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________________ जैनतत्त्वादर्श सिद्धसेनने विचार करके कहा कि मैं मौन करके बारां वर्ष का पारांचिक नाम प्रायश्चित ले के गुप्त मुखवस्त्रिका, रजोहरणादि लिंग करके और अवधूतरूप धार के फिरूंगा। ऐसे कह कर गच्छ को छोड़ के नगरादिकों में पर्यटन करने लगे। बारा वर्ष के पर्यंत में उज्जैन नगरी में महाकाल के मन्दिर में शेफालिका के फूलों करके रंगे वस्त्र पहने हुए सिद्धसेनजी जा के बैठे। तब पूजारी प्रमुख लोगोंने कहा कि तुम महादेव को नमस्कार क्यों नहीं करते ! सिद्धसेन तो बोलते ही नहीं हैं। ऐसे लोगों की परंपरा से सुन कर विक्रमादित्यने भी तहां आ कर कहा क्षीरलिलिक्षो भिक्षो ! किमिति त्वया देवो न वंद्यते / तब सिद्धसेनजीने कहा कि मेरे नमस्कार से तुमारे देव का लिंग फट जायगा, फिर तुम को महादुःख होवेगा, मैं इस वास्ते नमस्कार नहीं करता हूं / तब राजाने कहा लिग फटे तो फट जाने दो, परन्तु तुम नमस्कार करो। पीछे सिद्धसेनजी पन्नासन बैठ के कहने लगे कि सुनो ! तब द्वात्रिंशिका करके देव का स्तवन करने लगा, तथाहि स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्र___ मनेकमेकाक्षरमावलिंगस् /
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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