्मिकपने मानना चाहिये । तिसका भी माता की तरें, बहिन की तरें, वेटी की तरें हित करना चाहिये । बहुत करके राजा का तो अतिथिसंविभाग व्रत साधर्मिवात्सल्य करने से ही हो सकता है। क्योंकि मुनि को तो राजपिंड लेना ही नहीं है। इस वास्ते श्रीभरतचक्री तथा दण्डवीर्य राजादिकों ने ऐसे ही करा है । तथा श्रीसंभवनाथ अर्हत् के जीव ने तीसरे भव में घातकीखण्ड ऐरावतक्षेत्र में क्षेमापुरी नगरी में, विमलवाहन राजाने महादुर्भिक्ष में सकल साधर्मिकादिकों को भोजनादिक देने से तीर्थहरनाम कर्म का उपार्जन करा है । तथा देवगिरि, मांडवगढ़ में शाह जगतसिंहने तथा थिरापद्र नगर में श्रीमाल आमूने तीन
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३२२
जैनतत्त्वादर्श सौ साठ साधर्मियों को धन दे के अपने तुल्य करा, तथा शाह सारंगादि अनेक पुरुषों ने बड़ा २ साधर्मिवात्सल्य करा है। तीसरी यात्राविधि कहते हैं। वर्ष वर्ष में जघन्य से एक
_यात्रा तो अवश्य करनी चाहिये, यात्रा भी यात्राविधि तीन तरें की है-एक अट्ठाईयात्रा, दूसरी
रथयात्रा, तीसरी तीर्थयात्रा । तिसमें अट्ठाई में विस्तार सहित सर्व चैत्यपरिपाटी करे, इसको चैत्ययात्रा भी कहते हैं। तथा रथयात्रा श्रीहेमचन्द्रसूरिकृत परिशिष्ट पर्व में जैसी संपति राजाने करी है, तैसे करे । तथा महापद्म चक्रवर्ती ने जैसे माता के मनोरथ पूरन के वास्ते करी है, तैसे करे । तथा जैसी कुमारपाल राजाने रथयात्रा करी तैसे करे ।
तीसरी तीर्थयात्रा का स्वरूप लिखते हैं। तहां श्रीशत्रुजय, रैवतादि तीर्थ, तथा तीर्थकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण, मरु विहारभूमि, यह सर्व प्रभूत भव्यजीवों को शुभभाव का संपादक है। इस वास्ते संसार से तारने का कारण होने से इसको तीर्थ कहना चाहिये । तीथों में जाने से सम्यक्त्व निर्मल होता है। ___अब जिनशासन की उन्नति करने के वास्ते जिस विधि से यात्रा करे, सो विधि यह है । चलने के स्थान से लेकर यात्रा करे, वहां तक एक बार भोजन करे, दूसरा सचित्त परिहार, तीसरा भूमिशयन, चौथा ब्रह्मचारी, पांचमा सर्व
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३२३
दशम परिच्छेद सामग्री के हुये भी पगे चलना, छटा सम्यक्त्वधारी पना। तथा यात्रा के वास्ते राजा से आज्ञा लेवे, विशिष्ट मंदिरों को सजावे, विनय बहुमान सहित स्वजन और साधर्मियों को वुलावे । तथा गुरु को साथ ले जाने के वास्ते निमंत्रणा करे, अमारी ढंढेरा फिरावे, मंदिर में महापूजा महोत्सव करावे । खरची रहितों को खरची देवे, वाहन विना को वाहन देवे । निराधारों को यथायोग्य आधार देवे । सार्थवाह की तरे डौंडी फिरा के लोगों को उत्साहवंत करे, तथा आडम्बर सहित बड़ा चरु, घड़ा, थाल, डेरा, तंबू, कड़ाहियां साथ लेवे, चलते कूपादिक को सज्ज करे । तथा गाडा, सेजवाला रथ, पर्यक, पालकी, ऊंट, घोड़ा प्रमुख साथ लेवे । तथा श्रीसंघ की रक्षा के वास्ते बड़े २ योद्धाओं को नौकर रक्खे । योद्धाओं को कवच, अंगकादि उपस्कर देवे । तथा गीत, नाटक, वाजिंत्रादि सामग्री मेलवे। तथा अच्छे मुहूर्त में शुम शकुन में प्रस्थान करे । भोजनादि से श्रीसंघ का सत्कार करके संघपति तिलक देवे। आगे पीछे रखवाला रक्खे। संघ के चलने उतरने का संकेत करे। तथा संघवालों की गाड़ी आदिक टूट जावे, तो समरा देवे। अपनी शक्ति के अनुसार सर्व संघ को सहाय देवे। तथा गाम, नगर में जहां जिनमन्दिर आवे, तहां महावन देवे। चैत्यपरिपाटी आदि बड़ा महोत्सव करे । जीर्णचैत्य का उद्धार करे। तथा जब तीर्थो को देखे, तब सुवर्ण, रल, मोती आदिक से वपिन करे। लापसी,
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जैनतरवादर्श लड्डु प्रमुख का लाहणा करे । तथा साधर्मिवात्सल्य अरुः यथोचित दान देवे। बड़े उत्सव से जब तीर्थ को प्राप्त होवे, तब प्रथम हर्ष पूजा धन चढ़ावे, तथा अष्टोपचारविधि, स्नान, मालोद्घट्टन, घी की धारा देवे। पहरावणी मोचन करे। तथा नवाङ्ग जिनपूजन, फूलघर कदलीघरादि महापूजा करे । दुकूलादिमय महावन देवे। मांगनेवालों को ना न कहे। तथा रात्रिजागरण नाना प्रकार के गीतनृत्यादि उत्सव करे। तथा तीर्थोपवास, छह प्रमुख तप कोडि लाख अक्षतादि विविध प्रकार का उजमना ढोवे । तथा नाना प्रकार की वस्तु फल एक सौ आठ, चौवीस, ब्यासी, बावन, बहत्तरादि ढोवे । सर्व भक्ष्य भोजन के थाल ढोवे। दुकू. लादिमय चन्द्रवा की पहरावणी करे । तथा अंगलहना, दीपक, तेल, धोती, चन्दन, केसर, कस्तूरी, चंगेरी-छाबड़ी, कलश, धूपधान, आरति, आभरण, प्रदीप, चामर, श्रृंगार, स्थाल, कचोलक, घण्टा, झालरी, पड़हादि विविध प्रकार के वाजिंत्र देवे । देहरी करावे । कारीगरों का सत्कार करे । तीर्थ के बिगड़े काम को समरावे-सारसंभाल करे। तीर्थरक्षकों को बहु सन्मान देवे। जैन के मंगतों को, दीनों को, उचित दान देवे । तथा साधर्मिवात्सल्य, गुरुमकि करे। इस रीति से यात्रा करके तैसे ही पीछे फिरे, वर्षादि तक तीर्थ व्रत करे।
अथ स्नात्रविधिलिख्यते-मन्दिर में स्नात्र महोत्सव भी
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दशम परिच्छेद
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घृत का मेरु करे, अष्ट मांगलिक नैवैद्यादि स्नात्रमहोत्सव ढोवे । बहुत जाति के चन्दन, केसर, पुष्प, अंवरादि लावे, सकल श्रावक समुदाय को एकत्र करे, गीत नृत्यादि आडम्बर रचावे, दुकूलादि महाध्वज देवे । प्रौढाडम्बर से प्रभावनादि, निरन्तर तथा पर्व - दिन में करे । नेकर निरन्तर अथवा पर्वदिन में भी न कर सके, तो भी वर्ष में एक वार तो अवश्य करे। स्नात्र महोरस में स्वधनकुलप्रतिष्ठादि के अनुसार सर्वशक्ति से करे, अर्थात् जिनमत का महाउद्योत करे ।
तथा देवद्रव्य की वृद्धि के वास्ते प्रतिवर्ष मालोदूधट्टन करे, इन्द्रमाला तथा और माला का महोत्सव भी यथाशक्ति करे। ऐसे ही पहरावणी नवीन धोती, विचित्र प्रकार का चन्दुआ, अंगणा, दीपक, तेल, उत्तम केसर, चन्दन, चरास, कस्तूरी प्रमुख चेत्योपयोगी वस्तु, प्रतिवर्ष यथाशक्ति देवे |
तथा सुंदर आंगी, पत्रभंगी, सर्वांगामरण, पुष्पगृह, कदलीगृह, पुनली, पानी के यन्त्रादि की रचना करे । तथा नाना गीत नृत्यादि उत्सव से महापूजा और रात्रिजागरण करे ।
तथा श्रुतज्ञान पुस्तकादि की पूजा
कर्पूरादि से सदा
सुकर है । अरु प्रशस्त वस्त्रादिक से विशेष
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जैनतत्त्वादर्श श्रुतपूजा पूजा तो प्रतिमास शुक्लपंचमी के दिन श्रावक
को करनी योग्य है। जेकर शक्ति न होवे, तो भी वर्ष में एक बार तो अवश्य करे। इसका विस्तार जन्मकृत्य में ज्ञान भक्तिद्वार में लिखेंगे। तथा पंचपरमेष्ठी नमस्कार, आवश्यकसूत्र, उपदेशमाला,
उत्तराध्ययनादि ज्ञान दर्शन का तप, इत्यादि उद्यापन में जघन्य एक वार उद्यापन करे, जिस से
लक्ष्मी सफल होवे । जब जप, तप का उद्यापन करे, तब चैत्य पर कलशारोपण करे, फल चढावे, अक्षत पात्र के मस्तक पर अक्षत देवे । जैसे भोजन के ऊपर तांबूल देते हैं, इसी तरे यह भी जान लेना। यह उपधान, उद्यापन विधि शास्त्रांतर से जान लेनी । तथा तीर्थ की प्रभावना के वास्ते बाजे-गाजे और प्रौढा
डंबर से गुरु का प्रवेश करावे, यह व्यवहार प्रभावना भाष्य में कहा है । क्योंकि इस से जिनमत
की प्रभावना होती है । तथा यथाशक्ति श्रीसंघ का बहुमान करना, तिलक करना, चन्दन, बरास, कस्तूरी प्रमुख से विलेपन करे, तथा सुगन्धित फूल, भक्ति से नालियरादि विविध तांबूल प्रदानरूप भक्ति करे । क्योंकि शासन की उन्नति करने से तीर्थकर गोत्र उपार्जन करता है, यह कथन ज्ञातासूत्र में है।
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दशम परिच्छेद
३२७
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तथा गुरु के योग मिले जघन्य से भी एक वर्ष में एक वार आलोचना लेवे । अपने करे हुए आलोचना विधि सर्व पाप को गुरु के आगे कह देवे, पीछे गुरु जो प्रायश्चित्त देवे, सो लेवे । फिर उस पाप को न करे, तिसका नाम आलोचना लेनी है । श्राद्धजितकल्पादि में इस प्रकार विधि लिखी है। पक्ष पीछे चार मास पीछे, एक वर्ष पीछे, उत्कृष्ट बारां वर्ष पीछे, निश्चय ही आलोचना करे । अपना शल्य काढ़ने को क्षेत्र से सात सौ योजन, अरु काल से वारां वर्ष तक गीतार्थ गुरु का अन्वेषण करे । तथा जिस गुरु के आगे आलोचना करे, सो गुरु गीतार्थ होवे, मन, वचन, काया करके स्थिर होवे, चारित्रवान् होवे, आलोचना ग्रहण में कुशल होवे, प्रायश्चित्त का जानकार होवे, विषाद रहित होवे, ऐसा गुरु होवे, सो आलोचना प्रायश्वित देने योग्य है ।
तिन में गीतार्थ उसको कहते हैं कि, जो १. निशी - यादि छेद शास्त्रों का मूलपाठ, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णी, इन का जानकार होवे । तथा ज्ञानादि पंचाचार युक्त होवे । तथा २. आधारवंत - आलोचित पाप का धारनेवाला होवे । ३. आगमादि पांच व्यवहार का जाननेवाला होवे । तिस में भी इस काल में तो नीतव्यवहार मुख्य है, तिसका जाननेवाला होवे । ४. प्रायश्वित के आलोचक की लज्जा को दूर करानेवाला होवे | ५. आलोचक की शुद्धि करनेवाला
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जैनतत्त्वादर्श होवे । ६. आलोचक के पापकर्म और के आगे न कहे। ७. जैसे वो आलोचक निर्वाह कर सके, तैसे प्रायश्चित्त देवे । ८. जो प्रायश्चित न करे, तिसको इस लोक अरु परलोक का भय दिखावे । यह आठ गुण युक्त गुरु होता है। - साधु ने तथा श्रावक ने १. प्रथम तो अपने गच्छ में गच्छ के आचार्य के आगे, २. तदयोगे-तदभावे उपाध्याय के पास, ३. तदभावे प्रवर्तक के पास, ४. तदभावे स्थविर के पास, ५. तदभावे गणावच्छेदक के पास, स्वगच्छ में इन पांचों के अभाव से संभोगी एक समाचारीवाले, गच्छांतर में पूर्वोक्त आचार्यादि पाचों के पास क्रम से आलोचे । तिनके भी अभाव से असंभोगी संवेगी गच्छ में पूर्वोक्त क्रम से आलोचे । तिनके भी अभाव हुए गीतार्थ पार्श्वस्थ के पास आलोचे । तिसके अभाव से गीतार्थ सारूपी के पास आलोचे, तिसके अभाव में पश्चात्कृत के पास आलोचे । सारूपी उसको कहते हैं कि, जो शुक्ल वस्त्रधारी होवे, शिरमुंडित, अबद्धकच्छ, रजोहरण रहित, ब्रह्मचारी, खी रहित, भिक्षावृत्ति होवे । अरु जो सिद्धपुत्र होता है, सो शिखा सहित, अर्थात् चोटी सहित, स्त्री सहित होता है। तथा जो पश्चात्कृत होता है, सो चारित्र छोड़ के गृहस्थ के वेषवाला होता है। आलोचना के अवसर में पार्श्वस्थादि को भी गुरु की तरे वंदना करे। क्योंकि विनयमूल धर्म है, इस वासते वंदना करे। जेकर वो पार्श्वस्थादिक अपने आप को
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दशम परिच्छेद
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गुणहीन जान कर वंदना न करावे, तब तिसको आसन पर बैठा कर प्रणाम मात्र करके आलोचना लेवे । तथा पश्चाकृत को इत्वर सामायिक आरोपण लिंग दे कर पीछे से उसके पास यथाविधि से
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आलोचना लेवे । तथा पार्श्वस्थादिक के अभाव में, जहां राजगृहादि गुणशील चैत्यादिक में, जहां श्री अर्हत गणधरादिकों ने बहुत बार प्रायश्चित्त लोगों को दिया है, सो तहां रहनेवाले देवता ने देखा है, इस वास्ते तिस देवता को अष्टमादि तप से आराध के, तिसके आगे आलोचे । कदाचित् वो देवता चत्र गया होवे, अरु उसकी जगे और उत्पन्न हुआ होवे, सदा वो देवता महाविदेह के अर्हत को पूछ के प्रायश्चित्त देवे । तिसके अभाव में अर्हत प्रतिमा के आगे आलोचे । आप प्रायश्चित्त लेवे । तिसके अभाव में पूर्वोतर मुख करके अर्हतसिद्धों के समक्ष आलोवे । परन्तु शल्य न रक्खे | आलोचना करनेवाला पुरुष, माया रहित चालक की तरे सरल हो कर आलोचे । जो कोई किसी कारण से आलोचना न करे, वो आराधक नहीं है ।
आलोचना करनेवाला दश दोष वर्ज के आलोचना करे । अव दोष के नाम लिखते हैं - १. गुरु को वैयावृत्त्यादि से खुशी करके पीछे आलोचे, जिस से वो गुरु थोड़ा प्रायश्चित्त देवे । २. यह गुरु थोड़ा दण्ड देता है, ऐसे अनुमान करके आलोवे । ३. जो दूसरों ने देखा होवे, सो आलोवे, परन्तु जो अपना किया अपराध दूसरे किसीने न देखा होवे, उसको
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जैनतत्त्वादर्श न आलोचे । ४. बादर दोष को आलोचे, परन्तु सूक्ष्म दोष को न आलोचे । ५. सूक्ष्म दोष आलोचे, परन्तु बादर दोष न आलोचे । ६. अव्यक्त स्वर से आलोचे । ७. जैसे गुरु समझे नहीं, ऐसे रौला करके आलोचे । ८. आलोचा हुआ बहुतों को सुनावे । ९. अव्यक्त अगीतार्थ के पास आलोचे । १०. अपराध जो गुरु ने कहा होवे, तिस अपने अपराध कों
आलोचे। यह दश दोष हैं। ___अब आलोचना करने से जो गुण होता है, सो कहते हैं। जैसे बोझा उठानेवाला भार के दूर हुए हलका हो जाता है, तैसे बो पाप से हलका हो जाता है । तथा पाप. रूप शस्य दूर हो जाता है, प्रमोद उत्पन्न होता है । आत्म पर के दोषों से निवृत्ति, तिसको देख के और मी आलोचना करेंगे। तथा सरलता होती है, शुद्ध हो जाता है । वो दुष्कर काम का करनेवाला है, क्योंकि दोष को सेवना तो दुष्कर नहीं है, किन्तु आलोचना प्रकाश करना, यह दुष्कर है। तथा श्री तीर्थंकर की आज्ञा का आराधक होता है । निःशल्य होता है। आलोचनाबाले के ये गुण होते हैं। यह आलोचना विधि श्राद्धजीतकल्पसूत्रवृत्ति के अनुसार लिखी है । बाल, स्त्री, यतिहत्यादि पाप तथा देवादिद्रव्य मक्षण का पाप, तथा राजपत्नीगमनादि महापाप की भी सम्यग् रीति से आलोचना करके गुरुदत्त प्रायश्चित्त करे, तो दूर हो जाते हैं । नहीं तो दृढप्रहारी प्रमुख
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३३१
दशम परिच्छेद उसी भव में मोक्ष कैसे जाते ! इस वास्ते वर्ष वर्ष प्रति चौमासे चौमासे आलोचना लेवे।
अथ जन्मकृत्य अठारह द्वारों करके लिखते हैं । तिस में प्रथम उचित द्वार है । सो पहिले तो उचित-योग्य वसने का स्थान करे। जहां रहने से धर्म, अर्थ अरु काम, तीनों की सिद्धि
होवे, तहां श्रावक को वास करना चाहिये। निवासस्थान तथा क्योंकि और जगे वसने से दोनों भव बिगड़ गृहनिर्माण जाते हैं । मिल्लपल्ली में, चोरों के गाम में,
पर्वत के किनारे, हिंसक लोगों में, दुष्ट लोगों में, धर्मी लोगों के निदकों में, इत्यादि स्थान में, वास न करे। परन्तु जहां जिनचैत्य होवे, जहां मुनि आते होवे, जहां श्रावक वसते होवें, जहां बुद्धिमान् लोग स्वभाव से ही शीलवान् होवें, जहां प्रभा धर्मशील होवे, बहुत जल, इन्धन होवे, तहां वास करे । जैसा अजमेर के पास हर्षपुर नगर था, ऐसे नगर में रहने से धनवन्त, गुणवन्त अरु धर्मवन्त की संगति से विनय, विचार, आचार, उदाः रता, गंभीरता, धैर्य, प्रतिष्ठा आदि गुणों की प्राप्ति होती है, धर्मकृत्य में कुशलता प्रगट होती है। इस वास्ते बूरे गामों में चाहे धनप्राप्ति होवे, तो भी वास न करे । उक्तं च
यदि वांछसि मूर्खत्वं, ग्रामे वस दिनत्रयं । अपूर्चस्यागमो नास्ति, पूर्वाधीतं च नश्यति ॥
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'जैनतसादर्श . उचित स्थान भी स्वचक्र, परचक, परस्पर विरोध,
दुर्मिक्ष, मारी, हैजा, प्रजाविरोध, अनादि वस्तुक्षय, इत्यादि कारण हो जावें, तो तत्काल छोड़ जाना चाहिये। नहीं तो त्रिवर्ग की हानि हो जावेगी। जैसे आगे तुरकों के भव से लोक दिल्ली को छोड़ के गुजरातादि देशों में जाने से सुखी और धनी हुए हैं । तथा क्षितिप्रतिष्ठित, चनकपुर, ऋषमपुर आदि उजड़ने की व्यवस्था भी जान लेनी, जोकि इस रीति से है-क्षितिप्रतिष्ठित उजड़ के चनकपुर वसा, अरु चनकपुर उजड़ के ऋषभपुर वसा, अरु ऋषभपुर उजड़ के राजगृह वसा, तथा राजगृह उजड़ के चंपा वसी, अरु चम्पा उजड के पाटलीपुत्र अर्थात् पटना वसा । ऐसे श्रावक भी पूर्वोक्त हानि जाने तो नगर को छोड़ के और जगे जा कर बसे ।।
तथा रहने का घर भी अच्छे पड़ोसियों के पास करे, परन्तु वेश्या, तिर्यंच, मिक्षाचर, श्रमण, बौद्ध, तापसादि ब्राह्मण, मसाण, कोटवाल, माछी, जुगारी, चोर, नट, नाचने. बाला, भाट, कुकर्मी, इत्यादिकों के पड़ोस में घर हाट न लेवे, न वसे । जेकर देहरे के पास रहे, तो हानि होवे । तथा चौक में, धूर्त के अरु प्रधान के पास रहे, तो धन अरु पुत्र दोषों का क्षय होवे। तथा मूर्ख, अधर्मी, पाखण्डी, पतित, चोर, रोगी, क्रोधी, चंडाल, मदोन्मत्त, गुरुतल्पग, बेरी, स्वामीवंचक, लोभी, तथा ऋषि, स्त्री, अरु बाल
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दशम परिच्छेद
३३३ हत्या करनेवाला, इतने लोक जेकर अपना भला चाहें, तो भी इनके पड़ोस में न रहे। क्योंकि इनकी संगति से गुणहानि प्रमुख अनेक उपद्रव होते हैं, इस वास्ते इनके पड़ोस में न रहे।
तथा मला स्थान वो होता है कि, जहां हड्डी का शल्य व होवे, राख न होवे, जहां डाभ उगती होवे, मला वर्ण, गन्दवाली मिट्टी होवे, मीठा जल होवे, खोदते धन निकले, वो जगा शुभ है। तथा जो भूमि शीतकाल में उष्ण स्पीवाली होवे, अरु उष्णकाल में शीत स्पर्शवाली होवे, वो जगा बहुत शुम है। एक हाथ मात्र भूमि पहिले खोद के फिर तिस मट्टी से पीछे वो खाड़ा भरे । जेकर मट्टी अधिक रहे, तो श्रेष्ठ भूमि जाननी, अरु जो मट्टी वराबर रहे, तो समान भूमि जाननी. अरु मट्टी ओछी हो जाये तो नेष्ट भूमि जाननी । तथा सौ पग चले, इतने काल में निर भूमिका में पानी न सूखे, सो उत्तम भूमि जाननी । अरु जेकर सौ पग चले, इतने काल में एक अंगुली भर पानी शोष होवे, तो मध्यम मूमि जाननी, अरु एक अंगुली के भी उपरांत पानी सूखे, तो अधम भूमि जाननी । तथा पक्षांतर में जिस भूमि के खात में फूल गेरें, वो फूल जेकर सूखे नहीं, तो उत्तम भूमि जाननी, अर्द्ध सूखे, तो मध्यम भूमि जाननी, अरु सर्व सूख जावे, तो अधम भूमि जाननी तथा जिस भूमि में ब्रीहि बोई हुई
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जैनतत्वादर्श तीन दिन पीछे उगे, तो उत्तम, पांच दिन पीछे उगे तो मध्यम, अरु सात दिन पीछे उगे, तो हीन भूमि जाननी। .. सर्प की बंधी पर घर बनावे, तो रोग होवे । पोली भूमि पर घर बनावे, तो निर्धन होवे। शल्ययुक्त भूमि पर घर बनावे तो मरण पावे | मनुष्य का हाड अरु केश का शल्य होवे, तो मनुष्यों की हानि करे, खर का शल्य होवे, तो राजा प्रमुख का भय होवे। श्वान का हाड होवे, तो बालक मरण पावे । बालक का हाड होवे, तो गृहस्वामी परदेश में उजड़ जावे । गौ का शल्य होवे, तो गौ रूप धन की झानि होवे । मनुष्य के केश तथा कपाल अरु भस्म होवें, तो मरण देवे। . तथा प्रथम प्रहर अरु पश्चिम प्रहर वर्ज के शेष प्रहर में वृक्ष की अरु ध्वजा की छाया घर ऊपर पड़े, तो दुःखदायी है। अहंत के मंदिर के पीछे न वसे, ब्रह्मा और कृष्ण के पास न रहे, चंडिका और सूर्य के सन्मुख रहे नहीं, महादेव के तो किसी पासे भी न रहे । कृष्ण के वामे पासे अरु ब्रह्मा के दाहिने पासे न रहे । निर्माल्य, स्नान का पानी, ध्वजा की छाया, विलेपन वर्जे । जिनमन्दिर के शिखर की छाया अरु अहंत की दृष्टि होवे, तहां न वसे । तथा नगर अथवा गाम के ईशान कोण में घर न बनावे, बनावे तो ऊंच जातिवाले को दुःखदायी है।
घर बनावे, तो पूरा मोल देवे, पडोसी को दुःख न देवे,
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दशम परिच्छेद
३३५ घर लेती वक्त किसी को दुःख न देवे। ऐसे ही ईंट, काष्ठ, पाषाण प्रमुख वस्तु निर्दोष, दृढ़, बलवान् , अरु जो नवीन होवे, सो योग्य मोल दे कर लेवे । सो विक्रय होती होवे, तिस का योग्य मोल दे कर लेवे । परन्तु आप इंटपचावा न लगावे । तथा जिनप्रासादादि की ईटादि न ग्रहण करे, क्योंकि शास्त्र में भी कहा है कि, देहरा, कूवां, वावडी, मसाण, मठ, अरु राजा के मंदिर, इनके पाषाण, ईंट, काष्ठ को सरसों मात्र भी वर्ने । क्योंकि इनका पाषाण, स्तंभ, पीढ़, पट्टा, द्वार, शाखा, ये सर्व गृहस्थ के घर में विरोधकारी हैं, अरु धर्म के स्थान में सुखदायी हैं। ___ तथा पाषाणमय घर में काष्ठ के स्थंभ, अरु काष्ठमय घर में पाषाण के स्तंभ, मंदिर में तथा घर में बनाना वर्ने । तथा हल का काष्ठ, कोल्हू का काष्ठ, गाड़े का काष्ठ, अरहट का काष्ठ, चरखे का काष्ठ, कांटेवाले वृक्ष का काष्ठ, पंचउंबर का काष्ठ, थोहर का काठ, ये काष्ठ घर में ना लगावे । तथा बिजोरा, केला, दाडिम, वेरी, जंबीरी, हलदर, आंवली, कीकर अरु धतूग, इतने का काष्ठ वर्जे। तथा इन वृक्षों की जड पडोस से घर में प्रवेश करे, अथवा इनकी छाया घर में पडे, तो कुल का नाश करे। तथा पूर्वदिशा की तरफ घर ऊंचा होवे, तो धन का नाश करे। तथा दक्षिण दिशा की तरफ ऊंचा होवे, तो धन की वृद्धि करे । पश्चिमदिशा में ऊंचा होवे, तो धनादि की वृद्धि करे। उत्तरदिशा में होवे, तो उजड़ जावे ।
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३३६
जैनतस्वादर्श तथा जो गोल घर होवे, बहुत कूणेवाला होवे, अथवा एक कूणा, दो कूणा, तीन कूणा होवे, अरु दक्षिणवामी तरफ लंबा होवे, ऐसे घर में न बसे। तथा जिस घर के कवाड स्वयमेव उघड़े अरु भिड़े वो घर सुखकारी नहीं ।
तथा घर के द्वार के आगे कलशादि चित्राम होवे, तो शुभ है। तथा रंगनी, नाटारंभ, भारत, रामायण का युद्ध, राजाओं का युद्ध, ऋषियों का चरित्र, देवचरित्र, ये चित्राम कराना घर में शुभ नहीं। तथा फलवृक्ष, फूलीवेल, सरस्वती, नव निधान, यज्ञस्तंभ, लक्ष्मीदेवी, कलश, वर्द्धमान, चौदह स्वप्नावलि, ये चित्राम कराना शुभ है। __तथा खजूर, दाडिम, केला, कोहड़ा, बीजोरा, ये जिस घर में ऊगें, उस घर का नाश करते है। वटवृक्ष ऊगे तो लक्ष्मी का नाश करते है । कांटेवाला वृक्ष उगे, तो शत्रु का भय करे । बडे फलवाला वृक्ष उगे, तो संतान का नाश करे। इन वृक्षों का काष्ठ भी वर्जे । तथा कोई शास्त्र ऐसा कहता है कि, घर के पूर्व वटवृक्ष होवे तो अच्छा है। दक्षिण पासे उदंबरवृक्ष शुभ है, पश्चिम भाग में पीपल, उत्तर पासे पिलंखन वृक्ष अच्छा है।
तथा घर में पूर्व दिशा में लक्ष्मी का घर करे, अग्निकोण में रसोई करे, दक्षिण दिशा में शयन की जगा करे, नैऋत्य कोण में शस्त्रशाला करे, पश्चिम दिशा में भोजनक्रिया करे, वायुकोण में अन्न संग्रह करे, उत्तर पासे जल रखने का स्थान,
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दशम परिच्छेद ३३७ करे, ईशानकोण में देवगृह करे, तथा दक्षिण पासे अग्नि, पानी, गाय, वायु-और दीवे की भूमि बनावे । तथा वामे पासे भोजन, धान्य, द्रव्य, वाहन, देवता की भूमि करे, यह पूर्वादि दिशा घर के दरवाजे की अपेक्षा से जाननी, छींकवत्, न तु सूर्यापेक्षा।
तथा घर बनानेवाले सूत्रधार, मजूर प्रमुख को बोले प्रमाण से कछुक अधिक मजूरी देवे, इसमें शोमा है। गृहस्थ को चाहिये, ऐसा घर वनावे, परन्तु व्यर्थ बड़ा घर न बनावे । क्योंकि उसमें व्यर्थ धन खरचना है। घर का द्वार, मर्यादा से योग्य जान के रक्खे। क्योंकि बहुत दरवाजे बनाने से दुष्ट जनों के आने जाने से स्त्री अरु धन का नाश हो जाता है । तथा दरवाजे का किवाड़ दृढ बनावे, सांकल अर्गलादि से सुरक्षित करे, किवाड़ भी सुख से खुल जावे, ऐसे बनावे । मीत में भोगल रखने से पंचेन्द्रिय जीव की विराधना होती है। किवाड़ मेड़े, तब यत्न से भेड़े। ऐसे प्रणाला, खालादि का भी यथाशक्ति से उद्यम करे। इसी तरे देश, काल, स्वविभव उचित, स्वजाति उचित घर बना के विधि सहित स्नानपूजा, साधर्मिवात्सल्य, संघपूजा करके भले मुहूर्त में भले शकुन में प्रवेश करे, तो बहुत सुखदायी होवे, त्रिवर्ग की सिद्धि का हेतु होवे।
दूसरा विद्या द्वार कहते हैं। विद्या-सो लिखित, पठित,
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जैनतत्त्वादर्श वाणिज्यादि कला का ग्रहण करे, अर्थात् विद्या अध्ययन करे । क्योंकि - जो विद्या नहीं
सीखता है सो मूर्ख रहता है। पग पग में पराभव पाता है। अरु विद्यावान् परदेश में भी माननीय होता है। इस वास्ते सर्व प्रकार की कला सीखनी चाहिये। क्या जाने क्षेत्रकाल के विशेष से किस कला से आजीविका करनी पड़े ! जिसने सर्वकला सीखी होवे, उसने भी पूर्वोक्त सात प्रकार की आजीविका में से जिस करके सुख से निर्वाह होवे, सो आजीविका करनी। जेकर सर्व कला सीखने में समर्थ न होवे, तब जिस कला से अपना सुखपूर्वक निर्वाह होवे, अरु परलोक में अच्छी गति होवे, सो कला सीखे । पुरुष को दो बातें अवश्य सीखनी चाहिये, उसमें एक तो जिस से सुखपूर्वक निर्वाह होवे सो, अरु दूसरी जिस से मर के अच्छी गति में जावे, यह दो बातें अवश्य सीखनी। तीसरा विवाह द्वार–सो विवाह भी त्रिवर्ग शुद्धि का
हेतु होने से उचित ही करना चाहिये । विवाह विवाह अन्य गोत्रवाले से करना चाहिये ।
तथा समान कुल, सदाचारादि-शील, रूप, वय, विद्या, धन, वेष, भाषा, प्रतिष्ठादि गुणों करके जो अपने समान होवे, तिसके साथ विवाह करे । अन्यथा अवहेलना, कुटुंबकलहादि अनेक कलंक उत्पन्न होते हैं,
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दशम परिच्छेद
३३९ श्रीमतीवत् । तथा सामुद्रिक शालोक्त शरीर के लक्षण अरु जन्मपत्रिका देख के वर कन्या की परीक्षा करके विवाह करे । तदुकं---
कुलं च शीलं च सनाथता च,
विद्या च वित्तं च वपुर्वयश्च । वरे गुणाः सप्त विलोकनीया.
__ स्ततः परं भाग्यवशा हि कन्या ।। तथा जो मूर्ख होवे, निर्धन होने, दूर होवे, सूरमा होवे, मोक्षामिलापी, वैरागवन्त होवे, वय में कन्या से त्रिगुणा अधिक होवे, इनको कन्या न देनी। तथा अति धनवान्, अति शीतल, अति क्रोधी, विकलांग, अरु रोगी, इनको भी कन्या न देनी । तथा जो कुल जाति से हीन होवे, माता पिता रहित होवे, स्त्री पुत्र सहित होवे, इनको भी कन्या न देनी। तथा जिसका बहुतों से वैर होवे, जो नित्य कमा के खावे, अरु जो आलसी होवे, इनको भी कन्या न देनी । तथा सगोत्री को, जुआरी को, कुव्यसनी को, विदेशी को भी कन्या न देनी । जो स्त्री कपट रहित भार के साथ वर्ते, देवर के साथ भी कपट रहित वर्ते, सामु की भक्ता होवे, स्वजन की वत्सला होवे, भाइयों में स्नेहवाली होवे, कमल की तरे विकसित वदनवाली होवे, सो कुलवधू सुलक्षणा है।
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जैनतत्त्वादर्श
अग्नि देवता की साक्षी से पाणिग्रहण करना, तिसको विवाह कहते हैं । सो विवाह लोक में आठ प्रकार का – १० अलंकार करके कन्या देवे, तिसका नाम ब्राह्मविवाह है । २. कन्या के पिता को धन देके जो कन्या विवाहे, तिसका नाम प्राजापत्य विवाह है । इन दोनों विवाह की विधि आचारदिनकर शास्त्र से जान लेनी । ३. बछड़े सहित गोदान - पूर्वक, सो ऋषिविवाह । ४. जो यज्ञ के वास्ते दीक्षा लेवे, उसको जो कन्या देवे, सोई दक्षिणा है, सो देवविवाह है । यह दोनों विवाह लौकिक वेदसम्मत हैं; परन्तु जैनवेद में सम्मत नही हैं। क्योंकि इन दोनों विवाहों के मंत्र, जैनवेद में नहीं हैं, अरु ये दोनों विवाह जैनमतवालों के मत में करने योग्य नहीं हैं । इन पूर्वोक्त चारों विवाहों को लोकनीति में धर्मविवाह कहते हैं । ५. माता पिता की आज्ञा के विना परस्पर स्त्री पुरुष के राग से जो विवाह होवे, तिसको गंधर्व विवाह कहते हैं । ६ किसी काम की प्रतिज्ञा करा के कन्या
देवे, सो आसुर विवाह है । ७. जो जोरावरी से कन्या को ग्रहण करे, सो राक्षस विवाह कहते है । ८. सोती, मदोन्मत्त, बावरी, प्रमादवंत, कन्या को ग्रहण करे, सो पिशाच विवाह है । इन चारों को अधर्म विवाह कहते हैं । जेकर वधू वर की परस्पर रुचि होवे तदा अधर्मविवाह को भी धर्मविवाह
जानना | अच्छी स्त्री का लाभ होना, यह विवाह का फल
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दशम परिच्छेद
३४१
है । अरु स्त्री मिलने का फल यह है कि अच्छा पुत्र उत्पन्न होवे, चित्त की वृत्ति अनुपहत रहे, शुद्धाचार, देवगुरु, अतिथि, बांधवादि का सत्कार होवे ।
तथा विवाह में जो धन खरचे, सो अपने कुल वैभव की अपेक्षा लोक में जैसे अच्छा लगे, उतना खरच करे, परन्तु अधिक अधिक खरचने की चाल न बढ़ावे । क्योंकि अधिकाधिक खरच तो धर्म पुण्य की जगे ही करना ठीक है । विवाहादि के अनुसार स्नात्रमहोत्सव, बड़ी पूजा, । आदर सहित करे । रसवती ढौकन अरु चतुर्विधसंघ का सत्कार करे । क्योंकि विवाहादि जो हैं, सो सब संसार के कारण हैं, इस में से जितना धर्म में लग जावे, सो सफल है ।
अथ चौथा मित्र द्वार कहते हैं । उसको मित्र बनावे, उमको गुमास्ता रक्खे, जो उसको सहायक होवे । अर्थात् उत्तम प्रकृतिबाला, माधर्मी, धैर्यवन्त, गम्भीर, चतुर, बुद्धिमानू, प्रतीतकारी, सत्यवादी इत्यादि शुभगुण युक्त जो होवे, उसको मित्र बनावे |
पाचमा द्वार भगवान् का मन्दिर बनावे | बड़ा ऊंचा, तोरण शिखर मंडपादि मंडित, भरतचक्रवजिनमन्दिर का यदिवत् बनावे | सुवर्ण मणि रत्नमय तथा विशिष्ट पाषाणमय, अथवा विशिष्ट काष्ठ और ईंटमय मन्दिर बनावे | जेकर शक्ति
निर्माण
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३४२
जैनतत्त्वादर्श न होवे, तो तृण की कुटी भी न्यायार्जित धन से बना कर उसमें मट्टी की प्रतिमा बना करके पूजे। न्यायोपार्जित धन से ही जिनमन्दिर बनाना चाहिये । जिसने जिनभवन नहीं कराया, जिनप्रतिमा नहीं बनवाई, जिनप्रतिमा की पूजा नहीं करी अरु साधुपना नहीं लिया, उस पुरुष ने अपना जन्म हार दिया है। जो पुरुष शक्ति के अभाव से एक फूल से सी पूजा करे, तो भी वो परमपुण्य उपार्जन करता है, तो फिर जिसने दृढ़, निविड, सुंदर शिला से श्रीजिनभवन मानरहित हो कर बनवाया है, तिसके पुण्य का तो क्या कहना है ? उसका तो जन्म ही सफल है। ___ अब जिनमन्दिर बनाने की विधि है, सो लिखते हैंभूमि अरु काष्ठादि शुद्ध होवे । मजूरों से छल न करे, सूत्रधार, कारीगरों को सन्मान देवे। तथा पूर्व में जो घर बनाने की विधि कही, वो सर्व इहां विशेष करके जाननी । काष्ठादि जो लावे, सो देवाधिष्ठित वनादि से सूखा लावे, परन्तु अविधि से न लावे । तथा आप ईंट पकावे, तो अच्छा नहीं। नौकरों को, काम करनेवालों को ठहराये से भी कछुक महीना अधिक देवे। क्योंकि वे लोक तुष्टमान होकर अच्छा और पक्का काम करेंगे। अरु मन्दिरादि कराने में शुभ परिणाम के वास्ते गुरु संघ समक्ष ऐसे कहे कि, जो इहां अविधि से पर का धन मेरे पास आया होवे, तिस का पुण्य तिस को होवे । इस तरे जिनमन्दिर बनावे । परन्तु भूमि खोदनी,
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दशम परिच्छेद
३४३ पूरणी, पाषाणदल से कपाट लाने, शिला फोड़नी, चिनने प्रमुख में महा आरम्भ होता है, इस वास्ते जिनमन्दिर न बनाना चाहिये ! ऐसी आशंका न करनी। क्योंकि यन से प्रवृत्त होने से निढोषता है। अरु नाना प्रतिमास्थापन, पूजन, संघसमागम, धर्मदेशना करनी, दर्शन व्रतादि की प्रतिपत्ति, शासनप्रभावना, अनुमोदनादि, अनंत पुण्य का हेतु होने से तथा शुभोदय का हेतु होने से कूप के दृष्टांत से महा लाभ का कारण है।
अरु जीर्णोद्वार में ऐसी रीति है । यतःनवीनजिनगेहस्य, विधाने सत्फलं भवेत् । तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारेण जायते ॥ १॥ जीणे ममुद्धृते यावत्तावत्पुण्यं न नूतने । उपमदों महांस्तत्र, बचत्यख्यातिधीरपि ॥ २ ॥
तथा
राया अमचसिट्टी, कोडंत्रीए वि देसणं काउं। जिण्णे पुन्चाययणे, जिणकप्पीयाधि कारवइ ॥ १॥
अर्थ:--राजा, मन्त्री, श्रेष्ठी, कौटुंविकों को उपदेश देकर जीर्ण जिनमन्दिर का उद्धार जिनकल्पी साधु मी करावे । जो जिनभवन का उद्धार करे, तिसने भयंकर संसार
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કષ્ટ
जैनतत्वादर्श
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से अपनी आत्मा का उद्धार करा है, ऐसा जान लेना । जीर्णचैत्योद्धार करणपूर्वक ही नवीन चैत्य करना योग्य है । इसी वास्ते संप्रति राजाने नवासी हजार जीर्णोद्धार कराये हैं । अरु नवीन जिनमन्दिर तो छत्तीस हजार ही बनवाये हैं । ऐसे ही कुमारपाल राजा तथा वस्तुपालादिकों ने भी नवीन जिनमंदिरों के बनाने की अपेक्षा से नीर्णोद्धार बहुत कराये हैं ।
तथा जब चैत्य वन जावे, तब शीघ्र ही प्रतिमा विराजमान करनी चाहिये । यदाह श्रीहरिभद्रसूरिः -
जिनभवने जिनविवं, कारयितव्यं द्रुतं तु बुद्धिमता । साधिष्ठानं ह्येवं, तद्भवनं वृद्धिमद्भवति ॥
देहरे में कुंडी, कलश, उरसा, प्रदीप, भंडार, बाग, वाडी, गाम, नगर, प्रमुख राजा देवे । जैसे सिद्धराज राजाने, श्रीरैवताचल ऊपर श्रीनेमिनाथ के चैत्य वास्ते बारां गाम दिये थे । तथा जैसे कुमारपाल राजाने वीतभयपाटन के खुदाने से त्रांबापत्र में श्रीउदयनराजा के दिये गाम निकले, सो कबूल करके दिये; तैसे देवे । श्रीजिनमंदिर के बनाने का फल यह है कि, जो यथाशक्ति से अपने धन के अनुसार श्रीजिनवर का भवन करावे, सो देवता जिसकी स्तुति करे, बहुत काल लग आनंदरूप, ऐसा देवविमानादि का परम सुख पावे |
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दशम परिच्छेद
३१५ अथ पष्ठ प्रतिमा द्वार-सो श्रीअहंत का विय, मणि,
सुवर्ण, धातु, चंदनादि काष्ठ अरु पाषाण, जिनप्रतिमा माटी प्रमुख का पांच सौ धनुष प्रमाण, का निर्णय यावत् अंगुष्ठ प्रमाण यथाशक्ति से बनावे ।
श्रीजिनप्रतिमा बनानेवाले को जो फल होता है, सो कहते हैं:सन्मृत्तिकामलगिलातलदंतरोप्य
सौवर्णरत्नमणिचंदनचारूवित्रम् । कुर्वति जैनमिह ये स्वधनानुरूप,
ते प्राप्नुवंति सुरेषु महासुखानि ।। दारिदं दोहग्गं कुजाइकुसरीरकुगईकुमईओ।
अवमाणरोगसोगा न हुनि जिणविवकारीणं ॥ अर्थः-जो जिनविंव का करानेवाला है, सो दारिद्र, दौर्भाग्य, कुजाति, विरूप शरीर, नरक तिर्यंच की गति, वुरी बुद्धि, परवशपना, रोगी अरु शोकपने को न पावे ।
तथा प्रतिमा भी वास्तुशास्त्र में कही विधिपूर्वक वनावे । सुलक्षणा, संतति की वृद्धि करनेवाली बनावे । तथा जो प्रतिमा अन्यायोपार्जित द्रव्य से बने, दोरंगादि रंगवाले पाषाण की बने, जिसका अंग हीनाधिक होवे, सो प्रतिमा स्वपर की उन्नति का नाश करनेवाली है । तथा जिस प्रतिमा
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जैनतत्त्वादर्श का मुख, नाक, नेत्र, नाभि, कटि, इतने मंग, भंग होवे, तो उस प्रतिमा को मूलनायक नहीं करना चाहिये। अरु आमरण सहित, वस्त्र सहित, परिकर सहित, लांछन सहित पूजे । तथा निस प्रतिमा को सौ वर्ष से अधिक वर्ष हो गया होवे, अरु आगे जो प्रामाविक पुरुष की प्रतिष्ठी हुई होवे, वो प्रतिमा जेकर खंडित होवे, तो भी पूजने योग्य है। तथा बिंब के परिवार में पाषाणमय में, जेकर दूसरा रंग होवे, तो वो बिंब सुखकारी नहीं । जो बिंब सम अंगुल प्रमाण होवे, सो शुभ नहीं। तथा एक अंगुल से लेकर ग्यारह अंगुल प्रमाण बिंब घर में पूजना चाहिये । इस से उपरांत प्रमाणवाला विंब होवे, तो प्रासाद में पूजना चाहिये। यह कथन पूर्वाचार्यों का है। तथा निरयावलिसूत्र में कहा है कि, लेप की, पाषाण की, काष्ठ की, दांत की, लोहे की प्रतिमा, परिवार अरु प्रमाण रहित होवे, तो घर में न पूजे । तथा घरप्रतिमा के आगे नैवेद्य का विस्तार न करे। तीन काल में निश्चय से अभिषेक करे । पूजा भाव से करे । प्रतिमा मुख्यवृत्ति से परिकर सहित, तिलक सहित, आभरण सहित करावे । उस में मूलनायक तो विशेष करके शोभनीक बनाना चाहिये । क्योंकि जिनप्रतिमा की अधिक शोभा देखने से परिणाम अधिक उल्लासमान होने से कर्मों की अधिक निर्जरा होती है।
जिनमंदिर अरु जिनप्रतिमा बनानेवाले को अतुल्य
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दशम परिच्छेद पुण्य फल होता है। जहां तक वो मन्दिर अरु प्रतिमा रहेंगे, तहां तक पुण्य फल होवे । जैसे अष्टापद ऊपर भरत राजा का कराया चैत्य तथा रेवतगिरि ऊपर ब्रहेंद्र का कराया कांचन वलानकादि चैत्यप्रतिमा, अरु भरतचक्री की अंगूठी में माणिक की प्रतिमा, तथा कुल्पाक तीर्थ में माणिक्यस्वामी की प्रतिमा कहलाती है। तथा श्रीस्तंभनक पार्श्वनाथ की प्रतिमा आज लग पूजते हैं। इसी वास्ते इस चौवीसी में पहिले भरतचक्री ने श्रीशत्रुजय तीर्थ में रत्नमय चौमुख चौरासी मंडप संयुक्त श्रीऋषमदेव का मन्दिर बनवाया। पांच कोडी मुनियों से पुंडरीक गणधर मोक्ष गये । ज्ञाननिर्वाण के ठिकाने भी बनवाये। ऐसे ही बाहुबली, मरुदेवीश्रृंग में तथा रेवतगिरि, अर्बुदगिरि, वेमारगिरि अरु समेतशिखर में भी जिनमंदिर बनवाये । प्रतिमा भी सुवर्णादिक की बनवाई। तथा भरतराजा की आठमी पीढी में-पुस्त में दण्डवीर्य राजा ने तथा दूसरा सगर चक्रवर्त्यादिकों ने तिन का उद्धार कराया । तथा हरिषेन नामक दशमे चक्रीने श्रीजिनमंदिर मंडित पृथ्वी करी, तथा संप्रति राजा ने सवा लाख जिनमंदिर तथा सवा क्रोड जिनप्रतिमा बनवाई । तथा आम राबा ने गोपालगिरि अर्थात् गवालियर के राजा श्रीमहावीर अहंत का मन्दिर एक सौ एक हाथ ऊंचा बनवाया । तिस में साढे
तीन क्रोड़ सोनामोहोर खरच कर सात हाथ प्रमाण ऊंची , श्रीमहावीर अहंत की प्रतिमा विराजमान करी। तहां मूल
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૪૮
जनतत्वादरा
मण्डप में सवा लाख सोनैया लगाया, अरु प्रेक्षामंडप में इक्कीस लाख सोनैया खरच करा । तथा कुमारपाल राजा ने चौदह सौ चौतालीस (१४४४) नवीन जिनमन्दिर कराये, अरु सोलां सौ मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया । छ्यानवे क्रोड़ रुपये खरच के त्रिभुवनविहार नामा जिनमंदिर बनवाया । इस में एक सौ पच्चीस अंगुल प्रमाण अरिष्टरत्नमयी प्रतिमा स्थापित की, और बहत्तर देहरियों में चौवीस प्रतिमा रत्न की, चौवीस सोने की, चौवीस रूपे की स्थापन करीं । अरु चौदह भार प्रमाण एक एक चौवीसी बनवाई । तथा मंत्री वस्तुपाल ने तेरां सौ तेरां नवीन जिनमंदिर बनवाये | और बाईस सौ जीर्णोद्धार कराये । सवा लाख प्रतिमा, अरु सवा लाख रत्नसुवर्ण से जड़े हुए आभूषण, प्रतिमाजी के बनवाये । तथा शाह पेथड़ने चौरासी चौरासी जिनमन्दिर बनवाये । मांधाता अरु ॐकार नगर में तथा देवगिरि में क्रोड़ों रूपक खरच के वीरमदे राजा के राज्य में चौरासी निमन्दिर बनवाये । तीन लाख रुपैया दान में दीया । तथा तिस ही पेथडशाह ने श्रीशत्रुंजय तीर्थ में श्रीऋषभदेवजी के मन्दिर को सुवर्णपत्र से मढ़ा के मेरु के श्रृंगवत् कर दिया था । ये सर्व पूर्वोक्त मन्दिर राजा अजयपाल अरु मुसलमानों ने गारत कर दिये, शेष जो बचे बचाये रहे हैं, वे आज भी आबु तारंगादि पर्वतों पर विद्यमान हैं ।
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सातमा प्रतिमा की प्रतिष्ठा का द्वार - सो प्रतिमा की
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दशम परिच्छेद
રૂ૪૨ प्रतिष्ठा शीघ्र करनी चाहिये । पोडशक ग्रन्थ में लिखा है कि, मन्दिर तयार हुए पीछे दश दिन के अभ्यंतर ही प्रतिष्ठा करानी चाहिये । प्रतिष्ठा की विधि प्रतिष्ठाकल्प प्रमुख ग्रन्थों से जान लेनी। आठमा दीक्षा द्वार-सो बड़े महोत्सव से पुत्र, पुत्री,
___ भाई, भतीजा, स्वजन, मित्र, परिजन प्रमुख दीक्षा को दीक्षा दिलावे। उपस्थापना करावे, तथा
दीक्षा लेनेवालों का महोत्सव करे। यह महापुण्य का कारण है। जिस के कुल में चारित्रधारक पुरुष होवे, सो बड़ा पुण्यवान् कुल है। लौकिक शास में भी लिखा है कि
तावद् भ्रमति संसारे, पितरः पिण्डकांक्षिणः | यावत्कुले विशुद्धात्मा, यतिः पुत्रो न जायते ॥
नवमा तत्पदस्थापना द्वार-सो गणि, वाचनाचार्य, वाचक, आचार्यादि पदप्रतिष्ठा को शासन की उन्नति के वास्ते बडे महोत्सव से करे। जैसे पहिले गणधरों की शक-इन्द्र ने करी है, तथा मन्त्री वस्तुपाल ने इक्कीस आचार्यों की पदस्थापना करी। दशमा पुस्तक लिखावने का द्वार-सो पुस्तक नो आचा
रांगादि कल्पसूत्र अरु जिनचरित्रादि को पुस्तकलेखन न्यायार्जित धन से लिखावे। अच्छे पत्र
कागज ऊपर बहुत शुद्ध सुंदर अक्षरों से
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३५०
जैनतत्त्वादर्श लिखावे । तथा आप वांचे, संवेगी गीतार्थ पासों वंचावे । तथा प्रौढ़ प्रारम्भादि महोत्सव से प्रतिदिन पुस्तक की पूजा बहुमानपूर्वक व्याख्यान करावे । तिन के पढ़नेवालों की वस्त्र अन्नादि से सहायता करे। शास्त्र जो हैं, सो दुखम काल के प्रभाव से बारां वर्ष के दुर्भिक्षकाल में बहुत विच्छेद गये, अरु जो शेष रहे, सो भगवान् नागार्जुन, स्कंदिलाचार्य प्रमुख ने पुस्तकों में लिखे, तब से लिखे हुए शास्त्रों का बहुमान करने लगे। इस वास्ते पुस्तक जरूर लिखाने चाहिये । न्योंकि जो यह विच्छेद हो जायंगे, तो फिर इस क्षेत्र के अनाथ जीवों को कौन ज्ञान देवेगा! इस वास्ते पुस्तकों के ऊपर दुकुलादि वस्त्र बांध के यल से पूजने और रखने चाहिये । शाह पेथड ने सात क्रोड, अरु मंत्री वस्तुपाल ने अठारह क्रोड़ रुपये खरच के ज्ञान के तीन भंडार बनाये। तथा थिरापद्रीय संघपति आमू ने अपनी माता के नाम के तीन क्रोड़ रुपैये से सर्वागमों की प्रति सोने के अक्षरों से लिखवाई, शेष ग्रन्थ स्याही के अक्षरों से लिखवाए। ग्यारहवां पौषधशाला बनाने का द्वार-सो श्रावक प्रमुख
के पौषध करने के वास्ते साधारण स्थान पौषधशाला का में पूर्वोक्त घर बनाने की विधि के अनुसार निर्माण बनानी चाहिये । वो शाला समरा के अव.
सर में सुसाधु के रहने को भी देवे, तिस
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दशम परिच्छेद
३५१ का महाफल है। श्रीवस्तुपाल ने नौ सौ चौरासी (९८४) पौषधशाला कराई, सिद्धराज जयसिंह राजा के प्रधान सांतू ने अपने रहने वास्ते बहुत सुन्दर आवास करा के श्रीवादिदेवसूरिजी को दिखलाया । अरु मंत्रीजी ने पूछा कि कैसा आवास है ? तब चेले माणिक्य ने कहा कि, पौषधशाला होवे तो वर्णन करें। तब मन्त्री ने कहा कि, यह पौषधशाला ही होवे।
तथा वारहवां अरु तेरहवां द्वार में आजन्म-बाल्यावस्था से ले कर जावजीव सम्यक्त्वदर्शन का यथाशक्ति पालन करे, यह वारहवां, अरु यथाशक्ति से व्रतादि पाले, यह तेरहवां द्वार है। __ चौदहवां दीक्षा ग्रहण का द्वार-सो श्रावक अवसर
जान के दीक्षा ग्रहण करे। तात्पर्य यह है भाव श्रावक कि, श्रावक जो है, सो निश्चय बाल अवस्था
में दीक्षा न लेवे, तो अपने मन में ठगाया हुआ माने । जैसे जगत् में अति वल्लभ वस्तु को लोक स्मरण करते हैं, तैसे श्रावक भी नित्य सर्वविरति लेने की चिंता करे । जेकर गृहवास मी पाले, तो औदासीन्य-अलिप्तपने अपने को पाहुणे के समान समझे, क्योंकि भावश्रावक के लक्षण सतरा प्रकार से कहे हैं । यथा
१. स्त्री से वैराग्य, २. इंद्रिय वैराग्य, ३, धन से वैराग्य, १. संसार से वैराग्य, ५. विषय से वैराग्य, ६. आरंम का
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३५२
जनतत्त्वादर्श स्वरूप जाने, ७. घर को दुःखरूप जाने, ८. दर्शनधारी होवे, ९. गडरिया प्रवाह को छोडे, १०. धर्म में आगे हो कर प्रवर्ने, आगमानुसार धर्म में प्रवत्ते, ११. दानादिक में यथाशक्ति प्रवते, १२. विधिमार्ग में प्रवर्ते, १३. मध्यस्थ रहे, १४. अरक्तद्विष्ट, १५. असंबद्ध, १६. परहित वास्ते अर्थ काम का भोगी न होवे, १७. वेश्या की तरे घरवास पाले-इन सतरा पद से युक्त भावभावक होता है । तिन में प्रथम, स्त्री जो है, सो अनर्थ का भवन है, चपलचित्तवाली है, नरक की वाट सरीखी है, जानता हुआ कभी इस के वशवम् न होवे । दूसरी इन्द्रियां जो हैं, सो चपल घोड़े के समान हैं, खोटी गति की तरफ नित्य दौड़ती हैं, उनको भव्य जीव, संसार का स्वरूप जान के सत् ज्ञानरूप रज्जु से रोके । तीसरा धन जो है, सो सर्व अनर्थ का और क्लेश का कारण है, इस वास्ते धन में लुब्ध न होवे। चौथा, संसार को दुःखरूप दुःखफल दुःखानुबंधी विडंबनारूप जान के प्रीति न करे । पांचमा विषय का क्षणमात्र सुख है, विषय विषफल समान है, ऐसे जान के कदापि विषय में गृद्धि न करे। छट्ठा तीबारंभ को सदा वर्जे, जेकर निर्वाह न होवे, तो भी स्वल्पारंभ करे, अरु आरम्भ रहितों की स्तुति करे, सर्व जीवों पर दयावंत होवे । सातवां गृहवास को दुःखरूप फांसी मान के गृहवास में वसे, अरु चारित्रमोहनीय कर्म के जीतने में उद्यम करे। आठमा आस्तिक्य भाव संयुक्त जिन
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दशम परिच्छेद
३५३
शासन की प्रभावना गुरुभक्ति करे, ऐसे निर्मल सम्यग्दर्शन को घरे । नवमा जिस तरें बहुत मूर्ख लोक मेड़ ( गड़री ) प्रवाहवत् चलते होवें, तैसे न चले। परन्तु जो काम करे, सो विचार के करे । दशमा श्रीजिनागम के विना और कोई परलोक का यथार्थ मार्ग कहनेवाला शास्त्र नहीं, इस वास्ते जो काम करे, सो जिनागमानुसार करे । ग्यारहवा अपनी शक्ति के बिना गोपे चार प्रकार का दानादि धर्म करे । बारहवां हितकारी, अनवद्य, धर्मक्रिया को चिंतामणीरत्न की तरें दुर्लभ जान के करता हुआ किसी मूर्ख के हसने से लज्जा न करे | तेरहवां शरीर के रखने के वास्ते धन, स्वजन, आहार, घर प्रमुख में बसे । परन्तु राग, द्वेष, किसी वस्तु में न करे । चौदहवां उपगांतवृत्ति सार हैं, ऐसे विचार से जो राग द्वेष में लेपायमान न होवे, खोटा आग्रह न करे, हित का अभिलाषी और मध्यस्थ रहे। पंदरहवां सर्व वस्तु की क्षणभंगुरता को विचारे, धनादि के साथ प्रतिबंध को तजे । सोलहवां संसार से विरक्त मन होवे, क्योंकि मोग भोगने से आज तक कोई तृप्त नहीं हुआ है, परन्तु स्त्री आदि के आग्रह से जेकर भोगों में प्रवर्चे, तो भी विरक्त मन रहे । सतरहवां वेश्या की तरें अभिलाषा रहित वर्चे, ऐसा विचारे कि आज कल ये अनित्यसुख मुझ को छोड़ने पड़ेंगे। इस वास्ते घरवास में स्थिर भाव न रक्खे। इन सतरा गुण से युक्त श्रीजिनागम में भाव श्रावक कहा हैं ।
}
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जैनतरवादर्श
ऐसे शुभ भावना वासित प्रागुक्त दिनकृत्यादि में रक्त " इणमेव निग्गंथे पवयणे अट्ठे परमट्ठे सेसे अणट्ठे " ऐसी सिद्धांतोक रीति से वर्त्तमान सर्व व्यापारों में सर्व प्रयत्न से वर्त्तता हुआ सर्वत्राऽप्रतिबद्ध चित करके क्रम से मोह के जीतने में समर्थ होके पुत्र, भाई, भतीजादि को गृहभार सौंप के, अपनी शक्ति को देख के, अर्हत चैत्य में अट्ठाई महोत्सव करके, संघ की पूजा करके, दीन अनाथों को यथाशक्ति दान दे के, परिचित जनों से खामणा करके सुदर्शन श्रेष्ठीवत् विधि से सर्वविरति अंगीकार करे ।
पंदरहवां द्वार - जेकर दीक्षा लेने की तदा आरंभ का त्याग करे । जेकर निर्वाह सर्व सचिताहारादिक कितनाक आरम्भ वजें ।
सोलमा द्वार -- ब्रह्मचर्य जावजीव तक अंगीकार करे, यथा शाह पेथड़ ने बत्तीस वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्य धारण किया ।
३५४
शक्ति न होवे, न होवे, तो भी
ग्यारह प्रतिमा प्रतिमा का स्वरूप इस
सतरहवां द्वार - प्रतिमादि तपविशेष करे । आदि शब्द से संसारतारणादि तप करे । तहां ग्यारह तरें है - १. रायाभिओ - रहित तथा सतसठ लज्जादि से अतिचार
गेणादि छ आगार
बोल श्रद्धादि सहित सम्यग् दर्शन भय रहित त्रिकाल देवपूजादि में तत्पर एक मास तक सम्यक्त्व पाले, यह प्रथम प्रतिमा । २. दो मास तक अखंडित पांच
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दशम परिच्छेद
३५५ अणुव्रत पाले । सो भी पिछली प्रतिमा सहित वर्ने । ३. तीन मास तक उभय काल अप्रमत्त पूर्वोक्त दो प्रतिमा सहित सामायिक करे । ४. चार मास तक चार पर्वो में पूर्व की तीन प्रतिमा सहित अखंडित परिपूर्ण पौषध करे । ५. पांच मास तक स्नान न करे । रात्रि को चार आहार वजें, दिन में ब्रह्मचर्य घरे। कच्छ बांधे नहीं । चार पों में घर में तथा चौक में निष्प्रकप हो के सकल रात्रि कायोत्सर्ग करे। यह सर्व पूर्व की प्रतिमा सहित करे । यह वात आगे भी सर्व प्रतिमा में जान लेनी । ६. छ मास तक ब्रह्मचारी होवे । ७. सात मास तक सचित्त आहार वर्जे । ८. आठ मास तक आप आरंभ न करे । ९. नव नास तक आरंभ करावे नहीं। १० दश मास तक सुरमुंडित रहे अथवा अल्प चोटी रक्खे। घर में गडा हुआ धन होवे, जब घर के पूछे तब कहे जानता हूं, और जो न गडा होवे, तो कहे मैं नहीं जानता । शेष घर का कृत्य सर्व वजें। तिस के निमित्त जो घर में आहार करा होय, तो मी न खावे । ११. ग्यारां मास तक घर का संग त्यागे, लोच करे वा शुरमुंडित होवे, रजोहरण, पाने प्रमुख ले के मुनि का वेषधारी हो कर स्वकुल में मिक्षा लेवे । मुख से ऐसा कहे कि " प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय मिक्षा देहीति " धर्मलाभ शब्द न कहे । सर्व रीति से साधु की तरें प्रवर्ने ।
अठारहवां द्वार, आराधना का कहते हैं। श्रावक अन्त
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३५६
जैनतत्त्वादर्श
काल में आराधना जो आगे कहेंगे, सो अरु संलेखनादि को
विधि से करे ।
श्रावक जब सर्व धर्मकृत्य में अशक्त हो जावे, तब जान के द्रव्य अरु भाव.
मरण निकट
दो प्रकार से संखेलना तो
संलेखना करे । तहां द्रव्य अनुक्रम से आहार त्यागे, अरु भावसंलेखना - सो क्रोधादि कषाय को त्यागे । मरण का निकट इन लक्षणों से जान लेवे - १. बूरे स्वम आवें, २. प्रकृति स्वभाव और तरें का होवे, ३ दुर्निमित्त मिले, ४.. खोटे ग्रह आवें, ५. आत्मा का आचरण फिर जावे, अथवा कोई देवता कह जावे तो मरण निकट जान जावे । जो द्रव्य तथा भाव से संलेखना न करे, अरु अनशन कर देवे, उसको प्रायः दुर्ध्यान होने से कुगति होती है । इस वास्ते संलेखना
उद्यापन
करने के
दिन की
भी दीक्षा
राजा के
भाई
कुबेर के
अवश्य करे। पीछे श्रावकों के धर्म के वास्ते संयम अंगीकार करे, क्योंकि एक स्वर्गलोक की दाता है । जैसे नल पुत्र सिंहकेसरी, पांच दिन की दीक्षा से केवल ज्ञान पाके मोक्ष गये । तथा हरिवाहन राजाने नव प्रहर की शेष आयु सुन के दीक्षा लीनी, सर्वार्थसिद्ध विमान में गया । संथारा और दीक्षा के अवसर में प्रभावना के वास्ते यथाशक्ति धन खरचे । जैसे सात क्षेत्रों में, तिस अवसर में थिरापद्रीय संघपति आभूने सात क्रोड़ धन खरचा । तथा जिसको
संलेखना
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________________ दशम परिच्छेद 357 संयम का योग न होवे, सो संलेखना करके शत्रुजयादि तीर्थ सुस्थान में जा कर निर्दोष स्थंडिल में विधि से चार आहार त्यागरूप अनशन को आणंद, कामदेवादि श्रावकोवत् करे / तिस पीछे सर्वातिचार का परिहार चार शरणादि रूप आराधना करे। आराधना दस प्रकार से होती है, सो कहते हैं-१. सर्वातिचार आलोवे, 2. व्रत उच्चारण करे, आराधना 3. सर्व जीवों से क्षमावे, 4. अपनी आत्मा को अठारह पापस्थानक से व्युत्सर्जन करे, 5. चार गरणा लेवे, 6. गमनागमन दुष्कृत की गर्हणा करे, 7. जो किसी ने जिनमंदिरादि सुकृत करा होवे, तिसकी अनुमोदना करे, 8. शुभ भावना भावे, 9. अनशन करे अर्थात् चार आहार, तीन आहार का त्याग करे, 10. पंच नमस्कार का स्मरण करे। ऐसी आराधना करने से लेकर तिस भव से मुक्ति न होवे, तो भी सुदेव अथवा सुमनुष्य के आठ भव करके तो अवश्यमेव मोक्षरूप हो जावेगा। इस गृहस्थ का धर्म करने से निरंतर गृहस्थ लोग इस लोक, परलोक में सुख को प्राप्त होते हैं, अरु परंपरा से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इति श्री नपागच्छीय मुनि श्रीवुद्धिविजय शिष्य मुनि आनंदविजय-आत्मारामविरचिते जैनतस्वादर्श दशमः परिच्छेदः संपूर्ण
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________________ जैनतत्त्वादर्श एकादश परिच्छेद इस परिच्छेद में ऋषभादि से महावीर पर्यंत जैनमतादि शास्त्रों के अनुसार पूर्व वृत्तांत-इतिहास रूप लिखते हैं। ताकि इस ग्रन्थ के पढ़नेवाले यह तो जान जाएँ कि जैनी इस तरे मानते हैं। - वर्तमान समय में कितनेक भव्य जीवों की जिज्ञासा है कि, जैनमत कव से यहां प्रचलित हुआ। जैनमत संबंधी फिर कितनेक जीवों को ऐसी भ्रांति भी भ्रांतिया है कि, जैनमत बौद्धमत की शाखा है, और कितनेक कहते हैं कि, बौद्धमत जैनमत की शाखा है। क्योंकि यह दोनों मत किसी काल में एक थे, परन्तु आचार्यों के मतभेद होने से एक मत के जैन और बौद्ध यह दो भेद हो गये। तथा कोईएक कहते हैं कि संवत् छ सौ के लगभग जैनमत हुआ है / तथा कोई कहते हैं कि, विष्णु भगवान्ने दैत्यों को धर्मभ्रष्ट करने के वास्ते अर्हत का अवतार लिया / तथा कोई कहते हैं कि मच्छंदरनाथ के बेटों ने जैनमत चलाया है। इत्यादि अनेक विकल्प कहते हैं, परन्तु यह सब कुछ जैनमत के न जानने का परिणाम है। जैसे चर्मकार अर्थात् चमार कहते है कि, बानो और चामो दो बहिनें थी, तिन में बानों की औलाद अग्रवालादि सर्व बनिये हैं, और चामों की औलाद हम चमार
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________________ एकादश परिच्छेद 359 हैं। इस वास्ते बनिये और चमार एक वंश के हैं। अब सोचना चाहिये कि चमारों की, यह कही हुई कथा सुन के बुद्धिमान् सच मान लेवेंगे ! इसी तरे जो कोई अपनी दलील से दंतकथा सुन के जैनमत की उत्पत्ति मानेगा, वो भी जैनियों के आगे हसने का स्थान बनेगा। क्योंकि प्रथम तो कोई भी मतवाला जैनमत के असली तत्व को नहीं जानता है / जैसे शंकर दिग्विजय में शंकरस्वामीने जैनमत का खण्डन लिखा है, उसको देख के हम को हंसी आती है / जब शंकरस्वामीने जैनमत को ही नहीं जाना, तो फिर जो उनका जैनमत का खण्डन है, सो भी ऐसा जानना कि जैसे पुरुष की छाया को पुरुष जानके तिस को लाठी से पीटना। जब शंकरस्वामी को ही जैनमत की खवर नहीं थी, तो अब के वर्तमानकाल के गाल बजाने. वालों का क्या कहना है ? इस वास्ते हम बहुत नम्र हो कर अंथ पढ़नेवालों से विनति करते हैं कि, अच्छी तरे से जैनमत को जान कर फिर आपने जैनमत का खंडन मंडन करना; नहीं तो शंकरस्वामी अरु रामानुजाचार्यादिक की तरे आप भी हसने योग्य हो जायेंगे। __ अब सज्जनों के जानने वास्ते प्रथम इस जगत् का थोड़ा सा स्वरूप लिखते हैं / इस जगत् को जैनी, द्रव्यार्थिक नय के मत से शाश्वत अर्थात् हमेशा प्रवाह से ऐसा ही मानते हैं। और कालचक्र
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________________ 360 जैनतत्त्वादर्श इस जगत् में छ तरे का काल वर्चता है, तिन ही को जैनी लोक, छे आरे कहते हैं। एक अवसर्पिणी काल, अर्थात् जो सर्व अच्छी वस्तु का क्रम से नाश करता चला जाता है, तिस के छे हिस्से हैं। तथा दूसरा उत्सर्पिणीकाल, अर्थात् जो सर्व अच्छी वस्तु को क्रम से वृद्धिमान् करता चला जाता है / दश कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण एक अवसर्पिणी काल, और इतने ही सागरोपम प्रमाण एक उत्सर्पिणीकाल है। एक सागरोपम असंख्यात वर्ष का होता है, इसका स्वरूप जैनशास्त्र से जान लेना | यह एक अवसर्पिणी अरु एक उत्सर्पिणी मिल कर दोनों का एक कालचक्र, वीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण होता है। ऐसे कालचक्र अनन्त पीछे व्यतीत हो गये हैं, और आगे को व्यतीत होवेंगे। अवसर्पिणी के पूरे हुये उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है, और उत्सर्पिणी के पूरे हुये अवसर्पिणी काल का प्रारंभ होता है। उसी तरे अनादि अनन्त काल तक यही व्यवस्था रहेगी / अब छ आरों के स्वरूप लिखते हैं। अवसर्पिणी का प्रथम आरा जिस का नाम सूखम सूखम कहते हैं। सो चार कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। तिस काल में भरतक्षेत्र की भूमिका बहुत सुन्दर रमणीय मादल के तले समान सम ( बरावर) थी, उस काल के मनुष्य भद्रक, सरलस्वभाव, अल्पराग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि वाले थे, सुंदर रूपवान् , नीरोग शरीरवाले थे, दश जाति
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________________ एकादश परिच्छेद 361 के कल्पवृक्षों से अपने खाने पीने पहनने सोने आदिक का सर्व व्यवहार कर लेते थे / एक लड़का एक लड़की दोनों का युगल जन्मते थे। जब यौवनवंत होते थे, तब दोनों बहिन और भाई, स्त्री भरतार का सम्बंध कर लेते थे। उनों के आगे ऐसे ही फिर युगल होते रहते थे, सो पूर्वोक्त सर्व व्यवहार करते थे। जैनमत के मापे से तीन गाऊ (कोस ) प्रमाण उनका शरीर ऊंचा था, और तीन पल्योपम प्रमाण आयु थी, तथा दो सौ छप्पन पृष्ठकरंड के हाड थे। धर्म करना, और जीवहिंसा, झूठ, चोरी प्रमुख पाप भी विशेष नही था। वृक्षों ही में सो रहते थे। जुगल-जोड़े भी गिनती में थोड़े थे, शेष-बाकी चौपाय, पक्षी, पंचेंद्रिय सर्व जाति के जीव थे, परन्तु वो भद्रक थे, क्षुद्रक नहीं थे। शालि प्रमुख सर्व अन्न तथा इक्षु प्रमुख चीजें सव जंगलों में स्वयमेव ही उत्पन्न हो जाते थे। परन्तु वो कुछ मनुष्यों के खाने में नहीं आते थे। क्योंकि मनुष्य तो केवल फल फूलों का ही आहार करते थे / वस की जगे वृक्षों के पत्ते वा छिलके ओढ़ते थे / इत्यादि प्रथम आरे का स्वरूप जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति प्रमुख शास्त्रों से जान लेना। दूसरा आरा, तीन कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण था / तिस में दो गाऊ (कोस ) देहमान, दो पस्योपम आयु, एक सौ अठाई पृष्ठकरंड के हाड थे, शेष व्यवहार प्रथम आरेवत् जानना।
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________________ 362 जैनतत्त्वादर्श तीसरा आरा, दो कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण, एक कोस देहमान, एक पल्योपम आयु, चौसठ पृष्ठकरंड की पसलियां, शेष व्यवहार प्रथम आरेवत् जानना / इन सर्व आरों में सर्व वस्तु क्रम से घटती घटती छेड़े अगले आरे तुल्य रह जाती है, परन्तु एक बारगी सर्व वस्तु नहीं घटती है। इस तीसरे आरे के छेडे एक वंश में सात कुलकर ___उत्पन्न हुए / कुलकर उसको कहते हैं कि कुलकर और उन जिनों ने तिस तिस काल के मनुष्यों के की नीति वास्ते कछुक मर्यादा बांधी है। इन ही सात कुलकरों को लोक में सप्त मनु कहते हैं। दूसरे वंशों के कुलकर गिनिये, तब श्रीऋषभदेव को वर्ज के चौदह कुलकर होते है अरु ऋषभनाथ पंदरहवां कुलकर होता है। पूर्वोक्त सात कुलकरों के नाम लिखते है-प्रथम विमलवाहन, दूसरा चक्षुष्मान् , तीसरा यशस्वान्, चौथा अभि. चंद्र, पांचमा प्रश्रेणि, छठा मरुदेव, सातमा नामि। इन सातों की भार्याओं के नाम क्रम से कहते हैं-१. चंद्रयशा, 2. चंद्रकांता, 3. सुरूपा, 4. प्रतिरूपा, 5, चक्षुःकांता, 6. श्रीकांता, 7. मरुदेवी / ये सर्व कुलकर गंगा अरु सिंधु नदी के मध्य के खंड में हुये हैं। ___ यह कुलकर होने का कारण कहते हैं। तीसरे आरे के उतरते दश जाति के कल्पवृक्ष, काल के दोष से थोडे हो
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________________ एकादश परिच्छेद 363 गये; तव युगलक लोगों ने अपने अपने वृक्षों का ममत्व कर लिया। पीछे जव दूसरे युगलों के रक्खे हुए वृक्षों से फल लेने लगे, तब ममत्ववाले युगल उन से क्लेश करने लगे। तव युगलक पुरुषों को ऐसा विचार आया कि, कोई ऐसा होवे, जो हमारे क्लेश का निवेडा करे। तब तिन युगलियों में से एक युगल को एक वन के श्वेत हाथीने देख कर प्रेम से अपने स्कंध पर चढ़ा लिया। जब वो युगल पुरुष एकला हाथी ऊपर चढ़ के फिरने लगा। तब और युगलों ने विचार किया कि यह युगल, हम से बड़ा है। क्योंकि यह हाथी ऊपर चढ़ा फिरता है, और हम तो पगों से चलते हैं, इस वास्ते इस को न्यायाधीश बनाओ, अर्थात् जो यह कहे, सो मानो। तब तिनों ने उसको न्यायाधीश बनाया / जिस कारण से हाथी ने युगल को अपने ऊपर चढ़ाया है, सो कारण, और इनों के पूर्वमव की कथा आवश्यक सूत्र तथा प्रथमानुयोग से जान लेनी। तब तिस विमलवाहन ने सर्व युगलियों को कल्पवृक्ष बांट के दे दिये। कितनेक युगलिये अपने कल्पवृक्षों से संतोष न करके औरों के कल्पवृक्षों से फल लेने लगे, तब उस वृक्ष के मालिक क्लेश करने लगे। पीछे तिस असंतोषी युगलियों को पकड़ के विमलवाहन के पास लाये। तब विमल. वाहनने उनको कहा कि 'हा' तुम ने यह क्या करा! तब से विमलवाहनने ऐसी दण्डनीति प्रवाई / तिस हाकार
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________________ 364 जैनतत्वादर्श दण्डनीति से फिर वे ऐसा काम नहीं करते थे। पीछे तिस विमलवाहन का पुत्र चक्षुष्मान् हुआ, अपने बाप के पीछे वो राजा अर्थात् कुलकर बना / तिस के वक्त में भी हाकार ही दण्ड रहा / तिस के यशस्वान् नामा पुत्र हुआ, तिसका अमिचन्द्र पुत्र हुआ, इन दोनों के समय में थोड़े अपराध को हाकार दण्ड और बहुत ढीठ को मकार दण्ड कि यह काम मत करना, ये दो दण्डनीति हुई। तिस के प्रश्रेणि पुत्र हुआ, प्रश्रेणि का पुत्र मरुदेव हुआ, मरुदेव का पुत्र नामि हुआ, इन तीनों कुलकरों के समय में हाकार, मकार अरु धिक्कार, ये तीन दण्डनीति हो गई। तिस में थोड़े अपराधी को हाकार, अरु मध्यम अपराधी को मकार, तथा उत्कृष्ट अपराधी को धिक्कार दण्ड करते थे। तिस नामि कुलकर के मरुदेवी नामा भार्या थी। यह नाभिकुलकर बहुलता में इक्ष्वाकु भूमि अर्थात् विनीता नगरी की भूमि में निवास करता था। यह भूमि कश्मीर देश के परे थी, क्योंकि विनीता नगरी के चारों दिशा में चार पर्वत थे। तिस में पूर्व दिशा में अष्टापद अर्थात् कैलासगिरि, दक्षिण दिशा में महाशैल, पश्चिम दिशा में सुरशैल, तथा उत्तर दिशा में उदयाचल पर्वत था।
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________________ एकादश परिच्छेद 365 तिस नामिकुलकर की मरुदेवी नामक भार्या की कूख में आपाड़ वदि चौथ की रात्रि को सर्वार्थश्रीऋषभदेव का सिद्ध देवलोक से च्यव के ऋषभदेव का जन्म जीव, गर्भ में पुत्रपने उत्पन्न हुआ / मरुदेवी ने ___ चौदह स्वम देखे / इन्द्र महाराज ने स्वप्नफल कहा / चैत्रवदि अष्टमी को ऋषभदेवजी का जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारी और चौसठ इन्द्रने मिल के जन्ममहोत्सव करा / मरुदेवीने चौदह स्वम की आदि में वैल का स्वम देखा था, तथा पुत्र के दोनों साथलों में वैल का चिन्ह था, इस वास्ते पुत्र का नाम ऋषम रक्खा / बाल अवस्था में श्रीऋपभदेव को जब भूख लगती थी, तव अपने हाथ का अंगूठा मुख में ले के चूस वाल्यावस्था और लेते थे। उस अंगूठे में इन्द्रने अमृत संचार इन्वाकु कुल कर दिया था। जब ऋषभदेवजी बडे हुए तब देवता उनको कल्पवृक्षों के फैल लाकर देते थे, वे फल खा लेते थे। जब ऋषभदेवजी कुछ न्यून एक वर्ष के हुए, तब इन्द्र आया, हाथ में इक्षुदण्ड लाया / क्योंकि रीते हाथ से स्वामी के समीप न जाना चाहिये, इस वास्ते इक्षुदण्ड लाया। उस वक्त में श्रीऋषमदेवजी नामिकुलकर की गोदी में बैठे थे। तब श्री ऋषभदेव की दृष्टि इक्षुदंड ऊपर पड़ी। तब इंद्रने कहा कि हे भगवन् ! ' इक्षु अकु' अर्थात् इक्षु भक्षण करोगे! तब ऋषभदेवनी ने हाथ
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________________ 366 जैनतत्वादर्श पसारा। तब इंद्र ने ऋषभदेवजी का इक्ष्वाकु वंश स्थापन करा / तथा श्रीऋषभदेवजी के वंशवालों ने काशकार पिया, इस वास्ते गोत्र का नाम काश्यप हुआ / श्रीऋषमदेवजी के जिस जिस वय में जो जो काम उचित था, सो सो शक-इन्द्रने करा / यह अनादि से जो जो शक होते हैं, तिन का जीतकल्प है कि, प्रथम भगवान् के वयोचित सर्व काम करने। इस अवसर में एक लड़की लड़का, बहिन और भाई बाल्यावस्था में ताडवृक्ष के हेठ खेलते थे, विवाह वहां ताड़ के फल गिरने से लड़का मर गया। तब लड़की को नाभिकुलकरने यह ऋषभदेवजी की भार्या होवेगी, ऐसा विचार करके अपने पास रख लीनी / तिसका नाम सुनंदा था, और दूसरी जो ऋषभदेवजी के साथ जन्मी थी, तिस का नाम सुमंगला था / इन दोनों को साथ ऋषभदेवजी बाल्यावस्था में खेलते हुए यौवन को प्राप्त हुए। तब इन्द्रने विवाह का प्रारम्म करा / आगे युगल के समय में विवाह विधि नहीं थी, इस वास्ते इस विवाह में पुरुष के कृत्य तो सर्व इंद्रने करे, और स्त्रियों की तर्फ से सर्वकृत्य इन्द्रानियोंने करे / तहां से विवाहविधि जगत् में प्रचलित हुई। श्रीऋषभदेव को दोनों भार्याओं के साथ सांसारिक विषयसुख भोगते जब छ लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हुए, तब सुमंगला रानी के भरत
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________________ 368 जैनतत्त्वादर्श आभीर, 65. वानदेव, 66. बानस, 67. कैकेय, 68. सिंधु, 6.9. सौवीर, 70. गंधार, 71. काष्ठदेव, 72. तोषक, 73. शौरक, 74. भारद्वाज, 75. शूरदेव, 76. प्रस्थान, 77. कर्णक, 78. त्रिपुरनाथ, 79. अवंतिनाथ, 80. चेदिपति, 81. विष्कम, 82. नैषध, 83. दशार्णनाथ, 81. कुसुमवर्ण, 85. भूपालदेव, 86. पालप्रभु, 87. कुशल, 88. पद्म, 89. महापद्म. 90. विनिद्र, 91. विकेश, 92. वैदेह, 93. कच्छपति, 94. भद्रदेव, 95. वज्रदेव, 96. सांदभद्र, 97. सेतज, 98. वत्सनाथ, 99. अंगदेव, 100. नरोत्तम / इस अवसर में जीवों के कषाय प्रबल हो जाने से पूर्वोक्त हाकारादि तीनों दंड का लोग भय नहीं करने राज्याभिषेक लगे। इस अवसर में सब लोगों से अधिक ज्ञानवानादि गुणों करके संयुक्त श्रीऋषभदेव को जान के युगलक लोग, श्रीऋषभदेव को कहते भये कि, अब के सब लोग दंड का भय नहीं करते हैं। [श्रीऋषभदेवजी गर्म में भी मति, श्रुत अरु अवधि, इन तीन ज्ञानों करके संयुक्त थे / श्रीऋषभदेवजी के पूर्वभवों का वृतांत आवश्यक, तथा प्रथमानुयोग से जान लेना ] तब श्रीऋषभदेव युगलक पुरुषों को कहते भये कि, जो राजा होता है, सो दण्ड करता है, और राजा जो होता है, सो मंत्री कोटवालादि सेना संयुक्त होता है, अरु कृताभिषेक होता है, फिर उसकी आज्ञा अनतिक्रमणीय होती है / ऐसा वचन
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________________ एकादश परिच्छेद 363 सुन कर वे मिथुनक बोले कि, ऐसा राजा हमारा भी हो नावे / तब ऋषभदेवजी बोले जो तुमारी मनशा ऐसी है, तो नाभिकुलकर से याचना करो / पीछे तिनों ने नाभिकुलकर से विनति करी / तब नाभिकुलकरने कहा, जाओ ऋषभदेवजी तुमारा राजा हुआ। तब वे मिथुनक ऋषभदेव का राज्याभिषेक करने वास्ते पमिनी सरोवर में गये। इस अवसर में इन्द्र का आसन कंपमान हुआ। तब अवधिज्ञान से राज्याभिषेक का अवसर जान के यहां आकर श्रीऋषभदेव का राज्याभिषेक करा / मुकुटादि सर्व अलंकार जो कुछ राजा के योग्य थे, सो पहिराये। इस अवसर में मिथुनक लोक पद्मसरोवर से नलिनी कमलों में पानी लाये / उनों ने आकर जब श्रीऋषभ. देवजी को अलंकृत देखा, तब सब ने चरणों ऊपर जल गेर दिया / तब इन्द्र ने मन में चिंता करी कि ये बडे विनीत पुरुष हैं। ऐमा जान कर वैश्रमण को आज्ञा दीनी कि इन विनीतों के रहने वास्ते विनीता नामा नगरी वसाओ। तब विनीता नगरी वैश्रमणने वसाई / इस का स्वरूप शत्रुजयमाहास्य से जान लेना। अथ संग्रह के वास्ते हाथी, घोडे, गौ प्रमुख श्रीऋषभदेव के राज्य में वनों से पकड़े गये। तब श्रीऋषमचार वंश देव ने चार प्रकार का संग्रह करा-१. उग्रा, 2. भोगा, 3. राजन्या, 1. क्षत्रिया / उन में जिन को कोटवाल की पदवी दीनी, सो दण्ड के करने से
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________________ .30 जैनतत्त्वादर्श उपवंश कहलाया, तथा जिनको श्रीऋषभदेवने गुरु अर्थात् ऊंचे बडे करके माना तिनों का भोगवंश कहलाया, तथा जो श्रीऋषभदेवजी के मित्र थे, उनों का राजन्यवंश नाम रक्खा गया, तथा शेष जो रहे तिनका क्षत्रियवंश हुमा / अथ आहार की विधि कहते हैं। जब कल्पवृक्षों के फलों का अभाव हुआ, तब पक्काहार का खाना भोजन पकाने किस तरें से. हुमा ! सो लिखते हैं। काल आदि कर्मकी के प्रभाव से कल्पवृक्ष फल देने से रह गये, शिक्षा तब लोक और वृक्षों के कंद, मूल, पत्र, फूल, फल खाने लगे, कई एक इक्षु का रस पीने लगे, तथा सतरा जात का कच्चा अन्न खाने लगे। परन्तु कितनेक दिनों पीछे कच्चा अन्न उनको पाचन न होने से ऋषभदेवजीने उनको कहा कि तुम हाथों से मसल के तूतड़ा दूर करके खाओ। फिर कितनेक दिनों पीछे बैसे भी पाचन न होने लगा, तो फिर दूसरी तरें कच्चा अन्न खाने की विधि बताई। ऐसे बहुत तरे से कच्चा अन्न खाने की विधि बताई, तो भी कालदोष से अन्न पाचन न होने लगा। इस अवसर में जंगलों में बांसादि के घिसने से अग्नि उत्पन्न हुआ। प्रश्न-तुम कहते हो कि ऋषभदेवजी को जातिस्मरण और अवधि ज्ञान था, तो फिर ऋषभदेवजीने प्रथम से ही अग्नि बनाना, उस अग्नि.से. अन्न रांध के खाना क्यों न बतलाया!
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________________ एकादश परिच्छेद 371 उत्तर-हे भव्य ! एकांत स्निग्य काल में और एकांत रूक्षकाल में अग्नि किसी वस्तु से भी उत्पन्न नहीं हो सकती। कदाचित् कोई देवता विदेहक्षेत्र से अग्नि को ले भी आवे, तो भी यहां तत्काल बुझ जाती थी। इस वास्ते अग्नि से पका के खाने का उपदेश नहीं दिया। पीछे तिस अग्नि को तृणादि का दाह करते देख के अपूर्व रत्न जान के पकड़ने लगे। जब हाथ जले, तब डर खा कर दौड़ के श्रीऋषभदेवजी से सर्व वृत्तांत कहा / तब श्रीऋषभदेवने अग्नि ले आने की विधि बताई। तिस विधि से अग्नि घर में ले आये। तब हस्ती ऊपर बैठे हुये ऋषभदेवने हाथी के शिर ऊपर ही मिट्टी का एक कुंडा सा बनाकर उनों के पास अग्नि में पका कर, उस में अन्न रांध कर खाना बताया। पीछे जिस के हाथ से वो कूडा पकड़ाया वो कुंमार नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी वास्ते कुंमार को प्रजापति-पर्यापति कहते है। फिर तो शनैः शनैः सर्व तरे का आहार पका के खाने की विधि प्रवृत हो गई / सर्व विधि श्रीऋषमदेवजीने ही बताई है। / अथ शिल्प द्वार कहते हैं। श्रीऋषभदेवजी के उपदेश से पांच मूल शिल्प अर्थात् कारीगर बने, तिन का नाम लिखते हैं-१. कुंभकार, 2. लोहाकार, 3. चित्रकार, 4. वन बुननेवाले, 5. नापित अर्थात् नाई / प्रत्येक शिल्प
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________________ 372 जैनतत्त्वादर्श के अवांतर भेद वीस वीस हैं, इस वास्ते सर्व मिल कर एक सौ शिल्प उत्पन्न हुए। अब कर्मद्वार लिखते हैं। कर्मद्वार में खेती करनी, वाणिज्य करना, धन का ममत्व करना, इत्यादि कर्म बताये। प्रथम मट्टी के संचयों में भर के, अहरन, हथोड़ी प्रमुख बनाये, पीछे उन से सर्व वस्तु काम लायक बनाई गई। ___ तथा भरतादि प्रजालोगों को बहत्तर कला सिखलाई, तथा स्त्रियों को चौसठ कला सिखलाई / इन सब के नाम मात्र ऐसे हैं। 1. लिखने की कला, 2. पढ़ने की कला, 3. गणितकला, 4. गीतकला, 5. नृत्यकला, 6. ताल बजाना, पुरुष की 72 7. पटह बजाना, 8. मृदंग बजाना, 9. वीणा __ कलाएं बजाना, 10. वंशपरीक्षा, 11. भेरीपरीक्षा, 12. गजपरीक्षा, 13. तुरंगशिक्षा, 14. धातुदि, 15. दृष्टिवाद, 16. मन्त्रवाद, 17, बलीपलितविनाशन, 18. रत्नपरीक्षा, 19. नारीपरीक्षा, 20. नरपरीक्षा, 21. छंदबंधन, 22. तर्कजस्पन, 23. नीतिविवार, 24. तत्त्वविचार, 25. कविशक्ति, 26. ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान, 27. वैद्यक, 28. षड्भाषा, 29. योगाभ्यास, 30. रसायनविधि, 31. अंजनविधि, 32. अठारह प्रकार की लिपि, 33. स्वप्नलक्षण, 34. इन्द्रजालदर्शन, 35. खेती करनी, 36. वाणिज्य करना, 37. राजा की सेवा, 38. शकुन विचार, 39, वायुस्तंभन,
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________________ एकादश परिच्छेद 373 40. अग्निस्तंभन, 41. मेघवृष्टि, 42. विलेपनविधि, 43. मर्दनविधि, 44. ऊर्ध्वगमन, 45. घटबन्धन, 46. घटम्रमण, 47. पत्रच्छेदन, 48. मर्मभेदन, 49. फलाकर्षण, 50. जलाकर्षण, 51. लोकाचार, 52. लोकरंजन, 53. अफलवृक्षों को सफल करना, 54. खड्गवन्धन, 55. छुरीबन्धन, 56. मुद्राविधि, 57. लोहज्ञान, 58. दांत समारने, 59. काललक्षण, 60. चित्रकरण, 61. वाहुयुद्ध, 62. मुष्टियुद्ध, 63. दण्डयुद्ध, 64. दृष्टियुद्ध, 65. खङ्गयुद्ध, 66. वागयुद्ध, 67. गारुडविद्या, 68. सर्पदमन, 69. भूतमर्दन, 70. योग-सो द्रव्यानुयोग, अक्षरानुयोग, व्याकरण, औषधानुयोग, 71. वर्षज्ञान, 72. नाममाला / अब सियों को चोसठ कला सिखलाई, तिसका नाम कहते हैं-१. नृत्यकला, 2. औचित्यकला, स्त्री को 64 3. चित्रकला, 4. वादित्र, 5. मंत्र, 6. तंत्र, कलाएं 7. ज्ञान, 8. विज्ञान, 9. दम्भ, 10, जलस्तंम, 11. गीतगान, 12. तालमान, 13, मेघवृष्टि, 14. फलवृष्टि, 15. आरामारोपण, 16. आकारगोपन, 17. धर्मविचार, 18. शकुनविचार, 19. क्रियाकल्पन, 20. संस्कृतजल्पन, 21. प्रसादनीति, 22. धर्मनीति, 23. वर्णिकावृद्धि, 24. स्वर्णसिद्धि, 25. तैलसुरभीकरण, 26. लीलासंचरण, 27. गजतुरंगपरीक्षा, 28. स्त्री पुरुष के लक्षण, 29. कामक्रिया, 30. अष्टादश लिपि परिच्छेद, 31. तत्कालबुद्धि, 32. वस्तुशुद्धि, 33. वैद्यकक्रिया, 34. सुवर्ण रत्नमेद, 35. घट.
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________________ 374 जैनवत्वादर्श प्रम, 36. सारपरिश्रम, 37. अंजनयोग, 38. चूर्णयोग, 39. हस्तलाघव, 40. पचनपाटव, 41. भोज्यविधि, 42. वाणिज्यविधि, 43. काव्यशक्ति, 44. व्याकरण, 15. शालिलण्डन, 16. सुखमंडन, 47. कथाकथन, 48. कुलुनगुंथन, 49. वरवेष, 50. सकल भाषाविशेष. 51. अभिधानपरिज्ञान, 52. भाभरण पहनना, 53. मृत्योपचार, 54. गुवाचार, 55, शाव्यकरण, 56. परनिराकरण, 57. धान्यरंधन, 58. केशबंधन, 59. वीणादि नाद, 60. वितंडावाद, 61. अंतविचार, 32. लोकन्यवहार, 63. अंत्याक्षरिका, 64. प्रश्नप्रहेलिका / ___अब की सर्व सांसारिक कल पूर्वोक्त कलाओं का प्रकरभूत है, इस वास्ते सर्व कला इन ही के अन्तर्भूत है। जैसे प्रथम लिपि कला के अठारह भेद दक्षिण हाथ से ब्राह्मी पुत्री को सिखाई, तिसके नान कहते हैं। 1. हंसलिपि, 2. भूतलिपि, 3. यक्षलिपि, 4. राक्षस लिपि, 5. यावनी लिपि, 6, तुरती लिपि, 18 प्रकार की 7. कीरीलिपि, 8. द्रावीडीलिपि, 9. संघवीलिपि लिपि, 10. मालवीलिपि, 11. नडीलिपि, 12. नागरीलिपि, 13. लाटीलिपि, 14. पारसीलिपि, 15, अनिमित्ती लिपि, 16. चाणकीलिपि, 17. मूल. देवी, 18. उड्डीलिपि / यह अठारह प्रकार की नामीलिपि, देशविदेश के भेद से अनेक तरे की हो गई, जैसे कि-१. लाटी, 2. चौड़ी, 3. डाहली, 1. कानडी, 5. गौरी, 6. सोरठी,
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________________ एकादश परिच्छेद 375 7. मरहठी, 8. कोंकणी, 9. खुरासानी, 10. मागधी, 11. सिंहली, 12. हाडी, 13. कीरी, 11. हम्मीरी, 15. परतीरी, 16. मसी, 17. मालवी, 18. महायोधी / तथा सुन्दरी पुत्री को वाम हाथ से अंकविद्या सिखाई / जो जगत् में प्रचलित कला है, जिनों से अनेक कार्य सिद्ध होते हैं, वे सर्व श्रीऋषभदेवने प्रवर्त्ताई हैं। तिस में कितनीक काल कई वार लुप्त हो जाती हैं, फिर सामग्री पाकर प्रगट भी हो जाती है, परंतु नवीन विद्या वा कला कोई नहीं उत्पन्न होती है / जो कलाव्यवहार श्रीऋषभदेवजीने चलाया है, वो सर्व आवश्यक सूत्र में देख लेना। ब्राह्मी जो भरत के साथ जन्मी थी, तिसका विवाह बाहुबली के साथ कर दिया / और बाहुवली के साथ जो सुन्दरी पुत्री जन्मी थी, तिसका विवाह भरत के साथ कर दिया। तब से माता पिता की दीनी कन्या का व्यवहार प्रचलित हुआ। श्रीऋषभदेवजी ने युगल अर्थात् एक उदर के उत्पन्न हुए बहिन भाई का विवाह दूर किया / श्रीऋषभदेवजी को देख के लोक भी इसी तरें विवाह करने लगे। श्रीऋषभदेवजी ने बहुत काल ताई राज्य करा / प्रजा के वास्ते सर्व तरें के सुख उत्पन्न हुए। इस हेतु से श्रीऋषभदेवजी को जैनी लोक जगत् का कर्ता मानते हैं। दूसरे मतवाले जो ईश्वर की करी सृष्टि कहते हैं, वे भी ईश्वर, आदीश्वर, जगदीधर, योगीश्वर, जगत् * यहा पर विवाह गब्द का प्रयोग सगपण याने वाग्दान अर्थ में है। इसका अर्थ लग्न न समझना /
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________________ 376 जैनंतवादर्श का कर्ता ब्रह्मा आदि, विष्णुं आदि, योगी आदि, भगवान् आदि, अहंत आदि तीर्थकर, प्रथम बुद्ध, सर्व बड़ा इत्यादि जो नाम और महिमा गाते हैं, वे सर्व श्रीऋषमदेवजी के ही गुणानुवाद हैं, और कोई सृष्टि का कर्चा नहीं है। मूर्ख और अज्ञानियों ने स्वकपोलकल्पित शास्त्रों में ईश्वर विषय में मनमानी कल्पना कर लीनी है / उस कल्पना को बहुत जीव आज ताई सच्ची मानते चले आये हैं। क्योंकि सर्व मत जैन के विना ब्राह्मणों ने ही प्रायः चलाये हैं, इस वास्ते ब्राह्मण ही मतों के विश्वकर्मा हैं। अरु लौकिक शास्त्रों में जो कुछ है, सो ब्राह्मणों ही के वास्ते है। ब्राह्मण भी लौकिक शास्त्रों ने तार दिये, क्योंकि शास्त्र बनानेवालों के संतानादि खूब खाते, पिते और आनन्द करते हैं / इन ब्राह्मणों की तथा वेदों की उत्पत्ति जैसे आवश्यक आदिक शास्त्रों में लिखी है, तैसे भव्य जीवों के जानने वास्ते यहां मैं भी लिखूगा। निदान सर्व जगत् का व्यवहार चला कर, भरत पुत्र को विनीतानगरी का राज्य दिया, अरु बाहुबली पुत्र को तक्षशिला का राज्य दिया, शेष पुत्रों को और 2 देशों का राज्य दिया / उन ही पुत्रों के नाम से बहुत देशों का नाम भी तैसा ही पड़ गया, जैसे अंगदेश, बंगदेश, मगधदेश, इत्यादि देशों का नाम भी पुत्रों के नाम से पड़ गया।
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________________ पुरुष . एकादश परिच्छेद 377 पीछे श्रीऋषभदेव ने स्वयमेव दीक्षा लीनी, उनके साथ कच्छ, महाकच्छ, सामंतादिक चार हज़ार दीक्षा और छद्मस्थ पुरुषों ने दीक्षा लीनी / श्रीऋषभदेवजी को ___ काल एक वर्ष तक भिक्षा न मिली, तब चार हज़ार पुरुष तो भूखे मरते जटाधारी कंद, मूल, फल, फूल, पत्रादि आहारी हो करके गंगा के दोनों किनारों पर तापस बन के रहने लगे, अरु श्रीऋषभदेवजी का ध्यान, जप आदि बह्मादि शब्दों से करने लगे। तब एक वर्ष पीछे वैशाख शुदी तिज को हस्तिनापुर में आये, तहां श्रीऋषभदेव के पड़पोते श्रेयांसकुमार ने जातिस्मरण ज्ञान के बल से श्रीऋषभदेव को भिक्षा वास्ते फिरते देख के इक्षुरस से पारणा कराया। क्योंकि उस समय में लोगों ने कोई भिक्षाचर देखा नहीं था, अरु न वो मिक्षा भी देना जानते थे। तिस कारण से श्रीऋषभदेवजी को हाथी, घोडे, आभूषण, कन्यादि तो बहुत भेट करे, परन्तु वे तो उस समय में त्यागी थे, इस वास्ते लीने नहीं। तब लोगों ने श्रेयांसकुमार को पूछा कि तुमने श्रीऋषभदेवजी को भिक्षार्थी कैसे जाना ! तब श्रेयांसकुमार ने अपने और श्रीऋषभदेवजी के आठ भवों का सम्बंध कहा / सो सर्व अधिकार आवश्यक शास्त्र में लिखा है। तव पीछे सर्व लोक भिक्षा देने की रीति जान गये। श्रीऋषभदेवजी एक हजार वर्ष तक देशों में छद्मस्थपने
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________________ 378 जैनतत्त्वादर्श विचरते रहे। तिस अवस्था में कच्छ अरु महाकच्छ के बेटे नमि और विनमिने आकर प्रभु की बहुत सेवा-भक्ति करी / तब धरणेंद्रने प्रज्ञप्त्यादि अडतालीस हजार विद्या( 48000) उनको देकर वैताब्यगिरि की दक्षिण अरु उत्तर, इन दोनों श्रेणिका राज्य दिया, वे सर्व विद्याधर कहलाये। इन ही विद्याधरों की संतानों में रावण, कुंभकर्णादि तथा वाली, सुग्रीवादि और पवन, हनुमानादि सर्व विद्याधर हुए हैं। एकदा छमस्थ अवस्था में श्रीऋषभदेवजी विहार करते हुए बाहुबली की तक्षशिला नगरी में गये। वहां बाहिर बाग में कायोत्सर्ग करके खडे रहे। यह खबर जब बाहुबली को पहुंची तब बाहुबली ने मन में विचार करा कि कल को. बड़े आडम्बर से पिता को वंदना करने को जाऊंगा / प्रभात हुये जब आडम्बर से गया, तब श्रीऋषमदेवजी तो तहां से और कहीं चले गये / तब बाहुबली बहु उदास हुआ / तब श्रीऋषभदेवजी के चरणों की जगा पर धर्मचक्र तीर्थ स्थापन कराया, वो धर्मचक्र तीर्थ, विक्रम राजा तक तो रहा, पीछे जब पश्चिम देश में नवे मतमतांतर खड़े हुए, तब से वो तीर्थ नष्ट हो गया। तब पीछे श्रीऋषभदेवजी बाल्हीक, जोनक, अडम्ब, इल्लाक, सुवर्ण भूमि, पल्लवकादि देशों में विचरने लगे। तहां जिनों ने श्रीऋषभदेवजी का दर्शन करा वो सब भद्रक स्वभाववाले हो गये / अरु शेष जो रहे, वो सब
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________________ 379 एकादश परिच्छेद ग्लेच्छ, निर्दयी अनार्य हो गये। अनेक कल्पना के मत मानने लगे, उनका व्यवहार और तरे का बन गया। जव श्रीऋषभदेव को एक हजार वर्ष व्यतीत हुए तह विहार करके विनीता नगरी के पुरिमताट केवलज्ञानप्राप्ति नामा बाग में आये, तब बड़ वृक्ष के हेठ और समवसरण फागुन वदि एकादशी के दिन, तीन दिन के उपवासी थे, तहां पहिले प्रहर में केवलज्ञान अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान में सर्व पदार्थों के जानने, देखनेवाला आत्मस्वरूप कैवलज्ञान प्रगट हुआ / तब चौसठ इन्द्र आए, देवताओं ने समवसरण बनाया, तीन गट बारा दरवाजे, इत्यादि समवसरण की रचना करी। एक एक दिशा में तीन तीन दरवाजे बनाये, मध्यभाग में मणिपीठिका अर्थात् चौतरा बनाया, तिसके मध्यभाग में अशोकवृक्ष रचा, तिसके हेठ दरवाजों के सन्मुख चारों दिशाओं में चार सिंहासन रचे / तिसमें पूर्व के सिंहासन ऊपर श्रीऋषभदेव अहंत विराजमान हुए, अरु शेष तीनों सिंहासनों ऊपर श्रीऋषभदेव सरीखे तीन विंब स्थापन करे / तब जिस दरवाजे से कोई आवे, वो तिस पासे ही , श्रीऋषभदेवजी को देखते थे। इसी वास्ते जगत् में चार मुखवाला श्रीभगवान् ऋषभदेवनी ब्रह्मा के नाम से प्रसिद्ध हुआ / धनंजय कोश में श्रीऋषभदेवजी का नाम ब्रह्मा लिखा है।
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________________ 20 जैनतत्त्वादर्श जब श्रीऋषभदेवजी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, तब भरत राजा श्रीऋषभदेवजी को केवली सुन कर सकल परिवार संयुक्त समवसरण में वन्दना करने को अरु उपदेखें सुनने को आया। वहां श्रीऋषभदेवजी का उपदेश सुन कर भरत राजा के पांच सौ पुत्र अरु सात सौ पोते तथा ब्राह्मी ऋषभदेवजी की बेटी और भी अनेक स्त्रियों ने दीक्षा लीनी / मरुदेवीजी तो भगवान् के छत्रादि देख के तथा वाणी सुन के केवली हो कर मोक्ष हो गई। तथा भरत के बड़े पुत्र का नाम ऋषभसेन-पुंडरीक था, वो सोरेठ देश में शत्रुजय तीर्थ ऊपर देह त्याग कर, मोक्ष गया, इस वास्ते शत्रुजय का नाम पुंडरीकगिरि रक्खा गया / * भरत के पांच सौ पुत्रों ने जो दीक्षा लीनी थी, तिन में एक का नाम मरीचि था, उस मरीचि ने मरीचि और जैन दीक्षा का पालना कठिन जान कर अपनी सांख्यमत की आजीविका के चलाने वास्ते नवीन मनःउत्पत्ति करिपत उपाय खड़ा किया, क्योंकि उसने गृहवास करने में तो बड़ी हीनता जानी। तवं एक कुलिंग बनाना चाहा। सो इस रीति से बनाया१. कि साधु तो मनदण्ड, वचनदण्ड अरु कायदण्डों, इन तीनों दण्डों से रहित हैं, और मैं तो इन तीनों दण्डों करके संयुक्त हूं, इस वास्ते मुझ को त्रिदण्ड रखना चाहिये / 2. साधु तो द्रव्य अरु भाव कर के मुण्डित है, सो लोच
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________________ एकादश परिच्छेद 381 करता है, अरु मैं तो द्रव्य मुंडित हूं, इस वास्ते मुझे उस्तरे पाछने से मस्तक मुंडवाना चाहिये, शिखा भी रखनी चाहिये। 3. साधु तो पांच महाव्रत पालते हैं, अरु मेरे तो सदा स्थूल जीव की हिंसा का त्याग रहे। 4. साधु तो अकिचन है, अर्थात् परिग्रह रहित है, अरु मुझ को एक पवित्रकादि रखनी चाहिये / 5. साधु तो शील से सुगन्धित है, अरु मैं ऐसा नहीं हूं, इस वास्ते मुझे चन्दनादि सुगन्धी लेनी ठीक है। 6. साधु तो मोहरहित है, अरु मैं तो मोह संयुक्त हूं, इस वास्ते मुझे मोहाच्छादित को छत्री रखनी चाहिये / 7. साधु जूते रहित है, मुझ को पगों में कुछ उपानह( जूती) प्रमुख चाहिये / 8. साधु तो निर्मल है, इस वास्ते उसके शुक्लांबर वन हैं, अरु मैं तो क्रोध, मान, माया, अरु लोभ, इन चारों कषायों करके मैला हूं, इस वास्ते मुझे कषाय वस्त्र अर्थात् गेरु के रंगे (भगवें) वस्त्र रखने चाहिये। 9. साधु तो सचित्त जल के त्यागी है, इस वास्ते मै छान के सचित पानी पीऊंगा, स्नान भी करूंगा / इस तरे स्थूलमृषावादादि से भी निवृत्त हुआ / इस प्रकार के मरीचि ने स्वमति से अपनी आजीविका के वास्ते लिंग बनाया, यही लिंग परिब्राजकों का उत्पन्न हुआ। ___ मरीचि भगवान के साथ ही विचरता रहा / तब साधुओं " e से विसदृश लिंग देख के लोग पूछते भए / तब मरीचि sat
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________________ . 282 जैनतवादर्श माधु का यथार्थ धर्म कहता था, अरु अपना पाखण्डवेष पूर्वोक्त रीति से प्रगट कह देता था। जो पुरुष इसके पास धर्म सुन कर दीक्षा लेनी चाहता था, तिसको भगवान् के साधुओं को दे देता था। एक समय मरीचि मांदा ( रोगग्रस्त ) हुआ। तब विचार किया कि मैं तो असंयती हूं, इस वास्ते साधु मेरी वैयावृत्त्य नहीं करते हैं, अरु मुझे करानी भी युक्त नहीं है, तब तो कोई चेला भी मुझे वैयावृत्य वास्ते करना चाहिये / तिस काल में श्रीऋषभदेवजी निर्वाण हो गये थे। पीछे एक कपिल नामक राजा का पुत्र था, सो मरीचि के पास धर्म सुनने को आया / तब मरीचिने उसको यथार्थ साधु का लिंग आचार कहा। तब कपिलने कहा कि तेरा लिंग विलक्षण क्योंकर है ? तब मरीचिने कहा कि मैं साधुपना पालने को समर्थ नहीं हूं, इस वास्ते मैंने यह लिंग निर्वाह के वास्ते स्वकपोलकल्पित बनाया है। तब कपिलने कहा कि मुझे श्रीऋषभदेव के साधुओं का धर्म रुचता नहीं है, आप कहो कि आप के पास भी कुछ धर्म है, या नहीं ! तब मरीचिने नाना, यह भारीकर्मी जीव है, मेरा ही शिष्य होने योग्य है। इस लोम से मरीचिने कह दिया कि, वहां भी धर्म है, अरु मेरे पास भी कछुक धर्म है। यह सुन कर कपिल मरीचि का शिष्य हो गया। यह कपिल मुनि की उत्पत्ति है। उस वक्त मरीचि के पास तथा कपिल के पास कोई भी
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________________ एकादश परिच्छेद 283 पुस्तक नहीं था, केवल जो कुछ आगार मरीचिने कपिल को बता दिया, सोई आचार कपिल करता रहा। मरीचिने उत्सूत्रभाषण करने से एक कोटाकोटी सागरोपम लग संसार में जन्म मरण की वृद्धि करी। मरीचि तो काल कर गया अरु पीछे से कपिल ग्रन्थार्थ ज्ञानशून्य मरीचि की वताई हुई रीति पर चलता रहा। उस कपिल का आसुरी नामा शिष्य हुआ / कपिलने आसुरी को भी आचार मात्र ही मार्ग बतलाया। कपिलने और भी बहुत शिष्य बनाये, उनके प्रेम में तत्सर हुआ। मर के ब्रह्म नामक पांचमे देवलोक में देवता हुआ। तव उत्पत्ति के अनन्तर अवधिज्ञान से देखा कि, मैने क्या दानादि अनुष्ठान करा है ! जिस से मै देवता हुआ हूं। तब अवधिज्ञान से ग्रन्थज्ञान शून्य अपने आसुरी नामा शिष्य को देखा। तब विचार करा कि मेरा शिष्य कुछ नहीं जानता; इसको कुछ तत्त्व उपदेश करूं। ऐसा विचार कर कपिल देवता आकाश में पञ्चवर्ण के मण्डल में रह कर तत्त्वज्ञान का उपदेश करता भया कि, अन्यक्त से व्यक्त प्रगट होता है। तिस अवसर में षष्टितंत्र शास्त्र आसुरीने बनाया / तिस में ऐसा कथन करा कि प्रकृति से महत् होता है, अरु महत् से अहंकार होता है, अहंकार से षोडश गण होता है। तिस षोडशगण में से पञ्चतन्मात्रों से पांच भूत इत्यादि स्वरूप
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________________ जैनतत्त्वादर्श पूर्व इसी *प्रन्थ में सांख्यमत विषे लिख आये हैं, वहां से जान लेना। पीछे इनकी संप्रदाय में नामी संख नामा भाचार्य हुआ। तब से मत का नाम सांख्यमत प्रसिद्ध हुआ / वास्तव में सर्व परिव्राजक संन्यासियों के लिंग आचा. रादि धर्म का मूल मरीचि हुआ / इस सांख्यमत का तत्त्व अब भी भगवद्गीता तथा भागवतादि ग्रन्थों में तथा सांख्यमत के शास्त्रों में प्रचलित है। एक जैनमत के बिना सर्व मतों की जड़, इस से समझनी चाहिये / जब श्रीऋषभदेवजी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था, उसी दिन भरत राजा की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। तब भरतने भरतक्षेत्र के छ खण्डों में राज बनाया, अपनी आज्ञा मनाई, इसी वास्ते इसका नाम भरतखण्ड प्रसिद्ध हुआ। जब भरतने अपने छोटे भाइयों को आज्ञा मनाने वास्ते __ दूत भेजा, तब तिनों ने विचार करा कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति राज तो हम को हमारा पिता दे गया है, तो फिर हम भरत की आज्ञा क्योंकर माने ! चलो पिता से कहें। जेकर अपने पिता श्रीऋषभदेवनी कहेंगे कि, तुम भरत की आज्ञा मानो, तब तो हम आज्ञा मान लेवेंगे, जेकर हमारे पिता कहेंगे कि लड़ों, तो हम * चतुर्थ परिच्छेद पृ० 274-290
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________________ एकादश परिच्छेद लड़ेंगे / ऐसा विचार करके कैलास पर्वत के ऊपर श्रीऋषभदेवजी के पास गये। तब श्रीऋषमदेवजीने उनके मन का अभिप्राय जान कर उनको उपदेश करा। जो उपदेश करा था, सो श्रीसूत्रकृतांग सूत्र के दूसरे वैतालीय अध्ययन में लिखा है। तब तो उपदेश सुन कर अठानवे पुत्रोने दीक्षा ले लीनी, सर्व झगड़े छोड़ दिये। इस वार्ता में भरत की अपकीर्ति हुई / तब भरत चक्रवर्ती पांच सौ गाड़े पकान के लेकर समवसरण में आया और कहने लगा कि, मैं अपने भाइयों को भोजन कराऊंगा और अपना अपराध क्षमा कराऊंगा / तब श्रीऋषभदेवजीने कहा कि ऐसा आहार साधुओं को लेना योग्य नहीं / तब भरत मन में बड़ा उदास हुआ। भरतने कहा कि, अब मैं यह आहार किसको दूं! तब शक्र-इन्द्रने कहा कि, जो तेरे से गुणों में अधिक हो, तिनको यह भोजन दो। तब भरतने मन में विचार करा कि मेरे से गुणाधिक तो श्रावक है / तब भरतने बहुत गुणवान् श्रावकों को वो भोजन जिमाया और उन श्रावकों को भरतजीने कह दिया कि तुम सर्व मिल कर प्रतिदिन अर्थात् रोज की रोज मेरा ही भोजन करा करो। खेती, वाणिज्यादि कुछ काम मत करा करो, केवल स्वाध्याय करने में तत्पर रहो, भोजन करके मेरे महलों के दरवाजे आगे बैठ के तुमने ऐसे कहना कि " जितो भवान् वर्धते भयं तस्मान्माहन माहनेति" | तब वे
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________________ 386 जैनतस्वादर्श श्रावक ऐसे ही करते भये / अरु भरत राजा तो भोगविलासों में मग्न रहता था, परन्तु जब तिनका शब्द सुनता था, तब मन में विचारता था कि, किसने मुझे जीता है ! तब विचार करा कि क्रोध, मान, माया अरु लोभ, इन चार कषायों ने मुझे जीता है, तिनों से ही भय की वृद्धि होती है / ऐसा विचार करने से भरत को बड़ा भारी वैराग्य उत्पन्न होता था। इस अवसर में रसोई जीमनेवाले श्रावक बहुत हो गये। जब रसोईदार रसोई करने में समर्थ न रहा, तब भरत महाराज को निवेदन करा कि, मैं नहीं जान सकता कि इन में श्रावक कौन है, और कौन नहीं है ! तब भरत. ने कहा कि तुम पूछ के उनको भोजन दिया करो / तब रसोई करनेवाले उनको पूछने लगे कि तुम कौन हो ! वे कहने लगे, हम श्रावक हैं। फिर तिनों को पूछा कि श्रावकों के कितने व्रत हैं ! तब तिनोंने कहा हमारे पांच अणुव्रत हैं, अरु सात शिक्षावत हैं। इस तरे से जब जाना कि यह श्रावक ठीक हैं, तब उनको भरत महाराज के पास लाये / भरतने उनके शरीर में काकणी रत्न से तीन तीन रेखा का चिन्ह कर दिया, अरु छठे महीने अनुयोग परीक्षा करते रहे / वे सर्व श्रावक ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध हुये। क्योंकि जब भरत महाराज के दरवाजे आगे वे 'माहन' 'माहन' शब्द वार वार,उच्चारण करते थे, तव लोक उनको 'माहन'
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________________ एकादश परिच्छेद कहने लग गये / जैनमत के शास्त्रों में प्राकृत भाषा में अब भी ब्राह्मणों को 'माहन' करके लिखा है / अरु जो संस्कृत ब्राह्मण शब्द है, वो प्राकृत व्याकरण में बंभण और माहण के स्वरूप से सिद्ध होता है। श्री अनुयोगद्वार सूत्र में ब्राह्मणों का नाम "वुडसावया" अर्थात् बड़े श्रावक ऐसा लिखा है / यह सर्व ब्राह्मणों की उत्पत्ति है, अरु सो ब्राह्मण अपने बेटों को साधुओं को देते थे। जिनोंने प्रव्रज्या न लीनी वे श्रावक व्रतधारी हुए / यह रीति तो भरत के राज्य में रही। पीछे भरत का वेटा आदित्ययश हुआ, अर्थात् सूर्ययश जिस के संतानवाले भरत क्षेत्र में सूर्यवंशी कहे जाते है / अरु बाहुबली का बड़ा पुत्र चन्द्रयश था, तिसके संतानवाले चन्द्रवंशी कहे जाते हैं। श्री ऋषभदेवजी के कुरु नामा पुत्र के संतान सव कुरुवंशी कहे जाते हैं, जिन में कौरव, पांडव हुये है। ____ जब भरत का बड़ा पुत्र सूर्ययश सिंहासन पर बैठा, तब तिसके पास काकणी रल नहीं था, क्योंकि काकणी रल चक्रवर्ती के सिवाय और किसी के पास नहीं होता है। इस वास्ते सूर्ययश राजाने ब्राह्मण श्रावकों के गले में सुवर्णमय यज्ञोपवीत [ जनेऊ इतिभाषा ] करवा दिये, तथा भोजन प्रमुख सर्व मरत महाराज की तरें देता रहा। जब सूर्ययश का वेटा महायश गद्दी पर बैठा, तब तिस ने रूपे के यज्ञोपवीत बनवा दिये / आगे तिनों की संतानोंने पंचरंगे रेशमी-पट्टसूत्र.
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________________ पच्छद हो गये। लोक पूछने जैनतत्त्वादर्श मय यज्ञोपवीत बनाये, आगे सादे सूत के बनाये गये। यह यज्ञोपवीत की उत्पत्ति है। भरत के आठ पाट तक तो ब्राह्मणों की भक्ति भरत की तरें करते रहे / पीछे प्रजा भी ब्राह्मणों को भोजन कराने लगी, तब सर्व जगे ब्राह्मण पूजनीक समझे गये / आठमे तीर्थकर श्रीचन्द्रप्रभ स्वामी के वक्त तक सर्व ब्राह्मण व्रतधारी, जैनधर्मी श्रावक रहे / अरु श्रीचन्द्रप्रम भगवान् के पीछे कितनाक काल व्यतीत भये इस भरत खण्ड में जैनमत अर्थात् चतुर्विध संघ और सर्व शास्त्र विच्छेद हो गये। तब तिन ब्राह्मणाभासों को लोक पूछने लगे कि धर्म का स्वरूप हम को बतलाओ। तब तिनोंने जो मन में माना, और अपना जिस में लाभ देखा, सो धर्म बतलाया। अनेक तरें के ग्रंथ बनाये गये। जब नवमे श्रीसुविधिनाथ-पुष्पदंत अरिहंत हुए, तिनों. ने जब फिर जैन धर्म प्रगट करा, तब कितनेक ब्राह्मणाभासोंने न माना, स्वकपोलकल्पित मत ही का कदाग्रह रक्खा, साधुओं के द्वेषी बन गये, चारों वेदों का नाम भी बदल दिया, अरु उन वेदों में मतलब भी और का और लिख दिया। अब चारों वेदों की उत्पत्ति लिखते हैं / जब भरत राजा ने ब्राह्मणों को पूजा, तब दूसरे लोक भी वेदो की उत्पत्ति ब्राह्मणों को बहुत तरे का दान देने लग गये। तब भरत चक्रवतीने श्रीऋषभदेवजी के हम को बता
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________________ / एकादश परिच्छेद 389 उपदेशानुसार तिन ब्राह्मणों के स्वाध्याय करने वास्ते श्रीआदीश्वर-ऋषभदेवजी की स्तुति और श्रावक के धर्म का स्वरूपगर्मित, ऐसे चार आर्यवेद रचे / तिन के यह नाम रक्खे-१. संसारदर्शन वेद, 2. संस्थापनपरामर्शन वेद, 3. तत्त्वावबोध वेद, 4. विद्याप्रबोध वेद / इन चारों में सर्वनय, वस्तु के कथन संयुक्त तिन ब्राह्मणों को पढ़ाये। तब वे ब्राह्मण अरु पूर्वोक्त चार वेद आठमे तीर्थकर तक यथार्थ चले आये। परन्तु जब आठमे तीर्थकर का तीर्थ विच्छेद हुआ, तब तिन ब्राह्मणाभासोंने धन के लोभ से तिन वेदों में जीवहिंसा आदि की प्ररूपणा करके उलटपुलट कर डाले / जैनधर्म का नाम भी वेदों में से निकाल दिया, बल्कि अन्योक्ति करके "दैत्य दस्यु वेदवाह्य " इत्यादि नामों से साधुओं की निंदा गर्भित 1. ऋग्, 2. यजु, 3. साम, 4. अथर्व, ये चार नाम कल्पन कर दिये। तिन ब्राह्मणों में से जिनों ने तीर्थंकरों का उपदेश माना, उनोंने पूर्व वेदों के मंत्र न त्यागे। सो आज तक दक्षिण कर्णाटक देश में जैन ब्राह्मणों के कंठ हैं। ऐसा सुना और देखा भी है। तथा उन प्राचीन वेदों के कितनेक मंत्र मेरे पास भी हैं / यत उक्त आगमे सिरिमरह चक्कवट्टी, आरियवेयाणविस्सु उप्पत्तो। माहण पढणथमिणं, कहियं सुहज्झाण ववहारं // 1 // जिणतित्थे वुच्छिन्ने, मिच्छत्ते माहणेहि तेठविया / अस्संजयाणं पूआ, अप्पाणं काहिया तेहिं // 2 //
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________________ जैनतस्वादर्श इत्यादि / यहां से आगे याज्ञवल्क्य, सुलसा, पिप्पलाद, अरु पर्वत प्रमुख ने तिन वेदों की रचना विशेष हिंसा युक्त कर दीनी / तिसका भी स्वरूप किंचित् मात्र यहां लिख देते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् के भाग्य में लिखा है कि, जो यज्ञों का कहनेवाला सो यज्ञवल्क्य, तिसका पुत्र याज्ञवल्क्य / इस कहने से भी यही प्रतीत होता है कि, यज्ञों की रीति' प्रायः याज्ञवल्क्य से ही चली है। तथा ब्राह्मण लोगों के शास्त्रों में लिखा है कि, याज्ञवल्क्य ने पूर्व की ब्रह्मविद्या . वम के सूर्य पासों नवीन ब्रह्मविद्या सीख के प्रचलित करी। इस से भी यही अनुमान निकलता है कि, याज्ञवल्क्य ने प्राचीन वेद छोड़ दिये, और नवीन बनाये।। तथा श्री ब्रेसठ शलाकापुरुष चरित्र ग्रंथ में आठमे पर्व के दूसरे सर्ग में ऐसा लिखा है कि, काशपुरी हिंसात्मक यज्ञ में दो संन्यासिनिया रहती थीं, तिन में एक और पिप्पलाद का नाम सुलसा था, अरु दूसरी का नाम सुभद्रा था। यह दोनों ही वेद अरु वेदांगों की जानकार थीं / तिन दिनों बहिनों ने बहुवादियों को वाद में जीता / इस अवसर में याज्ञवल्क्य परिव्राजक तिन के साथ वाद करने को आया / आपस में ऐसी प्रतिज्ञा करी कि जो हार जावे, वो जीतनेवाले की सेवा करे। तब याज्ञवल्क्यने सुलसा को वाद में जीत के अपनी सेवा करने
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________________ एकादश परिच्छेद वाली बनाई / सुलसा भी रात दिन याज्ञवल्क्य की सेवा करने लगी। याज्ञवल्क्य अरु सुलसा यह दोनों यौवनवंत तरुण थे / इस वास्ते दोनों कामातुर हो के भोगविलास करने लग गये। सच तो है कि अग्नि और फूस मिल के अग्नि क्योंकर प्रज्वलित न होवे ! निदान दोनों कामक्रीड़ा में मग्न होकर काशपुरी के निकट कुटी में वास करते थे। तब याज्ञवल्क्य सुलसा से पुत्र उत्पन्न हुआ। पीछे लोगों के उपहास के भय से उस लड़के को पीपल के वृक्ष के हेठ छोड़ कर दोनों नठ के कहीं को चले गये। यह वृत्तात सुभद्रा जो सुलसा की बहिन थी, उसने सुना / तब लिस बालक के पास आई / जब बालको देखा, तो पीपल का फल स्वयमेव मुख में पडे को चबोल रहा है, तब तिसका नाम भी पिप्पलाद रक्खा। और तिसको अपने स्थान में ले जा के यन से पाला, अरु वेदादि शास्त्र पढ़ाये / तव पिम्पलाद बड़ा बुद्धिमान हुआ, बहुत वादियों का अभिमान दूर करा / पीछे तिस पिप्पलाद के साथ सुलसा और याज्ञवल्क्य यह दोनों वाद करने को आए / तिस पिप्पलादने दोनों को बाद में जीत लिया, और सुभद्रा मासी के कहने से जान गया कि, यह दोनों मेरे माता पिता हैं, और मुझे जन्मते को निर्दय हो कर छोड़ गये थे। जब बहुत क्रोध में आया तव याज्ञवल्क्य अरु सुलसा के आगे मातृमेष, पितृमेघ यज्ञों को युक्ति से सम्यक् रीति से स्थापन करके पितृमेघ में याज्ञवल्क्य
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________________ 392 जैनतत्त्वादर्श को और मातृमेध में सुलसा को मार के होम करा / मीमांसक मत का यह पिप्पलाद मुख्य आचार्य हुआ। इसका बातली नामा शिष्य हुआ। तब से जीवहिंसा संयुक्त यज्ञ प्रचलित हुए। याज्ञवल्क्य के वेद बनाने में कुछ भी शंका नहीं, क्योंकि वेद में लिखा है-" याज्ञवल्क्येति होवाच" अर्थात् याज्ञवल्क्य ऐसे कहता भया। तथा वेद में जो शाखा है, वे वेदकर्ता मुनियों के ही सबब से है। इस वास्ते जो आवश्यक शास्त्र में लिखा है कि, जीवहिंसा संयुक्त जो वेद हैं, वे सुलसा अरु याज्ञवल्क्यादिकों ने बनाये है, सो सत्य है / क्योंकि कितनीक उपनिषदों में पिप्पलाद का भी नाम है, तथा और मुनियों का भी कितनीक जगे में नाम है। जमदग्नि, कश्यप तो वेदों में खुद नाम से लिखे हैं। तो फिर वेदों के नवीन होने में क्या शंका रहती है। तथा लंका का राजा रावण जब दिविजय करने के वास्ते देशों में चतुरंग दल लेकर राजाओं को अपनी आज्ञा मना रहा था। इस अवसर में नारद मुनि लाठी, सोटे, लात और धूंसे से पीटा हुआ पुकार करता हुआ रावण के पास आया। तब रावणने नारद को पूछा कि, तुझ को किसने पीटा है ? तब नारदने कहा कि, राजपुर नगर में मरुत नामा राजा है, सो मिथ्यादृष्टि है। वो ब्राह्मणाभासों के उपदेश से यज्ञ करने लगा / होम के वास्ते सैनिकों की
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________________ एकादश परिच्छेद 393 तरे वे ब्राह्मणाभास अरराट शब्द करते हुए विचारे पशुओं को यज्ञ में मारते हुए, मैंने देखे। तब मैं आकाश से उतर के जहां मरुत राजा ब्राह्मणों के साथ में बैठा था, तहां आकर मरुत राजा को कहा कि, यह तुम क्या कर रहे हो ! तब मरुत राजाने कहा कि ब्राह्मणों के उपदेश से देवताओं की तृप्ति वास्ते और स्वर्ग वास्ते यह यज्ञ मैं पशुओं के बलिदान से करता हूं, यह महाधर्म है। तब नारद कहता है कि, मैंने मरुत राजा को कहा कि हे राजन् ! जो चारों वेदों में यज्ञ करना कहा है, वो यज्ञ मै तुम को सुनाता हूं। आत्मा तो यज्ञ का यष्टा अर्थात् करनेवाला है, तथा तपरूप अग्नि है; ज्ञानरूप घृत है, कर्मरूपी इन्धन है, क्रोध, मान, माया, अरु लोभादि पशु हैं, सत्य बोलने रूप यूप अर्थात् यज्ञस्तंभ है, तथा सर्व जीवों की रक्षा करनी यह दक्षिणा है, तथा ज्ञान, दर्शन अरु चारित्र, यह रत्नत्रयीरूप त्रिवेदी है। यह यज्ञ वेद का कहा हुआ है / ऐसा यज्ञ जो योगाभ्यास संयुक्त करे, तो करनेवाला सुकरूप हो जाता है। और जो राक्षस तुल्य हो के छागादि मार के यज्ञ करता है, सो मर के घोर नरक में चिरकाल तक महादुःख मोगता है। हे राजन् ! तू उत्तम वंश में उत्पन्न हुआ है, बुद्धिमान् और धनवान् है, इस वास्ते हे राजन् ! तू इस व्याघोचित पाप से निवृत्त हो जा। जेकर प्राणिवध से ही
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________________ 'जैनतवादर्श जीवों को स्वर्ग मिलता होवे, तब तो थोड़े ही दिनों में यह जीवलोक खाली हो जावेगा। यह मेरा वचन सुन के यज्ञ की अग्नि की तरे प्रचन्ड हुए ब्राह्मण हाथ में लाठी, नदी के पूर से डर कर दीप में चला आता है, तैसे मैं दौड़ता हुआ तेरे पास पहुंचा हूं / हे रावण राना ! विचारे निरपराधी पशु मारे जाते हैं, तू तिनकी रक्षा करने में तत्पर हो / जैसे मैं तेरे शरण से बचा हूं ऐसे तू पशुओं को भी बचा | तब रावण विमान से उतर के मरुत राजा के पास गया / मरुत राजाने रावण की बहुत पूजा, भक्ति, आदर, सन्मान करा / तब रावण कोप में हो कर मरुव राजा को ऐसे कहता भया। अरे! तू नरक का देनेवाला यह यज्ञ क्या कर रहा है क्योंकि धर्म तो अहिंसारूप सर्वज्ञ तीर्थंकरोंने कहा है, सोई जगत् के हित का करनेवाला है। जब तुमने पशुओं को मार के धर्म समझा, तब तुम को हितकारक क्योंकर होवेगा ! इस वास्ते यह यज्ञ तुम को दोनों लोक में अहितकारक है। इसे छोड़ दो, नहीं तो इस यज्ञ का फल तेरे को इस लोक में तो मैं देता हूं, और परलोक में तुमारा नरक में वास होवेगा। यह सुन कर मरुत राजाने यज्ञ करना छोड़ दिया / क्योंकि रावण की आज्ञा उस वक्त ऐसी भयंकर थी कि, कोई उसको उल्लंघन नहीं कर सकता था।
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________________ एकादश परिच्छेद 395 इस कथानक से यह भी मालूम हो जाता है कि, को ब्राह्मण लोग कहते हैं कि, आगे राक्षस यज्ञ विध्वंस कर देते थे, सो क्या जाने रावणादि जबरदस्त जैनधर्मी राना पशुवध रूप यज्ञ का करना छुड़ा देते थे। तब से ही ब्राह्मणों ने पुराणादि शास्त्रों में उन जबरदस्त जैन राजाओं को राक्षसों के नाम से लिखा है। तथा यह भी सुनने में आया है कि, नारदजीने भी माया के वश से जैनमत धार के वेदों की निन्दा करी थी। तो क्या जाने इस कथानक का यही तात्पर्य लोगों ने लिख लिया हो / पीछे रावणने नारद को पूछा कि, ऐसा पापकारी पशु वधात्मक यह यज्ञ कहां से चला है ! तर वेदमन्त्र का अर्थ नारदजीने कहा कि, शुक्तिमती नदी के और वसुराजा किनारे पर एक शुक्तिमती नगरी है सो वीसवें श्रीमुनिसुव्रतस्वामी हरिवंश तीर्थकर की औलाद में जब कितनेक राजा व्यतीत हो गये, तब अभिचन्द्र नामा राजा हुआ। तिस अभिचन्द्र राजा का वसुनामा वेटा हुआ। वो वसु महाबुद्धिमान, सत्यवादी, लोगों में प्रसिद्ध हुआ। तिस नगरी में क्षीरकदंवक उपाध्याय रहता था तिसका पर्वत नामक पुत्र था। वहां एक तो राजा का बेटा वसु, दूसरा पर्वत और तीसरा मैं ( नारद ) हम तीनों क्षीरकदंबक उपाध्याय के पास पढ़ते थे / एक समय हम तो तीनों जन पाठ करने के श्रम से रात्रि को
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________________ 396 जैनतत्वादर्श सो गये थे और उपाध्याय जागता था / हम छत ऊपर सोते थे। तब दो चारण साधु ज्ञानवान् आकाश में परस्पर बातें करते चले जाते थे कि, इस क्षीरकदंबक उपाध्याय के तीन छात्रों में से दो नरक में जायेंगे, अरु एक स्वर्ग में जायेगा। मुनियों का यह कहना सुन करके उपाध्यायजी चिन्ता करने लगे कि, जब मेरे पढाये हुए नरक में जाएंगे, तब यह मुझ को बहुत दुःख है। परन्तु इन तीनों में से नरक कौन जायगा ! और स्वर्ग कौन जायगा ! इस बात के जानने वास्ते तीनों को एक साथ बुलाया। पीछे गुरुजीने हम तीनों को एक एक पीठी का कुक्कड़ दिया, और कह दिया कि इन को ऐसी जगे में मारो जहां कोई भी न देखता होवे। पीछे वसु अरु पर्वत यह दोनों तो शून्य जगा में जा कर दोनों पीठी के बनाये कुकड़ों को मार लाये / और म उस पीठी के कुक्कड़ को ले कर बहुत दूर नगर से बाहिर चला गया, जहां कोई भी नहीं था। तहां जा कर खड़ा हुआ, चारों ओर देखने लगा और मन में यह तर्क उत्पन्न हुआ कि, गुरु महाराजने तो यह आज्ञा दीनी है कि, हे वत्स ! यह कुक्कड़ तू ने तहां मारना, जहां कोई देखता न होवे / तो यह कुक्कड़ देखता है, अरु मैं भी देखता हूं, खेचर देखते हैं, लोकपाल देखते हैं, ज्ञानी देखते हैं, ऐसा तो जगत् में कोई भी स्थान नहीं जहां कोई न देखता होवे, इस वास्ते गुरु के कहने का यही तात्पर्य है कि, इस कुक्कड़
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________________ एकादश परिच्छेद 397 का वध न करना। क्योंकि गुरु पूज्य तो सदा दयावन्त और हिंसा से पराङ्मुख हैं, केवल हमारी परीक्षा लेने वास्ते यह आदेश दिया है। तब मैं ऐसा विचार करके बिना ही मारे कुछड़ को ले के गुरु के पास चला आया, और कुक्कड़ के न मारने का सबब सर्व गुरु को कह दिया। तब गुरुने मन में निश्चय कर लिया कि यह नारद ऐसे विवेकवाला है, सो स्वर्ग जायगा। तब गुरुजीने मुझ को छाती से लगाया, और बहुत साधुकार कहा। तथा वसु और पर्वत भी मेरे से पीछे गुरु के पास आये। और गुरु को कहते भये कि, हम कुक्कडों को ऐसी जगे मार के आये हैं कि, जहां कोई भी देखता नहीं था। तद गुरुने कहा कि, तुम तो देखते थे, तथा खेचर देखते थे, तब हे पापिठो ! तुमने कुकड़ क्यों मारे ! ऐसे कह कर गुरुने सोचा कि. पर्वत और बस के पढाने की महेनत मैंने व्यर्थ ही करी, मैं क्या करूं! पानी जैसे पात्र में जाता है, वैसा ही बन जाता है। विद्या का भी यही स्वभाव है। जव प्राणों से प्यारा पर्वत पुत्र और पुत्र से प्यारा वसु, यह दोनों नरक में जायेंगे, तो मुझे फिर घर में रह कर क्या करना है ! ऐसे निर्वेद से क्षीरकदंब उपाध्यायने दीक्षा ग्रहण करी-साधु हो गया। तिसके पद ऊपर पर्वत बैठा, क्योंकि व्याख्या करने में पर्वत बड़ा विचक्षण था।
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________________ 398 जैनतत्वादर्श और मैं (नारद ) गुरु के प्रसाद से सर्वशास्त्रों में पंडित हो कर अपने स्थान में चला आया। तथा अभिचन्द्र राजाने नो संयम लिया, और वसु राजा राजसिंहासन पर बैठा / वसु राजा जगत् में सत्यवादी प्रसिद्ध हो गया अर्थात् बासुराजा झूठ नहीं हैं, ऐसा प्रसिद्ध हो गया / वसुराजाने भी अपनी प्रसिद्धि को कायम रखने वास्ते सत्य बोलना ही अंगीकार किया। वसुराजा को एक स्फटिक का सिंहासन शुक्षपने ऐसा मिला कि सूर्य के चांदने में जब वसुराजा उसके ऊपर बैठता था, तब सिंहासन लोगों को बिलकुल नहीं दीख पड़ता था / इसी तरे वसुराजा आकाश में अधर बैठा दीख पड़ता था / तब लोगों में यह प्रसिद्धि हो गई कि, सत्य के प्रभाव से वसुराजा का सिंहासन देवता आकाश में थामे रखते हैं। तब सब राजा डर के बसुराजा की आज्ञा मानने लग गये। क्योंकि चाहे सच्ची हो चाहे झूठी हो, तो भी प्रसिद्धि जो है सो पुरुष के वास्ते जयकारी होती है। तब एकदा प्रस्ताव में नारद शुकिमती नगरी में गया। वहां जा कर पर्वत को देखा तो वो अपने शिष्यों को ऋगवेद पढा रहा है, और उसकी व्याख्या करता है। तब ऋग्वेद में एक ऐसी श्रुति आई " अजैर्यष्ठव्यमिति" | तब पर्वतने इस श्रुति की ऐसी व्याख्या करी कि अजा नाम छाग-बकरी का है; तिनों से यज्ञ करना-तिनको
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________________ एकादश परिच्छेद मारे के तिनके मांस का होम करना / तब मैंने पर्वत को कहा-हे माता ! यह व्याख्या तू क्या प्रांति से करता है ! क्योंकि गुरु श्रीक्षीरकदंवकने इस श्रुत की ऐसे व्याख्या नहीं करी है। गुरुजीने तो तीन वर्ष के पुराने धान्यजौ का अर्थ इस श्रुति का करा है। " न जायत इत्यजा"-जो चोने से न उत्पन्न होवें सो अन, ऐसा अर्थ श्रीगुरुजीने तुम को और हम को सिखलाया था। वो अर्थ तुमने किस हेतु से भुला दिया ! तव पर्वतने कहा कि, तुमने जो अर्थ करा है, वह गुरुजीने नहीं कहा था, किन्तु जो अथ मैंने करा है, यही अर्थ गुरुने कहा था, क्योंकि निघंटु में भी अजा नाम बकरी का ही लिखा है। तब मैंने (नारदने) पर्वत को कहा कि शब्दों के अर्थ दो तरे के होते हैं। एक मुख्यार्थ और दूसरा गौणार्थ / तो यहां श्री गुरुजीने गौणार्थ करा था / गुरु धर्मोपदेष्टा का वचन और यथार्थ श्रुति का अर्थ, दोनों को अन्यथा करके हे मित्र ! तूं महापाप उपार्जन मत कर / तब फिर पर्वतने कहा कि अजा शब्द का अर्थ श्री गुरुजीने मेष का करा है, निघंटु में भी ऐसे ही अर्थ है / इन को उल्लंघन करके तू अधर्म उपार्जन करता है / वास्ते वसुराजा अपना सहाध्यायी है, तिसको मध्यस्थ करके इस अर्थ का निर्णय करो। जो झूठा होवे तिसकी जिह्वा का छेद करना, ऐसी प्रतिज्ञा करी / तब मैंने भी पर्वत का कहना मान लिया, क्योंकि सांच को क्या आंच है !
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________________ 400 जैनतत्वाद तब पर्वत की माताने पर्वत को छाना (गुप्त में ) कहा कि, हे पुत्र ! तू ऐसा झूठा कदाग्रह मत कर / क्योंकि मैंने भी इस श्रुति का अर्थ तीन वर्ष का धान्य ही सुना है, इस वास्ते तूने जो जिह्वाछेद की प्रतिज्ञा करी है, सो अच्छी नहीं करी / क्योंकि जो विना विचारे काम करता है, वो अवश्य आपदा में पड़ता है। तब पर्वत कहने लगा कि हे माताजी ! जो मैंने प्रतिज्ञा करी है, वो अब मैं किसी तरे से भी दूर नहीं कर सकता हूं। तब माता अपने पर्वत पुत्र के दुःख से पीडित हो कर वसु राजा के पास पहुंची। क्योंकि पुत्र के जीवितव्य (जीवन ) वास्ते कौन ऐसा है, जो उपाय न करे! जब वसुराजाने अपने गुरु की पत्नी को आते देखा तब सिंहासन से उठ के खड़ा हुआ, और कहने लगा कि, मैंने आज क्षीरकदंबक का दर्शन करा जो माता तुझ को देखा। अब हे माता ! कहो मैं क्या करूं ! और क्या दूं ! तब ब्राह्मणी कहने लगी कि, तू मुझे पुत्र की मिक्षा दे, क्योंकि विना पुत्र के मैंने हे पुत्र ! धन, धान्य का क्या करना है ! तब वसुराजा कहने लगा-हे माता ! मेरे को तो पर्वत पूजने और पालने योग्य है। क्योंकि गुरु की तरें गुरु के पुत्र के साथ भी वर्चना चाहिये, यह श्रुति का वाक्य है। तो फिर आज किस को काल ने क्रोध में आकर पत्र मेजा है, जो मेरे भाई पर्वत को मारा चाहता है ! इस वास्ते हे माता ! तू मुझे सर्व वृत्तांत कह दे। तब ब्राह्मणीने अपने
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________________ एकादश परिच्छेद 401 पुत्र का अज व्याख्यान और जिह्वा छेदने की प्रतिज्ञा कह सुनाई / और कहा कि, जो तूं ने अपने भाई की रक्षा करनी है, तो अजा शब्द का अर्थ मेष अर्थात् बकरी बकरा करना / क्योंकि महात्मा जन परोपकार के वास्ते अपने प्राण भी दे देते हैं, तो वचन से परोपकार करने में तो क्या कहना है ? तब वसु राजा ने कहा कि हे मातानी, मैं मिथ्यावचन क्योंकर चोलं 1 क्योंकि सत्य बोलनेवाले पुरुष जेकर अपने प्राण भी जाते देखें तो भी असत्य नहीं बोलते हैं, तो फिर गुरु का वचन अन्यथा करना और झूठी साक्षी देनी, इसका तो क्या ही कहना है ! तब ब्राह्मणीने कहा कि या तो गुरु के पुत्र की जान बचेगी, या तेरे सत्य व्रत का आग्रह ही रहेगा, और मै भी तुझे अपने प्राण की हत्या दूंगी / तब वसुराजा ने लाचार होकर ब्राह्मणी का वचन माना। पीछे क्षीरकदंबक की भार्या प्रमुदित हो कर अपने घर को गई। इतने ही में मैं ( नारद ) और पर्वत दोनों जने वसुराजा की सभा में गये / तब तहां बडे बडे विद्वान् इकट्ठे सभा में मिले और स्फटिक के सिंहासन ऊपर बैठ के वसुराजा सभा के बीच में सभापति बन कर बैठा। तव पर्वत ने और मैंने अपनी अपनी व्याख्या का पक्ष वसुराना को सुनाया। और ऐसा भी कहा कि हे राजन् ! तूं सत्य कह दे कि गुरु ने इन दो अर्थों में से कौन सा अर्थ कहा था ! तब वृद्ध ब्राह्मणों ने कहा हे राजा / तू सत्य जो होवे सो कह दे। क्योंकि
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________________ 402 जैनतस्वादर्श सत्य से ही मेघ वर्षता है, और सत्य से ही देवता सिद्ध होते हैं, सत्य के प्रभाव से ही यह लोक खड़ा है, और तूं पृथ्वी में सत्यवादी सूर्य की तरें प्रकाशक है, इस वास्ते सत्य ही कहना तुम को उचित है, और हम इस से अधिक क्या कहें ! यह वचन सुन कर भी वसुराजा ने अपने सत्य बोलने की प्रतिज्ञा को जलांजली दे कर " अजान्मेषान् गुरुर्व्याख्यदिति " अर्थात् अज का अर्थ गुरु ने मेष (बकरा) कहा था ऐसी साक्षी वसुराजाने कही, तब इस असत्य के प्रभाव से व्यंतर देवता ने वसुराजा के सिंहासन को तोड़ के वसुराजा को पृथ्वी के ऊपर पटक के मारा। तब तो वसुराजा मर के सातमी नरक में गया / पीछे वसुराजा के राज सिंहासन ऊपर वसुराजा के आठ पुत्र-१. पृथुवसु, 2. चित्रवसु, 3. वासव, 4. शक्त, 5. विभावसु, 6. विश्वावसु, 7. सूर, 8. महासूर, ये आठों अनुक्रम से गद्दी ऊपर बैठे। उन आठों ही को व्यंतर देवताओं ने मार दिया / तब सुवसु नामा नवमा पुत्र तहां से भाग कर नागपुर में चला गया, और दसमा बृहद्ध्वज नामा पुत्र भाग कर मथुरा में चला गया, और मथुरा में राज करने लगा / इस बृहवन की संतानों में यदुनामा राजा बहुत प्रसिद्ध हुआ / इस वास्ते हरिवंश का नाम छूट गया और यदुवंशी प्रसिद्ध हो गये। . यदु राजा के सूर नामक पुत्र हुआ। तिस सूर राजा के.
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________________ एकादश परिच्छेद 403 दो पुत्र हुवे / तिनमें से बड़ा शौरी और छोटा सुवीर था / शौरी पिता के पीछे राजा वना, शौरी ने मथुरा का राज्य तो अपने छोटे भाई सुवीर को दे दिया, और आप कुशावर्त देश में जाकर अपने नाम का शौरीपुर नगर वसा के राजधानी वनाई / शौरी का बेटा अंधकवृष्णि आदि पुन हुआ। और अंबकवृष्णि के दश वेटे हुये-१. समुद्रविजय, 2. अक्षोभ्य, 3. स्तिमित, 4. सागर, 5. हिमवान्, 6. अचल, 7. धरण, 8. पूर्ण, 9. अभिचन्द्र, 10. वसुदेव / तिन में समुद्रविजय का बड़ा बेटा अरिष्टनेमि जो जैनमत का बावीसमा तीर्थकर हुआ / और वसुदेव के वेटे प्रतापी कृष्ण वासुदेव अरु बलभद्रजी हुये। तथा सुवीर का वेटा भोजवृष्णि और भोजवृष्णि का उग्रसेन और उग्रसेन का कंस वेटा हुआ। और वसुराजा का दूसरा वेटा सुवसु जो भाग के नागपुर गया था, तिसका वृहद्रथ नामा पुत्र हुआ। तिस ने राजगृह में आकर राज करा, तिस का बेटा जरासिंघ हुमा / यह मैंने यहां प्रसंग से लिख दिया है। तब वहां तो नगर के लोक और पण्डितों ने पर्वत का बहुत उपहास करा / सबने पर्वत को कहा कि तूं झूठा है, क्योंकि तेरे साखी वसु को झूठा जान कर देवताने मार दिया, इस वास्ते तेरे से अधिक पापी कौन है ? ऐसे कह कर लोगोंने मिल के पर्वत को नगर से बाहिर निकाल दिया | तव महाकाल असुर उस पर्वत का सहायक हुआ।
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________________ 404 जैनतत्त्वादर्श यहां रावणने नारद को पूछा कि वो महाकाल असुरु कौन था , नारद, ने कहा यहां चरणायुगल महाकालासुर नामा नगर है। तिस में अयोधन नामा राजा और पर्वत था, तिस की दिति नामा भार्या थी। तिन दोनों की सुलसा नामक बहुत रूपवती बेटी थी। तिस सुलसा का स्वयंवर उसके पिताने करा। वहां और सर्व राजे बुलवाये / तिन सर्व राजाओं में से सगर राजा अधिक था। तिस सगर राजा की मंदोदरी नामा रणवास की दरवाजेदार सगर की आज्ञा से प्रतिदिन अयोधन राजा के आवास में जाती थी। एक दिन दिति घर के बाग के कदली घर में गई, और सुलसा के साथ मंदोदरी भी तहां आ गई। तब मंदोदरी, सुलसा और दिति इन दोनों की बातें सुनने के वास्ते तहां छिप गई। तब दिति सुलसा को कहने लगी, हे बेटी ! मेरे मन में इस तेरे स्वयंवर विषे बड़ा शल्य है, तिस का उद्धार करना तेरे आधीन है, इस वास्ते तू सुन ले / , मूल से श्रीऋषभदेव स्वामी के भरत अरु बाहुबली यह दो पुत्र हुये। फिर तिनके दो पुत्र हुये तिन में भरत का सूर्ययश और बाहुबली का चन्द्रयश, जिनों से सूर्यवंश और चन्द्रवंश , चले हैं। चन्द्रवंश में मेरा भाई तृणबिंदुनामा . हुआ / तथा सूर्यवंश में तेरा पिता राजा. अयोधन हुआ / और अयोधन राजा की बहिन सत्ययशा नामा तृणबिंदु की
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________________ 4050 एकादश परिच्छेद भार्या हुई / तिस का वेटा मधुपिंगल नामा मेरा भतीजा है। तो हे सुन्दरी ! मैं तेरे को तिस मधुपिंगल को देना चाहती हूं, और तूं तो क्या जाने स्वयंवर में किस को दी जायगी ! मेरे मन में यह शल्य है। इस वास्ते तूने स्वयंवर में सर्व राजाओं को छोड़ के मेरे भतीजे मधुपिंगल को वरना / तब सुलसाने माता का कहना स्वीकार कर लिया और मंदोदरीने यह वृत्तांत सुन कर सगर राजा को कह दिया / तब सगर राजाने अपने विश्वभूति नामा पुरोहित को आदेश दिया। वो विश्वमूति बड़ा कवि था उसने तत्काल राजा के लक्षणों की संहिता बनाई / तिस संहिता में ऐसे लिखा कि सगर तो शुभ लक्षणवाला बन जावे और मधुपिंगल लक्षणहीन सिद्ध हो जावे। तिस पुस्तक को संदूक में बन्द करके रख छोड़ा / जब सब राजा आकर स्वयंवर में इकडे बैठे, तब सगर की आज्ञा से विश्वभूतिने वो पुस्तक काढ़ा / अरु सागरने कहा कि जो लक्षणहीन होवे, तिस को या तो मार देना, अथवा स्वयंवर से वाहिर निकाल देना / यह कहना सब ने मान लिया / तब तो पुरोहित यथा यथा पुस्तक वाचता जाता है, तथा मधुर्पिगल अपने को अपलक्षणवाला मान कर लज्जावान् होता जाता है। और स्वयंवर से आप ही आप निकल गया। तब सुलसा ने सगर को वर लिया, दूसरे सर्व राजा अपने अपने स्थानों को चले गये।
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________________ 406 जैनतत्त्वादर्श अरु मधुपिंगल तो उस अपमान से बालतप करके साठ हज़ार वर्ष की आयुवाला कालनामा असुर परमधार्मिक देव हुआ / तब अवधिज्ञान से सगर का कपट जो उसने सुलसा के स्वयंवर में झूठा पुस्तक बनाया था, और अपना जो अपमान हुआ था, सो देखा जाना / तब विचार करा कि सगर राजादिकों को मैं मारूं। तब तिन के छिद्र देखने लगा। जब शुक्तिमती नगरी के पास पर्वत को देखा, तब ब्राह्मण का रूप करके पर्वत को कहने लगा कि, हे पर्वत ! मैं तेरे पिता का मित्र हूं, मेरा नाम शांडिल्य है, मैं और तेरा पिता हम दोनों साथ होकर गौतम उपाध्याय के पास पढे थे / मैंने सुना था कि नारदने और दूसरे लोगों ने तुझे बहुत दुःखी करा, अब मैं तेरा पक्ष करूंगा, और मन्त्रों करके लोगों को विमोहित करूंगा। यह कह कर पर्वत के साथ मिल के लोगों को नरक में डालने वास्ते तिस असुर ने बहुत व्यामोह करा, व्याधि भूतादि दोष लोगों को कर दिये। पीछे वहां जो लोक पर्वत का वचन मान लेता था, तिस को अच्छा कर देता था। शांडिल्य की आज्ञा से पर्वत भी लोगों को अच्छा करने लगा। उपकार करके लोगों को अपने मत में मिलाता जाता था। तब तिस असुर ने सगर राजा को तथा तिसकी रानियों को बहुत भारी रोगादिक का उपद्रव करा। तब तो राना भी पर्वत का सेवक बना / अरु पर्वतने शांडिल्य के साथ मिल के
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________________ 407 एकादश परिच्छेद तिसका रोग शांत करा। तब पर्वत ने राजा को उप. देश करा कि हे राजन् ! सौत्रामणि नामा यज्ञ करके, मद्यपान अर्थात् शराब पीने में दोष नही। तथा गोसव नामा यज्ञ में अगम्य स्त्री ( चाडाली) आदि तथा माता, बहिन, बेटी आदि से विषय सेवन करना चाहिये / मातृमेघ में माता का और पितृमेध में पिता का वध अंतर्वेदी कुरुक्षेत्रादिक में करे, तो दोष नहीं / तथा कच्छु की पीठ ऊपर अग्नि स्थापन करके तर्पण करे, कदाचित् कच्छु न मिले तो शुद्ध ब्राह्मण के मस्तक की टटरी ऊपर अग्नि स्थापन करके होम करे, क्योंकि टटरी भी कच्छु की तरे होती है। इस बात में हिंसा नहीं है, क्योंकि वेदों में लिखा है सर्व पुरुष एवेदं, यद्भूतं यद्भविष्यति / ईशानो योऽमृतत्वस्य, यदनेनातिरोहति // इसका भावार्थ यह है कि, जो कुछ है, सो सब ब्रह्मरूप ही है / जब एक ही ब्रह्म हुआ, तब कौन किसीको मारता है ! इस वास्ते यथारुचि से यज्ञों में जीवहिंसा करो, और तिन जीवों का मांस भक्षण करो, इसमें कुछ दोष नहीं। स्योंकि देवोद्देश करने से मांस पवित्र हो जाता है। इत्यादि उपदेश देकर सगर राजा को अपने मत में स्थापन करके अंतर्वेदी कुरुक्षेत्रादि में उस पर्वत ने यज्ञ कराया। तब
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________________ 408 जैनतवादर्श कालासुर ने अवसर पा करके राजसूयादिक यज्ञ भी कराया। और जो जीव यज्ञ में मारे जाते थे, तिन को विमानों में बैठा के देवमाया से दिखाया। तब लोगों को प्रतीत आ गई, पीछे वो निःशंक हो कर जीवहिंसारूप यज्ञ करने लगे और पर्वत का मत मानने लगे। सगर राजा भी यज्ञ करने में बड़ा तत्पर हुआ। सुलसा और सगर दोनों मर के नरक में गये। तब महाकालासुर ने सगर राजा को नरक में मार पीटादि महादुःख दे के अपना वैर लिया। इस वास्ते हे रावण ! पर्वत पापी से यह जीवहिंसारूप यज्ञ विशेष करके प्रवृत्त हुये। हे राजा रावण ! सो यह यज्ञ विशेष तूने निषेध करा। यह कथा सुन के राजा रावण ने प्रणाम करके , नारद को विदा करा। इस तरे से जैनमत के शास्त्रों में वेदों की उत्पत्ति लिखी है सो आवश्यकसूत्र, आचारदिनकर, वेसठशलाका पुरुष चरित्र में सर्व लिखा है, तहां से देख लेना। और इस वर्तमान काल में जो चारों वेद है, इनकी उत्पत्ति डाक्टर मेक्षमूलर साहिब अपने बनाये संस्कृत साहित्य ग्रन्थ में तो ऐसे लिखते हैं कि, वेदों में दो भाग हैं, एक छन्दोभाग, दूसरा मन्त्रमाग है। तिन में छन्दोभाग में इस प्रकार का कथन है, जैसे अज्ञानी के मुख से अकस्मात् बचन निकला हो, तैसे इसकी उत्पत्ति इकत्तीस सौ वर्ष से हुई है। और मन्त्रमाग को बने हुये उनतीस सौ वर्ष
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________________ एकादश परिच्छेद 401 हुये हैं। इस लिखने से क्या आश्चर्य है ! जो किसीने उलटपुलट के फिर नवीन वेद बना दिये हों। इन वेदों ऊपर अवट, सायण, रावण, महीधर, अरु शंकराचार्यादिकोंने भाष्य बनाये हैं, टीका दीपिका रची है। फिर अब उन प्राचीन भाष्य दीपिका को अयथार्थ जान के दयानन्द सरस्वती स्वामी अपने मत के अनुसार नवीन भाष्य बना रहे हैं। परन्तु पंडित ब्राह्मण लोक दयानन्द सरस्वती के भाष्य को प्रमाणिक नहीं मानते हैं। अब देखना चाहिये क्या होता है! और जैनमत वालोंने तो अब से उनके शास्त्रों के लिखने मूजव आर्य वेद बिगड़ गये, उसी दिन से वेदों को मानना छोड़ दिया है। जब ऋषभदेवजी का कैलास पर्वत के ऊपर निर्वाण हुआ, तब सर्व देवता निर्वाण महिमा करने श्रीऋषभदेव का को आये। तिन सर्व देवताओं में से अग्निनिर्वाण कुमार देवता ने श्री ऋषभदेव की चिता में अग्नि लगाई, तब से ही यह श्रुति लोक में प्रसिद्ध हुई है--"अग्निमुखा वै देवाः" अर्थात् अग्निकुमार देवता सर्व देवताओं में मुख्य है / और अल्पबुद्धियों ने तो इस श्रुति का अर्थ ऐसा बना लिया है कि अग्नि जो है, सो तेतीस मोड़ देवताओं का मुख है। यह प्रभु के निर्वाण का स्वरूप सर्व आवश्यक सूत्र से जान लेना। जब देवताओंने श्री ऋषभदेव की दाढ़े वगेरे लीनी
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________________ 410 जैनतत्त्वादर्श तब श्रावक ब्राह्मण मिल कर देवताओं को अतिभक्ति से याचना करते भये / तब वे देवता तिन को बहुत जान करके बड़े यत्न से याचने के पीड़े हुये देख कर कहते भये कि अहो याचका ! अहो याचका ! तब ही से ब्राह्मणों को याचक कहने लगे। तब ब्रामणोने ऋषभदेव की चिता में से अग्नि लेकर अपने अपने घरों में स्थापन करते मये, तिस कारण से ब्राह्मणों को अहिताग्नि कहने लगे। श्रीऋषभदेव की चिता जले पीछे दादादिक सर्व तो देवता ले गये, शेष भस्म अर्थात् राख रह गयी, सो ब्राह्मणों ने थोडी थोडी सर्व लोगों को दीनी / तिस राख को लोगों ने अपने मस्तक ऊपर त्रिपुंड्राकार से लगायी, तब से ही त्रिपुंड लगाना शुरू हुआ। इत्यादि बहुत व्यवहार तब से ही चला है। ___ जब भरत ने कैलास पर्वत के ऊपर सिंहनिषद्या नामा मंदिर बनाया, उस में आगे होनेवाले तेईस तीर्थंकरों को और श्रीऋषभदेवनी की अर्थात् चौवीश प्रतिमा की स्थापना करी / और दंडरल से पर्वत को ऐसे छीला कि जिस पर कोई पुरुष पगों से न चढ़ सके / उसमें आठ पद (पगथिये) रक्खे। इसी वास्ते कैलास पर्वत का दूसरा नाम अष्टापद कहते हैं। तव से ही कैलास महादेव का पर्वत कहलाया। महादेव अर्थात् बड़े देव, सो ऋषभदेव, तिस का स्थान कैलास पर्वत जानना।
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________________ एकादश परिच्छेद भरत अरु बाहुबली दोनों दीक्षा ले के मोक्ष गये। तब भरत के पीछे सूर्ययश गद्दी पर बैठा / तिस की औलाद सूर्यवंशी कहलाई। तिस के पीछे सूर्ययश का वेय महायश गद्दी पर बैठा, ऐसे ही अतिवल, महाबल, तेजवीर्य, कीर्तिवीर्य अरु दण्डवीर्य, ये पांच अनुक्रम से अपने 2 बाप की गद्दी पर बैठे अपने 2 राज का प्रबंध करते रहे, परन्तु भरत के राज से इनोंने आधा (तीन खण्ड) राज्य करा, और भरत की तरे राज्य छोड़ कर मोक्ष में गये / इनके पीछे गद्दी पर असंख पाट हुये, तिन की व्यवस्था चित्तांतरगंडिका से जान लेनी, यावत् जितशत्रुराजा हुआ / अब अजितनाथ स्वामी के वक्त का स्वरूप लिखते हैं। अयोध्या नगरी में श्री भरत के पीछे जब श्री अजितनाथ असंख्य राजा हो चुके, तब इक्ष्वाकुवंश में और सगर जितशत्रु राजा हुआ। विनीता नगरी का ही चक्रवर्ती दूसरा नाम अयोध्या है। परन्तु अब जो अयोध्या है, सो वो अयोध्या नहीं। वो तो कैलास पर्वत के पास थी, और यह तो नवीन अयोध्या उसके नाम से वसी है। जितशत्रु राजा का छोटा भाई सुमित्र युवराज था / जितशत्रु की विजया देवी रानी थी, तिस के चौदह स्वप्नपूर्वक अजितनाथ नामा पुत्र हुआ। और सुमित्र की रानी यशोमती को भी चौदह स्वप्न देखनेपूर्वक सगरनामा पुत्र हुआ / जब दोनों यौवनवंत हुए तव
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________________ 'जैनतत्वादर्श जितशत्रु और सुमित्र तो दीक्षा ले के, मोक्ष हो गये। तब श्री अजितनाथ राजा हुये अरु सगर युवराज हुये। कितनेक काल राज करके श्री अजितनाथ ने तो स्वयमेव दीक्षा लेकर तप करा, और केवलज्ञान पा कर दूसरा तीर्थकर हुआ। पीछे सगर राजा हुआ। सो सगर दूसरा चक्रवर्ती हुआ है। इस सगर राजा ने भरत की तरें षट् खंड का राज्य करा। इस सगर राजा के जहनुकुमार प्रमुख साठ हज़ार बेटे हुये / तिनों ने दण्ड रत्न से गंगा नदी को अपने असली प्रवाह से फेर के और कैलास के गिरदनवाह खाई खोद के उस खाई में गंगा को ला के गेरा। क्योंकि उन्होंने विचार करा था कि, हमारे बडे भरत ने जो इस पर्वत ऊपर सुवर्णरलमय श्रीऋषभादि तीर्थंकरों का मन्दिर बनाया है, तिस की रक्षा वास्ते इस पर्वत के चारों ओर खाई खोद कर उसमें गंगा फेर देवें, जिस से तीर्थ की विशेष रक्षा हो जायेगी। तिन साठ हज़ार को नाग देवता ने मार दिया, क्योंकि खाई खोदने और जल भरने से उनको तकलीफ पहुंची थी। तब गंगा के जल ने देश में बढ़ा उपद्रव करा / तब सगर राजा के पोते जहनु के बेटे भगीरथ ने सगर की आज्ञा से दण्डरत्न से भूमि खोद के गंगा को समुद्र में मिलाया। इसी वास्ते गंगा का नाम जाह्नवी और भागीरथी कहा जाता है। . . . . / /
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________________ एकादश परिच्छेद 413 सगर राजा ने श्रीशचंजय तीर्थ ऊपर श्रीभरत के बनाये ऋषभदेवजी के मंदिर का उद्धार करा / तथा और जैनतीर्थों का भी उद्धार करा / तथा यह समुद्र भी भरत क्षेत्र में सगर ही देवता के सहाय से लाया / लंका के टापू में वैताब्य पर्वत से सगर की आज्ञा से धनवाहन पहिला राजा हुआ। और लंका के टापू का नाम राक्षसद्वीप है, इस हेतु से धनवाहन राजा के वंश के राक्षस कहलाये। इसी वंश में राजा रावण और बिभीषणादि हुये हैं। इत्यादि सगरचक्रवर्ती के समय का हाल बेसठशलाकापुरुषचरित्र से जान लेना / क्योंकि तिस चरित्र के तेतीस हज़ार काव्य हैं / इस वास्ते में उसका सारा हाल इस अंथ में नहीं लिख सकता हूं, परन्तु संक्षेप मात्र वृतांत लिखा है। सगरचक्रवर्ण राज्य करके पीछे श्री अजितनाथनी के पास दीक्षा लेकर, संयम तप करके केवलज्ञान पा कर मोक्ष पहुंचे। और अजितनाथ स्वामी भी समेतशिखर पर्वत के ऊपर शरीर छोड़ के मोक्ष गये। श्रीऋषभदेव स्वामी के निर्वाण से पचास लाख कोटी, सागरोपम के व्यतीत हुए श्रीअजितनाथ तीर्थंकर का निर्वाण : हुआ। श्रीसंभवनाथनी तीसरे तीर्थकर हुये / राज्य सई सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, और कुरुवंशी, आदिक राजाओं के घराने में रहा।
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________________ 14 जैनतत्त्वादर्श अब श्रावस्ती नगरी में इक्ष्वाकुवंशी जितारि राजा राज्य करता था, तिसकी सेना नामा पटरानी थी। तिनों का संभव नामा पुत्र तीसरा तीर्थकर हुआ। यह चौवीस ही तीर्थंकरों का वर्णन प्रथम परिच्छेद में यन्त्र और वार्ता में लिख आये हैं / इस वास्ते यहां संक्षेप से लिखेंगे / और तीर्थंकरों के आपस में जो अंतरकाल हैं सो भी यन्त्रों में देख लेना। इन के पीछे अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी संवर राजा और तिसकी सिद्धार्था नामक रानी से अभिनन्दन नामक चौथा तीर्थकर पुत्र हुआ। पीछे अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी मेघराजा की सुमंगला रानी से सुमतिनाथ नामक पांचमा तीर्थकर पुत्र हुआ। पीछे कौसंबी नगरी में इक्ष्वाकुबंशी श्रीधर राजा की सुसीमा रानी से पद्मप्रम नामक छटा तीर्थकर पुत्र हुआ / पीछे वाराणसी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी प्रतिष्ठ राजा हुआ, तिसकी पृथ्वी नामा रानी, तिनों का पुत्र श्री सुपार्श्वनाथ नामा सातमा तीर्थकर हुआ / पीछे चंद्रपुरी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी महासेन राजा हुआ, तिसकी लक्ष्मणा नामा रानी, तिनों का पुत्र श्री चन्द्रप्रम नामा आठमा तीर्थकर हुआ। पीछे काकंदी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी मुग्रीव राजा हुआ, तिसकी रामा नामक रानी, तिनका पुत्र श्री सुविधिनाथ ' अपरनाम पुष्पदन्त नवमा तीथे. कर हुआ।
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________________ एकादश परिच्छेद 415 यहां तक तो सर्व ब्राह्मण जैनधर्मी श्रावक और आर्य चारों वेदों के पढनेवाले बने रहे। जब नवमें मिथ्यादृष्टि ब्राह्मण तीर्थंकर का तीर्थ व्यवच्छेद हो गया, तब से ब्राह्मण मिथ्यादृष्टि और जैनधर्म के द्वेषी और सर्व जगत् के पूज्य, कन्या, भूमि, गोदानादिक के लेनेवाले, सर्व जगत् में उत्तम और सर्व के हर्चा, कर्ता, मतों के मालक बन गये। क्योंकि सूना घर देख के कुत्ता भी आटा खा जाता है। और जो जगत् में पाखंड तथा बुरे 2 देवतादिकों की पूजा है, तथा और भी जो जो कुमार्ग प्रचलित हुआ है, वे सर्व उन्हों ने ही चलाये हैं / मानो आदीश्वर भगवान् की रची हुई सृष्टिरूप अमृत में जहर डालनेवाले हुये। क्योंकि आगे तो जैनमत के और कपिल के मत के बिना और कोई भी मत नहीं था। कपिल के मतवाले भी श्रीआदीश्वर अर्थात् ऋषभदेव को ही देव मानते थे। निदान यह हुंडा अवसर्पिणी में आश्चर्य गिना जाता है। तिस पीछे भदिलपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशी दृढरथ राजा हुआ, तिसकी नंदा नामा रानी, तिनोंका पुत्र श्री शीतलनाथ नामा दशमा तीर्थकर हुआ। इन ही के शासन में हरिवंश उत्पन्न हुआ है, तिसकी कथा लिखते हैं। कौशांबी नगरी में चीरा नामा कोली रहता था, तिस की वनमाला नामा स्त्री अत्यंत रूपवती हरिवंश की थी। सो नगर के राजा ने छीन के अपनी . उत्पत्ति रानी बना ली। बीरा कोली स्त्री के विरह
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________________ 416 जैनतरवादर्श से बावला हो गया-हा ! वनमाला हा ! वनमाला ! ऐसे कहता हुआ नगर में फिरने लगा / एकदा वर्षाकाल में राजा वनमाला के साथ महल के झरोखे में बैठा था / तब राजा रानी ने वीरे को तिस हाल में देख के बड़ा पश्चाताप करा, अरु विचार करने लगे कि हम ने यह बहुत बूरा काम करा। उसी वक्त बिजली गिरने से राजा रानी दोनों मर के हरिवास क्षेत्र में युगल स्त्री पुरुष हो गये। तब बीरा कोली राजा रानी का मरण सुन के राजी हो गया / पीछे तापस बन के तप करा / अज्ञान तप के प्रभाव किरिबष देवता हुआ। तब अवधिज्ञान से राजा रानी को युगलिये हुये देख कर विचार करा कि, यह भद्रक परिणामी और अल्पारम्भी हैं इस वास्ते मर के देवता होवेंगे, तो फिर मैं अपना वैर किस से लूंगा ! इस वास्ते ऐसा करूं कि जिस से ये दोनों मर के नरक में जावें / ऐसा विचार के तिन दोनों को तहां से उठा करके भरत क्षेत्र में चम्पा नगरी में लाया / वहां का इक्ष्वाकुवंशी चंडकीर्ति राजा अपुत्रिया मरा था, लोक सब चिन्ता में बैठे थे कि, कौन यहां का राजा होवेगा , तब तिस देवताने ये दोनों उनको सौंपे, और कहा, कि-यह तुमारा हरि नामा राजा हुआ, इसकी यह हरिणी नामा रानी हैं, इन के खाने वास्ते तुम ने फलमिश्रित मांस देना और इन से , शिकार भी कराना / तब लोगोंने तैसे ही 'करा / वे दोनों पाप के प्रभाव से मर के नरक में गये।
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________________ एकादश परिच्छेद 417 और उनकी औलाद हरिवंशी कहलायी / इसी वंश में वसुराजा हुआ। इन श्री शीतलनाथजी का भी शासन विच्छेद गया। इसी तरे पंदरहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थंकरों का शासन विच्छेद होता रहा, और मिथ्या धर्म वढ़ गये। तिस पीछे सिंहपुरी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी विष्णु राज हुआ, तिसकी विष्णुश्री रानी, तिनोंका पुत्र श्रीश्रेयांस. नाथ नामा ग्यारमा तीर्थकर हुआ। तिनके समय में वैतान्न पर्वत से श्रीकंठ नामा विद्याधर के पुत्र ने पद्मोत्तर विद्याधर की वेटी को हर के अपने बहनोई राक्षसवंशी लंका के राजा कीर्तिघवल की शरण गया / तब कीर्तिघवल ने तीन सौ योजन परिमाण वानर द्वीप उनके रहने को दिया / तिनों के संतानों में से चित्र-विचित्र विद्याधरों ने विद्या से बंदर का रूप बनाया / तब वानर द्वीप के रहने से और बानर का रूप बनाने से बानरवंशी प्रसिद्ध हुये / तिनों ही की औलाद में वाली और सुग्रीवादिक हुये हैं। तथा श्रेयांसनाथ के समय में पहिला त्रिपृष्ट नामा वासुदेव हरिवंश में हुआ, तिसकी उत्पत्ति त्रिपृष्ट वासुदेव ऐसे है-पोतनपुर नगर में हरिवंशी जित शत्रु नामा राजा हुमा, तिसकी धारणी नामा रानी थी। जिसका अचल नामा पुत्र और मृगावती नामा वेटी थी, सो अत्यंत रूपवती और यौवनवती थी।
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________________ जैनतत्वादर्श उसको देख के उसके पिता जितशत्रु ने अपनी रानी बना लीनी / तब लोगों ने जिवशत्रु राजा का नाम प्रजापति रक्खा, अर्थात् अपनी बेटी का पति ऐसा नाम रक्खा / तब ही से वेदों में यह श्रुति लिखी गई "प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यध्यायद्दिवमित्यन्य आहुरुषसमित्यन्येतामृश्योभूत्वारोहितं भूतामभ्यत् तस्य यद्रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योमवत् / " इस का भावार्थ यह है कि प्रजापति ब्रह्मा अपनी बेटी से विषय सेवने को प्राप्त हुआ। हमारे जैनमतवालों की तो इस अर्थ से कुछ हानि नहीं; परन्तु जिन लोगों ने ब्रह्माजी को वेदका, हिरण्यगर्भ के नाम से ईश्वर माना है। और इस कथा को पुराणों में लिखा है, उनका फनीता तो जरूर दूसरे मतवाले करेंगे। इस में हम क्या करें ! क्योंकि जो पुरुष अपने हाथों से ही अपना मुंह काला करे, तब उसको देखनेवाले क्योंकर हंसी न करेंगे ! यद्यपि मीमांसा के वार्तिककार कुमारिल ने इस श्रुति के अर्थ के कलंक दूर करने को मनमानी कल्पना करी है। तथा इस काल में दयानन्द सरस्वती ने भी वेदश्रुतियों के कलंक दूर करने को अपने बनाए भाष्य में खूब अर्थों के जोड़ तोड़ लगाये हैं, परन्तु जो पुराणवाले ने कथानक लिखा है,
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________________ एकादश परिच्छेद तिसको क्योंकर छिपा सकेंगे। इस में यह मसल मशहूर है कि, बूंद की बात तो विलायत गई, अव क्यों घडे रुहाते हो / अच्छा हमारे मत में तो वेदश्रुति और ब्रह्मा( प्रजापति) का अर्थ यथार्थ ही करा है। अरु जब त्रिपृष्ट और अचल दोनों यौवनवंत हुये, तब तिनों ने त्रिखण्ड के राजा अश्वप्रीव को मार के तीन खण्ड का राज्य करा / तिस पीछे चंपापुरी का इक्ष्वाकुवंशी वसुपूज्य नामा राजा हुआ। तिसकी जया नामा रानी, तिनोका पुत्र श्री वासुपूज्यनाथ नामा वारहवां तीर्थंकर हुआ। तिनोंके वारे दूसरा द्विपृष्ट वासुदेव और अचल बलदेव हुये। और इन का प्रतिशत्रु रावण समान तारक नामा दूसरा प्रतिवासुदेव हुआ। इन मर्व वासुदेव और चक्रवर्ती आदिकों का सम्पूर्ण वर्णन त्रेसउगलाकापुरुष चरिन से जान लेना। तिस पीछे कंपिलपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशी कृतवर्मा नामा राजा हुआ / तिस की श्यामा नामा रानी, तिनोंका पुत्र श्री विमलनाथ नामा तेरहवां तीर्थकर हुआ। तिनोंके वारे तीसरा स्वयंभू वासुदेव और भद्नामा बलदेव तथा मेरक नामा प्रतिवासुदेव हुये। तिस पीछे अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी सिंहसेन राजा हुआ, तिसकी सुयशा रानी, तिनोंका पुत्र श्रीअनंतनाथ नामा चौदहवां तीर्थकर हुआ। तिनके वारे चौथा पुरुषोत्तम नामा वासुदेव और सुप्रम नामा बलदेव तथा मधुकैटभ नामा
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________________ 420 जैनवत्वादर्श.. प्रतिवासुदेव हुये। तिस पीछे रलपुरी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी भानु नामा राजा हुआ, तिसकी सुव्रता नामा रानी, तिनों का पुत्र श्री धर्मनाथ नामा पंदरहवां तीर्थकर हुआ। तिनके वारे पांचमा पुरुषसिंह नामा वासुदेव और सुदर्शन नामा बलदेव तथा निशुंभ नामा प्रतिवासुदेव हुआ। यहां तक पांच वासुदेव हुये, सो पांचों ही अरिहंतों के सेवक अर्थात् जैनधर्मी हुये। तिस पीछे पंदरहवें धर्मनाथ और सोलहवें श्रीशांतिनाथजी के अंतर में तीसरा मघवा नामा चक्रवर्ती और चौथा सनत्कुमार नामा चक्रवर्ती हुये। तिस पीछे हस्तिनापुरी नगरी में कुरुवंशी विश्वसेन राजा हुआ, तिसकी अचिरा रानी, तिनका पुत्र श्रीशांतिनाथ नामा हुवा / सो पहिले गृहवास में तो पांचमा चक्रवर्ती था, पीछे दीक्षा लेके केवली होकर सोलहवां तीर्थकर हुआ। __तिस पीछे हस्तिनापुर नगर में कुरुवंशी सूरनामा राजा हुआ, तिसकी श्री रानी, तिनोंका पुत्र श्रीकुंथुनाथ हुआ / सो प्रथम गृहस्थावस्था में छट्ठा चक्रवर्ती था, अरु दीक्षा लिये पीछे सतरहवां तीर्थकर हुआ। / ' तिस पीछे हस्तिनापुर नगरी में कुरुवंशी सुदर्शन नामा राजा हुआ, तिसकी देवी रानी, तिनोंका पुत्र श्रीअरनाथ हुआ। सो गृहस्थावास में तो, सातवां चक्रवर्ती था और दीक्षा लिये पीछे अठारहवां तीर्थकर हुआ। ,
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________________ एकादश परिच्छेद 421 अठारहवें और उन्नीसवें तीर्थंकर के अन्तर में आठवां कुरुवंशी सुभूम नामा चक्रवर्ती हुआ। इस सुमूम के वक्त में ही परशुराम हुआ। इन दोनों का संबन्ध जैनमत के शास्त्रों में जेसे लिखा है, तैसे मैं भी यहां लिख देता हूं। * यह कथा योगशास्त्र में ऐसे लिखी हैं कि, वसंतपुर नामा नगर में उच्छिन्नवंश नामा अर्थात् सुभूम चक्रवर्ती जिसका कोई भी सबन्धी नहीं था, ऐसा और परशुराम अग्निक नामा एक लड़का था। सो अग्निक एकदा किमी साथवारा के साथ देशांतर को गया। मार्ग में साथ से मूल के जंगल में एक तापस के आश्रम में गया। तब कुलपति तापस ने तिसको अपना पुत्र बना के रख लिया। पीछे तहां अग्निक ने बड़ा भारी घोर तप करा और बड़ा तेजस्वी हुआ। जगत् में जमदग्नि तापस के नाम से प्रसिद्ध हुआ / इस अवसर में एक जैनमती विश्वानर नामा देव और दूसरा तापसों का भक्त ध्वनन्तरी नामा देव, यह दोनों देव परस्पर विवाद करने लगे। तिस में विश्वानर तो ऐसा कहने लगा कि, श्री अहंत का कहा धर्म प्रामाणिक है, और दूसरा कहने लगा कि तापसों का धर्म सच्चा है। तब विश्वानर ने कहा कि दोनों धर्म के गुरुओं की परीक्षा कर लो। तिस में भी अहंत धर्म के तो जघन्य गुरु की और तापस धर्म के उत्कृष्ट गुरु की परीक्षा-धैर्य देख लो। तब मिथिला नगरी का
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________________ 422 जैनतत्वादर्श पद्मरथ राजा नया ही जिनधर्मी हो कर भावयति हुआ। सो चम्पानगरी में गुरुओं के पास दीक्षा लेने वास्ते जाता था, तिस को पंथ में तिन दोनों देवताओंने देखा तब रस्ते में दुःख देनेवाले बहुत कंटे, कंकरे बना दिये, तथा रस्ते के सिवाय दूसरे स्थान में बहुत कीड़े आदि जीव हर जगे बना दिये। तब राजा भावयति के भावों से कमल समान कोमल, नंगे पगों से उन कांटे, कंकरों के ऊपर चला जाता है, पगों में से रुधिर की ततीरियां छूटती हैं, तो भी जीवों संयुक्त भूमि ऊपर नहीं चलता है। तब देवताओं ने गीत नाटक का बड़ा प्रारंभ करा, तो भी वो क्षोभाय मान न हुआ। तब दोनों देवता सिद्धपुत्रों का रूप कर के राजा को कहने लगे, हे महाभाग ! तेरी आयु अभी बहुत है, तू स्वच्छन्द भोगविलास कर, क्योंकि यौवन में तप करना ठीक नहीं, इस वास्ते जब तू वृद्ध हो जावेगा तब दीक्षा ले लीजो / यह बात सुन कर राजा कहने लगा कि, यदि मेरी बहुत आयु है, तब मैं बहुत धर्म करुंगा, क्योंकि जितना ऊंडा पानी होता है, तितनी ही कमल की नालि भी बढ़ जाती है। और यौवन में इंद्रियों को जीतना है, सोई असली तप होता हैं। तब तिन देवताओं ने जाना कि यह तो कदापि चलायमान न होगा। पीछे वो दोनों देवता मिल कर सर्व से उत्कृष्ट जमदग्नि तापस के पास परीक्षा करने को गये। तब तिनोंने जिसकी
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________________ एकादश परिच्छेद 423 वडवृक्ष की जटा की तरे तो धरती से जटा लग रही है, और पगों में सर्पो की बंबियां वन गई हैं, ऐसे हाल में जमदग्नि को देखा। तब उन दोनों देवताओं ने देवमाया से जमदग्नि की दाढी में घोंसला बना कर, चिडा और चिडी बनकर घोंसले में दोनों बैठ गये। पीछे चिड़ा चिड़ी से कहने लगा कि, मैं हिमवंत पर्वत में जाऊंगा। तब चिड़ी कहने लगी कि, मैं तुझे कभी न जाने दूंगा। क्योंकि तू तहां जाके किसी ओर चिड़ी से आसक्त हो जावेगा। फिर मेरा क्या हाल होवेगा ! तव चिड़ा कहने लगा कि, जो मै फिर कर न आऊं, तो मुझे गोधात का पाप लगे। तव चिडी कहने लगी कि मै तेरी शपथ को नहीं मानती। हां, जो मै सपथसौगंद कहूं वो तू करे, तो मै जाने दूंगी। तब चिडेने कहा कि तू कह दे। तब चिड़ी कहने लगी कि, जो तू किसी चिड़ी से यारी करे तो इस जमदग्नि का जो पाप है, सो तुझ को लगे। चिड़ा चिड़ी का ऐसा वचन सुन के जमदग्नि को क्रोध उत्पन्न हुआ। तब दोनों हाथों से चिड़ा चिड़ी को पकड़ लिया, और कहा कि मैं तो बड़ा दुष्कर तप जो पापों का नाश करनेवाला है, सो कर रहा हूं तो फिर मेरे में ऐसा कौन सा पाप शेष रह गया है कि, जिस से तुम मुझे पापी वतलाते हो ! तब चिड़ा जमदग्नि को कहता है, हे ऋषि ! तू हमारे ऊपर कोप मत कर, क्योंकि हमने झूठ नहीं कहा है। और जो तेरे को अपने तप का घमण्ड है, सो तप
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________________ 424 जैनतत्त्वादर्श तेरा निष्फल है। क्योंकि तुमारे शास्त्रों में लिखा है",अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' अर्थात् पुत्र रहित की गति नहीं। यह तुमने शास्त्र में नहीं सुना ! जिस की शुभगति न हुई तिससे अधिक और पापी कौन है ! तब जमदग्नि ने सोचा कि हमारे शास्त्र में तो जैसे चिडेने कहा है, तैसे ही है। तब मन में विचारा कि, जब मेरे स्त्री और पुत्र, नहीं, तब मेरा सर्व तप ऐसा है, जैसा पानी के प्रवाह में मूतना। पीछे जमदग्नि के मन में स्त्री की चाहना उत्पन्न हुई / यह देख के ध्वनंतरी देवता श्रावक जैनधर्मी हो गया / अरु वहां से दोनों देवता अदृश्य हो गये और जमदग्नि वहां से उठ के नेमिक कोष्टक नगर में पहुंचा। तिस नगर में जितशत्रु राजा था, तिसके बहुत बेटियां थीं। तिस राजा पासों एक कन्या मागू, ऐसा विचार किया / राजा भी आसन से उठ के और हाथ जोड़ के कहता भया कि, आप किस वास्ते आये हो ! और मुझे आदेश दो कि क्या करूं ! तब जमदग्निने कहा कि, मैं तेरे पास तेरी एक कन्या मांगने आया हूं। तब राजाने कहा कि मेरी सौ पुत्री हैं, तिन में से जौनसी तुम को वांछे सो तुम ले लो। तब जमदग्नि कन्याओं के महल में गया, और कहने लगा कि तुम में से जिसने मेरी धर्मपत्नी बनना है, सो कह देवे कि मैं तुमारी स्त्री बनूंगी। तब तिन राजपुत्रियोंने जटावाला और पलित-धौले केशोंवाला, दुर्बल और भीख
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________________ एकादश परिच्छेद કર मांग के खानेवाला जब देखा और उसका पूर्वोक्त वचन सुना, तब सबने थूका और कहा कि ऐसी बात कहते हुये तुझ को लज्जा नहीं आती है। यह बात सुन कर जमदग्नि को वड़ा क्रोध चढ़ा, तब विद्या के प्रभाव से उन राजपुत्रियों को कुबड़ी और महा कुरूपवती बना दिया / अरु आप तहां से निकल के महलों के अंगन में आया। तहां राजा की एक छोटी वेटी रेणुपुल-मट्टी के ढेर में खेल रही थी / तिसको हाथ में विजोर का फल ले कर कहने लगा, हे रेणुका ! तू मुझ को वाछती है। तब तिस बालिकाने विजोरे को देख के हाथ पसारा / तब मुनिने कहा कि मुझ को यह वांछती है, ऐसे कहकर मुनिने उसको ले लिया। पीछे राजाने कितनीक गौओं और धन देकर लड़की का विवाह उसके साथ विधि से कर दिया। तब जमदग्निने सालियों के स्नेह से सर्व कन्याओं को अच्छा कर दिया और तिस रेणुका भार्या को लेकर अपने आश्रम में आया। __पीछे तिस मुग्धा, मधुर आकृति, हरिणी समान लोलाक्षी को प्रेम से वृद्धि करता भया। जमदग्नि के अंगुलियों ऊपर दिन गिनते हुए जब वो रेणुका सुन्दर यौवन-काम के लीला वन को प्राप्त हुई, तब जमदग्नि ने अग्नि की साक्षी करके रेणुका से फिर विवाह करा। जब रेणुका ऋतुकाल को प्राप्त हुई, तब जमदग्नि कहने लगा कि मै तेरे वास्ते चरु साधता हूं। [चरु होम में डालने की वस्तुओं को कहते हैं ] जिस से
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________________ 426 जैनतत्त्वादर्श सर्व ब्राह्मणों में उत्तम प्रतापवाला तेरे को पुत्र होवेगा / तब रेणुकाने कहा कि हस्तिनापुर में कुरुवंशी अनंतवीर्य राजा को मेरी बहिन ब्याही है। तिसके वास्ते तू क्षत्रिय चरु भी साध, अर्थात् मन्त्रों से संस्कार करके सिद्ध कर / पीछे जमदग्नि ने ब्राह्मण चरु तो अपनी भार्या वास्ते अरु क्षत्रिय चर तिस भार्या की बहिन वास्ते सिद्ध करा / तब रेणुकाने मन में विचार करा कि, मैं जैसे अटवी में हरिणी की तरे रहती हूं, तो मेरा पुत्र भी वैसे ही जंगलों में रहेगा; इस वास्ते मैं क्षत्रिय चरु भक्षण करूं, जिससे मेरा पुत्र राजा हो के इस जंगल के वास से छूट जावे / ऐसा बिचार के क्षत्रिय चरु खा लिया, और ब्राह्मण चर अपनी बहिन को भक्षण कराया / तब तिन दोनों के दो पुत्र हुये / तिस में रेणुका के तो राम नामक पुत्र हुआ, और रेणुका की बहिन के कृतवीर्य पुत्र हुआ। क्रम से दोनों बड़े हुए, राम तो आश्रम में पला, और कृतवीर्य राजमहलों में पला / राम तो क्षात्रतेज अर्थात् क्षत्रियपने की तेजी दिखाने लगा। अन्यदा एक विद्याधर अतिसार रोगवाला तिस आश्रम में आ गया। अतिसार के प्रभाव से आकाशगामिनी विद्या मूल गया। तब तिस मांदे विद्याधर की रामने औषध पथ्यादि करके भाई की तरें सेवा करी / पीछे तिस विद्याधरने तुष्टमान हो के राम को परशुविद्या दीनी / तव
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________________ एकादश परिच्छेद 427 राम भी सरकड़े के वन में जाकर तिस विद्या को सिद्ध करता भया / तिस विद्या के प्रमाव से राम परशुराम नाम करके जगत् में प्रसिद्ध हुआ। ___एकदा अपने जमदग्नि पति को पूछ के रेणुका बड़ी उत्कंठा से अपनी वहिन को मिलने वास्ते हस्तिनापुर में गई। तहां रेणुका को अपनी साली जान कर अनंतवीर्य राजा हंसी मश्करी करने लगा, और रेणुका का बहुत सुन्दर रूप देख कर कामातुर हो उसके साथ निरंकुश हो कर विषय सेवन करने लगा। तब अनंतवीर्य के भोग से रेणुका को एक पुत्र जन्मा। पीछे जमदग्नि पुत्र सहित रेणुका को आश्रम में लाया। क्योंकि पुरुष जब सियों में लुव्व हो जाता है, तब बहुलता से कोई भी दोष नहीं देखता है। जव परशुरामने अपनी माता को पुत्र सहित देखा, तब क्रोध में आकर परशु से अपनी माता का और तिस लड़के का गिर काट डाला। जब यह वृत्तांत अनन्तवीर्य राजाने सुना, तब क्रोध में भर कर और फौज लेकर जमदग्नि का आश्रम जला फूंक, तोड़ फोड़ गेरा, और सर्व तापसों को त्रासमान फरा। तब तापसोंने दौड़ते हुये जो रौला करा, तिस को परशुरामने सुना और सारा वृत्तांत सुन के परशु ले के राजा की सेना ऊपर दौड़ा। परशुरामने परशु से राजा और राजा की सेना सुमटों को काष्ठ की तरे फाड़ के गेर दिया। आप पीछे आश्रम
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________________ 28 जैनतस्वादर्श में चला गया। उधर प्रधान राजपुरुषोंने अनंतवीर्य के बेटे छतवीर्य को राजसिंहासन, ऊपर बिठाया, / परन्तु वो उमर में छोटा था। एक दिन अपनी माता के मुख से अपने पिता के मरने का वृत्तांत सुन के सर्प के डसे हुये की तरे ना कर जमदग्नि को मार दिया। तब परशुराम अपने, पिता का, वध देख के क्रोध में जाज्वल्यमान हो कर हस्तिनापुर में आके कृतवीर्य को मार के आप राजसिंहासन ऊपर बैठ गया। क्योंकि राज्य जो है, सो पराक्रम के अधीन है,। तब कृतवीर्य की तारा नामा गर्भवती रानी परशुराम के भय से दौड़ कर किसी जंगल में तापसों के आश्रम में गई। तब तिन तापसों ने दया करके तिस रानी को अपने मठ के भौहरे में निधान की तरे छिपा के रक्खा / तहां तिस रानी के चौदह स्वप्न सूचित पुत्र जन्मा। तिसका नाम तिसकी माता ने सुभूम रक्खा / क्षत्रिय जो जहां मिलता है, वहां ही परशुराम का कुहाड़ा जाज्वल्यमान हो जाता है। तब परशुराम परशु से क्षत्रियों का शिर काट देता है। ___ अन्यदा परशुराम जहां छिपी हुई रानी पुत्र सहित रहती थी, तिस आश्रम में आया / तहां परशुराम का परशु जाज्वल्यमान हुआ, तब परशुराम ने तापसों को पूछा, क्या यहां कोई क्षत्रिय है ! तब तापसोंने कहा कि हम गृहस्थावास में क्षत्रिय थे। तब परशुरामने भी ऋषियों को छोड़ के सात वार निःक्षत्रिय पृथ्वी करी। अर्थात् सात वार चढ़ाई
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________________ एकादश परिच्छेद 429 करके अपनी जान में कोई भी क्षत्रिय वाकी नहीं छोड़ा। जैसे अग्नि पर्वत ऊपर घास को नहीं छोड़ती हैं, तैसे परशुरामने भी जो जो क्षत्रिय राजादि प्रसिद्ध थे, तिनों को मार के तिनों की दादों से एक थाल भरा / और परशुराम ने छाना निमित्तिये को पूछा कि मेरा मरना किस के हाथ से होगा ! तब निमिचियेने कहा कि, जो तूने दाढों से थाल भरा हैं, सो थाल जिसके देखने से दानों की क्षीर बन जायेगी, और इस सिंहासन पर बैठ के जो तिस क्षीर को खायगा, तिसके हाथ से तेरा मरण होवेगा। यह सुन कर परशुरामने दानशाला बनाई, और दानशाग के आगे एक सिंहासन रचाया, तिस ऊपर क्षत्रियों की दादोंवाला थाल रखवाया / ___अब इधर तापसों के आश्रम में प्रतिदिन तापस सुभूम चालक को लाड़ लड़ाते, खिलाते, अंगन के वृक्ष की तरे वृद्धि करते हुये रहते हैं / इस अवसर में मेध नामा विद्याधर किसी निमिचिये को पूछने लगा कि मेरी जो पद्मश्री कन्या हे, तिसका वर कौन होवेगा ! तव तिस निमित्तियेने सुभूम वर वतलाया, और उसका सर्व वृत्तांत भी सुना दिया। तब मेघ विद्याधरने अपनी बेटी सुभूम को व्याही और तिसका ही सेवक बन गया। एकदा कूप के मेंडक की तरे और कहीं न जाने से सुभम अपनी माता को पूछने लगा कि, हे माता ! इतना ही लोक
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________________ जैनवत्वादर्श . है कि, जिस में हम रहते हैं, क्या इस से अधिक भी है। तव माता कहने लगी, हे पुत्र | लोक तो अनंत है। तिस में मक्खी के पग जितनी जगा में यह आश्रम है / इस लोक में बहुत प्रसिद्ध हस्तिनापुर नगर है। तिस नगरी का राजा तेरा पिता कृतवीर्य था, परन्तु परशुराम तेरे पिता को मार के हस्तिनापुर का राजा बन गया है। और तिस परशुरामने निःक्षत्रिय पृथ्वी कर दी है। तिस परशुराम के भय से हम यहां आश्रम में छिपे हुये बैठे हैं। अपनी माता का यह कहना सुन के सुभूम भौम की तरे अर्थात् मंगल के तारे की तरे लाल हुआ, और तहां से निकल के सीधा हस्तिनापुर में आया। तब लोगोंने पूछा कि तू ऐसा अत्यद्भुत अंदर किस का बेटा है ! तब कहा कि मैं क्षत्रिय का पुत्र हूं। तब लोगोंने कहा कि तू यहां जलती आग में क्यों आया। तब तिसने कहा कि मैं परशुराम को मारने वास्ते आया हूं। तब लोगोंने बालक जान के उसकी बात ऊपर कुछ ख्याल न करा / तब सुभूम सिंह की तरे उस पूर्वोक्त सिंहासन ऊपर जा के बैठा, और वहां देवता के विनियोग से दाढों की क्षीर बन गई / तिसको सुम्म खाने लग गया। तब तहां जो रखवाले ब्राह्मण थे, वे सर्व सुभूम को मारने को उठे। तब मेघनाद विद्याधर ने सब ब्राह्मणों को मार दिया / तब कांपता हुआ और होठों को चबाता हुआ, क्रोध में भरा हुआ, ऐसा परशुराम कोहाड़ा( परशु) लेके सुभूम
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________________ एकादश परिच्छेद 431 को मारने आया। परशुरामने सुमूम के मारने को परशु चलाया वो परशु सुभूम तक पहुंचने से पहिले ही आग के अंगारे की तरे वुझ गया। विद्या देवी जो थी, सो सुम्म के पुण्य प्रभाव से परशु को छोड़ के भाग गई / तब सुम्मने शस के अभाव से थाल ही उठा के परशुराम को मारा, तिस थाल का चक्र बन गया, तिस चकने परशुराम का मस्तक काट गेरा / तिस चक्र से ही सुभूम आठवां चक्रवर्ती हुआ। इस कथा पर लोगोंने जो वह कथा वना रक्खी हैं, सो ठीक नहीं है। सो कथा कहते है / जैसे कि परशुराम परशु से क्षत्रियों को काटता हुआ रामचन्द्रजी के पास पहुंचा, और परशु से रामचन्द्रजी को मारने लगा। तब रामचन्द्रजीने नरमाई से पगचंपी करके उसका तेज हर लिया। तव परशुराम का परशु हाथ से गिर पड़ा और फिर न उठा सका / यह श्रीरामचन्द्र नहीं था, परन्तु यह तो सुभूम नामा आठवां चक्रवर्ती था, जिसने परशुराम का काम तमाम किया / इस कथा के वनानेवालोंने परशुराम की हीनता दूर करने को श्रीरामचन्द्रजी का सम्बन्ध लिख दिया है / है असल में सुभूम चक्रवर्ती। लिखनेवालोंने यह भी सोचा होगा कि एक अवतारने दूसरे अवतार का अंश खींच लिया, इस में परशुराम की लघुता न होवेगी। परन्तु यह नहीं सोचा होगा कि दोनों अवतार अज्ञानी बन
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________________ 432 जैनतत्वादर्श जायेंगे / जब परशुराम आप ही अंश को कोहाडे से काटने लगा, तब तिस से और अधिक अज्ञानी कौन बनेगा ! जब सुभूम चक्रवर्ती आठमा हुआ, तब जैसे परशुरामने सात वार निःक्षत्रिया पृथ्वी करी थी, तैसे सुमूमने पिछले वैर से इक्कीस वार निर्ब्राह्मण पृथ्वी करी / अपनी जान में कोई भी ब्राह्मण जीता नहीं छोड़ा / इसी वास्ते इन राजाओं को ब्राह्मणोंने दैत्य, राक्षस के नाम से पुस्तकों में लिख दिया है। यह दोनों मर के अधोगति में गये। इस सुभूमचक्रवर्ती से पहिले इसी अंतरे में छठा पुरुष. पुंडरीक वासुदेव तथा आनन्द नामा बलदेव और बलि नामा प्रतिवासुदेव हुये। तथा सुभूम के पीछे इस अंतरे में दत्त नामा सातमा वासुदेव तथा नंद नामा बलदेव और प्रसाद नामा प्रतिवासुदेव हुये। तिस पीछे मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी कुम्भ राजा हुआ, तिसकी प्रभावती रानी, तिनकी पुत्री मल्लिनाथ नामा उन्नीसवां तीर्थकर हुआ। तिस पीछे राजगृह नगरी में हरिवंशी सुमित्र हुआ, तिसकी पद्मावती रानी, तिनका पुत्र मुनिसुव्रत नामा वीसवां तीर्थंकर हुआ। इनों के समय में महापद्म नामा नवमा चक्रवर्ती हुआ। तिसका सम्बंध त्रेसठशलाकापुरुषचरित्र से जान लेना; परन्तु तिसके भाई विष्णुकुमार का थोड़ा सा सम्बंध यहां लिखते हैं।
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________________ एकादश परिच्छेद 433 * हस्तिनापुर नगर में पद्मोत्तर नामा राजा, तिसकी ज्वाला देवी रानी, तिनका बड़ा पुत्र विष्णुकुमार, विष्णुनुनि तथा और छोटा पुत्र महापद्म हुआ। तिस अवसर नमुचिल में अवंती नगरी में श्रीधर्म नामा राजा का मंत्री नमुचि [अपरनाम बल] मिथ्यादृष्टि ब्रामण था / इसने श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकर के शिष्य श्री सुत्रताचार्य के साथ अपने मत का विवाद करा, बाद में हार गया। तब रात्रि को तलवार ले के आचार्य को मारने चला, रास्ते में पग थम गये / राजाने यह बात सुन के अपने राज्य से बाहिर निकाल दिया। तब नमुचिवल तहां से चल के हस्तिनापुर में युवराज महापद्म की सेवा करने लगा। किसी काम से तुष्टमान हो के महापद्म ने तिसको यथेच्छा वर दिया। पीछे पद्मोत्तर राजा और विष्णुकुमार दोनोंने सुत्रत गुरु के पाम दीक्षा ले लीनी / पद्मोचर मोक्ष गया और विष्णुकुमार तप के प्रभाव से महालब्धिमान हुआ। इस अवसर में मुवताचार्य फिर हस्तिनापुर में आये। तब नमुचिबलने विचारा कि यह वैर लेने का अवसर है। तब महापद्म चक्रवर्ती से विनति करी कि मैंने जैसे वेदों में कहा है तसे एक महायज्ञ करना है, इस वास्ते में पूर्वोक्त वर मांगना चाहता हूं / तब महापझने कहा कि मांग / तव नमुचिः ने कहा कि मुझे कितनेक दिन तक अपना सर्वराज दे दो। यह सुनकर महापद्मने उसके कहे दिन तक सर्वराज
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________________ 434 जैनतत्त्वादर्श उसे दे कर आप अपने अंतेउरों में चला गया / तब नमुचिबलने नगर से निकल के यज्ञ वास्ते यज्ञपाड़ा बनाया। उसमें दीक्षा ले के आसन ऊपर बैठा। तब जैन मत के साधु छोड़ के दूसरे सर्व पाखण्डी भिक्षु और गृहस्थ मेटना ले के आये / मेट दे के सर्वने नमस्कार करा | तब नमुचिवलने पूछा कि जो नहीं आया होवे, ऐसा तो कोई रहा नहीं ! तब लोगों. ने कहा कि जैनमती सुव्रताचार्य वर्ज के सर्व दर्शनी आ गये हैं / तब नमुचिबलने यह छिद्र प्रगट करके और क्रोध में भर के सिपाही बुलाने को मेजे। और कहला मेजा कि, राजा चाहे कैसा ही हो, तो भी सर्व को मानने योग्य है, उसमें भी साधुओं को तो विशेष करके मानना चाहिये / क्योंकि राजा से उपरांत ऐसे अनाथ लिंगियों की रक्षा करनेवाला कौन है ! तथा मेरा तुम कुछ करने को समर्थ नही, और बड़े अभिमानी हो तथा हमारे धर्म के निंदक हो, इस वास्ते मेरे राज से बाहिर हो जाओ। जो रहेगा, उसको मैं मार डालंगा, इसमें मुझे पाप भी नहीं होगा। तब गुरुने आकर मीठे वचन से कहा कि, हमारा यह कल्प नहीं कि गृहस्थ के कार्य में जाना / परन्तु हम अभिमान से ही नहीं आये, ऐसा मत समझना, क्योंकि साधुसमभाव से अपने धर्मकृत्य में लगे रहते हैं। तब नमुचिबल अति शांतवृत्तिवाले मुनियों को कठोर हो कर कहने
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________________ एकादश परिच्छेद लगा कि, सात दिन के अंदर मेरे राज से वाहिर हो जाओ। जो रहेगा, सो मारा जायगा। यह सुन के सब साधु अपने तपोवन में आये, और सोचने लगे कि अव क्या उपाय करें? तब एक साधु कहने लगा कि महापड़ा चक्रवर्ती का बड़ा भाई विष्णुमुनि लब्धिपात्र है, अर्थात् बड़ी शक्तिवाला मेरु पर्वत ऊपर है, तिस के कहने से यह नमुचित्रल प्रगांत हो जावेगा। इस वास्ते कोई चारण साधु उसको यहां बुला लावे तो ठीक है। तब एक साधु बोला कि मेरी वहां मेरु पर्वत पर जाने की तो शक्ति है, परन्तु पीछे आने की गति नहीं है। तब गुरु कहने लगे कि, तुम को पीछे विष्णुमुनि ही यहां ले आयेंगे, तुम जाओ / तब वो साधु लब्धि से एक क्षण में तहां गया, और सर्व वृत्तांत सुनाया। तब विष्णुमुनिने उस साधु को भी साथ ले कर तत्काल गुरु के पास आ के वंदना करी। पीछे गुरु की आज्ञा से अकेला ही राजसभा में आया। तब नमुचिबल के बिना समा के और सब लोकोंने उठके वंदना करी। तब विष्णुमुनिने धर्मोपदेश देकर कहा कि निःसंगी साधुओं से वैर करना महा नरक का कारण है, क्योंकि साधु किसी का कुछ विगाड़ते नहीं। और जगत् तो बड़े पुरुषों को नमस्कार करता है। किसी शास में मुनि निदे नहीं हैं। तो फिर यह आश्चर्य है कि, तुच्छ, क्षणिक
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________________ 436 जैनतत्त्वादर्श राज के पाने से अन्धे, अधम पुरुष अपने को साधुओं से नमस्कार कराना चाहते हैं। और नमुचिबल को कहा कि तू इस बूरे कामको जाने दे, जिस से साधु सबै सुख से रहें / और तू क्यों मत्सर में मगन हो के अपना आप बिगाड़ा चाहता है / साधु चौमासे में विहार करते नहीं क्योंकि चौमासे में जीवों की बहुत उत्पत्ति हो जाती है। और सर्व जगे तेरा ही राज्य है, तो सर्व साधु सात दिन में कहां चले जाएं ! तब नमुचिवल कुकाष्ठ की तरे होकर बोला कि, बहुत कहने से क्या है ! पांच दिन से उपरांत जो कोई तुमारा साधु मेरे राज्य में रहेगा, तो मैं उसको चौर की तरे बद्ध करूंगा। और तू हमारे मानने योग्य है, इस वास्ते तू जाकर साधुओं को कह दे कि, जो जीवना चाहते हो, तो नमुचि के राज्य से बाहिर चले जाओ क्योंकि राज्य ब्राह्मण का है / और तेरे मान के रखने वास्ते तीन कदम अर्थात् तीन डग जगा देता हूं। तिस से बाहिर जिस साधु को देखूगा, तिस का शिर छेद करूंगा / तब विष्णुमुनिने विचारा कि यह साम अर्थात् मीठे वचनों के योग्य नहीं, यह तो बड़ा पापी साधुओं का घातक है, इस की जड़ ही उखाड़नी चाहीये / तब विष्णुमुनिने कोप में आ कर वैक्रिय लब्धि से लाख योजन की देह बनाई, एक डग से तो मरतक्षेत्रादि मापा और दूसरी डग पूर्वापर समुद्र ऊपर धरी और तीसरी डग नमुचिबल
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________________ एकादश परिच्छेद 437 के शिर ऊपर रख के सिंहासन से हेठ गेर के धरती में घुसेड़ दिया / नमुचि मर के नरक में पहुंच. गया। और विष्णुमुनि को देवताओंने कानों में मधुर गीत सुना कर शांत करा / तब शरीर को संकोच के गुरां पास जा कर आलोचना करी, पाप का प्रायश्चित्त ले कर विहार कर गया / जप तप कर संयम पाल के मोक्ष गया / इस कथा से ऐसा मालूम होता है कि ब्राह्मणोंने पुराणों में जो लिग्वा है कि, विष्णु भगवान् ने वामन रूप करके यज्ञ करते बलिगजा को छला, सो यही विष्णुमुनि अरु नमुचि की कथा को बिगाड़ के अपने मत के अनुसार और की और कथा बना लीनी है। क्योंकि श्रीभगवान् को क्या गरज थी कि, जो धर्मी बलिराजा यज्ञ करनेवाले के साथ छल करना ! यह कहना तो केवल बुद्धिहीनों का काम कि, भगवान् ने अपनी बेटी तथा परली से विषय सेवन कग, तथा झूठ बोला, औरो से बुलाया, चोरी करी, औरों से करायी, भगवान्ने कुशील सेवन करा, छल से मारा, कपट करा। क्योंकि ये काम तो नीच जनों के करने के हैं, श्री वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर यह काम कभी भी नहीं करता। और करनेवाले को परमेश्वर भूल के भी कभी न मानना चाहिये। वीसमे और इक्कीसमे तीर्थकर के अन्तर में श्रीअयोध्या नगरी के दशरथ राजा की कौशल्या रानी का पद्मश्रीराम
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________________ 438 जैनतत्त्वादर्श , चन्द्र नामा पुत्र हुआ। सो आठमा बलदेव और दशरथ राजा की सुमित्रा . रानी का पुत्र नारायण अपरनाम लक्ष्मण, सो आठमा वासुदेव हुआ। जिनों का प्रतिशत्रु रावण प्रतिवासुदेव लंका का राजा हुआ, सो जगत् में प्रसिद्ध है। इन तीनों का यथार्थ स्वरूप पद्मचरित्र से जान लेना। परन्तु लौकिक रामायण में जो रावण के दश शिर लिखे हैं, सो ठीक नहीं है। क्योंकि मनुष्य के रावण और उसके स्वाभाविक दश सिर कदापि नहीं हो सकते दश मुख हैं। पद्मचरित्र प्रथमानुयोग शास्त्र में लिखा है कि, रावण के बडे बडेरों की परंपरा से एक बड़ा नव माणिक का हार चला आता था, सो रावणने बालावस्था से अपने गले में पहिर लिया था। और वे नौ ही माणिक बहुत बडे थे, सो चार माणिक एक पासे स्कंध के ऊपर हार में जडे हुये थे / और पांच माणिक दूसरे पासे जड़े हुए थे। दोनों स्कंधो ऊपर नव माणिकों में नवमुख दीखते थे, और एक रावण का असली मुख था। इस वास्ते दश मुखवाला रावण कहा जाता है। तथा रावण के समय से ही हिमालय के पहाड़ में बद्रीनाथ का तीर्थ उत्पन्न हुआ है, तिसकी उत्पत्ति जैनमत के शास्त्रों में ऐसे लिखी है कि, यह असल में पार्श्वनाथ की मूर्ति थी, तिसका ही नाम बद्रीनाथ रक्खा गया है। इसका पूरा स्वरूप गधबंध पार्थपुराण से जान लेना / /
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________________ एकादश परिच्छेद . तिस पीछे मिथिलानगरी में इक्ष्वाकुवंशी विजयसेन राजा की विप्रा रानी का पुत्र श्रीनमिनाथ नामा इक्कीसमा तीर्थकर हुआ। तिनों के वारे हरिषेण नामा दसमा चक्रवर्ती हुमा है। तथा इस इक्कीसमे और बावीसमे तीर्थकर के अंतर में ग्यारहवां जय नामा चक्रवर्ती हुआ। तिस पीछे सौरीपुर नगर में हरिवंशी समुद्रविजय राजा हुआ, तिसकी शिवादेवी रानी, तिनका श्रीकृष्ण और पुत्र श्रीअरिष्टनेमि नामा बावीसमा तीर्थंकर वलभद्र हुआ। तिनोंके वारे तिनोंके चचे के बेटे नवमे कृष्णवासुदेव और राम बलदेव-बलभद्र बलदेव हुए / इनका प्रतिशत्रु जरासिंघ प्रतिवासुदेव हुआ। तिन में कृष्ण अरु बलभद्र तो जगत् में बहुत प्रसिद्ध हैं। परन्तु जो लोक श्रीकृष्ण वासुदेव को साक्षात् ईश्वर तथा ईश्वर का अवतार, जगत् का कर्ता मानते हैं, सो ठीक नहीं। क्योंकि यह बात कृष्ण वासुदेव के जीते हुये नहीं हुई। किन्तु उनके मरे पीछे लोक कृष्ण वासुदेव को अवतार मानने लगे हैं / तिसका हेतु प्रेसठशलाकापुरुषचरित्र में ऐसे लिखा है जब कृष्ण वासुदेव ने कुसम्बी बन में शरीर छोड़ा, तब काल करके वालपमा पृथ्वी-पाताल में गये / और बलभद्रनी एक सौ वर्ष जैनदीक्षा पाल के पांचमे ब्रह्मदेवलोक में गये। वहां अवधिज्ञान से अपने भाई श्रीकृष्ण को पाताल में
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________________ 440 जैनतत्त्वादर्श तीसरी पृथ्वी में देखा। तब भाई के स्नेह से वैक्रिय शरीर बना कर श्रीकृष्ण के पास पहुंचा और श्री कृष्ण से आलिंगन करके कहा कि, मैं बलभद्र नामा तेरे पिछले जन्म का भाई हूं, मैं काल करके पांचमे ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न हुआ हूं, और तेरे स्नेह से यहां तेरे पास मिलने को आया हूं, सो मैं तेरे सुख वास्ते क्या काम करूं ! इतना कह कर जब बलभद्जीने अपने हाथों पर कृष्णजी को लिया, तब कृष्ण का शरीर पारे की तरे हाथ से क्षर के भूमि ऊपर गिर पड़ा, और मिल कर फिर सम्पूर्ण शरीर पूर्ववत् हो गया। इसी तरें प्रथम आलिंगन करने से फिर वृत्तांत कहने से और हाथों पर उठाने से कृष्णजीने भी जान लिया कि यह मेरे पूर्व भव का अति वल्लभ बलभद्र भाई है। तब कृष्णजीने संभ्रम से उठ के नमस्कार करा तब बलभद्रजीने कहा, हे माता ! जो श्री नेमिनाथने कहा था कि यह विषय सुख महादुःखदाई है, सो प्रत्यक्ष तुम को प्राप्त हुआ और तुझ कर्मनियंत्रित को मैं स्वर्ग में भी नहीं लेजा सकता हूं, परन्तु तेरे स्नेह से तेरे पास मैं रहा चाहता हूं। तब कृष्णने कहा कि, हे भ्राता ! तेरे रहने से भी तो मैंने करे हुये कर्म का फल अवश्यमेव भोगना ही है परन्तु मुझ को इस दुःख से वो दुःख बहुत अधिक है, जो मैं द्वारिका और सकल परिवार के दग्ध हो जाने से एकला कुसंबी बन में जराकुमार के तीर से मरा, और मेरे शत्रुओं को सुख तथा मेरे मित्रों को दुःख हुआ। जगत्
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________________ एकादश परिच्छेद में सर्व यदुवंशी बदनाम हुये / इस वास्ते हे माता ! तु भरतखण्ड में जा कर चक्र, शाङ्ग, शंख, गदा का घरनेवाला और पीत-पीले वस्त्रवाला, तथा गरुड़ ध्वजावाला ऐसा मेरा रूप बना कर विमान में बैठ कर लोगों को दिखला / तथा नीलवस्त्र और तालध्वज अरु हल, मूसल, शस्त्र का धरनेवाला, ऐसा तू विमान में बैठ के अपना रूप सर्व जगे दिखला कर लोगो को कहो कि, राम कृष्ण दोनों हम अविनागी पुरुष हैं, और स्वेच्छाविहारी है। जब लोगों को यह सत्य प्रतीत हो जावेगा, तब हमारा सर्व अपयश दूर हो जावेगा / यह श्रीकृष्णजी का कहना सर्व श्रीवलभद्रजीने स्वीकार कर लिया, और भरतखण्ड में जाकर कृष्ण बलभद्र दोनों का रूप करके सर्व जगे विमानारूढ दिखलाया / और ऐसे कहने लगा भो लोको ! तुम कृष्ण वलभद्र अर्थात् हमारे दोनों की सुंदर प्रतिमा बना कर ईश्वर की बुद्धि से बड़े आदर से पूजो / क्योंकि हम ही जगत् के रचनेवाले और स्थिति संहार के कर्ता हैं / और हम अपनी इच्छा से स्वर्ग अर्थात् वैकुंठ से यहां चले आते हैं, और पीछे स्वर्ग में अपनी इच्छा से जाते हैं / और द्वारका हमने ही रची थी तथा हमने ही उसका संहार करा है। क्योंकि जब हम वैकुण्ठ में जाने की इच्छा करते हैं, तब सर्व अपना वंश द्वारिका सहित दग्ध करके चले जाते हैं। हमारे उपरांत और कोई अन्य
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________________ કાકર जैनतत्वादर्श कर्ता हर्ता नहीं है / तथा स्वर्गादि के भी देनेवाले हम ही / हैं ऐसा बलभद्रजी का कहना सुनने से सर्व ग्राम नगर के लोगों ने कृष्ण बलभद्रजी की प्रतिमा सर्व जगे बना कर पूजी / तब प्रतिमा पूजनेवालों को बहुत सुख धनादि से बलभद्रने आनंदित करा ! इस वास्ते बहुत लोग हरिमक्त हो गये / जब से भक्त हुये तब से पुस्तकों में कृष्णजी को पूर्णब्रह्म परमात्मा ईश्वरादि नामों से लिखा / क्या जाने जब से बलभद्रजीने कृष्ण की पूजा कराई, तब से ही लोगोंने कृष्ण को ही ईश्वरावतार माना हो! और उस समय को पांच हजार वर्ष हुये हों। जिस से लोक में कृष्ण हुये को पांच हजार वर्ष कहते हैं। बाईसमे अरु तेईसमे तीर्थकर के अन्तर में बारमा ब्रह्मदत्त नामा चक्रवर्ती हुआ। तिस पीछे वाराणसी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी अश्वसेन राजा हुआ, तिसकी वामादेवी रानी, तिनका पुत्र श्री पार्श्वनाथ नामा तेईसमा तीर्थकर हुआ। तिस पीछे क्षत्रियकुंड नामा नगर में इक्ष्वाकुवंशी दूसरा नाम सूर्यवंशी सिद्धार्थ नामा राजा हुआ, तिसकी त्रिसला नामा रानी, तिनका पुत्र श्रीवर्द्धमान महावीर नामा चौवीसमा चरम तीर्थकर हुआ। आज कल जो जैनमत भरतखण्ड में प्रचलित है, सो इन ही श्रीमहावीर का शासन अर्थात् उनही के उपदेश से चलता है / और जो जैनमत के शास्त्र हैं, वे सर्व श्रीमहावीर भगवन्त के
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________________ एकादश परिच्छेद 43 उपदेशानुसार ही रचे गये हैं / श्रीमहावीर भगवन्त का संपूर्ण वृत्तांत देखना होवे, तदा आवश्यक सूत्रवृत्ति, कल्पसूत्र वृत्ति तथा श्रीमहावीर चरितादि ग्रन्थों से जान लेना। इति श्री तपागच्छीय मुनि श्रीवुद्धिविजय शिष्य मुनि आनंदविजय-आत्मारामविरचिते जैनतत्त्वादर्श एकादशः परिच्छेदः संपूर्णः
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________________ जैनतस्वादर्श द्वादश परिच्छेद इस परिच्छेद में श्री महावीर भगवान् से, लेकर आज पर्यंत कितनाक वृत्तांत लिखते हैं। श्री महाश्री महावीर के वीर भगवन्त के ग्यारह शिष्य मुख्य और गणधरादि सर्व साधुओं से बड़े हुये, तिन के नाम ___ कहते हैं-१. इंद्रभूति अर्थात् गौतमस्वामी, 2. अग्निभूति, 3. वायुभूति, 4. व्यक्तस्वामी, 5. सुधर्मास्वामी, 6. मंडिकपुत्र, 7. मौर्यपुत्र, 8. अकंपित, 9. अचलमाता, 10. मैतार्य, 11. प्रभास / और सर्व शिष्य तो चौदह हजार साधु हुये, चौदह हजार से कदे भी अधिक नहीं हुये। और साध्वी छत्तीस हजार हुई / तथा श्रेणिक, उदायन, कोणक, उदायी, वत्सदेश का उदायन, चेटक, नवमल्लिक क्षत्रिय जाति के नवलेच्छिक क्षत्रिय जाति के, उज्जैन का राजा चन्द्रप्रद्योत, अमलकल्पा नगरी का स्वेत नामा राजा, पोलासपुर का विजय राजा, क्षत्रियकुण्ड का नंदिवर्द्धन राजा, वीतभयपट्टन का उदायन राजा, दशाणपुर का दशार्णभद्र राजा, पावापुरी का हस्तिपाल राजा इत्यादि अनेक राजे श्रीमहावीर भगवन्त के सेवक अर्थात् श्रावक थे। और आनंद, कामदेव, संख, पुष्कली प्रमुख श्रावक, और जयंती, रेवती, सुलसा प्रमुख श्राविका तो लाखों ही थे / तिन श्रावकों में एक सत्यकी नामा अविरति,
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________________ द्वादश परिच्छेद सम्यग्दृष्टि श्रावक हुआ है, तिसका सम्बंध आवश्यक शाह में इस तरे लिखा है। विशाला नगरी के चेटक राजा की छठी पुत्री सुज्येष्ठा नामा कुमारी कन्याने दीक्षा लीनी थी सत्यकी और अर्थात् जैनमत की साध्वी हो गई थी। महेश्वरपूजा वो किसी अवसर में उपाश्रय के अन्दर सूर्य के सन्मुख आतापना लेती थी। इस अवसर में पेढाल नामा परिव्राजक अर्थात् संन्यासी विणसिद्ध था। सो अपनी विद्या देने के वास्ते पात्र पुरुष जे देखता था। और उसका विचार ऐसा था कि यदि ब्रहचारिणी का पुत्र होवे, तो सुनाथ होवेगा / तब तिस संन्यासीने रात्रि में सुज्येष्ठा को नग्नपने शीत की आताएना लेती को देखा / तब धुन्धविद्या से अंधकार में विमोह अर्थात् अचेत करके उसकी योनि में अपने वीर्य का संचार करा। तिस अवसर में सुज्येष्ठा को ऋतुधर्म आ गया था, इस वास्ते गर्भ रह गया / तब साथ की साध्वियों में गर्म की चर्चा होने लगी / पीछे अतिशय ज्ञानीने कहा कि सुज्येष्ठाने विषयमोग किसी से नहीं करा, अरु तिस विशाघर का सर्व वृतांत कहा। तब सर्व की शंका दूर हो गई। पीछे समय में सुज्येष्ठा के पुत्र जन्मा। तब तिस लड़के को श्रावकने अपने घर में ले जा के पाला, तिसका नाम सत्यकी रक्खा। एक समय सत्यकी साध्वियों के साथ श्रीमहावीर
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________________ जैनतत्त्वादर्श भगवान् के समवसरण में गया। तिस अवसर में एक कालसंदीपक नामा विद्याधर श्रीमहावीर को वंदना करके पूछने लगा कि, मुझ को किस से भय है। तब भगवंत श्री महावीर स्वामीने कहा कि यह जो सत्यकी नामा लड़का है, इस मे तुझ को भय है। तब कालसंदीपक सत्यकी के पास गया, अवज्ञा से कहने लगा कि, अरे तू मुझ को मारेगा ! ऐसे कह कर जोरावरी से सत्यकी को अपने पगों में गेरा / तब तिसके पिता पेढ़ालने सत्यकी का पालन करा, और अपनी सर्व विद्याओं सत्यकी को दे दिया / सत्यकी का यह सातमा भव रोहिणी विद्या साधने में लग रहा था। रोहिणी विद्याने इस सत्यकी के जीव को पांच भव में तो जान से मार गेरा और छठे भव में छः महीने शेष आयु के रहने से सत्यकी के जीवने विद्या की इच्छा न करी; परन्तु इस सातमे भव में तो तिस रोहिणी विद्या को साधने का भारम्भ करा / तिसकी विधि लिखते हैं। अनाथ मृतक मनुष्यों को चिता में जलावे और गीले चमडे को शरीर ऊपर लपेट के पग के वामे अंगुठे से खड़ा हो कर जहां लग तिस चिता का काष्ठ जले तहां लग जाप करे / इस विधि से सत्यकी विद्या साध रहा था। तहां कालसंदीपक विद्याधर भी आ गया, और चिता में काष्ठ प्रक्षेप करके सात दिन रात्रि तक अग्नि बुझने न देनी / तब
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________________ द्वादश परिच्छेद सत्यकी का सत्य देख के रोहिणी देवी आप प्रगट हो कर कालसंदीपक को कहने लगी कि मत विघ्न कर, क्योंकि मैं इस सत्यकी को सिद्ध होनेवाली हूं, इस वास्ते में सिद्ध हो गई हूं। तब रोहिणी देवीने सत्यकी को कहा कि, मैं तेरे शरीर में किधर से प्रवेश करूं! सत्यकीने कहा कि मेरे मस्तक में हो कर प्रवेश कर / तब रोहिणीने मस्तक में हो कर प्रवेश करा, तिस से मस्तक में खड्डा पड़ गया। तब देवीने तुष्टमान हो कर तिस मस्तक की जगा तीसरे नेत्र का आकार बना दिया / तब तो सत्यकी तीन नेत्रवाला प्रसिद्ध हुआ। पीछे सत्यकीने सोचा कि पेढालने मेरी माता राजा की कुमारी बेटी को विगाड़ा है। ऐसा सोच कर अपने पिता पेढाल को मार दिया। तब लोगोंने सत्यकी का नाम रुद्र( भयानक ) रख दिया, क्योंकि जिसने अपना पिता मार दिया, उससे और भयानक कौन है ! पीछे सत्यकीने विचारा कि कालसंदीपक मेरा वैरी कहां है ! जब सुना कि कालसंदीपक अमुक जगा में है। तब सत्यकी तिस के पास पहुंचा / फिर कालसंदीपक विद्याधर वहां से भाग निकला तो भी सत्यकी तिसके पीछे लगा। कालसंदीपक हेठ ऊपर मागता रहा, परन्तु सत्यकीने तिसका पीछा न छोड़ा / फिर कालसंदीपकने सत्यकी के मुलाने वास्ते तीन नगर बनाये। तब सत्यकीने विद्या से तीनों नगर भी जला दिये, तब कालसंदीपक
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________________ 448 जैनतवादर्श दौड़ के लवणसमुद्र के पातालकलश में चला गया। सत्यकी. ने तहां जा कर कालसंदीपक को मार डाला। तिस पीछे सत्यकी विद्याधर चक्रवर्ती हुआ / तीन संध्या में सर्व तीर्थंकरों को वंदना करके नाटक करने लगा, तब इन्द्रने सत्यकी का नाम महेश्वर दिया। तिस महेश्वर के दो शिष्य हुये, एक नंदीश्वर, दूसरा नादीया / तिन में नादीया तो विद्या से बैल का रूप बना लेता था, और तिस ऊपर चढ़ के महेश्वर अनेक क्रीड़ा कुतूहल करता था। महेश्वर श्रीमहावीर भगवंत का अविरति सम्यग्दृष्टि श्रावक था। परन्तु बड़ा भारी कामी था और ब्राह्मणों के साथ उसका बड़ा भारी वैर हो गया। तब विद्या के बल से सैंकड़ों ब्राह्मणों की कुमारी कन्याओं को विषयसेवन करके बिगाड़ा। और लोक तथा राजा प्रमुख की बहुबेटियों से कामक्रीड़ा करने लगा। परन्तु उसकी विद्याओं के भय से उसे कोई कुछ कहता नहीं था। जेकर कोई मना भी करता था, तो मारा जाता था। महेश्वर ने विद्या से एक पुष्पक नामा विमान बनाया तिस में बैठ के जहां इच्छा होती, तहां चला जाता था। ऐसे उसका काल व्यतीत होता था / एक समय महेश्वर उज्जैन नगर में गया। वहां चंडप्रद्योत की एक शिवा नामा रानी को छोड़ के दूसरी सर्व रानियों के साथ विषय भोग करा / और भी सर्व लोगों की बहुबेटियों को बिगाडना शुरू करा / तब चंडप्रद्योत को
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________________ द्वादश परिच्छेद 441 बडी चिंता हुई, अरु विचारा कि कोई ऐसा उपाय करें कि जिस से इस महेश्वर का विनाश-मरण हो जावे / परन्तु तिसकी विद्या के आगे किसीका कोई उपाय नहीं चलता था। पीछे तिस उज्जैन नगर में एक उमा नामा वेश्या बडी रूपवती रहती थी। उसका यह कौल था कि जो कोई इतना धन मुझे देवे, सो मेरे से भोग करे / जो कोई उसके कहे मूजब धन देता था, सो उसके पास जाता था। एक दिन महेश्वर उस वेश्या के घर गया, तब तिस उमा वेश्याने महेश्वर के सन्मुख दो फूल करे, एक विकशा हुआ, दूसरा मिचा हुआ / तब महेश्वरने विकशे-खिड़े फूल की तर्फ हाथ पसारा / तब उमा वेश्याने मिचा हुआ कमल महेश्वर के हाथ में दिया, और कहा कि यह कमल तेरे योग्य है / तब महेश्वरने कहा, क्यों यह कमल मेरे योग्य है ! तब उमाने कहा कि, इस मिचे हुए कमल समान कुमारी कन्या है, सो तुझ को भोग करने वास्ते वल्लभ है, और मैं खिले हुए फूल के समान हूं। तव महेश्वरने कहा कि तू भी मेरे को बहुत वल्लभ है / ऐसा कह कर महेश्वर उसके साथ भोग भोगने लगा। और तिसके ही घर में रहने लगा। तिस उमाने महेश्वर को अपने वश में कर लिया। उमा का कहना महेश्वर उल्लघन नहीं कर सकता था। ऐसे जब कितनाक काल व्यतीत हुआ, तब चंद्रपद्योत. ने उमा को बुला के उसको बहुत धन और आदर-सन्मान
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________________ 350 जैनतत्वादर्श देकर कहा कि, तू महेश्वर से यह पूछ कि ऐसा भी कोई काल है कि, जिस में तुमारे पास कोई भी विद्या नहीं रहती? तब उमाने महेश्वर को पूर्वोक्त रीति से पूछा / महेश्वरने कहा कि जब मैं मैथुन सेवता हूं तब मेरे पास कोई भी विद्या नहीं रहती, अर्थात् कोई विद्या चलती नहीं / तब उमाने चंद्रप्रद्योत राजा को सर्व कथन सुना दिया / तब राजाने उमा से कहा कि, अब महेश्वर तेरे से भोग करेगा, तब हम उसको मारेंगे / उमाने कहा कि मुझ को मत मारना / तब चन्द्रपद्योतने कहा कि तुझ को नहीं मारेंगे / पीछे चन्द्रप्रद्योतने अपने सुभटों को गुप्तपने उमा के घर में छिपा रक्खा। जब महेश्वर उमा के साथ विषय सेवन में मग्न हो के दोनों का शरीर परस्पर मिल के एक शरीरवत् हो गया, तब राजा के सुभटों ने दोनों ही को काट डाला और अपने नगर का उपद्रव दूर करा / पीछे महेश्वर की सर्व विद्याओंने उसके नन्दीश्वर शिष्य को अपना अधिष्ठाता बनाया। जब नन्दीश्वरने अपने गुरु को इस विडम्बना से मारा सुना, तब विद्या से उज्जैन के ऊपर शिला बनाई। और कहने लगा कि, हे मेरे दासो! अब तुम कहां जाओगे! मैं सब को मारूंगा क्योंकि मैं सर्वशक्तिमान् ईश्वर हूं, किसी का मारा मैं मरता नहीं हूं, मैं सदा अविनाशी हूं.। यह सुन कर बहुत लोक डरे और सर्व लोक विनति करके पगों में पड़े, अरु कहने लगे कि
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________________ द्वादश परिच्छेद 451 हमारा अपराध क्षमा करो / तब नन्दीश्वरने कहा कि जेकर तुम उसी अवस्था में अर्थात् उमा की मग में महे. श्वर का लिग स्थापन करके पूजो, तो मैं तुम को जीता छोडूंगा / तब लोगों ने तैसे ही बना कर पूजा करी / पीछे नन्दीश्वरने भी ऐसे ही गाम गाम में, नगर नगर में लोगों को डरा डरा करके मन्दिर बनवाये, तिन में पूर्वोक्त आकारे भग में लिंगस्थापन करा के पूजा कराई। यह श्रीमहावीर के अविरति सम्यग्दृष्टि श्रावक महेश्वर की उत्पत्ति है। ___ तथा श्रीमहावीरस्वामी के विद्यमान होते राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की चेलणा रानी के कोणिक और श्राद्ध कोणिक नामा पुत्र हुआ / परन्तु कोणिक का श्रेणिक के साथ पूर्वजन्म का वैर था। इस वास्ते कोणिक राजाने श्रेणिक राजा को पकड़ के पिंजरे में दे दिया, और राजसिंहासन ऊपर आप बैठा / जब अपनी माता चेलणा के मुख से सुना कि श्रेणिक को जैसा तू वल्लभ था, ऐसा कोई भी पुत्र वल्लम नहीं था। क्योंकि जब तू वालक था तब तेरी अंगुली पक गई थी, तिस से तुझे रात्रि में नीन्द नहीं आती थी, और तू सर्व रात्रि में रोता था, तब तेरा पिता तेरी अंगुली को अपने मुख में ले कर चूस के उसकी राध रुविर को थूकता था / इत्यादि तेरे पिताने तेरे साथ राग-स्नेह करा है, और तुमने उस उपकार के बदले अपने पिता को पिंजरे में
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________________ 452 जैनतत्वादर्श बंद किया, वाह रे पुत्र ! तेरी लायकी ! यह सुन के कोणिक राजा बड़ा दुःखी हुआ, और रोता हुआ आप कुहाड़ा ले कर दौड़ा कि, मैं अपने हाथ से पिता का पिंजरा काट के बाहिर निकालंगा और राजसिंहासन ऊपर बिठाऊंगा। परंतु जब श्रेणिक राजाने देखा कि कोणिक कुहाड़ा लेकर दौड़ा आता है, तब विचार करा कि, क्या जाने मुझे किस कुमौत से मारेगा ! तब श्रेणिक राजा कुछ खा के मर गया / जब कोणिकने आकर देखा कि पिता तो मर गया, तब बहुत रोया पीटा, महा शोक से दाह लगाया / जब राज. गृह के अन्दर बाहिर श्रेणिक के मकान महल सिंहासनादि देखता है, बड़ा दिलगीर-शोकवंत होता है। इस दुःख से राजगृह नगर को छोड़ के चंपा नगरी अपनी राजधानी बना के रहने लगा। तो भी पिता के वियोग से सेवा न करने से दुःखी रहने लगा। तब प्रधानमन्त्रियोंने मता करके एक छाना पुस्तक बनवाया / उस में ऐसा कथन लिखवाया कि जो पुत्र अपने मरे हुये पिता को पिण्डप्रदान वस्त्र जोडे, आभूषण, शय्या प्रमुख ब्राह्मणों को देता है, वो सर्व श्राद्धादि सामग्री उसके पिता को प्राप्त होती है। तिस पुस्तक को धुंए के मकान में रख के धुंए से पुराने पुस्तकवत् बना दिया / तब कोणिक राजा को सुनाया। कोणिकने भी पिता की भक्ति वास्ते पिंडप्रदानादि बहुत धन लगा करके करा / तब ही से मृतकों को पिंडप्रदान श्राद्धादि प्रवृत्त
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________________ द्वादश परिच्छेद 453 हुये हैं। क्योंकि जगत् में प्रसिद्ध है कि कर्ण राजाने श्राद्ध चलाये हैं। सो इसी कोणिक राजा का नाम लोगोंने कर्ण राजा करके लिखा है। तथा अनिकासुत जैनाचार्य अत्यंत वृद्ध को गंगा नदी उतरते केवलज्ञान हुआ और जहां प्रयाग है, प्रयागतीर्य तहां शरीर छोड़ के मोम हुआ। तिस जगे देवताओंने तिस मुनि की महिमा करी, तव से प्रयाग तीर्थ की मानता चली, अर्थात् प्रयाग तीर्थ की उत्पत्ति हुई। महावीरम्वामी के वक्त में जो स्वरूप राजादि व्यवहारों का था तथा जैनमत का जहां तक विस्तार था, सो आवश्यक सूत्र, वीरचरित्र तथा वृहत्कल्पादि शास्त्रों से जान लेना। ___ तथा श्रीमहावीर के समय में राजगृह नगरी का राजा श्रेणिक हुआ। तिसके पीछे कोणिक हुआ, जिसने श्रेणिक के मरने से पीछे चंपा नगरी को अपनी राजधानी बनाया। तिसका बेटा उदायी हुआ, जिसने कोणिक के मरे पीछे उदासी से चंपा को छोड़ के पाटलीपुत्र( पटना ) नगर वसा के अपनी राजधानी बनायी। श्रीमहावीर भगवंत विक्रम संवत् से 477 वर्ष पहिले पावापुरी नगरी में हस्तपाल राजा की पुरानी राजसभा में बहत्तर वर्ष की आयु भोग के कार्तिक वदि अमावास्या की रात्रि के पिछले प्रहर में पद्मासन अर्थात् चौकडी मारे
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________________ 454 जैनतत्त्वादर्श . हुये, शरीरादि चार कर्म की सर्व उपाधि छोड़ के निर्वाण हुये-मोक्ष पहुंचे। तिस समय में गौतमस्वामी और सुधर्मास्वामी यह दो बडे शिष्य जीते थे, शेष नव बडे शिष्य तो श्रीमहावीरजी के जीते हुये ही एक मास का अनशन करके केवलज्ञान पा के मोक्ष चले गये थे। यह ग्यारह ही बडे शिष्य जाति के तो ब्राह्मण थे, चार वेद और छ वेदांग आदि सर्व शास्त्रों के जानकार थे, इन के चौतालीस सों (4400) विद्यार्थी थे। इनका सम्बन्ध ऐसे है। __जब भगवंत श्रीमहावीरजी को केवलज्ञान हुआ, तिस अवसर में मध्यपापा नगरी में सोमिल नामा गौतम और ब्राह्मणने यज्ञ करने का आरम्भ करा था, संशयनिवृत्ति और सर्व ब्राह्मणों में श्रेष्ठ विद्वान् जान कर ___ इन पूर्वोक्त गौतमादि ग्यारह ही आचार्यों को बुलाया था। तिस समय तिस यज्ञपाड़ा के ईशान कूण में महासेन नामा उद्यान में श्रीमहावीर भगवंत का समवसरण रल सुवर्ण रौप्यमय, कम से तीन गढ़ संयुक्त देवों ने बनाया / तिसके बीच में बैठ के भगवंत श्रीमहावीरस्वामी उपदेश करने लगे। तब आकाश मार्ग के रास्ते सेंकडों विमानों में बैठे हुए चार प्रकार के देवता भगवंत श्रीमहावीर के दर्शन और उपदेश सुनने को आते थे। तब तिन यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणोंने जाना कि, यह देव सब हमारे करे हुये यज्ञ की आहुतियां लेने आये हैं। इतने में देवता तो
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________________ द्वादश परिच्छेद 455 यज्ञपाड़े को छोड़ के भगवान् के चरणों में जाकर हाजिर हुये / तथा और लोक भी श्रीमहावीर भगवंत का दर्शन करके और उपदेश सुन के गौतमादि पंडितों के आगे कहने लगे कि आज इस नगर के बाहिर सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान् आये हैं। न तो उनके रूप की कोई तारीफ कर सकता है, अरु न कोई उनके उपदेश से संशय रहता है, और लाखों देवता जिनों के चरणों की सेवा करते हैं / ताते हमारे बड़े भाग्योदय है, जो एसे सर्वज्ञ अरिहंत भगवंत का हमने दर्शन पाया / जब गौतमजीने सुना कि सर्वज्ञ आया है, तब मन में ईर्ष्या की अग्नि भड़की अरु ऐसे कहने लगा कि, मेरे से अधिक और सर्वज्ञ कौन है ? मैं आज इसका सर्वज्ञपना उड़ा देता हूं। इत्यादि गर्व संयुक्त भगवान् श्रीमहावीर के पास पहुंचा, और भगवान् को चौतीस अतिशय संयुक्त देखा / तथा देवता, इन्द्र, मनुष्यों से परिवृत देखा / तब बोलने की शक्ति से हीन हुवा 2 भगवंत के सन्मुख जाके खड़ा हो गया। तव भगवंतने कहा, हे गौतम इन्द्रभूति ! तू आया ! तब गौतमजीने मन में विचारां कि मेरा नाम भी ये जानते हैं, मैं तो सर्व जगे प्रसिद्ध हूं, मुझे कौन नहीं जानता ! इस वास्ते मैं इस बात में कुछ आश्चर्य और इन को सर्वज्ञ नहीं मानता हूं। किंतु मेरे मन में जो सशय है, तिसको यदि दूर कर देवें, तो मैं इन को सर्वज्ञ मानूं। तब भगवंतने कहा, हे गौतम ! तेरे मन में यह संशय है
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________________ 456 जैनतत्वादर्श जीव है कि नहीं ! और यह संशय तेरे को वेदों की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों से हुआ है, वे श्रुतियां यह हैं * विज्ञानधन एवैतेभ्यो भृतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीतीत्यादि / इस से विरुद्ध यह श्रुति हैस वै अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि। इन श्रुतियों का अर्थ ऐसा तेरे मन में भासन होता है। प्रथम श्रुति का अर्थ कहते हैं-नीलादि रूप होने से विज्ञान ही चैतन्य है। चैतन्यविशिष्ट जो नीलादि, तिससे जो घन सो विज्ञानघन / सो विज्ञानघन, प्रत्यक्ष परिच्छिद्यमान पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश रूप पांच भूतों से उत्पन्न हो कर फिर तिनके साथ ही नाश हो जाता है। अर्थात् भूतों के नाश होने से उनके साथ बिज्ञानघन का भी नाश हो जाता है / इस हेतु से प्रेत्यसंज्ञा नहीं अर्थात् मर के फिर परलोक में और कोई नर नार का जन्म नहीं होता इस श्रुति से जीव की नास्ति सिद्ध होती है / और दूसरी श्रुति कहती है-यह आत्मा ज्ञानमय अर्थात् ज्ञानस्वरूप है / इस से आत्मा की सिद्धि होती है। अब ये दोनों श्रुतिय परस्पर विरोधी होने से प्रमाण नहीं हो सकती है। और * 'प्रज्ञानघनः ' ऐसा पाठ वर्तमान पुस्तकों में है।
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________________ 457 द्वादश परिच्छेद आत्मा के स्वरूप में परस्पर विरोधी बहुत मत है / कोई कहता है कि एतावानेव लोकोऽयं यावानिद्रियगोचर। मद्रे ! वृकपदं पश्य यद्बदन्त्यबहुश्रुताः // इस श्लोक का अर्थ *चार्वाक मत में लिख आये हैं। यह भी एक आगम कहता है / तथा " न रूपं भिक्षवः ! पुद्गलः" अर्थात् आत्मा अमूर्त है, यह भी एक आगम कहता है। तथा " अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा " अर्थात्-अकर्ता सच, रज, अरु तम, इन तीनों गुणों से रहित, सुख दुःख का भोगनेवाला आत्मा है, यह भी एक आगम कहता है / अब इन में से किस को सच्चा और किस को झूठा मानें ! परस्पर विरोधी होने से सर्व तो सच्चे हो ही नहीं सकते है / तथा युक्ति प्रमाण से भी मर के परलोक जानेवाली आत्मा सिद्ध नहीं होती है। ताते हे गौतम ! यह तेरे मन में संशय है / अब इस का उत्तर कहता हूं कि, तू वेद पदों का अर्थ नहीं जानता है, इत्यादि श्रीगौतमजी के संशय को दूर करा / ये सर्व अधिकार मूलावश्यक और श्रीविशेषावश्यक से जान लेना / मैंने ग्रंथ के भारी और गहन हो जाने के सबब से यहां नहीं लिखा। क्योंकि सब ग्यारह गणधरों के संशय दूर करने के प्रकरण के चार हजार श्लोक * देखो पूर्षि का पृ. 302
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________________ 458. जैनतत्त्वाद हैं। पीछे जब गौतमजी का संशय दूर हो गया, तब गौतमजी पांच सौ अपने विद्यार्थियों के साथ दीक्षा ले के श्री महावीर भगवन्त का प्रथम शिष्य हुआ। इस तरे इंद्रभूति को दीक्षित सुन के दूसरा भाई अग्नि भूति बड़े अभिमान में भर कर चला और अग्निभूति और कहने लगा कि, मेरे को भाई को इन्द्रजालियेसंशयवृत्ति ने छल से जीत के अपना शिष्य बना लिया / मैं अभी उस इंद्रजालिये को जीत के अपने भाई को पीछे लाता हूं। इस विचार से भगवन्त श्रीमहावीरजी के पास पहुंचा। जब भगवान् को देखा, तब सर्व आइ वाइ भूल गया, मुख से बोलने की शक्ति भी न रही / और मन में बड़ा अचम्भा हुआ, क्योंकि ऐसा स्वरूप न उसने कमी सुना था और न कमी देखा था। तब भगवान् ने उसका नाम लिया। अग्निभूतिने विचारा कि यह मेरा नाम भी जानते हैं। अथवा मैं प्रसिद्ध हूं, मुझे कौन नहीं जानता है। परन्तु मेरे मन का संशय दूर करें, तो मैं इन को सर्वज्ञ मानूं / तव भगवन्तने कहा-हे अग्निभूति ! तेरे मन में यह संशय है कि कर्म है किंवा नहीं ! यह संशय तेरे को विरुद्ध वेदपदों से हुआ है। क्योंकि तू वेदपदों का अर्थ नहीं जानता है। वे वेदपद यह हैं:
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________________ द्वादश परिच्छेद 459. पुरुष एवेदं नि सर्व यद्भूतं यच्च माध्यं, उतामृतत्वस्येशानो यदन्ननाऽतिरोहति / यदेजति यन्नजति यहरे यदु अंतिके यदंतरस्य सर्वस्य यदुत सर्वस्यास्य वायत इत्यादि। इस से विरुद्ध यह श्रुति है:पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणा, इत्यादि / और इन का अर्थ तेरे मन में ऐसा भासन होता है कि 'पुरुष' अर्थात् आत्मा / 'एव' शब्द अवधारण के वास्ते है, सो अवधारण कर्म और प्रधानादिकों के व्यवच्छेद वास्ते है। 'इदं सर्व' अर्थात् यह सर्व प्रत्यक्ष वर्तमान चेतन अचेतन वस्तु / 'ग्नि' यह वाक्यालंकार में है / 'यद् भूतं यह भाव्यं' अर्थात् जो पीछे हुआ है और आगे को होवेगा' जो मुक्ति तथा संसार सो सर्व पुरुष आत्मा ब्रह्म ही हैं। तथा 'उतं' शब्द अपिशब्द के अर्थ में है, और अपि शब्द समुच्चय अर्थ में है / ' अमृतत्त्वस्य'-अमरणभाव का अर्थात् मोक्ष का, 'ईशानः '-प्रभु अर्थात् स्वामी ( मालक ) है। 'यदिति यच्चेति' च शब्द के लोप होने से यदिति बना, इसका अर्थ जो अन्न करके वृद्धि को प्राप्त होता है / ' यदेजति यन्नेजति'-जो चलता है ऐसे पशु आदिक और जो नहीं चलता है ऐसे पर्वतादिक / और 'यद्रे'-जो दूर
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________________ 460 जैनतत्त्वादर्श है मेरु आदिक यत् उ अंतिके'-उ शब्द अवधारणार्थ में है, जो समीप है। सो सर्व पूर्वोक्त पदार्थ पुरुष अर्थात् ब्रह्म ही है। इस श्रुति से कर्म का अभाव होता है / अरु दूसरी श्रुति से तथा शास्त्रांतरों से कर्म सिद्ध होते हैं। तथा युक्ति से कर्म सिद्ध होते नही क्योंकि अमूर्त आत्मा को मूर्त कर्म लगते नहीं, इस वास्ते मैं नहीं जानता कि कर्म है या नहीं। यह संशय तेरे मन में है। ऐसा कह कर भगवान्ने वेदश्रुतियों का अर्थ बराबर करके तिसका पूर्वपक्ष खण्डन करा / सो विस्तार से मूलावश्यक तथा विशेषावश्यक से जान लेना। अग्निभूतिने मी गौतमवत् दीक्षा लीनी। अमिभूति की दीक्षा सुन के तीसरा वायुभूति आया / परंतु आगे दोनों भाइयों के दीक्षा ले लेने से वायुभूति और इसको विद्या का अमिमान कुछ भी न रहा। संशयनिवृत्ति मन में विचार करा कि, मैं जाकर भगवान् को वंदना-नमस्कार करूंगा / ऐसा विचार के आया, आकर भगवंत को वंदना करी। तब भगवंतने कहा कि तेरे मन में संशय तो है, परन्तु क्षोभ से तू पूछ नहीं सकता है। संशय यह है कि जो जीव है सो देह ही है ! और यह संशय तेरे को विरुद्ध वेदपदश्रुति से हुआ है, और तू तिन वेद पदों का अर्थ नहीं जानता है। वे वेद पद ये हैं:"विज्ञानधन " इत्यादि पहिले गणधर की श्रुति जाननी / इस
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________________ 461 द्वादश परिच्छेद से देह से न्यारा जीव-आत्मा सिद्ध नहीं होता है। और इस श्रुति से विरुद्ध यह श्रुति है सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यति धीरा यतयः संयतात्मान इत्यादि। इस श्रुति से देह से भिन्न आत्मा सिद्ध होती है, इस वास्ते तुझ को संशय है। पीछे भगवान्ने यह सर्व संशय दूर करा / तब तीसरे वायुभूतिने भी अपने पांच सौ विद्यार्थियों के साथ दीक्षा लीनी / वायुभूति की तरें शेष आठ गणधर क्रम से आये, तिस में चौथा अव्यक्तजी आया तिनके मन में यह संशय था कि पांचभूत हैं कि नहीं ! यह संशय विरुद्ध श्रुतियों से हुआ। वे परस्पर विरुद्ध श्रुतियां यह हैं स्वमोपम वै सकलमित्येष ब्रह्माविधिरंजसा विज्ञेय इत्यादीनि / तथा इस से विरुद्ध यह श्रुति हैद्यावापृथिवी जनयन् देव इत्यादि। तथापृथिवीदेवता, आपोदेवता, इत्यादीनि /
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________________ .462 जैनतत्त्वादर्श इन का अर्थ तेरे मन में ऐसा भासन होता हैस्वप्न सरीखा [वै निपात अवधारणार्थे ] सम्पूर्ण जगत् है- एष ब्रह्मविधिः' अर्थात् यह परमार्थ प्रकार है, 'अंजसा'सीधे न्याय से जानने योग्य है / यह श्रुति पांचभूत का अभाव कहती है। और श्रुतियें पांचभूत की सत्ता को कहती हैं, इस वास्ते तेरे को संशय है। तेरे मन में यह भी है कि युक्ति से पांचभूत सिद्ध नहीं होते हैं। पीछे भगवान्ने इसका पूर्वपक्ष खण्डन करा, वेद पदों का यथार्थ अर्थ करा / यह अधिकार उक्त ग्रंथों से जान लेना / यह सुन कर चौथे अव्यक्तने भी अपने पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा लीनी / तब पांचमा सुधर्म नामा गणधर आया / इसका भी उसी तरें सर्वाधिकार जान लेना। यावत् तेरे मन में यह संशय है कि मनुण्यादि सर्व जैसे इस भव में है, तैसे ही अगले जन्म में होते हैं ! कि मनुष्य कुछ और पशु आदि भी बन जाते हैं ! यह संशय तेरे को परस्पर विरुद्ध वेदश्रुतियों से हुआ है, सो वेदश्रुतियां यह हैं पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवा पशुत्वं इत्यादीनि // अर्थः-जैसे इस जन्म में पुरुष स्त्री आदि हैं, वे परजन्म में भी ऐसे ही होवेंगे। इस से विरुद्ध यह श्रुति है भृगालो वै एप जायते यः सपुरीपो दह्यत इत्यादि।
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________________ द्वादश परिच्छेद 463 इन सर्व श्रुतियों का भगवान् ने अर्थ करके संशय दूर करा, तव अपने पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा लीनी / तिस पीछे छठा मंडिपुत्र आया। तिसके मन में यह संशय था कि, वंध मोम है या नहीं है ? यह संशय भी विरुद्ध श्रुतियों से हुआ है, सो श्रुतियां यह है म एप विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा न सुच्यने मोचयति वान वा एप बाह्यमस्यंतर वा वेद इत्यातीनि / इस श्रुति का ऐसा अर्थ तेरे मन में भासन होता है'एष अधिकृतजीयः' अर्थात् यह जीव जिसका अधिकार है, 'विगुणः ' अर्थात् सत्वादि गुण रहित, सर्वगत-सर्वव्यापक पुण्य पाप करके इस को बंध नहीं होता है, और संसार में भ्रमण भी नहीं करता है, और कर्मों से छूटता भी नहीं है, बंध के अभाव होने से दूसरों को कर्म बंध से छुड़ाता भी नहीं है / इस कहने से आत्मा अकर्ता है, सोई कहते हैं:यह पुरुष अपनी आत्मा से वाहिर महत् अहंकारादि और अभ्यंतर स्वरूप अपना जानता नहीं। क्योंकि जानना ज्ञान से होता है, और ज्ञान जो है, सो प्रकृति का धर्म है, और प्रकृति अचेतन है, इस वास्ते बंध मोक्ष नहीं। इस श्रुति से बंध मोक्ष का अभाव सिद्ध होता है / अब इस से विरुद्ध श्रुति यह है।
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________________ 464 जैनतत्त्वादर्श ___ न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशत इत्यादीनि / अर्थः-सशरीरस्य अर्थात् शरीर सहित को सुख दुःख का अभाव कदापि नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि संसारी जीव सुख दुःख से रहित नहीं होता है, और अमूर्त आत्मा को कारण के अभाव से सुख दुःख स्पर्श नहीं कर सकते हैं। इस श्रुति से बंध मोक्ष सिद्ध होते हैं / तथा तेरे मन में यह भी बात है कि, युक्ति से भी बन्ध मोक्ष सिद्ध नहीं होते हैं। इत्यादि संशय कह कर भगवान्ने तिसके पूर्वपक्षों को खण्डन करके संशय दूर करा / तब मंडिकपुत्र साढे तीन सौ विद्यार्थियों के साथ दीक्षित भया / तिस पीछे सातवां मौर्यपुत्र आया, तिसके मन में यह संशय था कि देवता हैं किंवा नहीं हैं। यह संशय परस्पर विरुद्ध श्रुतियों से हुआ है, वे श्रुतियां यह हैं: स एष यज्ञायुधी यजमानोंऽजसा स्वर्गलोकं गच्छति इत्यादि। ऐसी श्रुतियां स्वर्ग तथा देवताओं की सिद्धि करती हैं। इस से विरुद्ध श्रुति यह है
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________________ द्वादश परिच्छेद 465 अपाम सोमममृता अभूम, अगमाम ज्योतिरविदाम देवान्, किं नूनमस्मात् तृणवदरातिः किमु मृर्तिममृतमय॑स्येत्यादीनि / तथा को जानाति मायोपमान् गीर्वाणानिन्द्रयमवरुणकुवे. रादीन इत्यादि। इन का ऐसा अर्थ तेरे मन में मासन होता है-पाप दूर करने में समर्थ, ऐसे यज्ञरूपी आयुध-शस्त्र का धारण करनेवाला यजमान शीघ्र स्वर्गलोक में जाता है। तथा हमने सोमलता का रस पिया है, और अमृत-अमरण धर्मवाले हुये हैं / ज्योति-स्वर्ग को प्राप्त हुये हैं, तथा देवता हुये हैं, इस वास्ते तृण की तरे अराति-शत्रु, व्याधी, जरा अमर पुरुष का क्या कर सकते हैं। यह श्रुतियां देवसचा की प्रतिपादक हैं। और इन श्रुतियों का यथार्थ अर्थ करके और तिसका पूर्वपक्ष खण्डन करके भगवंतने इनका संशय दूर करा, तब यह भी माढे तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षित भया / तिस पीछे आठमा अकंपित आया, उसके मन में भी वेद की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों के पदों से यह संशय उत्पन्न
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________________ 466 जैनतत्त्वादर्श हुआ था कि नरकवासी जीव हैं कि नहीं ! वे परस्पर विरुद्ध श्रुतियां लिखते हैं: नारको वै एष जायते यः शूद्रानमनाति इत्यादि / इसका अर्थ:-यह ब्राह्मण नारक होवेगा जो शूद्र का अन्न खाता है / इस श्रुति से नरक सिद्ध होता है। तथा न ह वै प्रेत्य नारकाः संतीत्यादि / इस श्रुति से नरक का अभाव सिद्ध होता है। इन का अर्थ करके और पूर्वपक्ष खंडन करके भगवान्ने तिसका संशय दूर करा / तब अकंपितने भी तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी। तिस पीछे नवमा अचलमाता आया / तिसको भी पर. स्पर वेद की विरुद्ध श्रुतियों के पदों से पुण्य पाप है कि नहीं ? यह संशय था। सो वेद पद यह है पुरुप एवेदं नि सर्व इत्यादि / दूसरे गणधरवत् / इस से विरुद्ध पद यह है पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन कर्मणा भवति इत्यादि।
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________________ 467 द्वादश परिच्छेद इस से पुण्य पाप सिद्ध होते हैं। यह संशय मी भगचान्ने दूर करा, तब यह भी तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षित भया। तिस पीछे दशमा मैतार्य आया। उसको भी वेद की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों से यह समय हुआ था कि, परलोक है किंवा नहीं ! वे श्रुतियां यह हैं:-" विज्ञानघन " इत्यादि प्रथम गणघरवत् अभाव कथक श्रुति जाननी / तथा स वै अयं आत्मा ज्ञानमय इत्यादि / / यह परलोक भावप्रतिपादक श्रुति जाननी / इनका तात्पर्य भगवान्ने कहा, तब मैतार्यजीने भी निःशंक हो के तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी / तिस पीछे ग्यारहवां प्रभास नामा गणधर आया / तिसके मन में भी वेद श्रुतियों के परस्पर विरुद्ध होने से यह संशय था कि निर्वाण है कि नहीं है ! वे श्रुतियां यह हैं: जरामयं वा एतत्सर्व याग्निहोत्रम् / इस से विरुद्ध श्रुति यह है: द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं ज्ञानमनंतं ब्रह्मेति /
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________________ 468 जैनतत्त्वादर्श इनका यह अर्थ तेरी बुद्धि में भासन होता है कि अग्निहोत्र जो है, सो जीवहिंसा संयुक्त है, और जरा मरण का कारण है / अरु वेद में अग्निहोत्र निरंतर करना कहा है, तब ऐसा कौनसा काल है कि, जिसमें मोक्ष जाने का कर्म करें। इस वास्ते आत्मा को मोक्ष कदापि नहीं हो सकता है। अरु दूसरी श्रुति मोक्षप्राप्ति भी कहती है। इस वास्ते संशय हुआ है। इसका जब भगवान्ने उत्तर दे के निशंक करा, तब तीन सौ छात्रों के साथ दीक्षा लीनी / यह श्री महावीर भगवंत के वैशाख शुदि दशमी के दिन मध्यपापानगरी के महासेन वन में 4400 शिष्य हुये। तिस पीछे राजपुत्र, श्रेष्ठिपुत्रादि तथा राजपुत्री, श्रेष्ठिपुत्री, राजा की रानी आदिकने दीक्षा लीनी। तथा जब भगवंत श्रीमहावीरजी पावापुरी में मोक्ष गये, तिस ही रात्रि में इन्द्रभूति अर्थात् श्री सुधर्मा- गौतम गणधर को केवलज्ञान हुआ / तब स्वामी इन्द्रोंने निर्वाण महोत्सव करा, और सुधर्मा स्वामीजी को श्रीमहावीरस्वामीजी की गद्दी ऊपर बिठाया / श्रीगौतमजी को गद्दी इस वास्ते न हुई कि, केवलज्ञानी पुरुष पाट ऊपर नहीं बैठता है। क्योंकि केवली तो जो पूछे उसका उत्तर अपने ज्ञान से ही देता है, परन्तु ऐसा नहीं कहता है कि मैं अमुक तीर्थकर के कहने से कहता हूं। इस वास्ते केवल
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________________ द्वादश परिच्छेद ज्ञानी पाट ऊपर नहीं बैठता है / जेकर बैठे तो तीर्थकर का शासन दूर होजावे, यह वात कमी हो नहीं सकती कि अनादि रीति को केवली भंग करे, इस वास्ते श्री गौतमजी गद्दी ऊपर नहीं बैठे और सुधर्मास्वामी बैठे। श्रीसुधर्मास्वामी पचास वर्ष तो गृहस्थावास में रहे, और तीस वर्ष श्रीमहावीर भगवंत की चरणसेवा करी / जब श्रीमहावीर का निर्माण हुआ तिस पीछे बारा वर्ष तक छद्मस्थ रहे, और आठ वर्ष केवली रहे। क्योंकि श्रीमहावीर अहंत के पीछे केवली हो कर बारा वर्ष तक श्रीगौतमजी जीते रहे / और श्रीगौतमजी के निर्वाण पीछे श्रीमुघर्मास्वामीजी को केवलज्ञान हुआ, केवली हो कर आठ वर्ष जीते रहे / श्रीसुधर्मास्वामीजी की सब आयु एक सौ वर्ष की थी, सो श्रीमहावीरजी के वीस वर्ष पीछे मोक्ष गये। 2. श्रीसुधर्मास्वामी के पाट ऊपर श्रीजंबूस्वामी बैठे / सो राजगृहनगर का वासी श्रीऋषभदत्त श्री जम्बूस्वामी और श्रेष्ठी की धारिणी नामा स्त्री से जन्मे थे। दश विच्छेद निनानवे क्रोड़ सोनये और आठ स्त्रियों को __छोड़ कर दीक्षा लेता भया / सोलो वर्ष गृहस्थवास में रहे, वीस वर्ष व्रतपर्याय, और चौतालीस वर्ष केवलपर्याय पाल के श्रीमहावीर के निर्वाण पीछे चौसठमे वर्ष मोक्ष गये। यह श्रीजम्बूस्वामी के पीछे भरत क्षेत्र में दश बातें
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________________ 470 जैनतत्त्वादर्श विच्छेद हो गई / तिसका नाम लिखते हैं-१. मनःपर्याय ज्ञान. 2 परमावधि ज्ञान, 3 पुलाकलब्धि, 4. आहारक शरीर, 5. क्षपक श्रेणि, 6. उपशमश्रेणि, 7. जिनकल्पमुनि की रीति, 8. परिहारविशुद्धिचारित्र, तथा सूक्ष्मसंपराय, और यथाख्यात, यह तीन तरे के संयम, 9. केवलज्ञान, 10. मोक्ष होना-यह दश वस्तु विच्छेद हो गई। श्रीमहावीर भगवंत के केवली हुये पीछे जब चौदह वर्ष बीते; तव जमाली नामा प्रथम निन्हव हुआ, और सोलां वर्ष पीछे तिष्यगुप्त नामा दूसरा निन्हव हुआ। श्रीजंबूस्वामी की आयु अस्सी वर्ष की थी। 3. जम्बूस्वामी के पाट ऊपर प्रभवस्वामी बैठे, तिन ___ की उत्पत्ति ऐसे है। विंध्याचल पर्वत के श्रीप्रभवस्वामी पास जयपुर नामा पत्तन था, जिसका विध्य नामा राजा था / तिसके दो पुत्र थे / एक बड़ा प्रभव, दूसरा छोटा प्रभु / विंध्य राजाने किसी कारण से छोटे पुत्र प्रभु को राजतिलक दे दिया, तब बड़ा बेटा प्रभव गुस्से हो कर जयपुर पचन से निकल कर विंध्याचल की विषम जगा में गाम वसा कर रहने लगा, और खात्रखनन, चंदिग्रहण, रस्ते में लूटना आदि अनेक तरें की चोरियों से अपने परिवार की आजीविका करता था / एक दिन पांच सौ चोरों को लेकर राजगृह नगर में जम्बूजी के घर को लूटने आया, तहां जंबूस्वामीने तिसको प्रतिबोध करा / तब तिसने
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________________ बादश परिच्छेद 471 पांच सौ चोरों के सहित दीक्षा श्रीजंबूस्वामी के साथ लीनी / इत्यादि जंबूजी का और प्रभवजी का अधिकार जंबूचरित्र तथा परिशिष्ट पर्वादि ग्रन्थों से जान लेना / प्रभवस्वामी तीस वर्ष गृहस्थ पर्याय, चौतालीस वर्ष व्रतपर्याय, तथा एकादश वर्ष युगप्रधान पदवी, सर्व पचासी वर्ष की आयु पूरी करके श्रीमहावीर से पचहत्तर वर्ष पीछे स्वर्ग गया। 4. श्रीप्रभवस्वामी के पाट ऊपर श्रीशय्यमव स्वामी बैठे। जिनोंने मणक साधु के वास्ते दशवै. श्री गव्यमय कालिक सूत्र बनाया / तिनकी उत्पत्ति ऐसे स्वामी है। एक समय प्रभवस्वामीने रात्रि में विचार करा कि मेरे पाट ऊपर कौन बैठेगा। पीछे ज्ञानबल से अपने सर्वसंघ में पाट योग्य कोई न देखा, तब पर दर्शनियों को ज्ञानवल से देखने लगा। तव राजगृह नगर में यज्ञ करते हुये शखभव भट्ट को अपने पाट योग्य देखा / पीछे प्रभवस्वामी विहार करके सपरिवार राजगृह नगर में आये / वहा दो साधुओ को आदेश दिया कि तुम यज्ञपाडे में जाकर भिक्षा के वास्ते धर्मलाभ कहो, और यज्ञ करनेवालों को ऐसे कहौ-" अहो कष्टमहो कष्टं तत्वं विज्ञायते न हि " / तब तिन साधुओंने पूर्वोक्त गुरु का कहना सर्व किया / जव ब्राह्मणोंने " अहो कष्ट " इत्यादि सुना, तब तिस यज्ञपाडे में शय्यंभव ब्राह्मणने यज्ञ-दीक्षा लीनी थी / तिसने यज्ञपाडे के दरवाजे में खडे हुए 'अहो कप्टं' इत्यादि मुनियों
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________________ છ૯૨ जैनतत्वादर्श का कहना सुन के विचार करने लगा कि ऐसे उपशमप्रधान साधु होते हैं, इस वास्ते यह असत्य नहीं बोलते हैं / इस से मन में संशय हो गया / तब उपाध्याय को पूछा कि तत्व क्या है ! तब उपाध्यायने कहा कि चार वेदों में जो कथन करा है, सो तत्त्व है। क्योंकि वेदों के सिवाय और कोई तत्त्व नहीं है। शय्यंभवने कहा कि तू दक्षिणा के लोभ से मुझ को तत्त्व नहीं बतलाता है, क्योंकि रागद्वेष रहित, निर्मम, निष्परिग्रह, शांत, दांत, महामुनियों का कहना झूठा नहीं होता है। और तू मेरा गुरु नहीं, तैने तो जन्म से इस जगतू को ठगना ही सीखा है, इस वास्ते तू शिक्षा के योग्य है / इस वास्ते या तो मुझे तत्व कह दे, नहीं तो तलवार से तेरा शिर छेद करूंगा। ऐसे कह के जब मियान से तलवार काढी, तब उपाध्यायने प्राणांत कष्ट देख के कहा कि, हमारे वेदों में भी ऐसे लिखा है, और हमारी आम्नाय भी यही है कि, जब हमारा कोई शिर छेदे, तब तत्त्व कहना, नहीं तो नहीं कहना / तिस वास्ते मैं तुम को तत्त्व कह देता हूं इस यज्ञस्तंभ के हेठ अहंत की प्रतिमा स्थापन करी है, और नीचे ही तिसको प्रच्छन्न हो के पूजते हैं, तिसके प्रभाव से यज्ञ के सर्व विघ्न दूर हो जाते हैं, जेकर यज्ञस्तंभ के नीचे अहंत की प्रतिमा न रक्खें, तो महातपा सिद्धपुत्र और नारद ये दोनों यज्ञ को विध्वंस कर देते हैं।
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________________ द्वादश परिच्छेद 473 पीछे उपाध्यायने यज्ञस्तम्म उखाड़ के अहंत की प्रतिमा दिखाई और कहा कि यह प्रतिमा जिस देव की है, तिस अर्हत का कहा हुआ धर्म जीवदयारूप तत्त्व है। और यह जो वेद प्रतिपाद्य यज्ञ हैं, वे सर्व हिंसात्मक होने से विडंबनारूप हैं, परन्तु क्या करें ! जेकर हम ऐसे न करें तो हमारी आजीविका नहीं चलती है। अब तू तत्त्व मान ले और मुझ को छोड़ दे अरु तू परमार्फत् होजा, क्योंकि मैंने अपने पेट के वास्ते तुझ को बहुत दिन बहकाया है। तब शय्यंभवने नमस्कार करके कहा कि तू यथार्थ तत्त्व के प्रकाश करने से सच्चा उपाध्याय है, ऐसा कह कर शय्यंभवने तुष्टमान हो कर यज्ञ की सामग्री जो सुवर्णपात्रादि थे, वे सर्व उपाध्याय को दे दी, और प्रमवस्वामी के पास जा कर तत्त्व का स्वरूप पूछ कर दीक्षा ले लीनी / शेष इनका वृत्तांत परिशिष्टपर्व ग्रंथ से जान लेना। शय्यंभवस्वामी अठाईस वर्ष गृहस्थावास में रहे, ग्यारह वर्ष सामान्य साधु व्रत में रहे, और तेईस वर्ष युगप्रधानाचार्य पदवी में रहे। इस तरे सर्वायु वासठ वर्ष भोग के श्रीमहावीर भगवंत के 98 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। 5. श्री शय्यंभवस्वामी के पाट ऊपर श्री यशोभद्र बैठे। सो बावीस वर्ष गृहस्थावास में रहे, और श्री यशोभद्र चौदह वर्ष व्रत पर्याय में रहे अरु पचास वर्ष तक युगप्रधान पदवी में रहे। इस तरे सब 86
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________________ 474 जैनतत्यादर्श वर्ष की आयु भोग के श्रीमहावीर से 148 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। 6. श्रीयशोभद्रस्वामी के पाट ऊपर एक श्री संभूतविजय और दूसरे श्रीभद्रबाहु, यह दोनों बैठे। श्री सभूतविजय तिनमें संभूतविजय तो बैतालीस वर्ष तक श्री भद्रवाहु गृहस्थ रहे, और चालीस वर्ष व्रतपर्याय तथा आठ वर्ष युगप्रधान पदवी सर्व आयु नव्वे वर्ष भोग के स्वर्ग में गये। और भद्रबाहुस्वामीने१. आवश्यक नियुक्ति, 2. दशवकालिक नियुक्ति, 3. उत्तराध्ययन नियुक्ति, 4. आचारांग की नियुक्ति, 5. सूत्रकृदंग नियुक्ति, 6. सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति, 7. ऋषिभाषित नियुक्ति, 8. कल्प नियुक्ति, 9. व्यवहार नियुक्ति, 10. दशा नियुक्ति, ये दश नियुक्तियां और 1. कल्प, 2. व्यवहार, 3. दशाश्रुतस्कंध, यह नवमे पूर्व से उद्धार करके बनाये / और एक बहुत बड़ा भद्रबाहु नामक संहिता ज्योतिषशास्त्र बनाया / उपसर्गहर स्तोत्र बनाया / जैनियों के ऊपर बहुत उपकार करा / इन ही भद्रबाहुजी का सगा माई वराहमिहर हुआ। वो पहिले तो जैनमत का साधु हुआ था, फिर साधुपना छोड़ के वराही संहिता बनाई। और जो वराहमिहर विक्रमादित्य की सभा का पंडित था, वो दूसरा वराहमिहर था, संहिताकारक वो नहीं हुआ / इसका सम्पूर्ण वृत्तांत परिशिष्टपर्व से जान लेना / श्री भद्रबाहुस्वामी गृहस्थावास में पैतालीश
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________________ द्वादश परिच्छेद 475 वर्ष रहे, सतरा वर्ष व्रतपर्याय, अरु चौदह वर्ष युगप्रधान, सब मिल कर 76 वर्ष की आयु भोग के श्री महावीर से 170 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। 7. यह श्री संभूतविजय अरु भद्रबाहुस्वामी के पास ऊपर श्रीस्थूलभद्रस्वामी बैठे / इनका बहुत श्री स्थूलभद्र वृत्तांत है, सो परिशिष्टपर्व ग्रंथ से जान लेना / श्री स्थूलभद्रस्वामी तीस वर्ष गृहस्थावास में रहे, चौबीस वर्ष व्रतपर्याय, अरु पैतालीस वर्ष युगप्रधान पदवी, सब आयु 99 वर्ष भोग के श्रीमहावीर से 215 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। 1. प्रभव स्वामी, 2. शय्यंभव स्वामी, 3. यशोभद्र: स्वामी, 1. समूतविजय, 5. भद्रबाहु स्वामी, 6. स्थूलभद्र, यह छ आचार्य चौदह पूर्व के वेत्ता थे। श्री महावीर से दो मौ चौदह वर्प पीछे आपाढाचार्य के शिष्य तीसरे निन्हव हुये। __म्यूलिभद्र के वक्त में नव नन्दों का एक सौ पंचावन (155) वर्ष का राज्य उच्छेद करके चाणक्य ब्राह्मणने चन्द्रगुप्त राजा को राजसिंहासन ऊपर विठाया, और चन्द्रगुप्त के सन्तानोंने एक सौ आठ वर्ष तक राज्य किया / चन्द्रगुप्त मोरपाल का वेटा था, इस वास्ते चन्द्रगुप्त के वंश को मौर्यवंश कहते हैं। यह चन्द्रगुप्त जैनमत का धारक श्रावक राजा था / इस चन्द्रगुप्त तथा नव नन्द का वृत्तांत देखना होवे, तदा
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________________ जैनतत्वादर्श परिशिष्टपर्व, उतराध्ययन वृत्ति तथा आवश्यक वृत्ति से देख लेना। श्री स्थूलभद्र स्वामी के पीछे ऊपर के चार पूर्व, प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, व्यवच्छेद हो गये, तथा श्रीमहाचीर से दो सौ बीस (220) वर्ष पीछे अश्वमित्र नामा चौथा क्षणिकवादी निन्हव हुआ। और श्री स्थूलभद्रजी के समय में बारां वर्ष का दुर्मिक्ष पड़ा। उस समय में चन्द्रगुप्त का राज था। तथा श्री महावीर के पीछे 228 वर्ष व्यतीत हुए गंग नामा पांचमा निन्हव हुआ। 8. श्री स्थूलभद्र पीछे थी स्थूलभद्रजी के दो शिष्य, एक आर्यमहागिरि और दूसरा सुहस्तिसूरि आठमे पाट ऊपर बैठे। तिस में आर्यमहागिरि के शिष्य 1. बहुल, 2. बलिस्सह, फिर बलिस्सह का शिष्य श्री उमास्वातिजी जिसने तत्त्वार्थादि सूत्र रचे हैं, और उमास्वाति का शिष्य श्यामाचार्य, जिसने प्रज्ञापना (पनवणासूत्र ) बनाया। यह श्यामाचार्य श्री महावीर से तीन सौ छिहत्तर वर्ष पीछे स्वर्ग गया। और आर्य महागिरिजी तीस वर्ष गृहवास में रहे, चालीस वर्ष व्रतपर्याय अरु तीस वर्ष युगप्रधान पदवी सर्वायु एक सौ वर्ष की भोग के स्वर्ग गये। ___ और दूसरा आठमे पाटवाला सुहस्तिसूरि, जिसने एक भिखारी को दीक्षा दीनी / वो भिखारी काल सम्प्रति राजा करके चन्द्रगुप्त का बेटा बिंदुसार और बिंदु सार का बेटा अशोक और अशोक का बेटा
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________________ 47 बादश परिच्छेद कुणाल, तिस कुणाल का बेटा संप्रति राजा हुआ। तिस संपत्ति राजाने जैनधर्म की बहुत वृद्धि करी। क्योंकि कल्पसूत्र के प्रथम उद्देश में श्री महावीर के समय में अव की निसबत बहुत थोडे देशों में जैनधर्म लिखा है। मारवाड़, गुजरात, दक्षिण, पंजाब वगैरे देशों में जो जैनधर्म है, सो संप्रति राजा ही से फैला है / यद्यपि इस काल में जैनी राजा के न होने से जैनधर्म सर्व जगे नहीं है। परन्तु संप्रति राजा के समय में बहुत उन्नति पर था। क्योंकि संप्रति राजा का राज्य मध्यखण्ड और गंगा पार और सिंधु पार के सर्व देशों में था। संपति राजाने अपने नौकरों को जैन के साधुओ का वेष बना कर अपने सेवक राजाओं के जो शक, यवन, फारसादि देश ये, तिन देशों में भेजा / तिनोंने तिन राजाओ को जैन के साधुओं का आहारविहार, आचारादि सर्व बताया और समझाया / पीछे से साधुओं का विहार तिन देशों में करा कर लोगों को जैनधर्मी करा / और संप्रति राजाने निन्यानवे हजार (99000) जीर्ण जिनमन्दिरों का उद्धार कराया अर्थात् पुराने दूटों फूटको नवा बनाया। और छब्बीस हजार ( 26000) नवीन जिनमन्दिर बनवाये। और सोने, चांदी, पीतल, पाषाण, प्रमुख की सवा कोड प्रतिमा बनवाई। तिसके बनवाये मन्दिर नडौल, गिरनार, शत्रुजय, रतलाम प्रमुख अनेक स्थानों में खडे हमने अपनी आंखों से देखे हैं। और संपति की वनवाई जिनप्रतिमा तो हमने सैंकडों देखी हैं। इस
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________________ 478 जैनतत्त्वादर्श संप्रति राजा का वृत्तांत परिशिष्ट पर्वादि ग्रन्थों से समग्न नान लेना। तिस ही श्रीमुहस्तिसूरि आचार्यने उज्जैन की रहनेवाले भद्रा सेठानी का पुत्र अवन्तिसुकुमाल को दीक्षा दीनी। और जहां उस अवन्तिसुकुमालने काल करा था, तिस जगे तिस अवन्तिसुकुमाल के महाकाल नामक पुत्रने जिनमन्दिर बनवाया, और तिस मंदिर में अपने पिता के नाम से अवंति पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापन करी / कालांतर में ब्राह्मणोंने अपना जोर पा कर तिस मंदिर में मूर्ति को हेठ दाव कर ऊपर महादेव का लिंग स्थापन करके महाकाल( महादेव) का मंदिर प्रसिद्ध कर दिया। पीछे जब राजा विक्रम उज्जैन में राजा हुआ, तिस अवसर में कुमुदचंद्र अर्थात् सिद्धसेन दिवाकर नामा जैनाचार्यने कल्याणमंदिर स्तोत्र बनाया, तब शिव का लिग फट कर बीच में से पूर्वोक्त पार्श्वनाथ की मूर्ति फिर प्रगट हुई। इस का संबन्ध ऐसा है। विद्याधर गच्छ में स्कंदिला चार्य, तिनका शिण्य वृद्धवादी आचार्य था / श्री वृद्धवादी और तिस अवसर में उज्जैन का राजा विक्रमादित्य श्री सिद्धसेन था, तिसका मन्त्री कात्यायन गोत्री देव ऋषि नामा ब्राह्मण, तिसकी देवसिका नामा क्षी, तिनका पुत्र सिद्धसेन, सो विद्या के अभिमान से सारे जगत् के लोगों को तृणवत्( घासफूस समान ) समझता था,
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________________ 479 द्वादश परिच्छेद और ऐसा जानता था कि मेरे समान वुद्धिमान् कोई भी नहीं, और जो मुझ को वाद में जीत लेवे, तो मै उसका ही शिष्य बन जाऊंगा / पीछे तिसने वृद्धवादी की बहुत कीर्ति सुनी, उनके सन्मुख जानेवास्ते सुखासन ऊपर बैठ के भृगुकच्छ( भडौच ) की तरफ चला जाता था। तिस अवसर में वृद्धवादी भी रस्ते में सन्मुख आता हुआ मिला, तब आपस में दोनों का आलापसंलाप हुआ। पीछे सिद्धसेनजीने कहा कि मेरे साथ तुम वाद करो। तब वृद्धवादीने कहा कि बाद तो करूं, परंतु इस जंगलमें जीते हारे का कहनेवाला कोई साक्षी नहीं। तब सिद्धसेनजीने कहा कि यह जो गौ चरानेवाले गोप हैं, ये ही मेरे तुमारे साक्षी रहे, ये जिसको हारा कह देंगे सो हारा। तव वृद्धवादीने कहा कि बहुत अच्छा, ये ही साक्षी रहे / अब तुम वोलो / तब तुम सिद्धसेनजीने बहुत सस्कृत भाषा बोली और चुप हुआ। तव गोपोंने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं जानता, केवल ऊंचा बोल के हमारे कानों को पीड़ा देता है / तब गोप कहने लगे कि हे वृद्ध ! तूं बोल। पीछे वृद्धवादी अवसर देख के कच्छा बांध कर तिन गोपों की भाषा में कहने लगे, और थोडे थोडे कूदने भी लगे। जो छंद उच्चारा सो कहते हैं नवि मारिये नत्रि चौरिये, परदारागमण निवारिये / थोवाथोवं दाइयइ सम्गि मट्टे मट्टे जाइयइ / /
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________________ 580 जैनतत्त्वादर्श / फिर भी बोले और नाचने लगेकालो कंबल नीचोव, छाछे भरिउ दीवडो थट्ट / एवड पडीओ नीले झाड, अवर किसो छ सग्ग निलाड // यह सुन कर गोप बहुत खुशी हुये और कहने लगे कि वृद्धवादी सर्वज्ञ है। इसने कैसा मीठा कानों को सुखदायी हमारे योग्य उपदेश कहा, और सिद्धसेन तो कुछ नहीं जानता / तब सिद्धसेनजीने वृद्धवादी को कहा कि हे भगवान् ! तुम मुझ को दीक्षा दे के अपना शिष्य बनाओ। क्योंकि मेरी प्रतिज्ञा थी कि जो गोप मुझे हारा कहेंगे, तो मैं हारा, और तुमारा शिष्य बनूंगा / यह सुन कर वृद्धवादीने कहा कि भृगुपुर में राजसमा के बीच तेरा मेरा वाद होवेगा / क्योंकि इन गोप की सभा में बाद ही क्या है ! तब सिद्धसेनने कहा कि मैं अवसर नहीं जानता, अवसर के ज्ञाता हो, इस वास्ते मैं हारा। पीछे वृद्धवादीने राजसभा में उसका पराजय करा / तब सिद्धसेनने दीक्षा लीनी / गुरुने उनका नाम कुमुदचन्द्र दिया। पीछे जब आचार्य पदवी दीनी, तब फिर सिद्धसेन दिवाकर नाम रक्खा। पीछे वृद्धवादी तो और कहीं को विहार कर गये, और सिद्धसेन दिवाकर अवंति-उज्जैन में गये / श्रीसिद्धसेन और तब उज्जैन का संघ सन्मुख आया, और विक्रमराजा सिद्धसेन दिवाकर को सर्वज्ञपुत्र, ऐसा बिरुद दिया, ऐसा बिरुद बोलते हुए अवंतिनगरी
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________________ द्वादश परिच्छेद के चौक में लाये / तिस अवसर में राजा विक्रमादित्य हाथी ऊपर चढ़ा हुआ सन्मुख मिला / तब राजाने सर्वज्ञपुत्र ऐसा विरुद सुन के तिनकी परीक्षा वास्ते हाथी ऊपर बैठे ही मन से नमस्कार करा / तब आचार्यने धर्मलाम कहा / तव राजाने पूछा कि विना ही वंदना करे, आपने मेरे को धर्मलाभ क्योंकर कहा ! क्या यह धर्मलाम बहुत सस्ता है ! तब आचार्यने कहा कि, यह धर्मलाभ कोड़ चिंतामणि रत्नों से भी अधिक है / जो कोई हम को वंदना करता है, उसको हम धर्मलाभ कहते हैं / और ऐसे नहीं कि तुमने हम को वंदना नहीं करी / तुमने अपने मन से वंदना करी, मन ही तो सर्व कार्यों में प्रधान है, इस वास्ते हमने धर्मलाभ कहा है। और तुमने भी मेरी परीक्षा वास्ते ही मन में नमस्कार करा है / तब विक्रम राजाने तुष्टमान हो कर हाथी से नीचे उतर कर सर्व संघ के समक्ष वंदना करी और एक कोड़ अशर्फी दीनी, परन्तु आचार्यने अशर्फियां नहीं लीनी, क्योंकि वे त्यागी थे और राजा भी पीछे नहीं लेता / तव आचार्य की आज्ञा से संघपुरुषोंने जीर्णोद्धार में लगा दीनी | राजा के दफतर में तो ऐसा लिखा है धर्मलाभ इति प्रोक्त दूरादुच्छ्रितपाणए / सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं धराधिपः॥
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________________ છ૮૨ जैनतत्त्वाद -, श्रीविक्रमराजा के आगे सिद्धसेन दिवाकरने ऐसे भी कहा था पुण्णे वास सहस्से, सयंमि वरिसाण नवनवइकलिए। होइ कुमरनरिंदो, तुह विकमरायसारिलो / / अन्यदा सिद्धसेन चित्रकूट में गये। तहां बहुत पुराने जिनमंदिर में एक बड़ा मोटा स्तम्भ देखा। तब किसी को पूछा कि यह स्तम्भ किस तरे का है। यह सुन कर किसीने कहा कि, यह स्तम्भ औषध द्रव्यमय जलादि करके अभेद्य वज्रवत् है। इस स्तम्भ में पूर्वाचार्योंने बहुत रहस्य विद्या के पुस्तक स्थापन करे हैं, परन्तु किसी से यह स्तम्भ खुलता नहीं / यह सुन कर सिद्धसेन आचार्यने तिस स्तम्भ को सूंघा, तिसकी गंध से तिसकी प्रतिपक्षी औषधियों का रस छांटा, तिससे वो स्तम्भ कमल की तरें खिड़ गया / तब तिसमें पुस्तक देखे, तिनमें से एक पुस्तक ले कर वाचा। तिसके प्रथम पत्र में दो विद्या लिखी पाई, एक सरसों विद्या और दूसरी सुवर्णविद्या / तिसमें सरसों विद्या उसको कहते हैं कि, जब काम पडे तब मंत्रवादी जितने सरसों के दाने जप के जलाशय में गेरे, उतने ही असवार बैतालीस प्रकार के आयुधों सहित बाहिर निकल के मैदान में खड़े हो जाते हैं, तिनों से शत्रु की सेना का भंग हो जाता है। पीछे जब वो कार्य पूरा हो जाता है, तब
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________________ द्वादश परिच्छेद 483 असवार अहश्य हो जाते हैं। और दूसरी हेमविद्या से बिना महेनत के जितना चाहे, उतना सुवर्ण हो जाता है / ये दो विद्या सिद्धसेनने ले लीनी / जब आगे वांचने लगा तब स्तंभ मिल गया, सर्व पुस्तक वीच में रह गये। और आकाश में देववाणी हुई कि तू इन पुस्तकों के वाचने योग्य नहीं, आगे मत वाचना, वाचेगा तो तत्काल मर जायगा / तब सिद्धसेनने डर के विचार करा कि दो विद्या मिली दो ही सही। पीछे चित्तोड़ से विहार करके पूर्वदेश में कुमारपुर में गये। तहां देवपाल राजा था, तिसको प्रतिबोध के पक्का जैन. धर्मी करा / तहां वो राजा नित्य सिद्धांत श्रवण करता है। जब ऐसे कितनाक काल व्यतीत हुआ, तब एक समय राजा छाना आया, और आंसु से नेत्र भर कर कहने लगा कि, हे भगवन् / हम बड़े पापी है, क्योंकि आप की ऐसी उत्तम गोष्ठी का रस नहीं पी सकते हैं। कारण कि हम बड़े सकट में पड़े हैं। तव आचार्यने कहा कि तुम को क्या संकट हुआ है ? राजा कहने लगा कि, वहुत मेरे वैरी राजे इकट्ठे हो कर मेरा राज्य छीनना चाहते हैं। तब फिर आचार्यने कहा कि हे राजन् ! तू आकुलब्याकुल मत हो, जब मैं तेरा सहायक हूं, तो फिर तुझे क्या चिंता है ! यह बात सुन कर राजा वहुत राजी हुआ / पीछे आचार्यने राजा को पूर्वोक्त दोनों विद्याओं से समर्थ कर दिया। तिन विद्याओं से परवल का
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________________ 484 जैनतवादर्श भंग हो गया। तिनका डेरा डंडा सर्व राजाने लूट लिया। तब राजा आचार्य का अत्यन्त भक्त हो गया / उससे आचार्य सुखों में पड़ के शिथिलाचारी हो गया। यह स्वरूप वृद्धवादीजीने सुना, पीछे दया करके तिनका उद्धार करने वास्ते तहां आये / दरवाजे आगे खड़े हो कर कहला मेजा कि एक बूढा वादी आया है, तब सिद्धसेनने बुला कर अपने आगे बिठाया। तब वृद्धवादी सर्व अपना शरीर वस्त्र से ढांक कर बोले: अणफुल्लियफुल्लमतोडहिं, मारोवामोडिहिं मणुकुसुमेहि / अचि निरंजणं जिणं, हिंडहि काइ वणेण वणु / / इस गाथाको सुन कर सिद्धसेनने विचार भी करा, परन्तु अर्थ न पाया। तब विचार करा कि क्या यह मेरे गुरु वृद्धिवादी हैं ! जिनके कहने का मैं अर्थ नहीं जानता हूं। पीछे जब बार बार देखने लगा तब जाना कि यह मेरे गुरु हैं। पीछे नमस्कार करके क्षमापना मांगा, और पूर्वोक्त श्लोक का अर्थ पूछा / तव वृद्धवादी कहने लगे " अणफुलियेत्यादि " अणफुल्लियफुल्ल-प्राकृत के अनंत होने से अप्राप्त फूल फलों को मत तोड़ / भावार्थ यह है कि, योग जो है, सो कल्पवृक्ष
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________________ द्वादश परिच्छेद 485 है। किस तरे ? जिस योगरूप वृक्ष में यम नियम तो मूल है, और ध्यानरूप बड़ा स्कंध है, तथा समतापना, कविपना, वक्तापना, यश, प्रताप, मारण, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरणादि सिद्धियों का जो सामर्थ्य, सो फूल है, अरु केवलज्ञान फल है। अभी तो योगकल्पवृक्ष के फूल ही लगे हैं, सो केवल ज्ञानरूप फल करके आगे फलेंगे। इस वास्ते तिन अप्राप्त फल पुष्पों को क्यों तोड़ता है। अर्थात् मत तोड़, ऐसा भावार्थ है। तथा "मारोवामोडिहिं" जहां पांच महाव्रत आरोपा है, तिनको मत मरोड़ | " मणुकुसुमे. त्यादि " मनरूप फूलों की निरंजनं जिनं पूजय'-निरंजन जिन को पूज। " वनात् वनं किं हिंडसे" राजसेवादि बूरे नीरस फल क्यों करता है ? इति पद्यार्थः / तत्र सिद्धसेनसूरिने गुरुशिक्षा को अपने शिर ऊपर घर के और राजा को पूछ के वृद्धवादी गुरु के साथ विहार करा, और निविड़ चारित्र धारण करा। अनेक आचार्यों से पूर्वो का ज्ञान सीखा / वृद्धवादी स्वर्गवास हुए पीछे एकदा सिद्धसेनजीने सर्वसंघ इकट्ठा करके कहा कि जेकर तुम कहो तो सर्वागमों को मैं संस्कृत भाषा में कर दूं। तब श्रीसंघने कहा कि क्या तीर्थकर गणधर संस्कृत नहीं जानते थे ? जो तिन्होंने अर्द्धमागधी भाषा में आगम करे ? ऐसी बात कहने से तुम को पारांचिक नाम प्रायश्चित्त आवेगा, हम तुम से क्या कहें ! तुम आप ही जानते हो। तब
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________________ जैनतत्त्वादर्श सिद्धसेनने विचार करके कहा कि मैं मौन करके बारां वर्ष का पारांचिक नाम प्रायश्चित ले के गुप्त मुखवस्त्रिका, रजोहरणादि लिंग करके और अवधूतरूप धार के फिरूंगा। ऐसे कह कर गच्छ को छोड़ के नगरादिकों में पर्यटन करने लगे। बारा वर्ष के पर्यंत में उज्जैन नगरी में महाकाल के मन्दिर में शेफालिका के फूलों करके रंगे वस्त्र पहने हुए सिद्धसेनजी जा के बैठे। तब पूजारी प्रमुख लोगोंने कहा कि तुम महादेव को नमस्कार क्यों नहीं करते ! सिद्धसेन तो बोलते ही नहीं हैं। ऐसे लोगों की परंपरा से सुन कर विक्रमादित्यने भी तहां आ कर कहा क्षीरलिलिक्षो भिक्षो ! किमिति त्वया देवो न वंद्यते / तब सिद्धसेनजीने कहा कि मेरे नमस्कार से तुमारे देव का लिंग फट जायगा, फिर तुम को महादुःख होवेगा, मैं इस वास्ते नमस्कार नहीं करता हूं / तब राजाने कहा लिग फटे तो फट जाने दो, परन्तु तुम नमस्कार करो। पीछे सिद्धसेनजी पन्नासन बैठ के कहने लगे कि सुनो ! तब द्वात्रिंशिका करके देव का स्तवन करने लगा, तथाहि स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्र___ मनेकमेकाक्षरमावलिंगस् /
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________________ 487 द्वादश परिच्छेद अव्यक्तमव्याहतविश्वलोक ___ मनादिमध्यांतमपुण्यपापम् / / इत्यादि प्रथम ही श्लोक पढने से लिंग में से धुआं निकला / तब लोग कहने लगे कि शिवजी का तीसरा नेत्र खुला है, अब इस भिक्षु को अग्नि नेत्र से भस्म करेगा। तब तो बिजली के तेज की तरें तडतडाट करती प्रथम अग्नि निकली, पीछे श्रीपार्श्वनाथजी का विव प्रगट हुआ। तर वादी सिद्धसेनने कल्याणमंदिरादि स्तवनों करी स्तवन करके क्षमापन मांगा। तब राजा विक्रमादित्य कहने लगा कि हे भगवन् ! यह क्या अदृश्यपूर्व देखने में आया ! यह कौनसा नवीन देव है ! और यह प्रगट क्योंकर हुआ ! तब सिद्धसेनजीने अवंतिसुकुमाल और तिसके पुत्र महाकालने पिता के नाम से अवंति पार्श्वनाथ का मन्दिर और मूर्ति बनाई, स्थापन करी, तिसकी कितनेक वर्ष लोगोंने पूजा करी। अवसर पा कर ब्राह्मणोंने जिनप्रतिमा को हेठ दार के ऊपर यह शिवलिंग स्थापन करा इत्यादि सर्व वृत्तांत कहा / और हे राजन् ! इस मेरी स्तुति से शासनदेवताने शिवलिंग फाड़ के बीच में से यह प्रतिमा प्रगट कर दीनी / अब तूं सत्यासत्य का निर्णय कर ले। तब विक्रमादित्यने एक सौ गाम मंदिर के खरच वास्ते दिये, और देव के समक्ष गुरुमुख से वार व्रत ग्रहण करे / सिद्धसेन की बहुत महिमा करी और अपने स्थान में गया। और वादीद्र सिद्धसेन
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________________ 488 जैनतत्त्वादर्श दिवाकर को संघ ने जिनधर्म की प्रभावना से तुष्टमान हो कर संघ में लिया, अरु पूर्ववत् आचार्य बनाया। एक समय श्रीसिद्धसेन दिवाकर विहार करते हुये मालवे के देश में जो ॐकार नामक नगर है, तहां गये। तिस नगर के भक्त श्रावकोंने आचार्य को विनति करी कि, हे भगवन् ! इसी नगर के समीप एक गाम था, तिस में सुन्दर नामा राजपुत्र ग्रामणी था, तिसकी दो स्त्रियां थीं। एक स्त्री के प्रथम पुत्री जन्मी वो स्त्री मन में खिजी। तिस अवसर में उसकी सौकन भी प्रसूत होनेवाली थी। तब तिस बेटी. वालीने विचारा कि इस के पुत्र न होवे, तो ठीक है। क्योंकि नहीं तो यह पति को वल्लभ हो जावेगी। तब दाई से मिल के उस से पैदा हुए पुत्र को बाहिर गिरा दिया, और तत्काल का मरा हुआ लड़का उसके आगे रख दिया। पीछे जौनसा लड़का बाहिर गेरा गया था, उसको कुलदेवीने गौ का रूप करके पाला / जब आठ वर्ष का हुआ, तब इस ॐकार नगर के शिवमवन के अधिकारी भरटने देखा और अपना चेला बना लिया। एकदा आंखों से अंधे कान्यकुब्ज देश के राजाने दिग्विजय के कार्य से तहां पड़ाव करा / तब रात्रि में उस छोटे चेले को शिवभक्त व्यंतर देवताने कहा कि, शेष भोग राजा को देना, उसकी आंखें अच्छी हो जावेगी। तैसे ही करा, तिससे राजा की आंखें अच्छी हो गई। तब राजाने सौ
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________________ 489 द्वादश परिच्छेद गाम मंदिर के खरच वास्ते दिये, और यह बड़ा ऊंचा जो शिव का मंदिर है, सो भी उसीने बनवाया। और हम इस नगर में रहते हैं, परन्तु मिथ्यादृष्टियों के बलवान होने से हम जिनमंदिर बनाने नहीं पाते हैं। इस वास्ते आप से विनति करते हैं कि, इस मंदिर से अधिक हमारा मन्दिर यहां बने तो ठीक है, और आप सर्व तरे से समर्थ हैं। तिन का वचन सुन कर वादींद्रने अवंति में आकर चार श्लोक हाथ में ले कर विक्रमादित्य के द्वार पास आये / दरवाजेदार के मुख से गजा को कहलाया दिदृक्षुभिक्षुरायानस्तिष्ठति द्वारवारितः / हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु / / तिस श्लोक को सुनकर विक्रमादित्यने बदले का यह श्लोक लिखकर भेजा दत्तानि दश लक्षाणि, शासनानि चतुर्दश / हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु / तिस श्लोक को सुन कर आचार्यने कहला मेजा कि भिक्षु तुम को मिलना चाहता है, परन्तु धन नहीं लेता। तब राजाने सन्मुख वुलवाये और पिछान के कहने लगा कि गुरुनी, बहुत दिनों पीछे दर्शन दिया। तब आचार्य कहने लगे कि धर्मकार्य के करने से बहुत दिन हो गये, इस वास्ते चिर से आना हुआ है / अव चार श्लोक तुम सुनो
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________________ 490 जैनतत्वादर्श अपूर्वेयं धनुर्विद्या, भवता शिक्षिता कुतः / मागणौधः समभ्येति, गुणो याति दिगंतरे // 1 // सरस्वती स्थिता वक्त्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे / कीर्तिः किं कुपिता राजन् !, येन देशांतरं गता ? // 2 // कीर्तिस्ते जातजाडयेव, चतुरंभोधिमन्जनात्, / आतपाय धरानाथ ! गता माडमंडलम् // 3 // सर्वदा सर्वदोसीति, मिथ्या संस्तूयसे जनैः / नारयो लेभिरे पृष्ठं, न वक्षः परयोषितः // 4 // यह चारों श्लोक सुन के राजा बहुत खुश हुआ, और आचार्य को कहने लगा कि जो मेरे राज्य में सार है, सो मांगो तो दे दूं। तब आचार्यने कहा कि मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिये / परन्तु ॐकार नगर में चतुर जैनमंदिर शिवमंदिर से ऊंचा वनाओ, और प्रतिष्ठा भी कराओ। तब राजाने बैसे ही करा / तब जिनमत की प्रभावना को देख के संघ तुष्टमान हुआ। इत्यादि प्रकार से जैनधर्म की प्रभावना करते हुए दक्षिण देश में प्रतिष्ठानपुर में जा कर अनशन करके देवलोक गये / तब तहां से संघने एक भट्ट को सिद्धसेन की गच्छ पास खबर करने को भेजा, तिस भट्टने सूरियों की सभा में आधा श्लोक पढा और बार बार पढता ही रहा / वो आधा श्लोक यह है:
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________________ 453 द्वादश परिच्छेद स्फुरति वादिखद्योता, सांप्रतं दक्षिणापथे। जब बार बार यह अर्ध श्लोक सुना तब सिद्धसेन की बहिन साध्वीने सिद्धसारस्वत मन्त्र से अर्द्ध श्लोक पूरा करा नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः॥ पीछे तिस भट्टने सर्व वृत्तांत सुनाया तब संघ को बड़ा शोक हुआ। यह सिद्धसेन दिवाकर का प्रसंग से सम्बन्ध कथन करा। यह सुहस्ति आचार्य तीस वर्ष गृहस्थावास में रहे, और चौवीस वर्ष व्रतपर्याय, तथा छैतालीस वर्ष युगप्रधान पदवी, सब मिल कर एक सौ वर्ष की आयु भोग के महावीरजी से दो सौ एकानवे ( 291 ) वर्ष पीछे स्वर्ग गये, ये आठमे पाट पर मार्य महागिरि और सुहस्ति आचार्य हुए। 9. श्री सुहस्तिसूरि के पाट ऊपर श्री सुस्थित और सुप्रतिबद्ध नामा दो शिष्य बैठे। तिनोंने कोड़ों बार सूरि. मन्त्र का जाप करा, इस वास्ते गच्छ का 'कोटिक ' ऐसा दूसरा नाम संघने रक्खा, क्योंकि सुधर्मास्वामी से लेकर आठ पाट तक तो अनगार निर्मथगच्छ नाम था, पीछे दूसरा कोटिक नाम हुआ। 10. श्री सुस्थितसूरि के पाट ऊपर श्री इंद्रदिवसरित ...
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________________ 492 जैनतत्त्वादर्श हुमा / इस अवसर में महावीरजी से चार सौ त्रेपन (453) वर्ष पीछे गर्दभिल्ल राजा के उच्छेद करनेवाला दूसरा कालिकाचार्य हुआ। इस की कथा कल्पसूत्र में प्रसिद्ध है। और महावीर से 453 वर्ष पीछे भृगुकच्छ ( भडौच ) में श्री आर्य खपुटाचार्य विद्याचक्रवर्ती हुआ / इन का प्रबन्ध प्रबन्धचिंतामणि ग्रंथ तथा हारिभद्री आवश्यक की टीका से जान लेना / और प्रभावक चरित्र में ऐसा लिखा है कि, महावीर से 484 वर्ष पीछे खपुटाचार्य और 467 वर्ष पीछे आर्यमंगु, वृद्धवादी, पादलित तथा कल्याणमन्दिर का कर्ता, ऊपर जिस का प्रबन्ध लिख आये हैं, सो सिद्धसेन दिवाकर हुआ। जिनोंने विक्रमादित्य को जैनधर्मी करा / सो विक्रमा'दित्य महावीर से 470 वर्ष पीछे हुआ। सो 470 वर्ष ऐसे हुये हैं:जिस रात्रि में श्री महावीर का निर्वाण हुआ, उस दिन अवन्ति नगरी में पालक नामा राजा को विक्रमादित्य राज्याभिषेक हुआ। यह पालक चंद्रप्रयोत का का समय पोता था। तिसका राज्य 60 वर्ष रहा। तिसके पीछे श्रेणिक का बेटा कोणिक और कोणिक का बेटा उदायी, जब बिना पुत्र के मरा तब तिस की गद्दी ऊपर नंद नामा नाई बैठा। तिनकी गद्दी में सर्व नंद नामा नव राजे हुए / तिनका राज्य 155 वर्ष तक रहा। नवमें नंद की गद्दी ऊपर मौर्यवंशी चंद्रगुप्त राजा
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________________ द्वादश परिच्छेद हुआ। तिसका बेटा विंदुसार, तिसका बेटा अशोक, तिसका वेटा कुणाल, तिसका बेटा सम्प्रति महाराजादि हुए। इन मौर्यवंगियों का सर्व राज 108 वर्ष तक रहा / यह पूर्वोक्त सर्व राजे प्रायः जैनमतवाले थे / तिनके पीछे तीस वर्ष तक पुष्यमित्र राजा का राज्य रहा। तिस पीछे बलमित्र, भानुमित्र, इन दोनों राजाओं का राज्य 60 वर्ष तक रहा, तिस पीछे नभवाहन राजा का राज्य 40 वर्ष तक रहा, तिस पीछे तेरा वर्ष गर्दभिल्ली का राज्य रहा, और चार वर्ष शकों का राज्य रहा, पीछे विक्रमादित्यने शकों को जीत के अपना राज्य जमाया / यह सर्व 470 वर्ष हुए। 11. श्री इन्द्रदिन्नसूरि के पाट ऊपर श्री दिन्नसूरि हुये। 12. श्री दिन्नसूरि के पाट ऊपर श्री सिंहगिरिसूरि हुये। 13. श्री सिंहगिरिजी के पाट ऊपर वज्रस्वामीजी हुये / जिनको बाल्यावस्था से जातिस्मरण ज्ञान श्री वज्रस्वामी था, जिन को आकाशगमन विद्या भी थी; जिनोंने दूसरे वारा वर्षी काल में संघ की रक्षा करी। तथा जिनोंने दक्षिणपथ में बौधों के राज्य में जिनेंद्र पूजा वास्ते फूल ला के दिये, बौद्ध राजा को जैनमती करा / यह आचार्य पिछला दश पूर्व का पाठक हुआ। जिनोंसे हमारी वज्री शाखा उत्पन्न हुई / इनका प्रबन्ध आवश्यक वृत्ति से जान लेना / सो वज्रस्वामी महावीर से पीछे चार सौ छयानवे और विक्रमादित्य के संवत् छब्बीस
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________________ 494 जैनतत्वदर्श में जन्में, और आठ वर्ष घर में रहे, चौतालीस वर्ष समान साधुव्रत में रहे, और छत्तीस वर्ष युगप्रधान पदवी में रहे, सर्वायु अठासी वर्ष की भोगी। तथा इन आचार्य के समय में जावड़शाह सेठने शत्रुजय तीर्थ का संवत् 108 में तेरहवां बड़ा उद्धार करा, तिसकी वज्रस्वामीने प्रतिष्ठा करी / यह वज्रस्वामी महावीर से 504 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। इन वज्रस्वामी के समय में दशमा पूर्व और चौथा संहनन और चौथा संस्थान व्यवच्छेद हो गये। यहां श्री सुहस्तिसूरि आठमे और वज्रस्वामी तेरहवें पाट के बीच में अपर पटावलियों में-१. गुणसुन्दरसूरि, 2. कालिकाचार्य, 3. स्कंदिलाचार्य, 4. रेवतमित्रसूरि, 5. धर्मसूरि, 6. भद्रगुप्ताचार्य, 7. गुप्ताचार्य, यह सात क्रम से युगप्रधान आचार्य हुये। तथा श्रीमहावीर से पांच सौ तेतीस (533 ) वर्ष पीछे श्रीआचार्य रक्षितसूरिने सर्व शास्त्रों का अनुयोग पृथग् पृथग कर दिया। यह प्रबंध आवश्यक वृत्ति से जान लेना / तथा श्री महावीर से 548 वर्ष पीछे त्रैराशि के जीतनेवाले श्रीगुप्तसूरि हुये, तिनका प्रबन्ध उत्तराध्ययन की वृत्ति तथा विशेषावश्यक से जान लेना। जिसने त्रैराशिक मत निकाला तिसका नाम रोहगुप्त था, वो गुप्तसूरि का चेला था, जिसका उल्लक गोत्र था। जब रोहगुप्त गुरु के आगे हारा, और मत कदाग्रह न छोड़ा, तब अंतरंजिका नंगरी के बलश्री राजाने अपने राज्य से बाहिर निकाल दिया।
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________________ द्वादश परिच्छेद 495 तव तिस रोहगुप्तने कणाद नाम शिष्य करा / उसको-१, द्रव्य, 2. गुण, 3. कर्म, 4. सामान्य, 5. विशेष, 6. समवाय, इन षट् पदार्थों का स्वरूप बतलाया, तब तिस कणादने वैशेषिक सूत्र बनाये, तहां से कैशेषिक मत चला। 14. श्रीवज्रस्वामी के पाट ऊपर चौदवें वज्रसेनसूरिजी बैठे। वे दुर्भिक्ष में वज्रस्वामी के वचन से श्रीवजमेनसूरि सोपारक पत्तन में गये। तहां जिनदत्त के घर में ईश्वरी नामा तिसकी भार्याने लाख रूपक के खरचने से एक हांडी अन्न की रांधी। जिस में विप ( जहर ) डालने लगी। क्योंकि उनोंने विचारा था कि अन्न तो मिलता नहीं, तिस वास्ते जहर खाके सर्व घर के आदमी मर जायेंगे / तिस अवसर में वज्रसेनसूरि तहां आये। वो उनको कहने लगे कि तुम जहर मत खाओ, कल को सुकाल हो जावेगा / तैसे ही हुआ। तव तिन सेठ के चार पुत्रोंने दीक्षा लीनी, तिन के नाम लिखते हैं:-१. नागेंद्र, 2. चन्द्र, 3. निवृत्त, 4. विद्याधर | तिन चारों से स्व स्व नाम के चार कुल बने। यह वज्रसेनसूरि नव वर्ष तक गृहस्थावास में रहे, और 116 वर्ष समान साधुव्रत में रहे, तथा तीन वर्ष युगप्रधान पदवी में रहे, सर्व आयु 128 वर्ष की भोग के महावीर से 620 वर्ष पीछे स्वर्ग गये। यहां श्रीवजस्वामी और वज्रसेनसूरि के बीच में आर्य रक्षितसूरि तथा दुर्बलिकापुण्य सूरि, यह दोनों युगप्रधान
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________________ 496 जैनतत्वादर्श हुये / महावीर से 584 वर्ष पीछे सातवां निन्हव हुआ। तथा महावीर से 609 वर्ष पीछे कृष्णसूरि का शिष्य शिवमूति नामक था, तिसने दिगंबर मत प्रवृत्त करा, सो अधिकार विशेषावश्यकादिकों से जान लेना। 15. श्रीवज्रसेनसूरि के पाट ऊपर चन्द्रसूरि बैठा / तिनके नाम से गच्छ का तीसरा नाम चंद्रगच्छ हुआ / 16. श्रीचन्द्रसूरि के पाट ऊपर सामंतभद्रसूरि हुये। वे पूर्वगत श्रुत के जानकार थे / वैराग के रंग से निर्मल हुए जङ्गलों में रहते थे / तब लोगोंने चन्द्रगच्छ का नाम वनवासीगच्छ रक्खा / 17. श्रीसामंतभद्र सूरि के पाट ऊपर वृद्धदेवसूरि हुये। तथा महावीर से 595 वर्ष पीछे कोरंट नगर में नाहड नामा मंत्रीने तथा सत्यपुर में नाहड मन्त्रीने मंदिर बनवाया, प्रतिमा की प्रतिष्ठा जज्जकसूरिने करी, प्रतिमा महावीर की स्थापन करी, जिस को " जयउ वीरसञ्चउरिमंडण" कहते हैं। 18. श्रीवृद्धदेवमूरि के पाट ऊपर प्रद्योतनसूरि हुये / 19. श्री प्रद्योतनसरि के पाट ऊपर मानदेवमरि हुये। इन के सूरिपद स्थापनावसर में दोनों स्कंधों श्रीमानदेष पर सरस्वती और लक्ष्मी साक्षात् देख के यह चारित्र से भ्रष्ट हो जावेगा, ऐसा विचार करके खिन्नचित्त गुरु को जान के गुरु के आगे ऐसा नियम
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________________ द्वादश परिच्छेद 497 करा कि भक्तिवाले घर की मिशा और दूध, दही, घृत, मीठा, तेल, अरु सर्व पक्वान्न का त्याग किया / तब तिनके तप के प्रभाव से नडोलपुर जो पाली के पास है, तिस में-१. पद्मा, 2. जया, 3. विजया, 4. अपराजिता ये चार नाम की चार देवी सेवा करती देखीं। कोई मूर्ख कहने लगा कि यह आचार्य सियो का संग क्यो करता है ! तव तिन देवियोंने तिसको शिक्षा दीनी / तथा तिसके समय में तक्षिला (गजनी ) नगरी में बहुन श्रावक थे, तिन में मरी का उपद्रव हुआ। तिसकी गांति के वास्ते मानदेवसूरिने नडोल नगरी से गांतिम्तोत्र बना कर भेजा। 20. श्री मानदेवमरि के पाट ऊपर मानतुंगसूरि हुये, जिनोंने भक्तामर स्तवन करके वाण अरु श्रीनामनुगतर मयूर पडितों की विद्या करके चमत्कृत हुआ जो वृद्ध भोजराजा तिनको प्रतिबोधा, और भयहर स्तवन करके नाग राजा वश करा / तथा भतिभरेत्यादि स्तवन जिनाने करे है। प्रभावक चरित्र में प्रथम मानतुंगसरि का चरित्र कहा है और पीछे देवसूरि के शिप्य प्रद्योतनसूरि, तिनके शिष्य मानदेवरि का प्रबंध कहा है / परन्तु तहां शंका न करनी चाहिये, क्योंकि प्रभावक चरित्र में और भी कई प्रवन्ध आगे पीछे कहे हैं। 21. श्रीमानतुंगसूरि के पाट ऊपर वीरसूरि बैठा। तिस वीरसूरिने महावीर से 700 वर्ष पीछे तथा विक्रम
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________________ 498 जैनतत्वादर्श संवत् के तीन सौ वर्ष पीछे नागपुर में श्री नमि अर्हत की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करी / यदुक्तं नागपुरे नमिमवनप्रतिष्ठया महितपाणिसौभाग्यः / अमवद्वीराचार्यत्रिभिः शतैः साधिकै राज्ञः // 22. श्रीवीरमरि के पाट ऊपर जयदेवसूरि बैठे। 23. श्रीजयदेवसूरि के पाट अपर देवानंदसूरि बैठे। इस अवसर में महावीर से 845 वर्ष पीछे वल्लभी नगरी भंग हुई, तथा 882 वर्ष पीछे चैत्य स्थिति, तथा 886 वर्ष पीछे ब्रह्मद्वीपिका। 24. श्रीदेवानंदसूरि के पाट ऊपर विक्रमसूरि बैठे। 25. श्रीविक्रमसूरि के पाट ऊपर नरसिंहसूरि बैठे, यतानरसिंहसरिरासीदतोऽखिलग्रंथपारगो येन / यक्षो नरसिंहपुरे, मांसरतिस्त्याजित: स्वगिरा // 26. श्रीनरसिंहसूरि के पाट ऊपर समुद्रसूरि बैठा / खीमीणराजकुलजोऽपि समुद्रसरि गच्छं शशास किल यः प्रवणः प्रमाणी / जित्वा तदाक्षपणकान् स्ववशं वितेने, नागदे भुजगनाथनमस्यतीर्थम् // 27. श्रीसमुद्रसूरि के पाट ऊपर मानदेवसूरि हुए।
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________________ द्वादश परिच्छेद 499 विद्यासमुद्रहरिभद्रमुनींद्रमित्रं, सरिबभूव पुनरेव हि मानदेवः / मांद्यात्प्रयातमपि योनघसरिमंत्रं, ले विकामुखगिरा तपसोजयते / श्रीमहावीर से एक हजार वर्ष पीछे सत्यमित्र आचार्य के साथ पूर्वो का व्यवच्छेद हुआ / यहां 1. नागहस्ति, 2. रेवतीमित्र, 3. ब्रह्मद्वीप, 4. नागार्जुन, 5. भूतदिन्न, 6. कालिकसूरि, ये छ युगप्रधान यथाक्रम से वज्र सेनसूरि और सत्यमित्र के बीच में हुए / इन पूर्वोक्त छ युगप्रधानों में से शक्राभिवंदित और प्रथमानुयोग सूत्रों का सूत्रधार कल्प कालिकाचार्य ने महावीर से 993 वर्ष पीछे पंचमी से चौथ की संवत्सरी करी / तथा महावीर से 1055 वर्ष पीछे और विक्रमादित्य से 585 वर्ष पीछे याकनी साध्वी का धर्मपुत्र हरिभद्रसूरि स्वर्गवास हुए / तथा 1115 वर्ष पीछे जिनभद्रगणि युगप्रधान हुआ। और यह जिनमद्रीय ध्यान. शतक का कर्ता होने से और हरिभद्रसूरि के टीका करने से दूसरा जिनभद्र है, यह कथन पट्टावलि में है। परन्तु जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण की आयु 104 वर्ष की थी, इस वास्ते जेकर हरिभद्रसूरि के वक्त में जीते हो तो भी विरोध नहीं। / / 28. श्रीमानदेवसूरि के पाट ऊपर विबुधप्रभसूरि हुआ।
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________________ 500 जैनतत्वादर्श 29. श्रीविबुधप्रभसूरि के पाट ऊपर जयानंदसूरि हुआ। 30. श्रीजयानंदसूरि के पाट ऊपर रविप्रमसूरि हुआ। विसने महावीर से 1170 वर्ष पीछे और विक्रमसंवत् से 700 वर्ष पीछे नडोल नगर में नेमिनाथ के प्रासाद-मंदिर की प्रतिष्ठा करी / तथा वीर से 1190 वर्ष पीछे उमास्वाति युगप्रधान हुआ। 31. श्रीरविप्रभसूरि के पाट ऊपर श्री यशोदेवसूरि बैठे। यहां महावीर से 1272 वर्ष पीछे और विक्रम सम्वत् से 802 के साल में अणहलपुर पट्टन वनराज राजाने बसाया / बनराज जैनी राजा था। तथा वीर से 1270 और विक्रमादित्य के सम्बत् 800 के साल में भाद्रपद शुक्ल तीज के दिन बप्पभट्ट आचार्य का जन्म हुआ, जिसने गवालियर के आम नाम राजा को जैनी बनाया / इन का विशेष चरित्र प्रबन्धचिंतामणि ग्रन्थ से जान लेना। 32. श्रीयशोदेवसरि के पाट ऊपर प्रद्युम्नसूरिजी हुआ। 33. श्रीप्रद्युम्नसूरि के पाट ऊपर मानदेवसूरि उपधानवाच्यग्रन्थ का कर्ता हुआ। 34. श्री मानदेवसूरि के पाट ऊपर विमलचन्द्रजीसूरि हुए। 35. श्रीविमलचन्द्रसूरि के पाट ऊपर उद्योतनसूरि हुआ, सो उद्योतनसूरि अर्बुदाचल-आबू श्रीउद्योतनसूरि के पहाड़ ऊपर यात्रा करने आये थे, वहां टेली गाम के पास बड़े बड़वृक्ष की छाया
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________________ 501 द्वादश परिच्छेद में वैठे थे, अपने पाट की वृद्धि वास्ते अच्छा मुहूर्त देख करके महावीर से 1464 वर्ष और विक्रम से 664 वर्ष पीछे अपने पाट ऊपर सर्वदेव प्रमुख आठ आचार्य स्थापे / कोई एकले सर्वदेवसूरि को ही कहते हैं। बडे बड़ के हेठ सूरिपदवी देने के कारण तहां से वनवासी गच्छ का पांचमा नाम बडगच्छ हुआ / तथा प्रधानशिष्यसंतत्या ज्ञानादिगुणः प्रधानचरितैश्च वृद्धत्वाहगच्छ इत्यपि / 36. श्रीउद्योतनसूरि के पाट ऊपर सर्वदेवसरि हुए / यहां कोई एक तो प्रद्युम्नसूरि और उपधान श्रीमर्वदेवसूरि ग्रन्थ का कर्ता मानदेवसूरि, इन दोनों को पट्टधर नहीं मानते हैं। तिनके अभिप्राय से सर्वदेवसूरि चौतीसमे पाट पर हुआ, उस सर्वदेवसूरिने गौतमस्वामी की तरें सुशिष्य लब्धिमान् विक्रमसंवत् से 1010 वर्ष पीछे रामसैन्य पुर में श्री ऋषभचैत्य तथा श्री चन्द्रप्रमचैत्य की प्रतिष्ठा करी। तथा चन्द्रावती में कुंकणमन्त्री को प्रतिवोध के दीक्षा दीनी तिसने ही चन्द्रावती में जैनमन्दिर बनवाया था। तथा विक्रम से 1026 वर्ष पीछे धनपाल पण्डितने देशीनाममाला बनाई। तथा विक्रम से 1066 वर्ष पीछे उत्तराध्ययन की टीका करनेवाला थिरापद्रीयगच्छ में वादी वैताल शांतिसूरि हुये।
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________________ 502 जैनतत्वादर्श 37. श्री सर्वदेवसूरि के पाट ऊपर देवसूरि हुए, तिन को रूपश्री ऐसा राजाने बिरुद दिया। 38. श्री देवसूरि के पाट ऊपर फिर सर्वदेवसूरि हुए, जिसने यशोभद्र, नेमिचंद्रादि आठ आचार्यों को आचार्य पदवी दीनी / तथा महावीर से 1496 वर्ष पीछे तक्षिला का नाम गजनी रक्खा गया। 39. श्री सर्वदेवसूरि के पाट ऊपर यशोभद्र अरु नेमिचंद्र ये दो गुरु भाई आचार्य हुये / तथा विक्रम से 1135 वर्ष पीछे [ कोई कहता है कि 1139 वर्ष पीछे ] नवांगीवृत्ति करनेवाला श्री अभयदेवसूरि स्वर्गवासी हुये। तथा कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरिने चित्रकूट में महावीर के षट् कल्याणक प्ररूपे / 40. श्री यशोभद्रसूरि तथा नेमिचन्द्रसूरि के पाट ऊपर मुनिचन्द्रसूरि हुये। जिनोंने जावश्री मुनिचन्द्रसूरि जीव एक सौ बार पानी पीना रक्खा, और सर्व विगय का त्याग करा / तथा जिनोंने हरिभद्रसूरिकृत अनेकांतजयपताकादि अनेक अन्थों की पंजिका करी, उपदेशपद की वृत्ति, योगबिंदु की वृत्ति, इत्यादिकों के करने से तार्किकशिरोमणि जगत् में प्रसिद्ध हुए। और यह आचार्य बड़ा त्यागी और निःस्पृह हुआ / यहां विक्रम राजा से 1159 वर्ष पीछे चन्द्रप्रभ से पौर्णिमीयक मत की
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________________ द्वादश परिच्छेद 503 उत्पत्ति हुई / तिस चन्द्रप्रम के प्रतिवोधने वास्ते मुनिचन्द्रसरिजीने पाक्षिकसप्ततिका करी / तथा श्री मुनिचन्द्रसूरि का शिष्य अजितदेवसूरि वादी अरु देवसूरि प्रमुख हुये / तहां वादी अजितश्री अजितदेवसूरि देवसूरिजीने अणहलपुर पाटन में जय सिंहदेव राजा की अनेक विद्वजनसंयुक्त सभा में चौरासी वाद वादियों से जीते / दिगम्बरमत के चक्रवर्ती कुमुदचन्द्र आचार्य को जिनोंने वाद में जीता, और दिगम्बरों का पट्टन में प्रवेश करना बंद कराया। सो आज तक प्रसिद्ध है / तथा विक्रम से 1204 वर्ष पीछे फलवद्धिग्राम में चैत्यविव की प्रतिष्ठा करी, सो तीर्थ आज भी प्रसिद्ध है / तथा आरासणे में नेमिनाथ की प्रतिष्ठा करी / तथा जिनोंने 84000 चौरासी हजार श्लोकप्रमाण स्याद्वादरलाकर नामा अन्य बनाया, तथा जिनों से बड़े नामावर चौवीस आचार्यों की शाखा हुई। इनों का जन्म संवत् 1134 में हुआ, सं० 1152 में दीक्षा लीनी, स. 1174 में सूरिपद मिला, सं० 1220 की श्रावण कृष्ण सक्षमी गुरुवार स्वर्ग को प्राप्त हुये। तिनों के समय में देवचन्द्रसूरि का शिष्य तीन क्रोड़ ग्रन्थ का कर्ता, कलिकाल में सर्वज्ञ विरुद श्री हेमचन्द्र- का धारक, पाटण के राजा कुमारपाल का सूरि प्रतिबोधक, सवा लक्ष लोकप्रमाण पंचांग व्याकरण का कर्ता श्री हेमचन्द्रसूरि विद्या
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________________ 504 जैनतत्त्वादर्श . समुद्र हुआ / तिनका विक्रमसंवत् 1145 में जन्म, 1150 में दीक्षा, 1166 में सूरिपद अरु 1229 में स्वर्गवास हुआ। इनों का सम्पूर्ण प्रबन्ध देखना होवे, तदा श्री प्रबन्धचिंतामणि तथा कुमारपालचरित्र देख लेना। 41. श्री मुनिचन्द्रसूरि के पाट ऊपर अजितदेवसूरि हुये / तिनों के समय में संवत् 1204 में खरतरोत्पत्ति, संवत् 1233 में आंचलिकमतोत्पत्ति, संवत् 1636 में सार्द्धपौ. र्णिमीयक मतोत्पत्ति, संवत् 1250 में आगमिक मतोत्पत्ति हुई। तथा वीरमगवान् से 1692 वर्ष पीछे वाग्भट मन्त्रीने शत्रुजय का चौदहवां उद्धार कराया, साढे तीन क्रोड़ रूपक लगाया। 42. श्री अजितदेवसूरि के पाट ऊपर विजयसिंहसूरि हुये, जिनोंने विवेकमंजरी शुद्ध करी / जिनोंका बड़ा शिष्य सोमप्रभसूरि शतार्थितया प्रसिद्ध था अर्थात् जिनों के बनाये एक एक श्लोकों के सौ सौ तरे के अर्थ निकलें, और दूसरा मणिरत्नसूरि था। __43. श्री विजयसिंहसूरि के पाट ऊपर सोमप्रभसूरि और मणिरलसूरि हुये। 14. श्री सोमप्रभ तथा मणिरत्नसूरि के पाट ऊपर जगचन्द्रसूरि हुये। जिनोंने अपने गच्छ श्री जगचन्द्रसूरि को शिथिल देख के और गुरु की आज्ञा से और तपागच्छ वैराग्य रस के समुद्र चैत्रवाल गच्छीय देव मद्र उपाध्याय की सहाय से क्रिया का उद्धार
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________________ द्वादश परिच्छेद 505 किया, और हीरला जगचंद्रसूरि बिरुद पाया / क्योंकि जिनोंने चित्तौड़ के राजा की राजधानी अघाट अर्थात् अहड़ में बचीस दिगम्बराचार्यों के साथ वाद किया, हीरे की तरे अभेद्य रहे / तव राजाने हीरला जगचंद्रसूरि ऐसा विरुद दिया / तथा जिनोंने यावज्जीव आचाम्लतप का अभिग्रह करा / जव बारा वर्ष तप करते बीते, तब चित्तौड़ के रानाने तपा विरुद दिया। संवत् 1285 के वर्ष में बडगच्छ का नाम तपगच्छ हुआ, यह छठा नाम हुआ। 1. निर्ग्रन्थ, 2. कोटिक, 3. चन्द्र, 4. वनवासी, 5. वडगच्छ, 6. तपागच्छ, इन छ नामों के प्रवृत्त होने में छ आचार्य कारण हुये हैं, तिनके नाम अनुक्रम से लिखते है:१. श्री सुधर्मास्वामी, 2. श्री सुस्थितसूरि, 3. श्री चन्द्र सरि, 4. श्री सामंतभद्रसूरि, 5. श्री सर्वदेवसूरि, 6. श्री जगञ्चन्द्रसूरि। श्री जगच्चन्द्रसूरि पट्टे देवेन्द्रसूरि हुए। सो मालवे की उज्जैन नगरी में जिनचंद्र नामा बड़े सेठ का श्रीदेवेन्द्रसूरि तथा वीरधवल नामा पुत्र, तिसके विवाह निमित्त श्रीविजयचन्द्रसूरि महोत्सव हो रहा था, तब वीरधवल कुमार को प्रतिबोध करके संवत् 1302 में दीक्षा दीनी, तिस पीछे तिसके भाई को भी दीक्षा दे कर चिरकाल तक मालव देश में विचरे / तिस पीछे गुर्जर देश में श्री देवेन्द्रसूरि
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________________ 506 जैनतत्त्वादर्श स्थंमतीर्थ में आये / तहां पहिले श्री विजयचंद्रसूरि गीताथों को पृथक् पृथक् वस्त्र के पोटले देता है, और नित्य विगय खाने की आज्ञा देता है, और वस्त्र धोने की तथा फल, शाक लेने की और निर्विकृत के प्रत्याख्यान में विगयगत का लेना कहता है / और आर्या का लाया आहार साधु खावे, यह आज्ञा देता है, और दिन प्रति द्विविध प्रत्याख्यान और गृहस्थों के अवर्जने वास्ते प्रतिक्रमण करने की आज्ञा देता है। और संविभाग के दिन में तिसके घर में गीतार्थ जावे, लेप की संनिधि रखनी, तत्कालोष्णोदक का ग्रहण करना, इत्यादि काम करने से कितनेक साधु शिथिलाचार्यों को साथ लेकर सदोष पौषधशाला में रहता था। इन विजयचंद्राचार्य की उत्पत्ति ऐसे है। मंत्री वस्तुपाल के घर में विजयचंद्र नामा दफतरी था। वो किसी अपराध से जेलखाने में कैद हुआ, तब देवभद्र उपाध्यायने दीक्षा की प्रतिज्ञा करवा कर छुड़ा दिया। पीछे तिसने दीक्षा लीनी / सो बुद्धिबल से बहुश्रुत हो गया। तब मंत्री वस्तुपालने कहा कि ये अभिमानी हैं, इस वास्ते सूरि पद के योग्य नहीं हैं। इस तरह मना करने पर भी जगचंद्रसूरिजीने देवभद्र उपाध्याय के कहने से सूरि पद दे दिया। यह देवेन्द्रसरि का सहायक होवेगा, ऐसा जान कर सूरि पद दिया / पीछे वह विजयचंद्र बहुत काल तक देवेंद्रसूरि के साथ विनयवान् शिष्य की तरह वर्तता रहा / परन्तु जब मालव देश से देवेंद्र
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________________ द्वादश परिच्छेद 500 सूरि आये, तब वंदना करने को भी नहीं आया / तब देवेंद्रसूरिजीने कहला मेजा कि एक वस्ती में तुम बारह वर्ष कैसे रहे ! तब विजयचंद्रने कहा कि शांत दांतों को वारह वर्ष एक जगह में रहने से कुछ दोष नहीं / संविग्नसाधु सर्व देवेंद्र सूरि के साथ रहे, और देवेंद्रसूरिजी तो अनेक संविग्न साधु समुदाय के साथ उपाश्रय में ही रहे। तब लोकोंने बडी शाला में रहने से विजयचंद्रसूरि के समुदाय का नाम वृद्ध पौशालिक रक्खा और देवेंद्रसूरिजी के समुदाय का लघुपौशालिक नाम दिया। और स्थंमतीर्थ के चौक में कुमारपाल के विहार में धर्मदेशना में मंत्री वस्तुपालने चारों वेदों का निर्णय दायक, स्वसमय परसमय के जानकार देवेंद्रसूरिजी को वंदना दे के बहुमान दिया। और देवेंद्रसूरिजी विजयचंद्र की उपेक्षा करके विचरते हुये क्रम से पाल्हणपुर में आये। तहां चौरासी इभ्य सेठ अनेक पुरुषों के साथ परिवरे, सुखासन ऊपर बैठे हुये शास्त्र के बड़े श्रोता व्याख्यान सुनने आते थे / और पालनपुर के विहार में रोज की रोज एक मूढक प्रमाण अक्षत और सोलह मन सोपारी दर्शन करनेवाले श्रावकों की चढाई चढ़ती थी, इत्यादि। बड़े धर्मी लोगोंने गुरु को विनति करी कि हे भगवन् ! यहां आप किसी को आचार्य पदवी देकर हमारा मनोरथ पूरा करो। तब गुरुने उचित जान के पालनपुर में विक्रम संवत् 1323 में विद्यानंदसूरि नाम दे के वीरधवल को सूरिपद दीना, और
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________________ जैनतत्वादर्श तिसके अनुज भीमसिंह को धर्मकीर्ति उपाध्याय की पदवी तीनी / तिस अवसर में प्रहादनविहार के सौवर्ण कपिशीर्ष मंडप से कुंकुम की वर्षा हुई, तब सर्व लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। श्री विद्यानंदमूरिने विद्यानंद नाम नवीन व्याकरण बनाया / यदुक्तम् विद्यानंदाभिधं येन कृतं व्याकरणं नवम् / भाति सवोत्तम स्वल्पसूत्रं वह्वर्थसंग्रहम् / पीछे श्री देवेंद्रसूरिजी फिर मालवे को गये / देवेंद्रसूरिजी के करे हुये ग्रंथों का नाम लिखते हैं:-१. श्राद्धदिन. ऋत्यसूत्रवृत्ति, 2. नव्यकर्मग्रंथपासूत्रवृत्ति, 3. सिद्धपंचाशिकासूत्रवृत्ति, 4. धर्मरत्नवृत्ति, 5. सुदर्शनचरित्र, 6. तीन साप्य, 7. दारवृत्ति, 8. सिरिउम्सहवद्धमाण प्रमुख स्तवन / कोई कहते हैं कि श्राद्धदिनकृत्यसूत्र तो चिरंतन आचार्यों ना करा है / विक्रम संवत् 1327 में नालबदेश में देवेंद्रसूरि स्वर्गवासी हुए। दैवयोग से विद्यापुर में तेरह दिन पीछे श्री विद्यानंदसूरि भी स्वर्गवासी हुये / तब छ मास पीछे सगोत्रसूरिने श्री विद्यानंदसूरि के भाई धर्मकीर्ति उपाध्याय को सूरिपद दे के धर्मघोपसूरि नाम दिया। , श्री देवेंद्रसूरि के पाट ऊपर मी धर्मघोषसूरि हुए, जिन्होंने मंडपाचल में शा. पृथवीयर को पंचमानुश्री धर्मघोषरि व्रत लेते हुए ज्ञान से निषेध करा / क्योंकि
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________________ द्वादश परिच्छेद 501 आचार्यने ज्ञान से जाना कि इस पुरुष के व्रत का मंग हो जावेगा, इस भय से निषेध करा / पीछे ये पृथ्वीधर मंडपाचल के राजा का मन्त्री हुआ, और धन करके तो धनद समान हो गया / पीछे तिसने चौरासी जिनमन्दिर और सात ज्ञान की पुस्तकों के भण्डार बनाये। और शत्रुजय में इक्कीस घडी प्रमाण सोना खरच के रूपामक श्री ऋषभदेवजी का मंदिर बनवाया। कोई कहते हैं कि छप्पन घडी सुवर्ण खरच के इन्द्रमाला पहरी / तथा धरती नगर में किसी साधर्मीने ब्रह्मचारी का वेष देने के अवसर में पृथ्वीधर को महाधनाढ्य जान के तिसक्री भेट करा ! तब पृथ्वीधरने वही वेष लेकर तिस दिन से बत्तीस वर्ष की उमर में ब्रह्मचर्य व्रत धारण करा / तिसके एक ही जांजण नामक पुत्र था, जिसने शत्रुजय, उज्जयन्तगिरि के शिखर ऊपर बारह योजन प्रमाण सुवर्ण रूपामय एक ही ध्वजा चढ़ाई। जिसने सारंगदेव राजा से कर्पूर का महसूल छुडाया, तथा जिसने मंडपाचल में बहत्तर हजार (72000) रूपक गुरु के प्रवेश के उत्सव में खरच करे।। __ तथा श्री धर्मघोषसूरिने देवपत्तन में शिष्यों के कहने से मंत्रमय स्तुति बनाई। तथा देवपचन में जिनों के स्वध्यान के बल से नवीनोत्पन्न हुये कपर्दी यक्षने वज्रस्वामी के माहात्म्य से पुराने कपर्दी मिथ्यादृष्टि को निकाला था। इनोंने उसको प्रतिबोध के ,जैनर्विबों का अधिष्ठाता करा /
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________________ जैनतत्त्वादर्श तथा जिनोंके आगे समुद्र के अधिष्ठाताने अपने समुद्र की तरंगों से रल ढोकन करे। एक समय किसी दुष्ट स्त्रीने कार्मण संयुक्त बडे बना कर साधुओं को दिए, परन्तु धर्मघोषसूरिजीने वे बडे धरती ऊपर गिराए, अरु उस स्त्री को मन्त्र से पकड़ा / पीछे जब बहु दुःखी हुई, तब दया करके छोड़ दीनी / तथा विद्यापुर में पक्षांतरियों की स्त्रियोंने धर्मघोषजी के व्याख्यान रस के भंग करने वास्ते कण्ठ में मन्त्र से केश गुच्छक कर दिया। पीछे धर्मघोषसूरिजीने जब जाना, तब तिन स्त्रियों को स्तंभन कर दिया। तब तिन स्त्रियोंने विनति करी कि आज पीछे हम तुमारे गच्छ को उपद्रव न करेंगी। तब गुरुजीने संघ के बहुत आग्रह से छोड़ी। तथा उज्जयिनी में एक योगी जैन के साधुओं को रहने नहीं देता था / जब धर्मघोषसूरि तहां आये, तब उस योगीने साधुओं को कहा कि अब तुम इहां आये हो सो तकड़े हो कर रहना / तब साधुओंने कहा कि हम भी देखेंगे कि तू क्या करेगा ! पीछे उसने साधुओं को दांत दिखलाये, तब साधुओंने कफोणि (कूहनी) दिखलाई / पीछे साधुओंने बा कर यह सर्व समाचार अपने गुरु को कहा। वहां योगीने भी धर्मशाला में विद्या के बल से बहुत चूहे बना दिये, तब साधु बहुत डरे। पीछे गुरुजीने घडे का मुख वस्त्र से ढांक के ऐसा मन्त्र जपा कि जिस से योगी आराटि
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________________ द्वादश परिच्छेद करता हुआ आ के पाओं में पड़ा, और अपने अपराध की क्षमापना मांगी / तथा किसी नगर में शाकनियों के भय से मन्त्र के कपाट दिये जाते थे / एक दिन विना मन्त्रे कपाट दिये गये, तब रात्रि को शाकनियोंने उपद्रव करा / गुरुने उनको विद्या से स्तमित करा / एकदा रात्रि में गुरु को सर्प के काटने से जब जहर चढ़ा, तब गुरुने संघ को विधुर देख के कहा कि दरवाजे में किसी पुरुष के मस्तक पर काठ की भरी में विषापहार एक वेलडी आवेगी। वो लड़ी घस के डंक में देनी, उस से जहर उतर जायगा। संघने तैसे ही करा, गुरुजी राजी हो गये। पीछे तिस दिन से जावजीव छ विगय का त्याग करा, और सदा जुवार की रोटी नीरस जान के खाते रहे। श्री धर्मघोपसूरिजी के करे ये ग्रंथ हैं:-१. संघाचारभाप्यवृति, 2. सुअघम्मेतिस्तव, 3. कायस्थिति भवस्थिति, 4. चौवीस तीर्थंकरों के चौवीस स्तवन, तथा 5. लस्तागर्मेत्यादिस्तोत्र, 6. देवे+रनिगमिति श्लेषस्तोत्र, 7. यूयं युवा त्वमिति श्लेषस्तुतियां, 8, जयवृष मेत्यादि स्तुति / यह जयवृषभेत्यादि स्तुति करने का यह निमित्त था कि एक मन्त्रीने आठ यमक काव्य करके कहा कि, ऐसे कान्य अब कोई नहीं बना सकता, तव गुरुने कहा कि नास्ति नहीं / तव तिसने कहा तो हम को कर दिखलाओ। तब गुरुजीने जयवृषमेत्यादि छ स्तुति एक रात्रि में बना
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________________ जैनतत्त्वादर्श, कर भीतों पर लिख के दिखाई। तब तिसने बड़ा चमत्कार पाया / गुरुजीने तिसको प्रतिबोध के जैनी करा, ये धर्मघोषसूरि विक्रम सम्वत् 1357 में स्वर्ग गये। 47. श्री धर्मघोषसूरि पट्टे श्री सोमप्रभसूरि हुये, जिनोंने नमिऊण मणइ एवमित्यादि आराधना श्री सोमप्रमसूरि सूत्र करा / तिनका सम्बत् 1310 में जन्म, 1321 में दीक्षा, 1332 में सूरिपद / जिनों के ग्यारह अंग सूत्रार्थ कण्ठ थे, तथा "गुरुभिर्गीयमानायां मन्त्रपुस्तिकायां यच्छतचरित्रं मंत्रपुस्तिकां च" ऐसा कह कर तिस मन्त्रपुस्तिका को ग्रहण करा, क्योंकि अपर कोई योग्य नहीं था। इस सोमप्रमसूरिने जलकुंकणदेश में अप्काय की विराधना के भय से, और मरुदेश में शुद्धजल की दुर्लभता से साधुओं का विहार निषेध करा / तथा भीमपल्ली में दो कार्तिक मास हुये, तव सोमप्रमजी प्रथम कार्तिक को एकादशी को विहार कर गए। क्योंकि उनोंने जाना कि भीमपल्ली का भंग होगा। अरु भंग हुए पीछे जो रहे वो दुःखी हुए। सोमप्रमसूरि के करे ग्रंथ-जीतकल्पसूत्र, यत्राखिलेत्यादि स्तुतियां, जितेन येनेति स्तुतियां, श्री. मच्छर्मेत्यादि / तिनके करे बडे शिष्य-विमलप्रमसूरि, परमानंदसूरि, पद्मतिलकसूरि, अरु सोमविमलसूरि थे। जिस दिन पूर्वोक्त धर्मघोषसूरि दिवंगत हुए, तिस दिन ही 1357 में सोमप्रभसूरिजीने विमलप्रभसूरि को
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________________ 513 द्वादश परिच्छेद सरिपद दिया, क्योंकि तिनोंने अपनी स्वल्प ही आयु जानी / सोमप्रभजी 1373 के वर्ष में देवलोक गये। 48. श्री सोमप्रभसूरि पट्टे श्री सोमतिलकसूरि हुए, ___ तिनका 1355 के माघ में जन्म, 1369 में श्रीसोमतिलकमूरि दीक्षा, 1373 में सूरिपद, 1424 में स्वर्ग गमन, सर्वायु 69 वर्ष की जाननी / तिनके करे ग्रंथ लिखते हैं: बृहन्नन्यक्षेत्रसमास सूत्र, सत्तरिसयठाणं, यनाखिलजयवृषभस्रस्ताशर्म० प्रमुख की वृत्ति, तीर्थराज०, चतुरस्तुतितद्वत्ति, शुभभावानत० श्रीमद्वीरस्तुवेदित्यादिकमलबंधस्तवः शिवशिरसि नामिसंभव० शैवेय. इत्यादि स्तवन / सोमतिलकसूरिने क्रम करके-१. पद्मतिलकसूरि, 2. चन्द्रशे. खरसूरि, 3. जयानंदसूरि, 4. देवसुंदरसूरि को सूरिपद दिया / तिन में पद्मतिलकसूरि सोमतिलकसूरि से पर्याय में बड़े थे, सो एक वर्ष जीते रहे, और बड़े वैरागी थे। तथा श्री चंद्रशेखरसूरि विक्रम संवत् 1373 में जन्मे, 1385 में दीक्षा, 1393 में सूरिपद / इनके करे ग्रन्थउषितभोजन कथा, यवराज ऋषि कथा, श्रीमत्स्तम्भकहारवन्धादिस्तवन है / जिनों के मन्त्रों सो मन्त्रित रज होवे, तिससे भी उपद्रव करनेवाले गृह, हरिका, दुर्द्धर मृगराज, श्वान, शुरिति दूर हो जाते थे / तथा जयानंदसूरि का विक्रम
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________________ 514 जैनतत्त्वादर्श संवत् 1380 में जन्म, 1392 के आषाढ सुदि सातम शुक्रवार के दिन धारानगरी में व्रतग्रहण, 1420 में सूरिपद, 1441 में स्वर्ग गये। तिनके करे ग्रंथ-१. थूलभद्रचरित्र, 2. देवाः प्रभोयं प्रमुख रूवन है। 49, श्री सोमतिलकसरि पट्टे देवसुन्दरसूरि हुए। तिनका 1396 वर्षे जन्म, 1404 वर्षे दीक्षा, श्रीदेवसुन्दररि 1420 वर्षे अणहलपत्तन में सूरिपद / यह देवसुन्दरसूरि बड़ा योगाभ्यासी और मंत्र तंत्र की ऋद्धि का मन्दिर, स्थावर जंगम-विषापहारी, जलानल, व्याल अरु हरि-भय का तोड़नेवाला, अतीतानागत निमित्त का वेता, राजमंत्री प्रमुखों का पूज्य / इस देवसुन्दरसूरि के शिष्य--१. ज्ञानसागरसूरि, 2. कुलमंडनसरि, 3. गुणरत्नसूरि, 4. सोमसुंदरसूरि, 5. साधुरनसूरि, यह पांच बड़े शिष्य थे। तिन में श्री ज्ञानसागरजी का 1405 में जन्म, 1417 में दीक्षा, 1441 में सूरिपद, 1460 में स्वर्गगमन / तिन के करे ग्रंथ-आवश्यक, ओपनियुक्त्यादि अनेक ग्रंथावचूरी, मुनिसुव्रत स्तवन, धनौधनवखण्ड पार्श्वनाथादि स्तवन / / दूसरे श्री कुलमंडनरिजी का 1409 में जन्म, 1417 में दीक्षा, 1442 में सूरिपद, 1455 में स्वर्गगमन / तिनों के करे ग्रंथ-सिद्धांतालापकोद्धार, विश्वश्रीधरेत्यादि, अष्टादशारचक्रबंधस्तव, गरीयो और हारस्तवादय है।
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________________ द्वादश परिच्छेद 515 तीसरे श्री गुणरत्नसूरि, तिनके करे ग्रन्थ-१. क्रियारलसमुच्चय, 2. षड्दर्शनसमुच्चय की बृहवृत्ति है। चौथे साधुरत्नसूरिजी का करा ग्रंथ यतिजीतकल्पवृत्ति है। 50. श्री देवसुंदरसूरि पट्टे सोमसुंदरसूरि हुए। तिन का 1430 में जन्म, 1937 में दीक्षा, 1450 श्रीसोमसुंदरसूरि में वाचक पद, 1457 में सूरिपद / जिस के अठारह सौ क्रियापात्र साधु परिवार को देख के कितनेक लिंगी पाखण्डियोंने पांच सौ रूपक दे के एक सहस्र पुरुषों को उनके बध करने वास्ते भेजा। तब वे जिस मकान में गुरु थे, तिस मकान में रात को छिपे रहे / जब मारने को उद्यत हुए तब चंद्रमा के उद्योत में श्री गुरुजीने रजोहरण से पूंज के जब पासा पलटा, तब देख के तिनके मन में ऐसा विचार आया कि यह नींद में भी क्षुद्र प्राणियों की दया करते हैं, और हम इनको मारने आए हैं, यह कितना अंतर है। तब मन में डरे और गुरु के पाओं में पड़ के अपराध क्षमा कराया। इनों के करे ग्रंथ-योगशास्त्र, उपदेशमाला, षडावश्यक, नवतत्त्वादिबालावबोध, भाष्यावचूर्णी, कल्याणिकस्तोत्रादि / जिनों के शिष्य मुनिसुंदरसूरि, कृष्णसरस्वती बिरुदधारक जयसुन्दरसूरि, और महाविद्याविडम्बन टिप्पनक कारक भुवनसुन्दरसूरि, जिनके कंठ एकादशांगी सूत्रार्थ थे, और चौथा
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________________ 516 . जैनतत्वादर्श जिनसुन्दरसूरि, ये चार जिन के प्रतापी शिष्य हुए। जिनोंने ' राणकपुर में श्री धनकृत चौमुख विहार में ऋषभादि अनेक शत बिंब प्रतिष्ठित करे। यह विक्रम संवत् 1499 में स्वर्ग गये। __ 51. श्री सोमसुंदरसूरि पट्टे मुनिसुंदरसूरि हुये, जिन्होंने / अनेक प्रसाद, पद्मचक्र, षट्कारक, क्रियागुश्रीसोमसुंदरसूरि सक, अर्द्ध भ्रम, सर्वतोभद्र, मुरज, सिंहासन, अशोक, मेरी, समवसरण, सरोवर, अष्टमहापातिहार्यादि नवीन त्रिशतिबंध तर्क प्रयोगादि अनेक चित्राक्षर, द्वयक्षर, पंचवर्ग परिहारादि अनेक स्तवमयस्त्रिदशतरंगिणी नामा एक सौ आठ हाथ लम्बी पत्रिका लिख के श्री गुरु को भेजी / तथा चातुर्वेद्यविशारद्यनिधि, उपदेशरलाकर प्रमुख अनेक ग्रंथों का कर्ता / तथा जिनको श्री स्तंभतीर्थ में दफरखानने ' वादीगोकुलसंड ' ऐसा कहा, तथा जिन्होंने दक्षिण में कालसरस्वती ऐसा बिरुद पाया / आठ वर्ष गणनायक, पीछे तीन वर्ष युगप्रधान पद लोगोंने प्रसिद्ध करा / एक सौ आठ वर्तुलिकानादौपलक्षक, बाल्यावस्था में भी एक सहस नवीन श्लोक कण्ठ कर लेते थे। तथा संतिकर नामा समहिम स्तवन करने से योगिनीकृत मरी का उपद्रव दूर करा / चौबीस वार विधि से सूरिमन्त्र को आराधा, तिनमें भी चौदह वार जिनके उपदेश से धारादि नगरियों के स्वामी पांच राजाओंने अपने अपने देशों में अमारी का ढिंढोरा फिराया। तथा सिरोही देश में सहस्रमल्लराजाने भी अमारी :
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________________ द्वादश परिच्छेद प्रवृत्त करी तीड का उपद्रव टाला। इनका विक्रम संवत् 1436 में जन्म, 1443 में दीक्षा,१४६६ में वाचक पद, 1478 में वत्तीस सहस रूपक खरच के वृद्ध नगरी के शाह देवराजने सरि पद का महोत्सव करा, 1503 में कार्तिकशुदि पडिवा के दिन स्वर्गवास हुआ। 52. श्री मुनिसुंदरसूरि पट्टे श्री रत्नशेखरसूरि हुए, तिनका 1457 वर्षे जन्म, 1463 वर्षे दीक्षा, श्री ग्लशेखर- 1483 वर्षे पंडितपद, 1493 वर्षे वाचक पद, हि 1502 वर्षे सूरिपट, 1517 वर्षे पोष वदि छह के दिन स्वर्गवास हुआ। जिनको स्तंमतीर्थ में बांबी नामा भट्टने वालसरस्वती नाम दिया / तिनके करे ग्रंथश्राद्ध प्रतिक्रमणवृत्ति, श्राद्धविधिसूत्रवृत्ति, लघुक्षेत्रसमास, तथा आचारपदीपादि अनेक ग्रंथ जान लेना। तथा जिन्हों के समय में लुका नामक लिखारीने संवत् 1508 में जिनप्रतिमा का उत्थापक लुका नामा मत चलाया और तिसके मत में वेप का धरनेवाला संवत् 1533 में भाणा नामा प्रथम साधु हुआ है। इस मत की उत्पत्ति ऐसे हुई है। गुजरात देश में अहमदाबाद में जाति का दशाश्रीमाली लुका नामक लिखारी वसता था, सो ज्ञानजी लंका मत की यति के उपाश्रय में पुस्तक लिख कर उसकी उत्पत्ति आमदनी से गुजारा करता था। एक दिन एक पुस्तक को लिख रहा था, तिस में से सात
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________________ 518 जैनतत्त्वादर्श पत्रे बिना लिखे छोड़ दिये / जब पुस्तकवालेने पुस्तकं देखा, तब पूछा कि इस पुस्तक के सात पत्रे क्यों छोड़ दिये ! तंब लुका उसके साथ लड़ने लगा। तिस समय लोगोंने मार-पीट के उपाश्रय से बाहिर निकाल दिया, और नगर में कह दियां कि, इस से कोई जन भी पुस्तक न लिखावे, तब लुका लाचार हो और क्रोध में भरकर अहमदाबाद से छैतालीस कोस के लगभग नींबडी प्राम में चला गया। उस ग्राम में लुंके की बिरादरी का एक लखमसी नामा बनिया राज में कारभारी था। तिसके आगे बहुत रोया-पीटा। जब तिसने पूछा क्या हुआ ? तब लंकेने कहा कि, मैं भगवान् का सच्चा मत कहने लगा था श्रावकोंने मुझे पीटा। अब मैं तेरे पास आया हुँ, जेकर तू मेरा मददगार बने, तो मैं सचा मतं प्रगट करूं। तवं तिस लखमसीने कहा कि, नींबडी के राज्य में तू बेशक अपने सच्चे मत को प्रगट कर, मैं तेरा मददगार हूं, खाने पीने को भी दूंगा, और तेरा शास्त्र भी सुनूंगा। तब लुका तो श्रीमहावीर के साधुओं की और जिनप्रतिमा की उत्थापना करने लगा, अरु कहने लगा कि, यह साधु नहीं हैं, भ्रष्टाचारी हैं, निर्दयी हैं। उलटा ज्ञान सुनाते हैं, इत्यादि जो आप के मनमानी सो निंदा करी / और शांखों में से भी जिन जिन शास्त्रों में जिनप्रतिमा का ज़िकर नहीं था, उन शास्त्रों को सच्चा माना और जिन में थोड़ा सा जिंनप्रतिमा का कथन था, तिन पाठों के अर्थ
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________________ द्वादश परिच्छेद कुयुक्ति से और के और सुनाने लगा, अरु कहने लगा कि, एकतीस शास्त्र सच्चे हैं। तिन में भी आवश्यकसूत्र को बिस्कुल विगाड़ के लोगोंने स्वकपोलकल्पित और का और बना दिया है, क्योंकि आवश्यक में बहुत जगह जिनप्रतिमा का अधिकार चलता है। पीछे एक दिन तिस लुंके को किसीने कहा कि बिना जैनदीक्षा के लिये शास पढ़ने का तो व्यवहार सूत्र में निषेध करा है, तो फिर तुम गृहस्थ होकर शास्त्र क्यों पढ़ते हो ! तव लुंकेने कहा कि मैं व्यवहार सूत्र को ही सच्चा नहीं मानता हूं / इत्यादि प्ररूपणा पच्चीस वर्ष तक करी, परन्तु लुके के उपदेश से साधु कोई मी न हुआ / जब सम्वत् 1533 का साल आया तव एक माणा नामा बनिये के वेटेने लुक के उपदेश से वेष पहना, उसको ऋषि भूणा नाम दीना / तिसका शिष्य सम्वत् 1568 में रूपजी हुआ, तिसका शिष्य सम्वत् 1578 में जीवाजी ऋषि हुआ, तिसका शिष्य 1587 में वृद्धवरसिंहजी हुआ, तिसका शिष्य सम्वत् 1606 में वरसिंहजी हुआ, तिसका शिष्य सम्वत् 1649 में जसवंतनी हुआ / इस लंपक मत के तीन नाम हुए 1. गुजराती, 2. नागोरी, 3. उतराधी। 53. श्री रलशेखरसूरि के पाट पर लक्ष्मीसागरसूरि हुए / तिनका 1464 में जन्म, 1490 में दीक्षा, 1501 में वाचक पद, 1508 में सरिपद /
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________________ 120 जैनतत्त्वादर्श 54. श्रीलक्ष्मीसागरसूरि पट्टे सुमतिसाधुसूरि हुआ / 55. श्रीसुमतिसाधुसूरि पट्टे हेमविमलसूरि हुए। शिथिल साधुओं के बीच में भी रहे, तो भी श्री हेमविमलसूरि जिनोंने साधु का आचार उल्लंघन न करा। तब कितनेक दिन पीछे बहुत साधुओंने शिथिलपना छोड़ा / तथा ऋषि हरगिरि, ऋषि श्रीपति, ऋषि गणपति प्रमुख बहुत जनोंने लुपक मत छोड़ के श्री हेमविमलसूरि के पास दीक्षा लीनी। तिस अवसर में सम्वत् 1562 में कड्डये नामक एक बनियेने कड्डया मत निकाला और तीन थूई मानी, अरु इस काल में साधु कोई भी नहीं दीखता, ऐसा पंथ निकाला। परन्तु इस ग्रन्थ के लिखनेवाले के समय में यह मत नहीं है, व्यवच्छेद हो गया है / तथा सम्वत् 1570 में डंका मत से निकल के बीजा नामा वेषधरने वीजामत चलाया, जिस को लोक विजय गच्छ कहते हैं। तथा सम्वत् 1572 में नागपुरीया तपगच्छ से निकल के उपाध्याय पार्श्वचन्द्रने अपने नाम का मत अर्थात् पासचंदीया मत चलाया। 56. श्रीहेमविमलसूरि पट्टे सुविहितमुनिचूड़ामणि कुमत तम के मथने को सूर्यसमान आनन्दविमलआनन्दविमलसूरि सूरि हुआ। तिसका विक्रम सम्वत् 1547 और क्रियोद्धार में जन्म, 1552 में दीक्षा, 1570 में सूरिपद / तथा आनन्दविमलसूरि के साधु शिथिला
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________________ 521 द्वादश परिच्छेद चारी भी थे, तो भी तिनके वैराग्यरंग का भंग नहीं हुआ। और जब उनोंने देखा कि जिनप्रतिमा के निषेधने वाले बहुत बढे, और शुद्ध साधु तुच्छमात्र रह गए, अरु उत्सूत्रप्ररूपणरूप जल में भव्यजन बह चले; तव मन में दयादृष्टि ला के और अपने गुरु की आज्ञा से कितनेक संविम साधुओं को साथ ले कर सम्वत् 1582 में शिथिलाचार परिहाररूप कियोद्धार करा / देश में विचर के बहुत भव्यजनों का उद्धार करा, और अनेक इभ्यों के पुत्रों को धन कुटुंब का मोह साग करा के दीक्षा दीनी। और सोरठ के राजा पासों खत लिखवाया कि जो जीते सो मेरे देश में रहे अरु नो हारे सो निकाला जावे / तूणसिंह नामा श्रावक जिसको पादशाहने बैठने वास्ते पालकी दी हुई थी, और बादशाहने जिसको मलिक श्रीनगदल विरुद दिया था, ऐसे तूणसिंह श्रावकने गुरु को विनति करी कि साधुओं को सोरठ देश में विहार कराओ / तब गुरुजीने गणि जगर्षि को साधुओं के साथ सोरठदेश में विहार कराया। तथा जेसलमेरादि मारवाड़ देश में जल दुर्लभ मिलता है, इस वास्ते पूर्व में सोमप्रभसूरिने साधुओं को मने कर दिया था कि मारवाड़ में न जाना / सो विहार कुमतिव्याप्त न हो जावे, तिन जीवों की अनुकंपा करके और लाम जान कर साधुओं को आज्ञा दीनी कि तुम मारवाड़ में जा कर कुमतिमत को खण्डन करो।
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________________ 522 जैनतवादर्श तब लघु वय में शील करके स्थूलिभद्र समान वैराग्यनिधि निःस्पृहावधि जावजीव जघन्य से जघन्य भी षष्ठ अर्थात् दो दिन का उपवास करना / अरु पारने के दिन आचाम्ल करना / ऐसे अभिग्रहधारी महोपाध्याय विद्यासागर गणिने मारवाड़ देश में विहार करा / तिनोंने जैसलमेरादिकों में खरतरा को और मेवात देश में बीजामतियों को और मोखी आदिक में लुकामतियों को प्रबोध के श्रावक बनाए सो आजतक प्रसिद्ध है। तथा पार्श्वचन्द्र के व्युग्राहे वीरमगाम में पार्श्वचन्द्र के साथ वाद करके पाचचंद्र को निरुत्तर करा / तब बहुत जनोंने जैनधर्म अंगीकार करा / ऐसे ही मालवे में अरु उज्जैनी प्रमुख देशों में फिर के धर्म की प्रवृत्ति करी, यह विद्यासागर उपाध्यायजीने तपगच्छ की फिर वृद्धि करी, और क्रियोद्धार करा / पीछे आनन्दविमसूरिजी चौदह वर्ष तक जघन्य से भी नियत तप वर्ज के बेले से कम तप नहीं करा / तथा जिनोंने चतुर्थ, षष्ठ तप करके वीसस्थानक की आराधना करी। यह सम्वत् 1596 के वर्ष नव दिन का अनशन करके स्वर्ग गए / 57. श्रीआनन्दविमलसूरि के पाट पर विजयदानसूरि हुए। जिनोंने स्तंभतीर्थ, अहमदाबादपत्तन, श्रीविजयदानसूरि महीशानकगाम, गंधार बंदरादि में महा ___ महोत्सवपूर्वक अनेक जिनबिंबों की प्रतिश करी। तथा जिनों के उपदेश से बादशाह महम्मद
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________________ द्वादश परिच्छेद 123 का मान्य मंत्री गलराजा दूसरा नाम मलिक श्रीनगदलने श्रीशQजय का बड़ा संघ निकाला / तथा जिनोंके उपदेश से गंधार नगर के श्रावक रामजीने तथा अहमदावादी साह कुंअरजी प्रमुखने श्रीशत्रुजय चौमुख अष्टापदादि जिनमंदिर बनवाए; गिरनार ऊपर जीर्णप्रासादोद्धार करा / तथा जिनके सूर्य की तरे उदय होने से वादीरूपी तारे अवश्य हो गये। विजयदानसूरि सर्व सिद्धांत का पारंगामी, अखंडित प्रतापवाला तथा अप्रमत्तपने करके श्री गौतममुनिवत् था। तथा गुर्जर, मालवक, कच्छ, मरुस्थली, कुंकणादि देशों में अप्रतिबद्ध विहार किया। महातपस्वी, जावजीव एक घृतविगय विना सर्व विगम का त्यागी था। जिनोंने एकादशांग सूत्र अनेक वार शुद्ध करे, और जिनोंने बहुत जीवों को धर्मप्राप्त करा / तिनका संवत् 1553 में जामला में जन्म, 1562 में दीक्षा, 1587 में सूरिपद, 1622 में वटपल्ली में अनशन करके स्वर्ग को प्राप्त हुए। 58. श्री विजयदानसूरि पट्टे श्री हीरविजयसरि हुआ, जिन का संवत् 1583 में मार्गशीर्षशुदि नवी श्रीहरिविजयसूरि के दिन प्राङ्लादनपुर का वासी ऊके जाती सा. कूरा भार्या नाथी गृहे जन्म हुआ, 1596 में कार्तिकवदि दूज के दिन पत्तन नगर में दीक्षा, 1607 में नारदपुरी में श्रीऋषभदेव के मंदिर में पंडित पद, 1608 में माष
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________________ 524 जैनतत्वादर्श शुक्लपंचमी के दिन नारदपुरी में श्रीवरकाणक पार्श्वनाथसनाथे नेमिजिन प्रासाद में वाचक पद, 1610 में सिरोही नगरे सूरिपद / तथा जिनका सौभाग्य, वैराग्य, निःस्पृहतादि गुणों को बचनगोचर करने को बृहस्पति भी चतुर नहीं था / तथा श्री स्तंभतीर्थ में जिनों के रहने से श्रद्धावन्तों ने एक क्रोड़ रूपक प्रभावनादि धर्मकृत्यों में खरच करा / तथा जिनों के चरण विन्यास के प्रतिपद में दो मोहर अरु एक रूपक मोचन करा, और जिनों के आगे श्रद्धालुओंने मोतियों से साथिये करे, तथा जिनोंने सिरोही नगर में श्रीकुंथुनाथ बिंबों की प्रतिष्ठा करी, तथा नारदपुर में अनेक सहस्रबिंबों की प्रतिष्ठा करी / तथा जिनों के विहारादि में युगप्रधान अतिशय देखने में आता था। तथा अहमदावाद में लुंके मत का पूज्य ऋषि मेघजी नामा था, तिसने अपने लुंके मत को दुर्गति का हेतु जान कर रज की तरे आचार्य पद छोड़ के पच्चीस यतियों के साथ सकल राजाधिराज बादशाह श्री अकबर राजा की आज्ञापूर्वक बादशाही बाजिंत्र बजते हुये महामहोत्सव से श्री हीरविजयसूरिजी के पास दीक्षा लीनी / ऐसा किसी आचार्य के समय में नहीं हुआ था। तथा जिनों के उपदेश से अकबर बादशाहने अपने सर्व राज्य में एक वर्ष में छ महिने तक जीवहिंसा बन्द करी, बलिया छुडाया। इस का विशेष स्वरूप देखना होवे, तो हीरसौभाग्यकाव्य में से देख लेना। और संक्षेप से यहां मी लिखते हैं
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________________ द्वादश परिच्छेद एकदा कदाचित् प्रधान पुरुषों के मुख से अकबरशाहने हीरविजयसूरि के निरुपम शम, दम, संवेग, अकवर राजा से वैराग्यादि गुण सुन के बादशाह अकबरने भेट अपने नामांकित फरमान भेज के बहुमान पुरस्सर गंधार वंदर से आगरे के पास फते. पुर नगर में दर्शन करने को बुलाया / तब गुरुजी अनेक भन्यजीवों को उपदेश देते हुये, क्रम से विहार करते हुये विक्रम संवत् 1639 में ज्येष्ठवदि त्रयोदशी के दिन वहां आए / तिस समय में बादशाह के अवुलफजल नामक शिरोमणि प्रधान द्वारा उपाध्याय श्री विमलहर्षगणि प्रमुख अनेक मुनियों से परिवरे हुए बादशाह को मिले / तिस अवसर में बादशाहने बड़ी खातर से अपनी सभा में विठाया, और परमेश्वर का स्वरूप, गुरु का स्वरूप अरू धर्म का स्वरूप पूछा, और परमेश्वर कैसे प्राप्त होवे : इत्यादि धर्मविचार पूछा। तब श्री गुरुने मधुर वाणी से कहा कि जिस में अठारह दूपण न होवें, सो परमेश्वर है। तथा पंचमहावतादि का धारक गुरु है, और आत्मा का शुद्ध स्वभाव जो ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप है, सो धर्म है / तब अकवरगाहने ऐसा धर्मोपदेश सुन के आगरा से अजमेर तक प्रतिकोश कुंवा मीनार सहित बनाए, और जीवहिंसा छोड़ के दयावान् हो गया / तब अकबरशाह अतीव तुष्टमान हो के कहने लगा कि, हे प्रभु ! आप पुत्र, कलत्र, धन,
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________________ 526 जैनतत्त्वादर्श स्वजन, देहादि में भी ममत्व रहित हो, इस वास्ते आप को सोना, चांदी देना तो ठीक नहीं। परन्तु मेरे मकान में जैनमत के पुराने पुस्तक बहुत हैं, सो आप लीजिये, और मेरे ऊपर अनुग्रह करिये। जब बादशाह का बहुत आग्रह देखा, तब गुरुजीने सर्व पुस्तक ले के आगरा नगर के ज्ञानभण्डार में स्थापन कर दिए। तब एक प्रहर तक गुरुजी धर्मगोष्ठि करके बादशाह की आज्ञा ले के बड़े आडम्बर से ऊपाश्रय में आए। उस वक लोकों में जैनमत की खूब प्रभावना हुई। तिस वर्ष आगरे नगर में चौमासा करके सोरीपुर नगर में नेमिजिन की यात्रा वास्ते गये। तहां श्री ऋषभदेव और नेमिनाथजी की बड़ी और बहुत पुरानी, इन दोनों प्रतिमा और तत्काल के बनाए नेमिनाथ के चरणों की प्रतिष्ठा करी / फिर आगरे में शा० गानसिंह कल्याणमल्ल के बनवाये हुए चितामणि पार्श्वनाथादि बिंबों की प्रतिष्ठा करी, सो आज तक आगरे में चिंतामणि प्रार्थनाथ प्रसिद्ध है। पीछे गुरुजी फिर फतेपुर नगर में गए और अकबर बादशाह से मिले तहां एक प्रहर धर्मगोष्ठी धर्मोपदेश करा / तब बादशाह कहने लगा कि, मैंने दर्शन के वास्ते उत्कंठित हो कर आप को दूर देश से बुलाया है, और आप हम से कुछ भी नहीं लेते हैं। इस वास्ते आप को जो रुचे सो मेरे से मांगना चाहिये। जिस से मेरे मन का मनोरथ सफल होवे / तब सम्यग् "विचार
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________________ द्वादश परिच्छेद 127 करके गुरुजीने कहा कि तेरे सर्वराज्य में पर्युषणों के आठ दिनों में कोई जानवर न मारा जाय, और बंदिजन छोडे जाएं, मैं यह मांगना चाहता हूं। तब बादशाहने गुरु को निर्लोभ, शांत, दांत जान करके कहा कि आठ दिन तुमारी तर्फ से और चार दिन मेरी तर्फ ले सर्व मिल कर बारह दिन तक अर्थात् भाद्रवावदि दशमी से लेकर भाद्रवाशुदि छठ तक कोई जानवर न मारा जायगा। पीछे बादशाहने सोने के हफों से लिखवा कर छ फरमान गुरुजी को दिए, छ फरमान की व्यक्ति ये हैं:प्रथम गुर्जरदेश का, दूसरा मालवे देश का, तीसरा अजमेर देश का, चौथा दिल्ली फतेपुर के देश मकबर महाराजाके का, पांचमा लाहौर मुलतान मण्डल का, मोवहिंमा निषधक और छठा गुरु के पास रखने का / पूर्वोक्त फरमान पांचों देश का साधारण फरमान तो तिन तिन देशों में भेज के अमारि पटह बजवा दिया / तब तो वादगाह की आज्ञा से जो नहीं भी जानते थे, ऐसे सर्व आर्य अनार्य कुल मंडप में दयारूपी वेलडी विस्तार को प्राप्त हो गई। और बंदिजन भी चादशाहने गुरु के पास से उठ कर तत्काल छोड़ दिये। और एक कोश की झील अर्थात् तालाब में आप जा कर बादशाहने अपने हाथसे नाना जाति के नाना देशवालोंने जो जो जानवर बादशाह को मेट करे हुए थे, वे सर्व छोड़ दिये / बादशाह से
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________________ 528 जैनतत्त्वादर्श गुरुजी अनेक वार मिले और अनेक जिनमन्दिर अरु उपाश्रयों के उपद्रव दूर करे। और जब श्री हीरविजयसूरि अपर देश को जाने लगे, तब बादशाह से ऐसा फरमान लिखवा ले गए / तिस की नकल मैं इस पुस्तक में लिखता हूं। जलालुद्दीन महम्मद अकवर बादशाह गाजी का फरमान अकवर मोहर की वनावली जलालुद्दीन अकवर वादशाह हुमायु वादशाह का वेटा वावरशाह का विन-वेटा उमरशेख मिरज़ा का वेटा सुलतान अवुसईद का बेटा सुलतान महम्मदशाह का बेटा मीर शाह का बेटा अमीर तैमुरसाहिब किरान का वेटा सवे मालवा तथा अकवरावाद, लाहौर, मुलतान, अहमदाबाद, अजमेर, मीरत, गुजरात, बंगाल, तथा और जो मेरे तावे के मुलक हैं, हाल तथा आयंदा मुतसद्दी, सूबा, करोरी तथा जगीरदार इन सवों को मालूम रहे कि, हमारा पूरा इरादा यह है कि सर्व रैयत का मन राजी रखना / क्योंकि रैयत का जो मन है, सो परमेश्वर की एक बड़ी
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________________ बादश परिच्छेद 529 अमानत है / और विशेष करके वृद्ध अवस्था में मेरा यही इरादा है कि, मेरा भला वांछनेवाली रैयत मुखी रहे। तिस वास्ते हरेक धर्म के लोगों में से जो अच्छे विचारवाले परमेश्वर की भक्ति करने में अपनी उमर पूरी करते हैं, तिनको दूर दूर देशों से मैंने अपने पास बुलवाया / और तिनकी परीक्षा करके अपनी सोबत में रखता हूं, और तिनकी बातें सुन के मैं बहुत खुश होता हूं। तिस वास्ते हमारे सुनने में आया है कि, श्री हीरविजयसूरि जैन श्वेतांवर मत का आचार्य गुजरात के वंदरों में परमेश्वर की भक्ति करता है। मैंने तिनको अपने पास बुलवाया, और तिनकी मुलाकात करके हम बहुत खुश हुए। कितनेक दिन पीछे जब तिनोंने अपने वतन जाने की रजा मांगी, तब अरज करी कि गरीवपरवर की मरजी से ऐसा हुकुम होना चाहिये कि, सिद्धाचलनी, गिरनारजी, तारंगाजी, केसरियानाथजी, तथा भावुजी का पहाड़, जो गुजरात में है, तथा राजगृह के पांच पहाड़ तथा समेतशिखर उरफे पार्श्वनाथजी जो बंगाल के मुलक में है, तथा पहाड़ के हेठली सर्व मंदिरों की कोठियों तथा सर्व भक्ति करने की जगों में, तथा तीर्थ की जगों में और जो जैन श्वेतांबर धर्म की जगें मेरे तावे के सर्व मुलकों में जिस ठिकाने होवें, उन पहाडों तथा मंदिरों के आसपास कोई भी आदमी किसी जानवर को न मारे, यह भरज
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________________ 530 जैनतत्त्वादर्श करी / अब ये बहुत दूर से हमारे पास आये हैं, और इन की अरज वाजबी और सच्ची है। यद्यपि यह अरज मुसलमानी मजहब-मत से विरुद्ध मालूम होती है, तो भी परमेश्वर के पिछाननेवाले आदमियों का यह दस्तूर होता है कि, कोई किसी के धर्म में दखल न देवे, और तिनोंके रिवाज बहाल रक्खे / इस वास्ते यह अरज मेरी समझ में सच्ची मालूम हुई, क्योंकि सर्व पहाड़ तथा पूजा की जगा बहुत अरसे से जैन श्वेतांबरी धर्मवालों की है, तिस वास्ते इनकी अरज कबूल करी गई कि, सिद्धाचल का पहाड़ तथा गिरनार का पहाड़, तथा तारंगाजी का पहाड़, तथा केशरियाजी का पहाड़ तथा आबु का पहाड़ जो गुजरात के मुलक में है, तथा राजगृह के पांच पहाड़ तथा समेतशिखर उरफे पार्श्वनाथ का पहाड़, जो बंगाल के मुलक में है, ये सर्व पूना की जगें, तथा पहाड़ नीचे तीर्थ की जर्गे, जो मेरे राज्य में हैं, चाहे किसी ठिकाने जैन श्वेतांवरी धर्म की जगें होवें, सो श्री हीरविजय जैनश्वेतांबरी आचार्य को देने में आई हैं, और इनों में अच्छी तरे से परमेश्वर की भक्ति करनी चाहिये / और एक बात यह भी याद रखनी चाहिये कि, ये जैनश्वेतांबरी धर्म के पहाड़ तथा पूजा की जगें तथा तीर्थ की
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________________ द्वादश परिच्छेद 531 जगें, जो मैंने श्री हीरविजयसूरि आचार्य को दीनी हैं, परंतु हकीकत में ये पूर्वोक्त सर्व जगें जैनश्वेतांबर धर्मवालों की ही है / और जहां तक सूर्य से दिन रौशन रहे, तथा जहां तक चन्द्रमा से रात रोगन रहे, तहां तक इस फरमान का हुकम जैनश्वेतावरी धर्म के लोकों में सूर्य तथा चन्द्रमा की तरे प्रकाशित रहे / और कोई आदमी तिनको हरकत न कर, और किसी आदमीने तिन पहाड़ों के ऊपर तथा तिनके नीने तथा तिनके आसपास पूजा की जगे में, तथा तीर्थ की जगे में जानवर नही मारना, और इस हुकम ऊपर अमल करना, इस हुकम से फिरना नहीं। तथा नवीन सनद मागनी नहीं-लिखा तारीख 7 मी माह उरदी बहेस मुताविक माह रचीयुल-अब्बल सन् 37 जुलसी-यह अकबर बादशाह के दिये फरमान की नकल है / तथा थानसिंह की कराई अपर साह दूजणमल्ल की कराई श्री फतपुर में अनेक लाख रुपैये लगा के बड़े महोसब से श्री जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा करी / प्रथम चातुर्मास आगरे में कग, दूसरा फतेपुर में करा, तीसरा मिराम नाम नगर में करा, चौथा फिर आगरे में करा / फिर वहां वादगाह की गोष्ठि वास्ते श्री शांतिचन्द्र उपाध्याय को छोड़ गये, और आप गुरुजी मेहडते, नागपुर चौमासा करके सिरोही नगर में गये / तहा नवीन चतुर्मुख प्रासाद. में
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________________ જરૂર जैनतत्त्वादर्श श्री आदिनाथ के बिंब तथा श्री अजितनाथ के प्रासाद में श्री अजितनाथ के बिंबों की प्रतिष्ठा करके अर्बुदाचल में यात्रा करने को गये। और पीछे शांतिचंद्र उपाध्यायने नवीन कृपारस कोश नामा ग्रन्थ बना के अकबर बादशाह को सुनाया, तिसके सुनने से बादशाहने दया की बहुत वृद्धि करी / तिसका स्वरूप यह है-बादशाह के जन्म के दिन से एक मास अरु पर्युषणा के बारां दिन, तथा सर्व रविवार, तथा सर्वसंक्रांति के दिन, नवरोज का मास, सर्व ईद के दिन, तथा सर्व मिहर वासरा, सर्व सोफीअना दिन इत्यादि सब मिलकर एक वर्ष में छ महीने तक जीवहिंसा बंद कराई। तिसके फरमान लिखवाए, सो फरमान अबतक हमारे लोगों के पास हैं। इस में कुछ शंका नहीं कि श्री हीरविजयसूरिजीने जैनमत की वृद्धि और उन्नति बहुत करी। मुसलमानों को भी जिनोंने दयावान् करा / तथा स्थंमतीर्थ में संवत् 1646 में स्थंभतीर्थवासी शा. तेजपाल के बनवाये मंदिर की प्रतिष्ठा करी। 59., श्री हीरविजयसूरि पट्टे श्री विजयसेनसूरि हुए, इन का 1604 में जन्म, 1613 में माता पिता श्री विजयसेनसूरि सहित दीक्षा, 1626 में पंडित पद, 1628 ___ में उपाध्याय पद पूर्वक आचार्य पद, 1652 में भट्टारक पद, 1671 में स्थंमतीर्थ में स्वर्गवास / जिनके
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________________ बादश परिच्छेद 533 वेखहरख, अरु परमानंद, इन दो शिष्योंने अकबर बादशाह के बेटे जहांगीर को धर्म सुना के प्रतिबोधा, और जहांगीर बादशाह से फरमान कराया / तिसक्री नफल यह है। नूरुद्दीन महम्मद जहांगीर बादशाह गाजी का फरमान जहागीर की मोहर में वंशावली नूरुद्दीनमहम्मद जहागीर वादशाह अकवर वादशाह हुमायुं बादशाह वावर बादशाह मिरजा उमरशेख सुलतान अधुसईद सुलतान मिरजामहम्मदशाह मीराशाह अमीरतैमुर साहिव किरान मेरे सर्व राज के विशेष करके गुजरात के सूवे, मोटे हाकिम तथा किफायत करनेवाले आमील तथा जागीरदार तथा करोरी तथा सर्व खातों के कारकुनों को मालूम होवे कि, जो परमेश्वर के पिछाननेवाले लोक हैं, तिनका यह दस्तूर है कि, हर एक मत तथा कौम के लोक इतना ही नहीं बल्कि सर्व जीव सुखी रहें / और अब वेखहरख तथा परमानंद यतियोंने दुनियां की रक्षा करनेवालों के
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________________ जैनतत्वादर्श दरबार में आकर तखत के पास खडे रहनेवालों से अरज करी कि, विजयसेनसूरि तथा विजयदेवसरि और जो अच्छी बुद्धिवाले लोक हैं, तिनकी हर एक जगे तथा हर एक शहर में देहरा अर्थात् जिनमंदिर तथा धर्मशाला हैं। तिनमें ये लोक ईश्वर की भक्ति करते हैं और प्रार्थना करते हैं, और वेखहरख तथा परमानंद यति की परमेश्वर को रानी रखने की हकीकत हमने अच्छी तरें से जान लीनी है। तिस वास्ते दुनियां को ताबे करनेवाला हुकम हुआ कि किसी आदमीने इन जैन लोगों के मन्दिर तथा धर्मशाला में उतरना नहीं, तथा कारण विना अड़चन नहीं करनी / और जेकर ये लोग फिर से नवा बनाना चाहें, तो तिनको किसी तरें की मनाई तथा हरकत नहीं करनी / और तिनके साधुओं के उपाश्रयों में किसीने भी उतरना नहीं। और जो ये लोक सोरठ के मुलक में शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने वास्ते जावे, तो कोई भी आदमी तिन यात्रालुओं से कुछ न मांगे, लालच न करे। और पूर्वोक्त वेखहरख अरु परमानंद यति की अरज तथा खाहिश ऊपर हुकम बड़ा भारी हुआ कि दर अठवाडे में रविवार तथा गुरुवार तथा दर महीने में शुदि पडिवा का रोज, तथा ईद के दिन, तथा दर वर्ष में नवरोज, तथा माहशहरयुरमा जो हमारा मुबारक दिन है, तिनमें एक एक
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________________ द्वादश परिच्छेद वर्ष के हिसाव प्रमाण मेरे सर्व राज्य में किसी जीव की हिंसा नं होवे / तथा शिकार करना तथा पक्षियों का पकड़ना, मारना, तथा मछलियों का मारना, ये बंद किया जावे, तथा इस तरे के और भी काम इन पूर्वोक्त दिनों में न होने चाहियें / ये बात जरूर है कि, पूर्वोक्त हुकम प्रमाण हमेशा चलाने की कोशिश करके मेरे फरमान के हुकम से कोई फिरे नहीं, विरुद्ध चले नहीं। लिखा ता० माह सहरयर में सन् 3 जुलसी / यह फरमान खानजहान् के चौपानियां तथा सेवक अलीतकी के वर्तमान पत्र में दाखल हुआ। तरजुमा करनेवाला मुनशी सैयद अबदुल्लामीयां साहिब उरैजी। 60. श्री विजयसेनसूरि पट्टे विजयदेवसूरि हुये, तिन का 1634 में जन्म, 1643 में दीक्षा, 1655 में पंडित पद, 1656 में उपाध्याय पद पूर्वक आचार्य पद, और 1681 में स्वर्ग हुआ। 61. श्री विजयदेवसूरि पट्टे विजयसिंहसूरि हुये, तिन का 1644 में जन्म, 1654 में दीक्षा, 1673 में वाचक पद, 1682 में सूरि पद, और 1708 में स्वर्ग हुआ / 62. श्री विजयसिंह तथा विजयदेवसूरि पट्टे विजयप्रमसूरि हुये, तिनका 1675 में जन्म, 1689 में दीक्षा, 1701
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________________ 536 जैनतत्त्वादर्श में पंडित पद, 1710 में उपाध्याय पद, 1713 में भट्टारक पद, 1749 में स्वर्गगमन हुआ, इनों के समय में मुहबंधे ढूंढियों का पंथ निकला, तिसकी उत्पत्ति ऐसे है: सुरत नगर में वोहरा वीरजी साहुकार दशाश्रीमाली बसता था। तिसकी फूला नामे बालविधवा ढूंढक मत की एक बेटी थी। तिसने एक लवजी नामा उत्पत्ति लड़का गोदी लिया। तिस लवजी को लुके के उपाश्रय में पढ़ने वास्ते मेजा। तहां यतियों की संगत से वैराग्य उत्पन्न हुआ, और लुंके के यति बजरंगजी का शिष्य हुआ। तब दो वर्ष पीछे अपने गुरु को कहने लगा कि, जैसा शास्त्रों में साधु का आचार है, वैसा तुम क्यों नहीं पालते हो ! तब गुरुने कहा कि, पंचमकाल में शास्त्रोक्त सर्व क्रिया नहीं हो सकती है। तब लवजीने कहा कि तुम भ्रष्टाचारी मेरे गुरु नहीं, मैं तो आप ही फिर से संयम लूंगा / इस तरे का क्लेश करके ऋषि लबजीने लुके मत की गुरु शिक्षा छोड़ के अपने साथ दो यति और लिए / तिस में एक का नाम भूणा, दूसरे का नाम सुखजी था / इन तीनों ही ने अपने को आप ही दीक्षित करा, और मुंह के ऊपर कपडे की पट्टी बांधी। तब इन का नवीन वेष देख के गामों में किसी श्रावकने इन के रहने को जगा न दीनी / तब यह. उजडे हुये मकानों में जा रहे। गुजरात देश
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________________ 537 द्वादश परिच्छेद में फूटे हटे मकान को 'ढूंढ' कहते हैं, इस वास्ते लोगोंने इनका नाम ढूंढिये रक्खा। इन तीनों को नवे मत चलाने में बडे बडे केश भोगने पडे, परन्तु इनके त्याग को देख के कितनेक ढंके मती इन को मानने भी लगे। क्योंकि यह मेल चाल जगत् में प्रसिद्ध है, और भोले लोक तो ऊपर की छूछां फूफां देख के रागी हो जाते हैं। और गुजरात के बहुत लोक ऐसे हठाग्रही हैं कि जो बात पकड़ लेवें, उस बात को बहुत मुश्किल से छोड़ते हैं। इसी वास्ते जैनमत में कई फिरके गुजरात देश से निकले हैं। पीछे तिस लवजी का शिष्य अहमदाबाद के कालपुरे का वासी ओसवाल सोमजी हुआ, तिसने सूर्य अनुयायी शिष्य की आतापना बहुत करी। तिसके चेलों के परिचार नाम-१. हरिदासजी, 2. प्रेमजी, 3. गिरधरलालनी, 4. कानजी प्रमुख और लुकेमती कुंवरजी के चेले मी इनके शिष्य बने / तिनके नाम-१. श्रीपाल, 2. अमीपाल, 3. धर्मसी, 4 हरजी, 5. जीवाजी, 6. समरथ, 7. तोडुजी, 8. मोहनजी, 9. सदानंदजी, 10. गोधानी थे। एक गुजरात का वासी धर्मदास छौंपीने मुण्डमुण्डा के मुख ऊपर पट्टी बांध के अपने आप को ढूंढिया साधु मशहूर किया / तिन में हरिदास का चेला बूंदावन हुआ, और वृंदावन का चेला मुवानीदास
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________________ 538 जैनतत्त्वादर्श हुआ, और भुवानीदास का चेला लाहौर का वासी. मलकचन्द हुआ, मलूकचन्द का महासिंघ, और महासिंघ का कुशलराय और कुशलराय का छजमल और छजमल का रामलाल, और रामलाल के शिष्य रामरल और अमरसिंह, ये दोनों मैंने देखे हैं / अब इन दोनों के चेले बसंतराय और रामबख्श वगैरे जीते हैं। ये पंजाब देश में आज कल फिरते हैं। ____और जीवाजी का चेला -लालचंद हुआ, लालचंद का अमरसिंह हुआ, सो मारवाड़ देश में आया / तिसके परिवार में नानकजी, जिनों के चेले अब अजमेर अरु कृष्णगढ के जिल्ले में बहुत रहते हैं। और श्यामिदास जिनों के परिवार के कन्हीराम, लेखराज, तखतमल प्रमुख अब मारवाड़ में रहते हैं। और जो कोटेबूंदी में तथा मालवे में लालचंद गणेशजी, गोविन्दरामजी हुये / तथा अमीचंद, हुकमचंद, उदयचंद, फतेचंद, ज्ञानजी, छगन, मगन, देवकरण अरु पनालाल प्रमुख फिरते हैं, ये भी हरिदास के ही चेले हैं / तथा अमरसिंह का चेला दीपचंद, दीपचंद का चेला धर्मदास, धर्मदास का जोगराज, जोगराज का हजारीमल्ल, हजारीमल्ल का लालजीराम, लालजीराम का गंगाराम, गंगाराम का जीवनमल्ल, जो इस वक्त दिल्ली के आसपास के गामों में फिरते हैं। तथा अमरसिंह के परिवार में धनजी, मनजी, नाथुराम
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________________ द्वादश परिच्छेद अरु ताराचंदादि हुये हैं, जिनों के चेले रतीराम, नंदलाल, हुये / नंदलाल का चेला रूपचंद, रूपचंद का बिहारी, जो कि पंजाब में कोट, जगरावांदि गामों में रहते है। तथा कानजी और धर्मदास छीपी के चेले में से दीपचंद, गुपालजी प्रमुख ये लींबडी, बढ़वान, मोरबी, गोंडल, जैतपुर, राजकोट, अमरेली, धांगधरा प्रमुख झालावाड़, काठियावाड़, मछुकांठा प्रमुख देशो के गामों में फिरते रहते हैं। और धर्मदास छीपी का चेला धनाजी, धनानी का भूदरजी, भूदरजी का रघुनाथजी, जैमलजी, गुमानचंद, दुर्गादास, कन्हीराम, रलचंद, हमीरमल्ल, कचौडीमल्ल प्रमुख जो अब मारवाड़ देश में रहते हैं, सो प्रसिद्ध हैं। और रघुनाथजी का चेला भीखमजी संवत् 1818 में हुआ जिसने तेराहपंथ निकाला। तिसके चेले भारमल, हेमजी, रायचंद, जीतमल्ल / जीतमल की गद्दी ऊपर अब मेघजी है। ये पट्टीबंध जितने साधु हैं। इनका पन्थ संवत् 1709 के साल से चला है। और इनका मत जन से निकला है, तब से लेकर आजपर्यंत इन के मत में कोई विद्वान् नहीं हुआ है। क्योंकि ये लोक कहते हैं कि व्याकरण, कोश, काव्य, छंद, अलंकार पढने से तथा तर्कशास्त्र पढ़ने से बुद्धि मारी जाती है। इस वे इलमी के ही सवव से
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________________ 540 जैनतत्त्वादर्थ ये,.लोक परस्पर बड़ा द्वेष रखते हैं, कई मनमानी कल्पित बातें बना लेते हैं, एक दूसरे के पग नहीं जमने देते, मन मैं जानते हैं कि मेरे गृहस्थ चेलों को बहका लेवेगा, इत्यादि। मेरे लिखने में किसी को शंका होवे तो मारवाड़ में जाकर प्रत्यक्ष देख लेवे। इन का आचार, व्यवहार, वेष, श्रद्धा, प्ररूपणा प्रमुख जो है, सो जैनमत के शास्त्रानुसार नहीं है। और दूसरे मतोंवाले भी जो बहुत जैनमत को बूरा जानते हैं, वो इन ढूंढियों ही के आहार व्यवहार देखने से जानते हैं। परन्तु यह लोक तो सर्व जैनमत से विपरीत चलनेवाले है। 63. श्री विजयप्रभसूरि पट्टे श्री विजयरत्नमरि हुए। - 64. श्रीविजयरत्नसूरि पाटे श्री विजयक्षमासूरि हुए। 65. श्री विजयक्षमासूरि पाटे श्री विजयदयासूरि हुए। / 66. श्री विजयदयाम्ररि पाटे श्री विजयधर्मसूरि हुए / 67. श्री विजयधर्मसूरि पाटे श्री जिनेंद्रसूरि हुए। 68. श्री जिनेंद्रसूरि पाटे श्रीदेवेन्द्रसूरि हुए। , 69. श्री देवेंद्रसूरि पाटे श्री विजयधरणेद्रसूरि जो कि इस वर्तमानकाल में विचरते हैं। . . -
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________________ 541 द्वादश परिच्छेद तथा इकसठमे पाटे जो श्री विजयसिंहसूरि थे तिनके शिष्य श्री सत्यविजयगणि हुए श्रीयशोविजयनी और महोपाध्याय षट्शास्ववेचा, न्याय. उपाध्याय विशारद-विरुदधारक, महावैयाकरण, तार्किक शिरोमणि, बुद्धि का समुद्र महोपाध्याय श्री यशोविजयगणि, इन दोनोंने विजयसिंहसूरि की आज्ञा लेके गच्छ में क्रियाशिथिल साधुओं को देख के और ढूंढक मत के पाखण्ड अंधकार के दूर करने वास्ते क्रिया का उद्धार करा, और जिनोंने काशी के पंडितों से जयपताका का झन पाया, और गुजरात प्रमुख देशों से प्रतिमा-उत्थापक कुलिगियों के मतरूप अंधकार को दूर करा, और जिनों के रचे हुए-अध्यात्मसार, स्याद्वादकल्पलता, शास्त्रवार्तासमुबय की वृत्ति, मल्लवादीसूरिकृत नयचक्र-उद्धारादि अनेक वडे बडे एक सौ ग्रन्थ हैं। श्रीसत्यविजय गणिजी क्रिया का उद्धार करके आनंदघनजी के साथ बहुत वर्ष लग वनवास में रहे, श्रीसत्यविजय गणि और बडी तपस्या योगाभ्यासादि करा / जब बहुत वृद्ध हो गए, जंघा में चलने का बलं न रहा, तब अणहलपट्टन में जा रहे। तिनके उपदेश से तिनके दो शिष्य हुए-१. गणि कर्पूरविजयजी पंडित और 2 पंडित कुशलविजयजी / तिन में गणि कर्पूरविजयजीने वों
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________________ કાર जैनतत्त्वादर्श अनेक अहंत बिंबों की प्रतिष्ठा करी, और अनेक प्रामः नगरों में धर्म की वृद्धि करी, बड़े प्रभावक हुए। गणि कर्पूरविजयजी के दो शिष्य हुए-१. पण्डित वृद्धिविजय गणि और 2. पण्डित क्षमाविजय गणि। पण्डित क्षमाविजय गणि के शिष्य पण्डित जिनविजय गणि, तिनका शिष्य पण्डित उत्तमविजय श्रीक्षमविजय गणि गणि, तिनका शिष्य पण्डित पद्मविजय गणि, की शिष्यपरम्परा तिनका शिष्य पण्डित रूपविजय गणि, तिनका शिष्य पंडित कीर्तिविजय गणि, तिनका शिष्य पंडित कस्तूरविजय गणि, तिनका शिष्य मुनि मणिविजय गणि, तिनका शिष्य मुनि बुद्धिविजय गणि, तिनका शिष्य पंडित मुक्तिविजय गणि, तिनोंके हाथ का दीक्षित लघु गुरुमाता इस जैनतत्त्वादर्श ग्रन्थ के लिखनेवाला मुनि आत्माराम-आनंदविजय नामक है / अब इस ग्रन्थ के लिखनेवाले के समय में इतने नवीन पंथ निकले हैं, सो लिखते हैं-गुजरात देश लेखककालीन मत में स्वामीनारायण का पंथ, और बंगाल देश में ब्रह्मसमाजियों का पंथ / और पंजाब देश में लुधियाने से दश कोस के अन्तरे एक भयणी नामा गाम है, तिस में रहनेवाला जाति का तरखान सिक्ख, तिस
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________________ द्वादश परिच्छेद 543 के उपदेश से कूका नामक पंथ, और कोईल में मौलवी अहमदगाह का नवीन फिरका, तथा स्वामी दयानन्द . सरस्वती का निकाला आर्यसमाज का पंथ, इत्यादि अनेक मत पुराने मतों को छोड़ के निकाले हैं। क्योंकि इनों ने अपनी बुद्धि समान प्राचीनों के करे पुस्तक तथा वेदार्थों को नहीं समा / जेकर इसी तरे नवीन नवीन मत निकलते में तो कुछ एक दिन में ब्राह्मणादि मताधिकारियों की गेजी मारी जायगी, और धर्म अरु नियम किसी किसी का कायम रहेगा। नि श्री नपागच्छीय मुनि श्रीबुद्धिविजय शिष्य मुनि आनंदविजय-आत्मागगविरचिते जनतत्त्वाद” द्वादशः परिच्छेदः सपूर्ण.. L
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________________ जैनतत्त्वादर्थ नोंध
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________________ शब्दकोष कठिन, प्रान्तीय और पारिभाषिक शब्दों का अर्थ अफ्यून अफीम अवन्धि बन्धन रहित अंगलूहना पा० जिनप्रतिमा को अमारी ढंढेरा हिंसा न करने की पूंछने का वस्त्र घोषणा करना अंजली बांध कर हाथ जोड़ कर अलसुपलसु जैसे तैसे अंच पं. भाम अशक्यपरिहार जिसे दूर नहीं अगुवा-अगाडी करे आगे करे कर सकते अचिच पा० जीवरहित अटकाव रुकावट अडिगपने निश्चलता से आइवाइ कहना सुनना (चकित हो०) अदहाधर्मी जिसे अग्नि जला आगर वन नहीं सकती आगार छूट अनचिन्त्याजिस का पहिले विचार आचीर्ण ग्रहण करने योग्य न किया हो / आरात्रिक आरती अनतिक्रमणीय उलटुन के अयोग्य | आलेखन रचना, बनाना अनाचीर्ण त्यागने योग्य आलोचे-आलोषे पश्चात्ताप-प्रायअन्तेउर महल श्चित करे अपरिकर्मित शृक्षार आदि से रहित | आवता मानेवाला, भावी
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________________ जैनतत्त्वादर्श इजारे ठेका, किराया पंखा पा० आकांक्षा कंडे पं० कोटे कमोवेश कमती बढ़ती, थोडा ईटपचावा आवा बहुत ईषत् थोड़ा कर्णिका कमल का मध्य भाग कर हाथ उघराणी गु० उगराही करार नियत किया हुआ समय उघाड़ा गु० खुला करावने कराने उच्चार पा० विष्टा कल्पना उचित-योग्य होना उतावल गु० जल्दी काजा गु० कूडा कचरा उलांभा पं० उपालम्भ कार्मण मन्त्र, जादू कूड़ी झूठी कौल प्रतिज्ञा . ऊंडा गु० गहरा ख ऊंबियां गेहूं के भुने हुए बिहे खरची माता आदि खाड़ा गु० गढ़ा एक बारगी एक ही बार खेल खंखार थूक आदि ओ खोटी दूरी ओसामण गु० दाल का गर्म किया हुआ.पानी। | गंभारा पा० जिस कमरे में जिन: ग
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________________ शब्दकोष प्रतिमा विराजमान रहती है। / जयणा-यतना पा० सावधानता गरज ज़रूरत जल्द जल्दी, शीघ्र गईणा निन्दा जीवना पं० जीना गारत नष्ट गिलास गीलापन गुमड़ा गु० फोडा टटरी खोपड़ी गुरां पं० गुरु टिकी हुई स्थिर गोप रक्षक, त्राता टोली समूह घणे गु० बहुत से डाकन प० डाकिन, चुडैल डाम दर्भ, घास विशेष चानणे प्रकाश में चौला पा० चार व्रत ढव आदत ढोघे अर्पण करे दौकन भेट, अर्पण छाना गु• छिपा छैकड़ प० आखीर छेडे गु० आखोर में तगादा मांग तजना छोडना ततीरी धार तदभावे उसके अभाव में .] तस्कर चोर / जने पं० जन, व्यक्ति जमणा गु० दायां /
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________________ जैनतत्त्वादश ताबे आधीन तितना उतना तेला पा० तीन व्रत पंचौला पाच व्रत पहुंक भुने हुए चावल पग पैर दर रोज़ गु० प्रतिदिन पडवा प्रतिपदा दाडिम अनार पराहुणा अतिथि, महेमान दुरन्त दुःख से जिस का अंत होवे परिठवे पा० त्यागे दुरुत्तार कठिनता से जो तरा जावे | परिवरे हुए घिरे हुए दीसे दीखे पावडी खडाऊ देहरा, देहरासर मन्दिर पासों पास से पुड़ तह पुद्गलानंदीपना विषयानंदी होना न्याति ज्ञाति पुरीपोत्सर्ग मल का त्याग निदान कारण पौरुषी, पोरसी प्रहर का व्रत निमित्तिया निमित्त का जानने प्रत्यनीक विरोधी वाला, ज्योतिषी प्रतिक्रमण, पडिकमण रागादि निर्यामक खवैया, पार लघानेवाले के वश हो कर शुभ योग से गिर निलाड मस्तक कर अशुभ योग को प्राप्त करने के निववत अपेक्षा बाद फिर से शुभ योग को प्राप्त नैषेधिकीकरण पा० पूजा से पूर्व | करना, यह प्रतिक्रमण है। इसके गृहकार्य आदि का त्यागना | लिये की जानेवाली किया विशेष
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________________ शब्दकोष मी प्रतिक्रमण है। | मार स्वामी, पति भवाभिनंदी संसार को बढ़ानेवाला मांग्या हुआ तोडा-फोडा हुआ फजीता अपमान भांडे वर्तन फटे नहीं अलग न हो माखना भाषण करना, कहना फरमान आज्ञा भाजन पात्र, वर्तन फलाना, फलाने 60 अमुक मिल्लपल्ली भीलों का गाव बंगड़ीकार बगडी बनानेवाला | मंजी पं० चारपाई चडेरा वृद्ध पुरुष मढ़ा के चढा कर घधिया खस्सी मण्डाण समारोह वलद 60 बैल मधनेवाली नष्ट करनेवाली वहाल कायम मद्यप मदिरा पीनेवाला शराबी बहुमोली बहुत मूल्यवाली मनशा इच्छा विडालनेत्री दिली की तरह मनसूबा इरादा आंखवाली | माणस गु० मनुष्य, आदमी बीड दातो के समुदाय मांदा गु० रोगी वे इलमी मूर्खता मापे से परिमाण से वेला पा० दो व्रत माहण ब्राह्मण मुकरना पं० नकारना, अस्वीकार करना भंडी निन्दा 1 मुखरता वाचालता, अधिक बोलना
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________________ जैनतत्वादर्श मूजब अनुसार रजा गु० छुट्टी रसवती रसोई, भोजन सामग्री राजी प्रसन रीते रिक्त, खाली रुड़हाते हो गिराते हो रैयत प्रमा रौला शोर वाचना पढना वाजबी उचित वाम, वामा बायां वासन वर्तन, पात्र व्यामोह सन्देह विचली पं० बीच को विछड़ के बिछुड कर विरति पा० संयम विसरना भूलना विसवा भाग विशेष विसारना भुलाना बीहि चावल वेला समय लंघा कर बिता कर लांच घूस, रिश्वत लूहे पूछे लेखे हिसाब ले लीजो गु० ले लेना लौल्य लालच संक्रमण हो जाता है भ्रष्ट हो जाता है संभ्रम संयुक्त उत्साह युक्त संसार जलधि संसारसमुद्र सचित्त जीव सहित सबब कारण समराना संवारना, साफ करना वघना वढना वहना बहना, चलना, धारण करना बांकी टेढी
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________________ शब्दकोष समरो ठीक करो सेकना सेंकना, गरम करना सरता नहीं चलता नहीं सेती से सरणा पा० शरण सौकम चौतिन, पति की दूसरी स्त्री सरसाई सरसता, नमी साख साक्षी, गवाही सादपोरसी डेढ प्रहर का प्रत्या हरकत नुकशान, वाधा हाथ के आवर्त से हाथ पर ख्यान गिनने से सार्थवाह सारथि, रथ चलानेवाला हाट दुकान सावध पापयुक्त हाड हड्डी सिंघाण नाक का मल हाले चाले हिले जुले सीदते नष्ट होते, पतित होते हिकमत चतुरता सुखाली आसान, सुविधाजनक हेठले निचले सुरती वुद्धि हेय त्याज्य, छोडने योग्य
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________________ जैन पारिभाषिक शब्द अंगलूहणा (-ना) 119, 204 | इंगाल कर्म 121 अतिचार 18, 53, 136 अतिथिसंविभाग व्रत 153 उत्सर्पिणी 360 अदचादानविमरण 60 अनर्थदण्डवि० 128 उपकरण 140 उपाध्याय 6 अनुमोदना 156 अनुयोग 35 अवसर्पिणी 360 . कर्मादान 121 अष्टापद 410 कायोत्सर्ग 1, 210 आ कालचक्र 360 कुलकर 362 आंगीरचना 200 कुवाणिज्य 122, 123, 124 आकांक्षा अतिचार 36 केवलज्ञान 376 आगार 15, 41 आचाम्ल 148 आचार्य 5 खादिम 175 आरंभ (हिंसा) 48 आरे 19, 360 आध्यान 129 गच्छ 222 आशातना 17, 239 गीतार्थ 327
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________________ पारिभाषिक शब्द गुणवत 76 गुणस्थान 13 गुरु 328 गुंहली 318 अन्थि 183 तिविहार 114 সিদ্ধ 15 तीर्थकर नामकर्म तीन तत्त्व 1 थावर 40 चविहार 114 चतुर्विघसंघ चरवला 141 चारित्र 45 चैत्यवन्दन 209 चौवीसी 204 दिक्परिमाण बत 47 दिवसचरिम 200 दिशावकाशिक व्रत 145 दुविहार 18, 114 दुपमकाल 150 देवकुलिक 221 देहरा, देहरासर 212 छ छंडी 43 छद्मस्थ 210-377 जघन्य 108, 159, 207 जयणा 48, or जिनविम्ब 2 जीतकल्प 361 नय 13 नवतत्त्व 16 निकाचित / निक्षेप
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________________ जैनतस्वादर्श निगोद 22 / निर्माल्य 199 नियुक्ति 13 निवीता 0 निधारत 222 निन्हव 470 बादर 60 भ भवपरिणति 66 भाड़ी कर्म 121 भोगोपभोग व्रत 70 प पचतीर्थी 204 परिग्रहपरिमाणवत 50 पर्याति 14 पल्योपम 361 पूर्व 22, 366 पौषध 14 प्रतिक्रमण-पडिक्कमण 200 प्रत्याख्यान 18, 183, 183 प्रशंसा 40 प्राणातिपातविरमण 45 प्राशुक 177 महाधिगय 117 मांडली 310 महाख्य 205 मिथ्यादृष्टि 41 मृषावादविरमण 55 मैथुन वि० 65 रौद्रध्यान 131 लेश्या 55 फोडी कर्म 121 धनकर्म 11 विगय 115, 319 .
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________________ पारिभाषिक शब्द विचिकित्सा 35 . सम्यग्दर्शन 1 विसवा 47 सागरोपम 168, 360 वैकियलब्धि 436 साड़ी कर्म 121 साता 14 साधु 6 शंका 18 सामान्य कर्म 124, 125 शिक्षाबत 118 सामायिक व्रत 138 स सारूपी 328 संथारा 356 स्वादिम 15 समवसरण 379 सिद्ध 6 सम्यक्त्व . / सीमंधर /
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________________ जैनतस्वादर्श परिशिष्ट नं० २-घ [40 33] वेद के कल्पित अर्थ वर्तमान आर्यसमाज के जन्मदाता स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने वेदमंत्रों के अर्थ करने में जो खैचातानी की है, और मंत्रों के क्रम तथा पूर्वोत्तर संबन्ध की अवहेलना करते हुए उनके साथ जो अन्याय किया है, उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना बहुत कठिन है। एवं कहीं कहीं पर तो वेदमंत्रों के अर्थ का अनर्थ करते हुए आपने मनुष्यत्व का भी बड़ी निर्दयता के साथ घात किया है। उदाहरणार्थ इस समय सिर्फ दो मंत्र उद्धत किये जाते है। नियोग के सिद्धांत को वैदिक सिद्ध करने के लिये आपने ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका तथा सत्यार्थप्रकाश में कई एक वेदमन्त्रों का उल्लेख किया है, उनमें से इस समय केवल(१) इमां त्वमिन्द्रमीदवा सुपुत्रां सुमगां कृणु / दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि / [* मं० 10, सू० 85, मं० 45] (2) अन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत् / [30 मं० 10, सू० 10, मं० 10]
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________________ परिशिष्ट इन दो मंत्रों के अर्थ पर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। १-(इमा) ईश्वर मनुष्यों को आज्ञा देता है कि हे इन्द्र ! पते ! ऐश्वर्ययुक्त ! तू इस स्त्री को वीर्यदान दे के सुपुत्र और सौभाग्य युक्त कर / हे वीर्यप्रद ! (दशास्यां पुत्रानाचेहि ) पुरुष के प्रति वेद की आज्ञा है कि इस विवाहित या नियोजित बी मे दश सतान पर्यंत उस्पन्न कर, अधिक नहीं। (पतिमेकादशं कृषि ) तथा हे स्त्री! तू नियोग मे ग्यारह पति तक कर / अर्थात् एक तो उनमें प्रथम विवाहित और दश पर्यन्त नियोग के पति कर, अधिक नहीं। इसकी यह व्यवस्था है कि विवाहित पति के मरने वा रोगी होने से दूमरे पुरुष के साथ संतानों के अभाव में नियोग करे, तथा दूसरे के भी मरण वा रोगी होने के अनन्तर तीसरे के साथ कर ले, इसी प्रकार दशवें तक करने की आज्ञा है। [ऋ० भा० भू० पृ० 232, सं० 1985] * हे ( मिढव-इन्द्र ) वीर्य सेचने में समर्थ ऐश्वर्ययुक पुरुष, तू इस विवाहित स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर / विवाहित नो में दश पुत्र उत्सम कर और ग्यारवीं स्त्री को मान / हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष पा नियुक पुरुषों से दश सन्तान उसन कर, ग्यारवें पति को समझ / [पत्या. सं० 4, पृ० 69-70, सं० 1992]
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________________ जैनवत्वादर्श , २-जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपनी बी को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा करनेहारी स्त्री तू (मत् ) मुझ से (अन्यम्) दूसरे पति की (ईच्छस्व ) इच्छा कर / क्योंकि अब मुझ से सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी। - इन दोनों मंत्रों का स्वामीजीने जो अर्थ किया है, तथा उसी अर्थ के आधार पर ऊपर दी हुई जो स्वतंत्र व्याख्या की है, उससे संसार भर का शायद ही कोई तटस्थ विद्वान् सहमत हो सके / अस्तु, अब हम स्वयं इन मन्त्रों के वास्त. विक-यथार्थ अर्थ के विषय में कुछ भी न कहते हुए आर्य समाज के ही एक प्रतिष्ठित विद्वान् के द्वारा किये गये उक्त दोनों मन्त्रों का अर्थ यहां पर उद्धत कर देते हैं, जिस से कि पाठकों को सत्यासत्य के निर्णय करने में अधिक सुविधा हो। . (1) [ इन्द्रमिढ्वः ] हे परमैश्वर्य सम्पन्न परमैश्वर्यदाता परमात्मन् ! हे अनन्त सम्पत्तियों को प्रनाओ में सींचनेवाले परमपिता जगदीश ! [त्वं इमां सुपुत्रां सुभगां कृणु] -तू इस वधू को सुपुत्रवती और सौभाग्यवती बना [ अस्यादुश' पुत्रान् आधेहि ] इसके गर्भ में दश पुत्र स्थापित कर, [पतिमेकादशं कृषि ] पति को ग्यारवें कर अर्थात् इस श्री के.दश उत्कृष्ट सन्तान और ग्यारवां पति जैसे होय, वैसा उपाय कर। I::: ...: [वैदिक इतिहासार्थनिर्णय पृ० 412]
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________________ परिशिष्ट (2) स्वामीजीने नं० 2 के मन्त्र का सिर्फ चतुर्थ चरण ही लिख कर उसका मनमाना अर्थ करके वेदों को लांछित करने का दुःसाहस किया है / इस लिये सम्पूर्ण मन्त्र और उसका वैदिक इतिहासार्थनिर्णय में किया हुआ अर्थ नीचे दिया जाता है। तथाहि आघाता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र यामयः कृण्वनयामि / उपवहि घृषभाय वाहु मन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत् // 10 // यम कहता है [ता+ उत्तरा+युगानि+आ+गच्छान् + घ] वे उत्तर युग आगे [यत्र यामयः अयामि कृण्वन् ] जव बहनें भ्राता को अयामि अर्थात् पति बनावेंगी [सुभगे मत् अन्यं पति इच्छस्व ] इस कारण ए यामि ! तूं मुझ को त्याग, अन्य पति की इच्छा कर तब [वृषभाय बाहु उपवईहि ] उस स्वामी के लिये निज बाहु का उपबर्हण अर्थात् तकिया बना // 10 // [पृ०४०७ ] नोट-वैदिक इतिहासार्थनिर्णय आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाव की आज्ञानु सार ईस्वी सन् 1909 में गुरुकुल कांगडी से प्रकाशित हुआ है। इस के रचयित्ता आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पंडित शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ है।
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________________ जैनतत्त्वादर्श यह उक्त दोनों मन्त्रों का अर्थ एक आर्यसमाजी विद्वान् का किया हुआ है। इस पर अधिक टीका टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है / पाठक स्वयं विचार लें कि इन दोनों मन्त्रों में ग्यारह पुरुष तक के साथ व्यभिचार करने और सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होने पर पुरुष अपनी बी को अन्य पुरुष के साथ समागम करने का आदेश दे, यह कहां से आया ? बस इसी प्रकार की स्वामीजी की अन्य वेदमन्त्रों की व्याख्या है। अन्त में भाई बहन के संवाद को पति पत्नी के रूप में ग्रहण करनेवाले स्वामीजी के विषय में आचार्य श्री . हेमचंद्र की उक्ति में हम इतना ही कहेंगे कितुरंगशृंगाण्युपपादयस्यो , नमः परेभ्यो नवपंडितेभ्यः। **
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________________ जैनतत्वादर्श में आए हुए ग्रंथ - -- अथर्व वेद ओधनियुकि अध्यात्मकल्पद्रुम कन्दली अनुयोगद्वार कर्मग्रन्थ अनेकान्तजयपताका कल्पसूत्र भाचारांग कल्पवृत्ति याचारदिनकर कल्पभाज्य आचारप्रदीप कल्याणमन्दिर आवश्यक सूत्र कामंदकीय नीतिशास्त्र आवश्यक नियुक्ति-टीका कामशास्त्र माप्तमीमांसा किरणावली आत्रेयतंत्र (महाभारत) गच्छप्रत्याख्यानभाग्य ईशावास्योपनिषद् गंधहस्तीभाष्य उत्तराध्ययन चन्द्रप्रज्ञप्ति उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति चैत्यवन्दनभाष्य उपदेशतरंगिणी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपदेशमाला जीतकल्पसूत्र उववाई जीवानुशासन ऋग्वेद 296 जीवसमासप्रकरण
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________________ शाता सूत्र तत्त्वगीता तत्त्वार्थभाष्य तस्वार्थमहामाष्य तौरेत प्रेसठशलाकापुरुषचरित्र दर्शनशुद्धि दशकालिक द्वादशारनयचक्र धनंजयकोश धर्मसंग्रहणी धर्मरत्नप्रकरण ध्यानशतक नवतत्त्व नवतत्त्वप्रकरण टीका नवतरवप्रकरणमाष्य नंदी सूत्र निशीथ निशीथभाष्य चूर्णि निरयावली न्यायकलिका [ 18 ] न्यायकुमुदचन्द्र न्यायकुसुमांजली न्यायसार न्यायसूत्र न्यायभाष्य न्यायवार्तिक न्यायतात्पर्यटीका न्यायतात्पर्यपरिशुद्धि न्यायालकार न्यायावतार पाचरित्र पनवणा (प्रज्ञापना) वृत्ति पंचकल्पचूर्णि पंचलिंगी पंचवस्तुक হাব্দ परिशिष्टपर्व पाश्चपुराण पाराशरस्मृति पिंडनियुक्ति पिंडविशद्धि पूजाप्रकरण
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________________ पूजाविधि पूजाषोडश प्रतिष्ठाकल्प प्रतिष्ठाकल्पपद्धति प्रबन्धचिन्तामणि प्रभावकचरित्र प्रमाणपरीक्षा प्रमाणमीमांसा प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रवचनसारोद्धार प्रशस्तकरभाष्य प्रशापनासूत्र बृहत्कल्पभाज्यवृत्ति बृहत्शांतिस्तोत्र भकामरस्तोत्र भद्रबाहुसंहिता भगवतीसूत्रवृत्ति भगवद्गीता भूगोलहस्तामलक मनुस्मृति महाकल्पसूत्र [19] महानीशीथसूत्र महामाष्य महावीरचरिक मिथ्यात्वसचरी भूलावश्यक यजुर्वेद योगशास्त्र योनिप्राभूत राजप्रश्नीय रामायण (जैन) ललितविस्तरा लीलावती टीका वसुदेवहिंडी बादमहार्णव विवेकविलास विशेषणवती विशेषावश्यक विष्णुमक्किचन्द्रोदय वीरचरित वैशेषिकसूत्र / व्यवहारसूत्रमाष्य
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________________ [ 20 ] ध्योममतीटीका सम्यक्त्वपच्चीसी शंकरदिग्विजय समरादित्यचरित्र शत्रुञ्जयमाहात्म्य समवायाङ्ग शाबरभाष्य सम्मतितर्क शास्त्रवार्तासमुच्चय सांख्यसप्तति शीलतरङ्गिणी सामवेद श्राद्धजीतकल्पसूत्र सिद्धपंचाशिका श्राद्धदिनकृत्य सिद्धप्राभूत श्राद्धविधि सिद्धहेमव्याकरण श्रावककौमुदी सूत्रकता सिद्धान्त श्रावकदिनकृत्य सूर्यप्राप्ति श्रावकप्रति सोमनीति श्रावकविधि स्कंदपुराण षड्दर्शनसमुच्चय स्थानांग सूत्र षड्दर्शन की बड़ी टीका स्याद्वादकल्पलता षष्टितन्त्रं स्याद्वादमञ्जरी षोडशक स्याद्वादरत्नाकर संघयण स्याद्वादरत्नाकरावतारिका संघाचारवृत्ति स्वप्नचिन्तामणि सम्यक्त्वप्रकरण
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________________ आचार्यश्री के ग्रन्थों की सूची -- -- आरम्भसंवत् और स्थान समाप्तिसंवत् और स्थान नं. नाम पुस्तक 1924 बिनौली 1925 बड़ौत 1 नवतत्व 2 जैनतत्त्वावर्श 1937 गुजरांवाला। 1938 होशियारपुर 3 अज्ञानतिमिरभास्कर 1939 अम्बाला 1942 खंभात 4 सम्यक्त्वशत्योद्धार 1941 अहमदाबाद 1941 अहमदाबाद 5 जैनमतवृक्ष 1942 सूरत 1942 सूरत 6 चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग प्रथम 1944 राधनपुर 1944 राधनपुर 7 प्रश्नोत्तरावली 1945 पालनपुर 1945 पालनपुर 8 चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग दूसरा 1948 पट्टी 1948 पट्टी 9 चिकागोप्रश्नोत्तर 1949 अमृतसर 1949 अमृतसर 10 तस्वनिर्णयप्रासाद 1951 जीरा 1953 गुजरांवाला 11 ईसाईमतसमीक्षा 12 जैनधर्म का स्वरूप
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________________ पूजायें तथा भजन * 13 आत्मबावनी . 1927 बिनौली 1927 बिनौली 14 स्तवनावली 1930 अम्बाला 1930 अम्बाला 15 सचरभेदी पूजा / 1969 अस्वाला 1939 अम्बाला 16 वीशस्थानक पूजा 21940 बीकानेर 1940 बीकानेर 17 अष्टप्रकारी पूजा , 1943 पालीताना 1973 पालीताना 18 नवपद पूज / 1948 पट्टी 1948 पट्टी 19 स्नान पूजा 1950 जंडियालागुरु 1950 जंडियालागुरु * पूजायें व भजन " पूजासंग्रह " " आत्मस्तवनावली " आदि के नाम से छप चूकी है।
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________________ कोयना रहेगा। बिजली के लिए आधारभूत ईंधन के रूप में देश की उत्पादक शक्तियों के विकास में ____ मोविं मिनी पर एक कोयला बताने कोयला म प्रार अब भी एक प्रमुख भूमिका निभाता है," सोवियत मय के कोयला उद्योग मत्री वरीस आत्वको ने कहा है। ___ इसी प्रकार खनिज ईधन के or - मोतिगत विशेषज्ञ गई मलि है। मार थोडा म और क गति लगाय। 1800 कोयले अनमान * का कग के (शेष पृष्ठ 15 पर) मिट्टी का परत हटा देने के भी है। ऊपर की कठिनाइया किन्तु इस विधि की कुछ को सतह पर ही मिल जाता है। प्राय जमान 5 पा पर ग्गा-५ मे