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अष्टम परिच्छेद
१५३ उसको कहते हैं कि, जिसने लौकिक पर्वोअतियिसविमाग त्सवादि तिथियों को त्याग दिया है, सो बत अतिथि है। जैसे पाहुणा विना तिथि आता
है, एतावता तिथि देख के नहीं आता है। ऐसे ही जो साधु अनचिंत्या ही आ जावे, सो अतिथि जानना । ऐसे मधुकर वृत्तिवाले से जो विभाग करे, एता. वता शुद्ध व्यवहार न्यायोपार्जित धन करके अपने उदर पूरणे योग्य जो रसोई करी है, उत्तम कुल आचारपूर्वक पूर्वकर्म पश्चात्कर्मादि दोष रहित, ऐसा शुद्ध निर्दोष आहार भक्तिपूर्वक जो देवे, सो अतिथिसंविभाग व्रत है। तहां प्रथम दान देनेवाले में पांच गुण होवें, तो वो दाता शुद्ध होता है, सो पांच गुण लिखते है:
१. जैनमार्गी दाता को, शुद्ध पात्र की प्राप्ति पा करके, अपने घर में मुनि का दर्शन मात्र होने से, अंतरंग में बहुत दिन की चाहना के उल्लास से आनंद के आंसु आवें, जैसे अपना प्यारा, अति हितकारी वल्लभ विछड़ के परदेश में गया है, उसको मन से कभी विसारता नहीं, मिला ही चाहता है, उस मित्र के अकस्मात् मिलने से आनंद आंसु आवें, तैसे मुनि को घर में आया देख के आनंद आंसु लावे । अरु मन में विचारे कि मेरा बड़ा भाग्य है कि, ऐसा मुनि मेरे घर में आया है। अरु मैं कैसा हूं ! अनादि का भूला, द्रव्य संबल रहित, दरिद्र पीड़ित, ज्ञान शोचन रहित, अंधभाव करी