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नवम परिच्छेद जल से स्नान करने से असंख्य जीवों की विराधना होती है। इस वास्ते पुण्य नहीं है। जल में जीवों का होना मीमांसा शास्त्र से भी सिद्ध होता है। यदुक्तं उत्तरमीमांसायाम्
लूतास्यतंतुगलिते, ये * क्षुद्राः संति जंतवः। सूक्ष्मा भ्रमरमानास्ते, नैव मांति त्रिविष्टपे ।।
किसी के स्नान करे भी जेकर गुमडादि में से राध आदि सवे, तो तिस ने अंगपूजा फूलादिक से आप नहीं करनी, वह दूसरों से करावे । अरु अग्रपूजा तथा भावपूजा आप भी करे, तो कुछ दोष नहीं। थोड़ा सा भी अपवित्र होवे, तब देव का स्पर्श न करे। स्नान करके पवित्र मृदु, गंध, काषायिकादि वस्त्र, अंग
लूइना, पोतिया छोड़ करके पवित्र वस्त्रांतर पूजा के वस्त्र पहिरने की युक्ति से पानी के भीजे पगों से
धरती को अस्पर्शता हुआ पवित्र स्थान में आ करके उत्तर के सन्मुख हो करके अच्छी तरे मनोहर नवा वन जो फटा हुआ तथा सिला हुआ न होवे, अरु वर्ण में धवल होवे, ऐसा वस्त्र पहिरे। तथा जो वस कर्टि में पहिरा होवे, तथा जिस वस्त्र से दिशा गया होवे, तथा जिस वस्त्र से मैथुन सेवन होवे, तिस वस्त्र को पहिर के पूजादि न करे।
* 'विन्दौ' ऐसा पाठान्तर है ।