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जैनतत्त्वादर्श, निरपराध को भी. दुःख देता है। तथा अपने शरीर में, तथा अपने पुत्र, पुत्री, न्याती, गोती के मस्तक में तथा कर्णादि अवयव में तथा अपने मुखके दांत में कीड़ा आदि पड़े, तो तिन के दूर करने के वास्ते कीड़ों की जगा में औषधि लगानी पड़ती है। इन जीवों ने श्रावक का कुछ अपराध भी नही करा है, क्योंकि वो विचारे अपने कर्मों के वश से ऐसी योनि में उत्पन्न हुए हैं, कुछ श्रावक का बुरा करने की भावना से उत्पन्न नहीं हुए हैं। परन्तु उनकी हिसा भी श्रावक से त्यागी नहीं जाती है। इस वास्ते फिर अर्द्ध जाता रहा, शेष सवा विसवा की दया रह गई। यह सवा विसवा दया भी जो शुद्ध श्रावक होवे, सो पाल सकता है। एतावता संकल्प से निरपराध त्रस जीवों को कारण के विना हनूं-मारूं नहीं, यह प्रतिज्ञा जहां लगी अपनी शक्ति रहे, तहां लगी पाले । निर्वसपना न करे, सदा मन में यह भावना रक्खे, कि मेरे से कोई जीव मत मर जाय। • तथा घर में आरम्भ करते भी यल करे । तथा जो लकड़ी ' जलाने वास्ते लेवे, सो सड़ी हुई न लेवे। 'यतना का किन्तु आगे को जिस में जीव न पड़े, ऐसी स्वरूप पक्की, सूखी लकड़ी लेवे, और रसोई के
वक्त लकड़ी को झटका कर जीव रहित करके जलावे । तथा घी, तेल, मीठा प्रमुख रसभरी वस्तु के वासन का मुख बांध करयल से रक्खे, उघाड़ा न रक्खे ।