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जैन तत्त्वादर्श
हैं, सो जब घर में संपदा होवे, तब गिनती में तो उतने ही रक्खे, परन्तु तोल में वज़नदार दुगने तिगुने बनवावे, अरु मन में ऐसा विचारे कि मेरा व्रत तो अखंडित है; क्योंकि बरतनों की गिनती तो मेरे उतनी ही है । तथा कच्चे तोल -- परि. माण रक्खे थे, फिर पक्के तोल परिमाण रख लेवे ।
पांचमा द्विपदचतुष्पद - परिमाणातिक्रम अतिचार - सो दास दासी, घोड़ा, गाय, बलद प्रमुख अपने परिमाण से जब अधिक हो जावें, तब वेच गेरे ( डाले ), अथवा गर्म ग्रहण अवेरे ( देर में ) करावे, जितने गिनती में हैं, उनमें से प्रथम बेच के फिर गर्म ग्रहण करावे, अथवा भाई पुत्र के नाम करके रक्खे, तो पांचमां अतिचार लगता है ।
अथ छट्ठा, सातमा अरु आठमा, इन तीनों व्रतों को गुणव्रत कहते हैं । तिन में छठे व्रत में दिशाओं का विचार है, इस वास्ते इसका नाम दिकूपरिणाम व्रत है । अब तिस का स्वरूप लिखते हैं ।
पूर्व जो पांच अणुव्रत कहे हैं, तिन को इन तीनों व्रतों करके गुण वृद्धि होती है, इस वास्ते इन का नाम गुणनत है । क्योंकि जब दिशा परिमाणत्रत किया, तब तिस क्षेत्र से बाहिर के सर्व जीवों को अभयदान दिया, यह पहिले प्राणातिपातविरमण व्रत में गुणपुष्टि भई । तथा बाहिर के जीवों के साथ झूठ बोलना मिट गया, इह मृषावादविरमण व्रत को पुष्टि भई । तथा
गुणवत