________________ द्वादश परिच्छेद 485 है। किस तरे ? जिस योगरूप वृक्ष में यम नियम तो मूल है, और ध्यानरूप बड़ा स्कंध है, तथा समतापना, कविपना, वक्तापना, यश, प्रताप, मारण, उच्चाटन, स्तंभन, वशीकरणादि सिद्धियों का जो सामर्थ्य, सो फूल है, अरु केवलज्ञान फल है। अभी तो योगकल्पवृक्ष के फूल ही लगे हैं, सो केवल ज्ञानरूप फल करके आगे फलेंगे। इस वास्ते तिन अप्राप्त फल पुष्पों को क्यों तोड़ता है। अर्थात् मत तोड़, ऐसा भावार्थ है। तथा "मारोवामोडिहिं" जहां पांच महाव्रत आरोपा है, तिनको मत मरोड़ | " मणुकुसुमे. त्यादि " मनरूप फूलों की निरंजनं जिनं पूजय'-निरंजन जिन को पूज। " वनात् वनं किं हिंडसे" राजसेवादि बूरे नीरस फल क्यों करता है ? इति पद्यार्थः / तत्र सिद्धसेनसूरिने गुरुशिक्षा को अपने शिर ऊपर घर के और राजा को पूछ के वृद्धवादी गुरु के साथ विहार करा, और निविड़ चारित्र धारण करा। अनेक आचार्यों से पूर्वो का ज्ञान सीखा / वृद्धवादी स्वर्गवास हुए पीछे एकदा सिद्धसेनजीने सर्वसंघ इकट्ठा करके कहा कि जेकर तुम कहो तो सर्वागमों को मैं संस्कृत भाषा में कर दूं। तब श्रीसंघने कहा कि क्या तीर्थकर गणधर संस्कृत नहीं जानते थे ? जो तिन्होंने अर्द्धमागधी भाषा में आगम करे ? ऐसी बात कहने से तुम को पारांचिक नाम प्रायश्चित्त आवेगा, हम तुम से क्या कहें ! तुम आप ही जानते हो। तब