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जैनतत्त्वादर्श पीड़ित, अपार संसारचक्र में भटकता हुआ, बहुत अकथनीय दुःख संयुक्त देख कर, मेरे पर दयाहष्टि करके प्रथम मेरे को ज्ञानांजन शलाका से ज्ञान रूप-देखनेवाला नेत्र खोल दीना, अरु तीन तत्व-सेवा रूप व्यापार सिखलाया, तथा मुझ को रत्नत्रयीरूप पूंजी-रास दे कर मेरा अनादि दरिद्र दूर करा, मुझे भले आदमियों की गिनती में करा । ऐसे गुरु मुनिराज, विना गरज के, परोपकारी मेरे घरांगन में आये । ऐसी पुष्ट भावना-प्रशस्त राग भाव के उल्लास से आनंद के आंसु आवे; यह दाता का प्रथम गुण है।
२. जैसे संसार में जीव को अत्यंत इष्ट वस्तु के संयोग से रोमावली खड़ी होती है, तैसे बड़ी भक्ति के प्रभाव से मुनि को देख के रोमावली विकस्वर होवे, हृदय में हर्ष समावे नहीं। यह दूसरा गुण है।
३. मुनि को देख के वहुमान करे, जैसे किसी गरीब के घर में राजा आप चल कर आवे, तब वो गरीब गृहस्थ जैसा राजा का आदर करे, अरु मन में विचारे कि, महाराज मेरे घर में आये हैं, तो मैं अच्छी वस्तु इन को भेट करूं तो ठीक है, क्योंकि राजा का आना वारंवार मेरे घर में कहां है ? ऐसा विचार के जैसे वस्तु भेट करे, वैसे श्रावक भी साधु को घर में आया देख के बहुत मान करे अरु मन में ऐसा विचारे कि, यह ऐसा निःस्पृहियों में शिरोमणि, जगहुँघु,