________________ एकादश परिच्छेद वाली बनाई / सुलसा भी रात दिन याज्ञवल्क्य की सेवा करने लगी। याज्ञवल्क्य अरु सुलसा यह दोनों यौवनवंत तरुण थे / इस वास्ते दोनों कामातुर हो के भोगविलास करने लग गये। सच तो है कि अग्नि और फूस मिल के अग्नि क्योंकर प्रज्वलित न होवे ! निदान दोनों कामक्रीड़ा में मग्न होकर काशपुरी के निकट कुटी में वास करते थे। तब याज्ञवल्क्य सुलसा से पुत्र उत्पन्न हुआ। पीछे लोगों के उपहास के भय से उस लड़के को पीपल के वृक्ष के हेठ छोड़ कर दोनों नठ के कहीं को चले गये। यह वृत्तात सुभद्रा जो सुलसा की बहिन थी, उसने सुना / तब लिस बालक के पास आई / जब बालको देखा, तो पीपल का फल स्वयमेव मुख में पडे को चबोल रहा है, तब तिसका नाम भी पिप्पलाद रक्खा। और तिसको अपने स्थान में ले जा के यन से पाला, अरु वेदादि शास्त्र पढ़ाये / तव पिम्पलाद बड़ा बुद्धिमान हुआ, बहुत वादियों का अभिमान दूर करा / पीछे तिस पिप्पलाद के साथ सुलसा और याज्ञवल्क्य यह दोनों वाद करने को आए / तिस पिप्पलादने दोनों को बाद में जीत लिया, और सुभद्रा मासी के कहने से जान गया कि, यह दोनों मेरे माता पिता हैं, और मुझे जन्मते को निर्दय हो कर छोड़ गये थे। जब बहुत क्रोध में आया तव याज्ञवल्क्य अरु सुलसा के आगे मातृमेष, पितृमेघ यज्ञों को युक्ति से सम्यक् रीति से स्थापन करके पितृमेघ में याज्ञवल्क्य