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________________ 458. जैनतत्त्वाद हैं। पीछे जब गौतमजी का संशय दूर हो गया, तब गौतमजी पांच सौ अपने विद्यार्थियों के साथ दीक्षा ले के श्री महावीर भगवन्त का प्रथम शिष्य हुआ। इस तरे इंद्रभूति को दीक्षित सुन के दूसरा भाई अग्नि भूति बड़े अभिमान में भर कर चला और अग्निभूति और कहने लगा कि, मेरे को भाई को इन्द्रजालियेसंशयवृत्ति ने छल से जीत के अपना शिष्य बना लिया / मैं अभी उस इंद्रजालिये को जीत के अपने भाई को पीछे लाता हूं। इस विचार से भगवन्त श्रीमहावीरजी के पास पहुंचा। जब भगवान् को देखा, तब सर्व आइ वाइ भूल गया, मुख से बोलने की शक्ति भी न रही / और मन में बड़ा अचम्भा हुआ, क्योंकि ऐसा स्वरूप न उसने कमी सुना था और न कमी देखा था। तब भगवान् ने उसका नाम लिया। अग्निभूतिने विचारा कि यह मेरा नाम भी जानते हैं। अथवा मैं प्रसिद्ध हूं, मुझे कौन नहीं जानता है। परन्तु मेरे मन का संशय दूर करें, तो मैं इन को सर्वज्ञ मानूं / तव भगवन्तने कहा-हे अग्निभूति ! तेरे मन में यह संशय है कि कर्म है किंवा नहीं ! यह संशय तेरे को विरुद्ध वेदपदों से हुआ है। क्योंकि तू वेदपदों का अर्थ नहीं जानता है। वे वेदपद यह हैं:
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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