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________________ 416 जैनतरवादर्श से बावला हो गया-हा ! वनमाला हा ! वनमाला ! ऐसे कहता हुआ नगर में फिरने लगा / एकदा वर्षाकाल में राजा वनमाला के साथ महल के झरोखे में बैठा था / तब राजा रानी ने वीरे को तिस हाल में देख के बड़ा पश्चाताप करा, अरु विचार करने लगे कि हम ने यह बहुत बूरा काम करा। उसी वक्त बिजली गिरने से राजा रानी दोनों मर के हरिवास क्षेत्र में युगल स्त्री पुरुष हो गये। तब बीरा कोली राजा रानी का मरण सुन के राजी हो गया / पीछे तापस बन के तप करा / अज्ञान तप के प्रभाव किरिबष देवता हुआ। तब अवधिज्ञान से राजा रानी को युगलिये हुये देख कर विचार करा कि, यह भद्रक परिणामी और अल्पारम्भी हैं इस वास्ते मर के देवता होवेंगे, तो फिर मैं अपना वैर किस से लूंगा ! इस वास्ते ऐसा करूं कि जिस से ये दोनों मर के नरक में जावें / ऐसा विचार के तिन दोनों को तहां से उठा करके भरत क्षेत्र में चम्पा नगरी में लाया / वहां का इक्ष्वाकुवंशी चंडकीर्ति राजा अपुत्रिया मरा था, लोक सब चिन्ता में बैठे थे कि, कौन यहां का राजा होवेगा , तब तिस देवताने ये दोनों उनको सौंपे, और कहा, कि-यह तुमारा हरि नामा राजा हुआ, इसकी यह हरिणी नामा रानी हैं, इन के खाने वास्ते तुम ने फलमिश्रित मांस देना और इन से , शिकार भी कराना / तब लोगोंने तैसे ही 'करा / वे दोनों पाप के प्रभाव से मर के नरक में गये।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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