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________________ नवम परिच्छेद १९१ जलेन देहदेशस्य, क्षणं यच्छुद्धिकारणम् । प्रायोऽन्यानुपरोधेन, द्रव्यस्नानं तदुच्यते ।। [ श्लो०२] अर्थ:-देहदेश-त्वचामात्र ही की क्षणमात्र शुद्धि है, परन्तु प्रभूत काल नहीं। शुद्धि जो है, सो स्नानप्रयोजन भी प्रायः करके ही है, कुछ एकांत नहीं है। क्योंकि अतिसारादि रोग वाले को क्षणमात्र भी शुद्धि नहीं हो सकती है। धोने योग्य मैल से अन्य दूसरा मैल नासिकादि अन्तर्गत जो है, सो भी स्नान से दूर नहीं होता है। अथवा पानी से और जीवों की हिंसा न करने से जो स्नान है, सो बाह्य स्नान है । जो पुरुष स्नान करके भगवान् की तथा साधु की पूजा करे, तिस का स्नान भी अच्छा है, क्योंकि भावशुद्धि का निमित्त है। स्नान करने में अपकाय के जीवों की विराधना भी है, तो भी सम्यग्दर्शन की शुद्धिरूप गुण हैं । यदुवं पूआए कायवहो, पडिकुट्टो सोउ किंतु जिणपूआ। सम्मत्त सुद्धिहेउत्ति भावणीया उ निरवजा ।। अर्थः--कोई कहते हैं कि, पूजा करने से जीवों का नाश होता है, अरु नीववध का तो शास्त्र में निषेध करा है वास्ते पूजा न करनी चाहिये । इसका उत्तर कहते है कि,
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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