________________ जैनतत्वादर्श उसको देख के उसके पिता जितशत्रु ने अपनी रानी बना लीनी / तब लोगों ने जिवशत्रु राजा का नाम प्रजापति रक्खा, अर्थात् अपनी बेटी का पति ऐसा नाम रक्खा / तब ही से वेदों में यह श्रुति लिखी गई "प्रजापति स्वां दुहितरमभ्यध्यायद्दिवमित्यन्य आहुरुषसमित्यन्येतामृश्योभूत्वारोहितं भूतामभ्यत् तस्य यद्रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योमवत् / " इस का भावार्थ यह है कि प्रजापति ब्रह्मा अपनी बेटी से विषय सेवने को प्राप्त हुआ। हमारे जैनमतवालों की तो इस अर्थ से कुछ हानि नहीं; परन्तु जिन लोगों ने ब्रह्माजी को वेदका, हिरण्यगर्भ के नाम से ईश्वर माना है। और इस कथा को पुराणों में लिखा है, उनका फनीता तो जरूर दूसरे मतवाले करेंगे। इस में हम क्या करें ! क्योंकि जो पुरुष अपने हाथों से ही अपना मुंह काला करे, तब उसको देखनेवाले क्योंकर हंसी न करेंगे ! यद्यपि मीमांसा के वार्तिककार कुमारिल ने इस श्रुति के अर्थ के कलंक दूर करने को मनमानी कल्पना करी है। तथा इस काल में दयानन्द सरस्वती ने भी वेदश्रुतियों के कलंक दूर करने को अपने बनाए भाष्य में खूब अर्थों के जोड़ तोड़ लगाये हैं, परन्तु जो पुराणवाले ने कथानक लिखा है,