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________________ १६२ जैनतत्त्वादर्श इत्यादि । तथा किसी के मत में चन्द्रमा राशि पलटे तिस क्रम करके अढ़ाई घड़ी तक एक नाड़ी वहती है, इत्यादि । परन्तु जैनाचार्य श्री हेमचन्द्रादिकों का तो प्रथम जो लिखा है, सो मत है। छत्तीस गुरु अक्षरों के उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतना काल वायुनाड़ी को दूसरी नाड़ी में संचार करते लगता है। __अब पांच तत्वों की पहिचान कहते हैं। नासिका की पवन जेकर ऊंची जावे, तव तो अग्नि तत्व हैं। जेकर नीची जावे तो जल तत्व है। तिरछी जावे तो वायुतत्त्व, जेकर नासिका से निकल के सीधी, तिरछी जावे तो पृथ्वी तत्त्व है। जेकर नासिका के दोनों पुटों के अन्दर वहे, बाहर नहीं निकले तो आकाश तत्त्व जानना । पहिले पवन तत्व वहता है, पीछे अग्नि तत्त्व वहता है, पीछे जल तत्व वहता है, पीछे पृथ्वी तत्त्व वहता है, पीछे आकाश तत्त्व वहता है, इनका क्रम सदा यही है। दोनों ही नाड़ियों में पांचों तत्व वहते हैं। उसमें पृथ्वी तत्व पचास पल प्रमाण वहता है, जल तत्त्व चालीस पल प्रमाण वहता है, अग्नितत्त्व तीस पल प्रमाण वहता है। वायुतत्त्व तीस पल प्रमाण वहता है, आकाश तत्त्व दश पल प्रमाण वहता है। पृथ्वी अरु जलतत्त्व में शांति कार्य करना । अग्नि, वायु, तथा आकाश, इन तीन तत्व में दीप्तिमान् अरु स्थिरकार्य करना, तब फलोनति शुभ होते है। तथा जीवने.का प्रश्न
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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