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अष्टम परिच्छेद
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नियम परिमाण घर में पड़ा है, तब अधिक रखने की इच्छा से दूसरे के घर में रख छोड़े । जब चाहे तब ले आवे, अरु अज्ञान से ऐसा विचारे कि मैंने तो इच्छा परिमाण से अधिक रखने का नियम करा है, अरु यह तो दूसरों के घर में रक्खा है, इस वास्ते मेरे नियम में दूषण नहीं । तथा व्रत लेने के वक्त में कच्चे मन के हिसाब से अन्न रक्खा है । अरु जब परदेशांतर में गया, तब पक्के मन का वहां तोल जान कर अन्न भी पक्के मन के हिसाब से रक्खे | ऐसे विचार वाले को प्रथम अतिचार लगता है ।
दूसरा क्षेत्र परिमाण - अतिक्रम अतिचार - सो जब इच्छा परिमाण से अधिक घर हाट आदिक हौ आवे, तब विचली भीत तोड़ के दो तीन घर आदि का एक घर आदि बनावे | तथा दो तीन खेतों की विचली डौली तोड़ के एक बना लेवे । अरु भन में यह विचारे, कि मैंने तो गिनती रक्खी है, सो तो मेरा नियम अखंडित है, बड़ा कर लेने में क्या दूषण
है ? ऐसे करे, तो दूसरा अतिचार लगे ।
तीसरा रूप्यसुवर्ण परिमाण - अतिक्रम जव इच्छा परिमाण से अधिक होवे, तब गहने भारी तोल के बनवावे, तथा अपने भारी बनवावे |
अतिचार - सो अपनी स्त्री के
आभरण तोल में
चौथा कुप्यपरिमाण - अतिक्रम अतिचारतो त्रांबा, पीतल, कांसी प्रमुख के वरतन वगैरे जो गिनति में रक्खे