________________ 456 जैनतत्वादर्श जीव है कि नहीं ! और यह संशय तेरे को वेदों की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों से हुआ है, वे श्रुतियां यह हैं * विज्ञानधन एवैतेभ्यो भृतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीतीत्यादि / इस से विरुद्ध यह श्रुति हैस वै अयमात्मा ज्ञानमय इत्यादि। इन श्रुतियों का अर्थ ऐसा तेरे मन में भासन होता है। प्रथम श्रुति का अर्थ कहते हैं-नीलादि रूप होने से विज्ञान ही चैतन्य है। चैतन्यविशिष्ट जो नीलादि, तिससे जो घन सो विज्ञानघन / सो विज्ञानघन, प्रत्यक्ष परिच्छिद्यमान पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश रूप पांच भूतों से उत्पन्न हो कर फिर तिनके साथ ही नाश हो जाता है। अर्थात् भूतों के नाश होने से उनके साथ बिज्ञानघन का भी नाश हो जाता है / इस हेतु से प्रेत्यसंज्ञा नहीं अर्थात् मर के फिर परलोक में और कोई नर नार का जन्म नहीं होता इस श्रुति से जीव की नास्ति सिद्ध होती है / और दूसरी श्रुति कहती है-यह आत्मा ज्ञानमय अर्थात् ज्ञानस्वरूप है / इस से आत्मा की सिद्धि होती है। अब ये दोनों श्रुतिय परस्पर विरोधी होने से प्रमाण नहीं हो सकती है। और * 'प्रज्ञानघनः ' ऐसा पाठ वर्तमान पुस्तकों में है।