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________________ 487 द्वादश परिच्छेद अव्यक्तमव्याहतविश्वलोक ___ मनादिमध्यांतमपुण्यपापम् / / इत्यादि प्रथम ही श्लोक पढने से लिंग में से धुआं निकला / तब लोग कहने लगे कि शिवजी का तीसरा नेत्र खुला है, अब इस भिक्षु को अग्नि नेत्र से भस्म करेगा। तब तो बिजली के तेज की तरें तडतडाट करती प्रथम अग्नि निकली, पीछे श्रीपार्श्वनाथजी का विव प्रगट हुआ। तर वादी सिद्धसेनने कल्याणमंदिरादि स्तवनों करी स्तवन करके क्षमापन मांगा। तब राजा विक्रमादित्य कहने लगा कि हे भगवन् ! यह क्या अदृश्यपूर्व देखने में आया ! यह कौनसा नवीन देव है ! और यह प्रगट क्योंकर हुआ ! तब सिद्धसेनजीने अवंतिसुकुमाल और तिसके पुत्र महाकालने पिता के नाम से अवंति पार्श्वनाथ का मन्दिर और मूर्ति बनाई, स्थापन करी, तिसकी कितनेक वर्ष लोगोंने पूजा करी। अवसर पा कर ब्राह्मणोंने जिनप्रतिमा को हेठ दार के ऊपर यह शिवलिंग स्थापन करा इत्यादि सर्व वृत्तांत कहा / और हे राजन् ! इस मेरी स्तुति से शासनदेवताने शिवलिंग फाड़ के बीच में से यह प्रतिमा प्रगट कर दीनी / अब तूं सत्यासत्य का निर्णय कर ले। तब विक्रमादित्यने एक सौ गाम मंदिर के खरच वास्ते दिये, और देव के समक्ष गुरुमुख से वार व्रत ग्रहण करे / सिद्धसेन की बहुत महिमा करी और अपने स्थान में गया। और वादीद्र सिद्धसेन
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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