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जैनतत्त्वादर्श होता है। फिर भी हे स्वामी ! कृपा करके अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध, वस्त्र, पान, शय्या, संस्तारकादि से प्रयोजन होवे, तब अवश्य सेवक पर अनुग्रह करके पधारना । आप तो मुनिराज, गुणवान, बेपरवाह हो, आपको किसी बात की कमी नहीं, किसी के साथ प्रतिबन्ध नहीं, पवन की तरे प्रतिबन्ध से रहित हो, तो भी मेरे ऊपर जरूर कृपा करनी, एसे मुख से कहता हुआ अपने घर की सीमा तक पहुंचावे । यह तीसरा गुण है।
४. तहां से वन्दना करके पीछे आ कर भोजन करे, परंतु मन में आनंद समावे नहीं। विचारे कि, मेरा बड़ा भाग्योदय हुआ, आज कोई भली बात होगी, क्योंकि आज मुनि, निःस्पृही, सहज उदासी, स्त्रसुखविलासी को मैंने विनति करी, आहार दिया, अरु आहार देते वीच में कोई विघ्न नहीं हुआ, इस वास्ते मेरा बड़ा भाग्य है, क्या फिर भी कभी ऐसे मुनि का योग मिलेगा ! ऐसी अनुमोदना वारवार करे । यह चौथ गुण है।
५. जैसे कोई मंदभाग्यवान व्यापार करते हुए थोड़ा थोड़ा कमाता है, तिस को किसी दिन कोई सौदे में लाख रुपये की प्राप्ति हो जावे, तब वो कैसा आनंदित होते है। अरु फिर उस व्यापार की कितनी चाहना रखता है। इस से भी अधिक साधु को दान देने की चाहना श्रावक रक्खे। यह