________________ 457 द्वादश परिच्छेद आत्मा के स्वरूप में परस्पर विरोधी बहुत मत है / कोई कहता है कि एतावानेव लोकोऽयं यावानिद्रियगोचर। मद्रे ! वृकपदं पश्य यद्बदन्त्यबहुश्रुताः // इस श्लोक का अर्थ *चार्वाक मत में लिख आये हैं। यह भी एक आगम कहता है / तथा " न रूपं भिक्षवः ! पुद्गलः" अर्थात् आत्मा अमूर्त है, यह भी एक आगम कहता है। तथा " अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा " अर्थात्-अकर्ता सच, रज, अरु तम, इन तीनों गुणों से रहित, सुख दुःख का भोगनेवाला आत्मा है, यह भी एक आगम कहता है / अब इन में से किस को सच्चा और किस को झूठा मानें ! परस्पर विरोधी होने से सर्व तो सच्चे हो ही नहीं सकते है / तथा युक्ति प्रमाण से भी मर के परलोक जानेवाली आत्मा सिद्ध नहीं होती है। ताते हे गौतम ! यह तेरे मन में संशय है / अब इस का उत्तर कहता हूं कि, तू वेद पदों का अर्थ नहीं जानता है, इत्यादि श्रीगौतमजी के संशय को दूर करा / ये सर्व अधिकार मूलावश्यक और श्रीविशेषावश्यक से जान लेना / मैंने ग्रंथ के भारी और गहन हो जाने के सबब से यहां नहीं लिखा। क्योंकि सब ग्यारह गणधरों के संशय दूर करने के प्रकरण के चार हजार श्लोक * देखो पूर्षि का पृ. 302