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जैनतत्त्वादर्श पूजा जो जिनराज की है, सो सम्यक्त्व निर्मल करनेवाली है। इस वास्ते जिनपूजा निरवध है । अतः देवपूजा के वास्ते गृहस्थ को स्नान करना कहा है तथा शरीर के चैतन्य सुख के वास्ते भी स्नान है। परन्तु जो स्नान करने से पुण्य मानते हैं, सो बात मिथ्या है, क्योंकि जो कोई तीर्थ में भी जान कर स्नान करता है, तिसको भी शरीरशुद्धि के सिवाय और कुछ फल नहीं होता है । यह बात अन्य दर्शन के शास्त्रों में भी कही है ! उक्तं च स्कंदपुराणे काशीखण्डे षष्ठाध्याये
मृदो भारसहस्रण, जलकुंभशतेन च । न शुध्यंति दुराचाराः, स्नानतीर्थशतैरपि ॥१॥ जायते च नियंते च, जलेष्वेव जलौकसः। न च गच्छति ते स्वर्गमविशुद्धमनोमलाः ॥२॥ चित्तं शमादिभिः शुद्धं, वदनं सत्यभाषणैः । ब्रह्मचर्यादिभिः काया, शुद्धो गंगां विनाप्यसौ ॥३॥ चित्तं रागादिभिः क्लिष्टमलीकवचनैर्मुखम् । जीवहिंसादिभिः कायो, गंगा तस्य पराङ्मुखी ॥४॥ परदारापरद्रव्यपरद्रोहपराङ्मुखः । गंगाप्याह कदागत्य, मामयं पावयिष्यति ॥ ५॥