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________________ द्वादश परिच्छेद के चौक में लाये / तिस अवसर में राजा विक्रमादित्य हाथी ऊपर चढ़ा हुआ सन्मुख मिला / तब राजाने सर्वज्ञपुत्र ऐसा विरुद सुन के तिनकी परीक्षा वास्ते हाथी ऊपर बैठे ही मन से नमस्कार करा / तब आचार्यने धर्मलाम कहा / तव राजाने पूछा कि विना ही वंदना करे, आपने मेरे को धर्मलाभ क्योंकर कहा ! क्या यह धर्मलाम बहुत सस्ता है ! तब आचार्यने कहा कि, यह धर्मलाभ कोड़ चिंतामणि रत्नों से भी अधिक है / जो कोई हम को वंदना करता है, उसको हम धर्मलाभ कहते हैं / और ऐसे नहीं कि तुमने हम को वंदना नहीं करी / तुमने अपने मन से वंदना करी, मन ही तो सर्व कार्यों में प्रधान है, इस वास्ते हमने धर्मलाभ कहा है। और तुमने भी मेरी परीक्षा वास्ते ही मन में नमस्कार करा है / तब विक्रम राजाने तुष्टमान हो कर हाथी से नीचे उतर कर सर्व संघ के समक्ष वंदना करी और एक कोड़ अशर्फी दीनी, परन्तु आचार्यने अशर्फियां नहीं लीनी, क्योंकि वे त्यागी थे और राजा भी पीछे नहीं लेता / तव आचार्य की आज्ञा से संघपुरुषोंने जीर्णोद्धार में लगा दीनी | राजा के दफतर में तो ऐसा लिखा है धर्मलाभ इति प्रोक्त दूरादुच्छ्रितपाणए / सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं धराधिपः॥
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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