________________ द्वादश परिच्छेद 483 असवार अहश्य हो जाते हैं। और दूसरी हेमविद्या से बिना महेनत के जितना चाहे, उतना सुवर्ण हो जाता है / ये दो विद्या सिद्धसेनने ले लीनी / जब आगे वांचने लगा तब स्तंभ मिल गया, सर्व पुस्तक वीच में रह गये। और आकाश में देववाणी हुई कि तू इन पुस्तकों के वाचने योग्य नहीं, आगे मत वाचना, वाचेगा तो तत्काल मर जायगा / तब सिद्धसेनने डर के विचार करा कि दो विद्या मिली दो ही सही। पीछे चित्तोड़ से विहार करके पूर्वदेश में कुमारपुर में गये। तहां देवपाल राजा था, तिसको प्रतिबोध के पक्का जैन. धर्मी करा / तहां वो राजा नित्य सिद्धांत श्रवण करता है। जब ऐसे कितनाक काल व्यतीत हुआ, तब एक समय राजा छाना आया, और आंसु से नेत्र भर कर कहने लगा कि, हे भगवन् / हम बड़े पापी है, क्योंकि आप की ऐसी उत्तम गोष्ठी का रस नहीं पी सकते हैं। कारण कि हम बड़े सकट में पड़े हैं। तव आचार्यने कहा कि तुम को क्या संकट हुआ है ? राजा कहने लगा कि, वहुत मेरे वैरी राजे इकट्ठे हो कर मेरा राज्य छीनना चाहते हैं। तब फिर आचार्यने कहा कि हे राजन् ! तू आकुलब्याकुल मत हो, जब मैं तेरा सहायक हूं, तो फिर तुझे क्या चिंता है ! यह बात सुन कर राजा वहुत राजी हुआ / पीछे आचार्यने राजा को पूर्वोक्त दोनों विद्याओं से समर्थ कर दिया। तिन विद्याओं से परवल का