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अष्टम परिच्छेद
बाहिर के क्षेत्र की वस्तु की चोरी का त्याग हुआ, यह तीसरे व्रत को पुष्टि भई । तथा बाहिर के क्षेत्र की स्त्रियों के साथ मैथुन सेवने का त्याग हुआ, यह चौथे व्रत की पुष्टि भई । तथा नियम से बाहिर के क्षेत्र में क्रय विक्रय का निषेध भया, यह पांचमे व्रत की पुष्टि भई । इस वास्ते पांचों अणुव्रतों को यह तीनों व्रत गुणकारी है ।
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व्रत
तहां दिक्परिमाण व्रत - सो चारों दिशा, तथा चारों विदिशा, तथा ऊर्ध्व अरु अधो, इन दश दिशाओं दिक्परिमाण का परिमाण करे । तिस के दो भेद हैं । एक व्यवहार - सो अपनी काया से दशों दिशा में जाने का, तथा मनुष्य भेजने का, तथा व्यापार करने का परिमाण करे, उस को व्यवहार दिकू - परिमाण व्रत कहिये | दूसरा निश्चय -- सो जो कुछ नरकादि गति में गमन है, सो सर्व कर्म का धर्म है। जिस के वश पड़ के यह जीव चारों गति में भटकता है; परानुयायी चेतना हो रही है, इसी वास्ते जीव परभावानुसारी गतिभ्रमण करता है । परन्तु जीव तो शुद्ध चैतन्य, अगतिस्वभाव, तथा निश्चल स्वभाव है । ऐसा श्री जिनवाणी के उपदेश से समझ कर चेतना शुद्धस्वरूपानुयायी होवे । तब अपना अगति स्वभाव जान कर सर्व क्षेत्र से उदास रहे, समस्त क्षेत्र से अप्रतिबंधक भाव से वर्ते, सो निश्चय से दिक्परिमाण व्रत कहिये । इन दश दिशा का जो परिमाण, तिस के दो भेद हैं ।