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________________ ७८ जैनतत्त्वादर्श प्रथम जलमार्ग-सो जहाज़ नाबों करके इतने योजन अमुक दिशा में अमुक बंदर तथा अमुक द्वीप तक जाऊं, जेकर पवन, तथा वर्षा के वश से और दूर किसी बंदर में वह जावे तो आगार, अर्थात् व्रतमंग न होवे । अथवा अजानपने से-भूल चूक से किसी बंदर में चला जाऊं, उसका भी आगार है। - दूसरा स्थल का मार्ग-सो जिस जिस दिशा में जितने जितने योजन तक जाने का परिमाण करा है, तहां तक जाने की जयणा । जेकर चोर, म्लेच्छ, पकड़ के नियम-क्षेत्र से बाहिर ले जावे, तिस का आगार है । तथा ऊर्ध्व दिशा में बारां कोस तक जाने की जयणा रक्खे, तथा अघोदिशा में आठ कोस तक जाने की जयणा । परन्तु जो ऊंचा चढ़ के फिर नीचा उतरे, वो अघोदिशा में नहीं। तथा जितने क्षेत्र का परिमाण करा है, तिस से बाहिर का कोई पिछाणवाले पुरुष का पत्र आवे, सो वाच कर उसका उत्तर लिखना पड़े तिस का आगार है । परन्तु मै अपनी तरफ से विना कारण पत्र प्रमुख नहीं लिखूगा, तथा परदेश की विकथा सुनने का आगार । इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, सो कहते हैं। प्रथम ऊर्ध्वदिशापरिमाणाविक्रम अतिचार-सो अनाभोग से अथवा वे सुरती-बे खबरी से अधिक चला जावे तो प्रथम अतिचार । दूसरा अघोदिशापरिमाणातिक्रम अतिचार-पूर्ववत् । तीसरा तिरछीदिशापरिमाणातिकम अतिचार-ऊपर
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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