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जैन तत्त्वादर्श
तथा एक वस्त्र पहिन के भोजन तथा देवपूजादि न करे । तथा स्त्री, कंचुकी विना पहने देवपूजा न करे । इस रीति से पुरुष को दो वस्त्र तथा स्त्री को तीन वस्त्र के बिना पूजा करनी नहीं कल्पती है । देवपूजा में धोती अतिविशिष्ट धवल करनी चाहिये । निशीथचूर्णी तथा श्राद्धदिनकृत्यादि शास्त्रों में ऐसा ही लिखा है । तथा पूजाषोडश में ऐसा मी लिखा है कि, रेशमी आदि जो सुंदर वस्त्र लाल पीला होवे, सो भी पूजा में पहिरे तो ठीक है, तथा * " एगसाडियं उत्तरासंगं करेड़ " इत्यादि आगम के प्रमाण से उत्तरासंग अखण्ड वस्त्र का करे, सिये हुए दो टुकड़ों का वस्त्र न कल्पे । तथा जिस रेशमी कपड़े से भोजनादि करे, अरु मन में समझे कि, यह तो सदा पवित्र है, तो भी तिस से पूजा न करे । तथा जिस वस्त्र को पहिर के पूजा करे, उसको भी वारंवार पहिनने के अनुसार घोवावे, धूप देकर पवित्र करे । धोती थोड़े ही काल तक पहननी चाहिये, उस धोती से पसीना श्लेष्मादि न दूर करना चाहिये । क्योंकि उससे अपवित्रता हो जाती है । तथा पहिने हुए वस्त्रों के साथ पूजा के वस्त्र छुआने नहीं चाहियें । दूसरों की पहनी हुई घोती पहननी न चाहिये । तथा बाल, वृद्ध, स्त्री के पहनने में आई होवे, तो विशेष करके न पहननी चाहिये ।
* भगव० श० ३ में यह पाठ है ।