SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 484 जैनतवादर्श भंग हो गया। तिनका डेरा डंडा सर्व राजाने लूट लिया। तब राजा आचार्य का अत्यन्त भक्त हो गया / उससे आचार्य सुखों में पड़ के शिथिलाचारी हो गया। यह स्वरूप वृद्धवादीजीने सुना, पीछे दया करके तिनका उद्धार करने वास्ते तहां आये / दरवाजे आगे खड़े हो कर कहला मेजा कि एक बूढा वादी आया है, तब सिद्धसेनने बुला कर अपने आगे बिठाया। तब वृद्धवादी सर्व अपना शरीर वस्त्र से ढांक कर बोले: अणफुल्लियफुल्लमतोडहिं, मारोवामोडिहिं मणुकुसुमेहि / अचि निरंजणं जिणं, हिंडहि काइ वणेण वणु / / इस गाथाको सुन कर सिद्धसेनने विचार भी करा, परन्तु अर्थ न पाया। तब विचार करा कि क्या यह मेरे गुरु वृद्धिवादी हैं ! जिनके कहने का मैं अर्थ नहीं जानता हूं। पीछे जब बार बार देखने लगा तब जाना कि यह मेरे गुरु हैं। पीछे नमस्कार करके क्षमापना मांगा, और पूर्वोक्त श्लोक का अर्थ पूछा / तव वृद्धवादी कहने लगे " अणफुलियेत्यादि " अणफुल्लियफुल्ल-प्राकृत के अनंत होने से अप्राप्त फूल फलों को मत तोड़ / भावार्थ यह है कि, योग जो है, सो कल्पवृक्ष
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy