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________________ છ૮૨ जैनतत्त्वाद -, श्रीविक्रमराजा के आगे सिद्धसेन दिवाकरने ऐसे भी कहा था पुण्णे वास सहस्से, सयंमि वरिसाण नवनवइकलिए। होइ कुमरनरिंदो, तुह विकमरायसारिलो / / अन्यदा सिद्धसेन चित्रकूट में गये। तहां बहुत पुराने जिनमंदिर में एक बड़ा मोटा स्तम्भ देखा। तब किसी को पूछा कि यह स्तम्भ किस तरे का है। यह सुन कर किसीने कहा कि, यह स्तम्भ औषध द्रव्यमय जलादि करके अभेद्य वज्रवत् है। इस स्तम्भ में पूर्वाचार्योंने बहुत रहस्य विद्या के पुस्तक स्थापन करे हैं, परन्तु किसी से यह स्तम्भ खुलता नहीं / यह सुन कर सिद्धसेन आचार्यने तिस स्तम्भ को सूंघा, तिसकी गंध से तिसकी प्रतिपक्षी औषधियों का रस छांटा, तिससे वो स्तम्भ कमल की तरें खिड़ गया / तब तिसमें पुस्तक देखे, तिनमें से एक पुस्तक ले कर वाचा। तिसके प्रथम पत्र में दो विद्या लिखी पाई, एक सरसों विद्या और दूसरी सुवर्णविद्या / तिसमें सरसों विद्या उसको कहते हैं कि, जब काम पडे तब मंत्रवादी जितने सरसों के दाने जप के जलाशय में गेरे, उतने ही असवार बैतालीस प्रकार के आयुधों सहित बाहिर निकल के मैदान में खड़े हो जाते हैं, तिनों से शत्रु की सेना का भंग हो जाता है। पीछे जब वो कार्य पूरा हो जाता है, तब
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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