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________________ एकादश परिच्छेद 417 और उनकी औलाद हरिवंशी कहलायी / इसी वंश में वसुराजा हुआ। इन श्री शीतलनाथजी का भी शासन विच्छेद गया। इसी तरे पंदरहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थंकरों का शासन विच्छेद होता रहा, और मिथ्या धर्म वढ़ गये। तिस पीछे सिंहपुरी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी विष्णु राज हुआ, तिसकी विष्णुश्री रानी, तिनोंका पुत्र श्रीश्रेयांस. नाथ नामा ग्यारमा तीर्थकर हुआ। तिनके समय में वैतान्न पर्वत से श्रीकंठ नामा विद्याधर के पुत्र ने पद्मोत्तर विद्याधर की वेटी को हर के अपने बहनोई राक्षसवंशी लंका के राजा कीर्तिघवल की शरण गया / तब कीर्तिघवल ने तीन सौ योजन परिमाण वानर द्वीप उनके रहने को दिया / तिनों के संतानों में से चित्र-विचित्र विद्याधरों ने विद्या से बंदर का रूप बनाया / तब वानर द्वीप के रहने से और बानर का रूप बनाने से बानरवंशी प्रसिद्ध हुये / तिनों ही की औलाद में वाली और सुग्रीवादिक हुये हैं। तथा श्रेयांसनाथ के समय में पहिला त्रिपृष्ट नामा वासुदेव हरिवंश में हुआ, तिसकी उत्पत्ति त्रिपृष्ट वासुदेव ऐसे है-पोतनपुर नगर में हरिवंशी जित शत्रु नामा राजा हुमा, तिसकी धारणी नामा रानी थी। जिसका अचल नामा पुत्र और मृगावती नामा वेटी थी, सो अत्यंत रूपवती और यौवनवती थी।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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