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________________ 452 जैनतत्वादर्श बंद किया, वाह रे पुत्र ! तेरी लायकी ! यह सुन के कोणिक राजा बड़ा दुःखी हुआ, और रोता हुआ आप कुहाड़ा ले कर दौड़ा कि, मैं अपने हाथ से पिता का पिंजरा काट के बाहिर निकालंगा और राजसिंहासन ऊपर बिठाऊंगा। परंतु जब श्रेणिक राजाने देखा कि कोणिक कुहाड़ा लेकर दौड़ा आता है, तब विचार करा कि, क्या जाने मुझे किस कुमौत से मारेगा ! तब श्रेणिक राजा कुछ खा के मर गया / जब कोणिकने आकर देखा कि पिता तो मर गया, तब बहुत रोया पीटा, महा शोक से दाह लगाया / जब राज. गृह के अन्दर बाहिर श्रेणिक के मकान महल सिंहासनादि देखता है, बड़ा दिलगीर-शोकवंत होता है। इस दुःख से राजगृह नगर को छोड़ के चंपा नगरी अपनी राजधानी बना के रहने लगा। तो भी पिता के वियोग से सेवा न करने से दुःखी रहने लगा। तब प्रधानमन्त्रियोंने मता करके एक छाना पुस्तक बनवाया / उस में ऐसा कथन लिखवाया कि जो पुत्र अपने मरे हुये पिता को पिण्डप्रदान वस्त्र जोडे, आभूषण, शय्या प्रमुख ब्राह्मणों को देता है, वो सर्व श्राद्धादि सामग्री उसके पिता को प्राप्त होती है। तिस पुस्तक को धुंए के मकान में रख के धुंए से पुराने पुस्तकवत् बना दिया / तब कोणिक राजा को सुनाया। कोणिकने भी पिता की भक्ति वास्ते पिंडप्रदानादि बहुत धन लगा करके करा / तब ही से मृतकों को पिंडप्रदान श्राद्धादि प्रवृत्त
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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