________________ एकादश परिच्छेद 415 यहां तक तो सर्व ब्राह्मण जैनधर्मी श्रावक और आर्य चारों वेदों के पढनेवाले बने रहे। जब नवमें मिथ्यादृष्टि ब्राह्मण तीर्थंकर का तीर्थ व्यवच्छेद हो गया, तब से ब्राह्मण मिथ्यादृष्टि और जैनधर्म के द्वेषी और सर्व जगत् के पूज्य, कन्या, भूमि, गोदानादिक के लेनेवाले, सर्व जगत् में उत्तम और सर्व के हर्चा, कर्ता, मतों के मालक बन गये। क्योंकि सूना घर देख के कुत्ता भी आटा खा जाता है। और जो जगत् में पाखंड तथा बुरे 2 देवतादिकों की पूजा है, तथा और भी जो जो कुमार्ग प्रचलित हुआ है, वे सर्व उन्हों ने ही चलाये हैं / मानो आदीश्वर भगवान् की रची हुई सृष्टिरूप अमृत में जहर डालनेवाले हुये। क्योंकि आगे तो जैनमत के और कपिल के मत के बिना और कोई भी मत नहीं था। कपिल के मतवाले भी श्रीआदीश्वर अर्थात् ऋषभदेव को ही देव मानते थे। निदान यह हुंडा अवसर्पिणी में आश्चर्य गिना जाता है। तिस पीछे भदिलपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशी दृढरथ राजा हुआ, तिसकी नंदा नामा रानी, तिनोंका पुत्र श्री शीतलनाथ नामा दशमा तीर्थकर हुआ। इन ही के शासन में हरिवंश उत्पन्न हुआ है, तिसकी कथा लिखते हैं। कौशांबी नगरी में चीरा नामा कोली रहता था, तिस की वनमाला नामा स्त्री अत्यंत रूपवती हरिवंश की थी। सो नगर के राजा ने छीन के अपनी . उत्पत्ति रानी बना ली। बीरा कोली स्त्री के विरह