________________ .462 जैनतत्त्वादर्श इन का अर्थ तेरे मन में ऐसा भासन होता हैस्वप्न सरीखा [वै निपात अवधारणार्थे ] सम्पूर्ण जगत् है- एष ब्रह्मविधिः' अर्थात् यह परमार्थ प्रकार है, 'अंजसा'सीधे न्याय से जानने योग्य है / यह श्रुति पांचभूत का अभाव कहती है। और श्रुतियें पांचभूत की सत्ता को कहती हैं, इस वास्ते तेरे को संशय है। तेरे मन में यह भी है कि युक्ति से पांचभूत सिद्ध नहीं होते हैं। पीछे भगवान्ने इसका पूर्वपक्ष खण्डन करा, वेद पदों का यथार्थ अर्थ करा / यह अधिकार उक्त ग्रंथों से जान लेना / यह सुन कर चौथे अव्यक्तने भी अपने पांच सौ शिष्यों के साथ दीक्षा लीनी / तब पांचमा सुधर्म नामा गणधर आया / इसका भी उसी तरें सर्वाधिकार जान लेना। यावत् तेरे मन में यह संशय है कि मनुण्यादि सर्व जैसे इस भव में है, तैसे ही अगले जन्म में होते हैं ! कि मनुष्य कुछ और पशु आदि भी बन जाते हैं ! यह संशय तेरे को परस्पर विरुद्ध वेदश्रुतियों से हुआ है, सो वेदश्रुतियां यह हैं पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवा पशुत्वं इत्यादीनि // अर्थः-जैसे इस जन्म में पुरुष स्त्री आदि हैं, वे परजन्म में भी ऐसे ही होवेंगे। इस से विरुद्ध यह श्रुति है भृगालो वै एप जायते यः सपुरीपो दह्यत इत्यादि।