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________________ अष्टम परिच्छेद १५७ पांचमा गुण है। इन पांच गुणयुक्त शुद्ध दान देवे, तो अतिथिसंविभाग व्रत होवे। इस व्रत के पांच अतिचार वनें, सो लिखते हैं: प्रथम सचित्तनिक्षेप अतिचार-सो सचित्त-सजीव पृथ्वी, जल, कुम्भ, चूल्हा, इन्धनादिकों के ऊपर न देने की बुद्धि से आहार को रख छोड़े। अरु मन में ऐसा विचारे कि, ए आहार साधु तो नहीं लेवेगा, परन्तु निमन्त्रणा करने से मेरा अतिथिसंविभाग व्रत पल जावेगा। __ दूसरा सचित्तपीहण अतिचार-सो सचित्त करके ढक छोड़े । सूरणकंद, पत्र, पुष्प, फलादि करके, न देने की बुद्धि से ढक छोड़े। तीसरा कालातिक्रम अतिचार-सो साधुओं के मिक्षा का काल लंघ करके अथवा भिक्षा के काल से पहिले अथवा साधु आहार कर चुके, तब आहार की निमन्त्रणा करे । चौथा परव्यपदेशमत्सर अतिचार-सो जब साधु मांगे तब क्रोध करे । तथा वस्तु पास में है, तो भी मांगने पर न देवे, अथवा इस कंगाल ने ऐसा दान दिया, तो मैं क्या इस से हीन हूं जो न देऊ ! इस भावना से देवे । पांचमा-गुड़, खण्ड प्रमुख अपनी वस्तु है, सो न देने की बुद्धि से औरों की कहे।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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