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________________ अष्टम परिच्छेद १५५ जगत् हितकारी, जगद्वत्सल, निष्कामी, आत्मानंदी, करुणासागर, संसारजलधि उद्धरण, परोपकार करनी में चतुर, क्रोधादि कपाय निवारक, स्व और पर का तारक, ऐसा मुनिराज, मेरे घर में चल कर आया, इस से मेरा अहो भाग्य है ! ऐसा जान कर संभ्रम संयुक्त सन्मुख जावे, त्रिकरण शुद्ध परिणाम से कहे कि, हे स्वामी ! दीनदयाल ! पधारो, मेरे गृहांगन को पवित्र करो, ऐसे बहुमान दे कर घर में पधरावे । मन में विचारे कि, मेरा बड़ा पुण्योदय है कि, साधु आहार पानी का अनुग्रह करते हैं। क्योंकि साधु के आहार लेने में बड़ी विधि है । साधु शुद्ध भात पानी जाने, तो लेवे, इस वास्ते मत मेरे से कोई दोष उपजे ऐसा विचार कर त्रिकरण शुद्ध, बहुमानपूर्वक उपयोग संयुक्त, विधिपूर्वक आहार लावे, अरु मधुर स्वर से विनति करे कि हे स्वामी ! यह शुद्ध आहार है, इस वास्ते सेवक पर परम कृपा करके, पात्र पसार के मेरा निस्तार करो, ऐसे वचन बोलता हुआ आहार देवे । मुनि भी उस आहार को योग्य जान कर ले लेवे, अरु श्रावक भी जितनी दान देने योग्य वस्तु है, उस सर्व की निमंत्रणा करे | इस विधि से दान देकर हाथ जोड़ के पृथ्वी पर मस्तक लगा कर नमस्कार करे। पीछे मीठे वचनों से विनति करे. कि, हे कृपानिधान ! सेवक पर बड़ी कृपा करी, आज मेरा घर पवित्र हुआ, क्योंकि पुण्योदय विना मुनि का योग कहां
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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